उलूक टाइम्स: गूगल
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मंगलवार, 22 जुलाई 2014

दुकानों की दुकान लिखने लिखाने की दुकान हो जाये

क्या ऐसा भी
संभव है
कि किसी दिन
लिखने लिखाने
के विषय ही
खत्म हो जायें
क्या लिखें
किस पर लिखें
कैसे लिखें
क्यों लिखें
जैसे विषय भी
दुकान पर किसी
बिकना शुरु हो जायें
लिखने लिखाने
के भी शेयर बनें
और स्टोक मार्केट में
खरीदे और बेचे जायें
लेखकों के बाजार हों
लेखकों की दुकान हों
लेखकों के मॉल हों
लेखक माला माल हों
लेखक ही दुकानदार हों
लेखक ही खरीददार हों
माँग और पूर्ति
के हिसाब से
लिखने लिखाने की
बात होना शुरु हो जाये
जरूरतें बढ़े
लिखने लिखाने
पढ़ने पढ़ाने की
लेखक व्यापारी और
लेखन बड़ा एक
व्यापार हो जाये
सपने देखने से
किसने किसको
रोका है आज तक
क्या पता
माईक्रोसोफ्ट या
गूगल की तरह
लिखना लिखाना
सरे आम हो जाये
‘उलूक’ नजर अपनी
गड़ाये रखना
क्या पता तेरे लिये भी
कभी अपनी उटपटांग
सोच के कारण ही
किसी लिखने लिखाने
वाली कम्पनी के
अरबपति सी ई ओ
होने का पैगाम आ जाये ।
(लेखकों की राय
आमंत्रित है
'उलूक' नहीं
गूगल पूछ रहा है
आजकल सबको
मेल भेज भेज कर :) )

रविवार, 15 जून 2014

पिताजी आइये आपको याद करते है आज आप का ही दिन है


आधा महीना जून का पूरा हुआ 
पता चलता है पितृ दिवस होता है इस महीने में 
कोई एक दिन नहीं होता है कई दिन होते हैं
अलग अलग जगह पर अपने अपने हिसाब से

क्या गणित है इसके पीछे कोशिश नहीं की जानने की कभी
गूगल बाबा को भी पता नहीं होता है

यूँ भी पिताजी को गुजरे कई बरस हो गये
श्राद्ध के दिन पंडित जी याद दिला ही देते है
सारे मरने पैदा होने के दिनों का
उनके पास लेखा जोखा किसी पोटली में जरूर बंधा होता है

आ जाते है सुबह सुबह
कुछ तर्पण कुछ मंत्र पढ़ कर सुना देते हैं
अब चूंकि खुद भी पिता जी बन चुके हैं
साल के बाकी दिन बच्चों की आपा धापी में ही बिता देते हैं

पिताजी लोग शायद धीर गंभीर होते होंगे
अपने पिताजी भी जब याद आते हैं 
तो कुछ ऐसे जैसे ही याद आते हैं

बहुत छोटे छोटे कदमों के साथ
मजबूत जमीन ढूँढ कर उसमें ही रखना पाँव
दौड़ते हुऐ कभी नहीं दिखे हमेशा चलते हुऐ ही मिले
कोई बहुत बड़ी इच्छा आकाँक्षा 
होती होगी उनके मन में ही कहीं 
दिखी नहीं कभी भी

कुछ सिखाते नहीं थे कुछ बताते नहीं थे
बस करते चले जाते थे कुछ ऐसा 
जो बाद में अब जा कर पता चलता है
बहुत कम लोग करते हैं ज्यादातर
अब कहीं भी वैसा कुछ नहीं होता है

गाँधी जी 
के जमाने के आदमी जरूर थे
गाँधी जी की बाते कभी नहीं करते थे
और समय भी हमेशा एक सा कहाँ रहता है
समय भी समय के साथ
बहुत तेज और तेज बहने की कोशिश करता रहता है

पिताजी का जैसा
आने वाला पिता बहुत कम होता हुआ दिखता है
क्या फर्क पड़ता है पिताजी आयेंगे पिताजी जायेंगे
बच्चे आज के कल पिताजी हो जायेंगे
अपने अपने पिताजी का दिन भी मनायेंगे
भारतीय संस्कृति में
बहुत कुछ होने से कुछ नहीं कहीं होता है

एक एक करके तीन सौ पैंसठ दिन किसी के नाम कर के
गीत पश्चिम या पूरब से लाकर किसी ना किसी बहाने से
किसी को याद कर लेने की दौड़ में
हम अपने आप को कभी भी दुनियाँ में
किसी से पीछे होता हुआ नहीं पायेंगे

‘उलूक’ मजबूर है तू भी आदत से अपनी
अच्छी बातों में भी तुझे छेद हजारों नजर आ जायेंगे
ये भी नहीं  आज के दिन ही कुछ अच्छा सोच लेता

डर भी 
नहीं रहा कि
पिताजी पितृ दिवस के दिन ही नाराज हो जायेंगे।

चित्र साभार: 
https://www.gograph.com/

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

निपट गये सकुशल कार्यक्रम

गांंधी जी
और शास्त्री जी

दो एक दिन से
एक बार फिर से 

इधर भी और उधर भी
नजर आ रहे थे

कल का पूरा दिन
अखबार टी वी समाचार
कविता कहानी और
ब्लागों में छा रहे थे

कहीं तुलना हो रही थी
एक विचार से
किसी को इतिहास
याद आ रहा था

नेता इस जमाने का
भाषण की तैयारी में
सत्य अहिंसा और
धर्म की परिभाषा में
उलझा जा रहा था

सायबर कैफे वाले से
गूगल में से कुछ
ढूंंढने के लिये गुहार
भी लगा रहा था

कैफे वाला उससे
अंग्रेजी में लिख कर
ले आते इसको

कहे जा रहा था

स्कूल के बच्चों को भी
कार्यक्रम पेश करने
को कहा जा रहा था

पहले से ही बस्तों से
भारी हो गई
पीठ वालो का दिमाग
गरम हुऎ जा रहा था

दो अक्टूबर की छुट्टी
कर के भी सरकार को
चैन कहाँ आ रहा था

हर साल का एक दिन
इस अफरा तफरी की
भेंट चढ़ जा रहा था

गुजरते ही जन्मोत्सव
दूसरे दिन का सूरज
जब व्यवस्था पुन:
पटरी पर  होने का
आभास दिला रहा था

मजबूरी का नाम
महात्मा गांंधी होने का
मतलब एक बार फिर
से समझ में आ रहा था ।

रविवार, 10 जून 2012

लेखक मुद्दा पाठक


कोई
चैन से 
लिखता है
कोई बैचेनी 
सी दिखाता है

डाक्टर 
के पास 
दोनो ही
में से
कोई 
नहीं जाता है

लिख लेने 
को ही
अपना 
इलाज बताता है 



विषय
हर 
किसी का
बीमारी
है 
या नहीं 
की 
जानकारी 
दे जाता है

कोई मकड़ी 
की
टाँगों में 
उलझ जाता है

कोई किसी 
की
आँखों में 
घुसने का 
जुगाड़ बनाता है

किसी को 
सत्ता पक्ष 
से
खुजली 
हो जाती है

विपक्षियों 
की
उपस्थिति
किसी पर 
बिजली गिराती है

पाठक भी 
अपनी पूरी
अकड़ दिखाता है

कोई क्या 
लिखता है
उस पर 
कभी कभी
दिमाग लगाता है

जो खुद 
लिखते हैं
वो लिखते 
चले जाते हैं

कुछ नहीं 
लिखने वाले

इधर उधर 
नजर मारते
हुवे

कभी 
नजर आ जाते हैं

हर मुद्दे पर 
कुछ ना कुछ
लिखा हुवा 
मिल
ही जाता है

गूगल 
आसानी से 
उसका पता 
छाप ले जाता है

किसी को 
एक
पाठक भी 
नहीं मिल पाता है

कोई सौ सौ 
को लेकर
अपनी ट्रेन 
बनाता है

कुछ भी हो 
लिखना पढ़ना 
बिना रुके
अपने रास्ते 
चलता चला 
जाता है

मुद्दा भी 
मुस्कुराता है

अपने
काम पर 
मुस्तेदी से 
लगा हुवा

इसके बाद
भी 
नजर आता है।