अखबार
में छपी
में छपी
मेरी
एक कविता
एक कविता
कुछ
ने देख कर
ने देख कर
कर दी
अनदेखी
अनदेखी
कुछ
ने डाली
ने डाली
सरसरी नजर
कुछ
ने की
ने की
कोशिश
समझने की
और
दी
प्रतिक्रिया
जैसे
कहीं पर
कहीं पर
कुछ हो गया हो
किसी
का जवान लड़का
का जवान लड़का
कहीं खो
गया हो
हर
किसी
किसी
के भाव
चेहरे पर
नजर
आ जा रहे थे
आ जा रहे थे
कुछ
बता रहे थे
कुछ
बस खाली
मूँछों
के पीछे
मुस्कुरा रहे थे
कुछ
आ आ कर
फुसफुसा रहे थे
फंला फंला
क्या
कह रहा था
बता के
भी
जा रहे थे
ऎसा
जता रहे थे
जैसे
मुझे
मेरा कोई
चुपचाप
किया हुआ
गुनाह
दिखा रहे थे
श्रीमती जी
को मिले
मोहल्ले के
एक बुजुर्ग
अरे
रुको
सुनो तो
जरा
क्या
तुम्हारा वो
नौकरी वौकरी
छोड़ आया है
अच्छा खासा
मास्टर
लगा तो था
किसी स्कूल में
अब क्या
किसी
छापेखाने
में
काम पर
काम पर
लगवाया है
ऎसे ही
आज
जब अखबार में
जब अखबार में
उसका नाम
छपा हुआ
मैंने देखा
तुम
मिल गयी
रास्ते में
तो पूछा
ना
खबर थी वो
ना कोई
विज्ञापन था
कुछ
उल्टा सुल्टा
सा
लिखा था
लिखा था
पता नहीं
वो क्या था
अंत में
उसका
नाम भी
छपा था
मित्र मिल गये
बहुत पुराने
घूमते हुवे
उसी दिन
शाम को
बाजार में
लपक
कर आये
हाथ मिलाये
और बोले
पता है
अवकाश पर
आ गये हो
आते ही
अखबार
में छा गये हो
अच्छा किया
कुछ छ्प छपा
भी जाया करेगा
जेब खर्चे के लिये
कुछ पैसा भी
हाथ
हाथ
में आया करेगा
घर
वापस पहुंचा
तो
पड़ोसी की
पड़ोसी की
गुड़िया आवाज
लगा रही थी
जोर जोर से
चिल्ला रही थी
अंकल
आप की
कविता आज के
अखबार में आई है
मेरी मम्मी
मुझे आज
सुबह दिखाई है
बिल्कुल
वैसी ही थी
जैसी मेरी
हिन्दी की
किताब में
होती है
टीचर
कितनी भी
बार समझाये
लेकिन
समझ से
बाहर होती है
मैं उसे
देखते ही
समझ गयी थी
कि ये जरूर
कोई कविता है
बहुत ही
ज्यादा लिखा है
और
उसका
मतलब भी
कुछ नहीं
निकलता है।