उलूक टाइम्स: बंद
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शनिवार, 13 अप्रैल 2019

खुले में बंद और बंद में खुली टिप्पणी करना कई सालों की चिट्ठाकारी के बाद ही आ पाता है

टिप्पणी
में

कहीं
ताला लगा
होता है

कहीं कोई

खुला
छोड़ कर भी
चला जाता है

टिप्पणी
करने

खुले में

टिप्पणी
करने

बंद में

कब
कौन कहाँ

और

किसलिये
आता जाता है

समझ में

सबके
सब आता है

दो चार
में से एक

'सियार'

जरा
ज्यादा तेज
हो जाता है

बिना
निविदा
पेश किये

ठेकेदारी ले लेना

ठीक नहीं
माना जाता है

आदमी
पिनक में

ईश्वरीय
होने की

गलतफहमी
पाल ले जाता है

अपनी
गिरह में

झाँकना
छोड़ कर

किसी
के भी
माथे पर

‘पतित’

चिप्पी
चिपकाना
चाहता है

गिरोह
बना कर
अपने जैसों के

किसी
को भी
घेर कर
लपेटना
चाहता है

इतना
उड़ना भी
ठीक नहीं

गालियाँ
नहीं देता
है कोई

का मतलब

गाली देना
नहीं आना

नहीं
हो जाता है

देश
शुरु होता है

घर से
मोहल्ले से
शहर से

छोटे छोटे
जेबकतरों से

निगाह
फेर कर

राम भजन
नहीं गाया
जाता है

करिये
किसी से
भी प्रेम

अपनी
औकात
देख कर ही

प्रेम
किया जाता है


मत बनिये
थानेदार

मत बनिये
ठेकेदार

हर कोई

दिमाग
अपने हाथ में

लेकर
नहीं आता है

थाना
न्यायालय
न्याय व्यवस्था

से ऊपर

अपने
को रखकर

तानाशाह

नहीं
बना जाता है

फटी
सोच से
झाँकता हुआ

फटा हुआ
दिमाग

बहुत
दूर से
नजर
आ जाता है

लोकतंत्र
का मतलब

गिरोह
बना कर

किसी की
उतारने की सोच

नहीं माना जाता है

इशारों में
कही बात
का मतलब

हर इशारा
करने वाला

अच्छी
तरह से
समझ जाता है

‘उलूक’
जानता है

'उल्लू का पट्ठा'
का प्रयोग

उल्लू
और
उसके
खानदान
के लिये ही
किया जाता है

और
सब जानते हैं

टिप्पणी
करने

खुले में

टिप्पणी
करने

बंद में

कब
कौन कहाँ

और

किसलिये
आता जाता है ।

चित्र साभार: https://pixy.org

शनिवार, 29 नवंबर 2014

अंधेरा बाहर का कभी भी अंदर का नहीं होता है

अचानक
किसी क्षण
आभास
होता है
और याद
आना शुरु
होता
है अंधेरा
जिसे बहुत
आसान है
देखना और
टटोलना
अपने ही अंदर
बस आँखें
बंद करिये
और शुरु
हो जाईये
बाहर उजाले
में फैले हुऐ
अंधेरे के
आक्टोपस की
भुजाओं से
घिरे घिरे
आखिर कब
तक इंतजार
किया जा
सकता है
घुटन होने
के लिये
जरूरी नहीं
है एक
बंद कमरा
धूल और धुऐं
से भरा हुआ
साँस बंद
होती हुई
सी महसूस
होना शुरु
होने लगती है
कभी किसी
साफ सुथरे
माहौल में भी
ऐसे ही समय
पर बहुत
काम आता है
अपने अंदर
का अंधेरा
जो दे सकता
है सुकून
बस जरूरत
होती है उसे
टटोलने की
हाथों की
उँगलियों से नहीं
आखों की बंद
पुतलियों से ही
बस शर्त है
आँख बंद होते ही
देखना शुरु
नहीं करना है
कोई एक सपना
अंधेरे में फैले हुऐ
सपने कभी
किसी के
अपने नहीं होते हैं
अपने ही अंदर
का अंधेरा जितना
अपना होता है
उतना बाहर
का उजाला
नहीं होता है
बस टटोलना
आना जरूरी
होता है
जिसे सीख
लेने के लिये
जरूरी होता है
कभी कुछ
देर आँखे
बंद करना
और इस
बंद करने
का मतलब
बंद करना
ही होता है ।

चित्र साभार: tessbalexander.wordpress.com

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

जानवर पढ़ के इस लिखे लिखाये को कपड़ा माँगने शायद चला आयेगा


नंगों के लिये कपड़े लिख देने से
ढका कुछ भी नहीं जायेगा
कुछ नहीं किया जा सकता है
कुछ बेशर्मियों के लिये
जिन्हें ढकने के लिये
पता होता है कपड़ा ही छोटा पड़ जायेगा

आँखों को ढकना सीखना सिखाना
चल रहा होता है सब जगह जहाँ
मालूम होता है अच्छी तरह
एक छोटे से कपड़े के टुकड़े से भी काम चल जायेगा

दिखता है सबको सब कुछ
दिख गया लेकिन किसी से नहीं कहा जायेगा
ऐसे देखने वालों की आँखों का देखना
देखने का चश्मा कहाँ मिल पायेगा

दिखने को लिखना बहुत ही आसान है
मगर यहीं पर हर कोई
गंवार और अनपढ़ बन जायेगा

लिखता रहेगा रात भर अंधेरे को ‘उलूक’
हमेशा ही सवेरे के आने तक 
सवेरा निकलेगा उजाले के साथ
आँखों में धूप का चश्मा बहुत काला मगर लगायेगा

जल्दी नहीं आयेगा समझ में कुछ
कुछ समय खुद ही समय के साथ सिखायेगा

नंगेपन को ढकना नहीं है
लिखना सीखना है ज्यादा जरूरी
लिखते लिखते नंगापन ही एक फैशन भी हो जायेगा

कपड़ा सोचना कपड़ा लिखना
कपड़े का इतिहास बने या ना बने
बंद कुछ पढ़ने से खुला सब पढ़ना
हमेशा ही अच्छा कहा जायेगा ।

चित्र साभार: www.picsgag.com

सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

बंद करके आँखों को कभी उजाले को अंंधेरे में भी देखा जाये

आँखें बंद कर
कुछ दिनों
कुछ कह
लिया जाये
अंंधेरे में अंंधेरा
जला कर भी
कुछ कर
लिया जाये
रोज दिखती है
बिना चश्मे
उजाले की
करामातें
कुछ नया करें
किसी दिन और
कुछ भी नहीं
कहीं देखा जाये
रातों में होती है
रोशनी और
बहुत होती है
चाँद तारों को भी
अवकाश दे
के देखा जाये
एक तुम आते
हो खयालों में
एक वो आते जाते हैं
किसी और के
आने जाने का भी
कभी सोचा जाये
मुद्दतें हो गई हैं
पता चल भी
नहीं पाया यूँ भी
अपने होने ना होने
का ही कभी कुछ
पता कर लिया जाये
‘उलूक’
अंधेरे से रखनी
भी है दोस्ती तुझे
तेरी किस्मत भी है
कुछ शर्म
और लिहाज
उसका ही सही
कभी कर
लिया जाये
आने जाने
से रोका
नहीं है तुझे
भी किसी
ने कभी
उजाले में अंंधेरे
के उसूलों को
अंंधेरे में आजमा
कर कहीं अंंधेरे में
ही कभी देखा जाये
खुली आँखो से
देखती है दुनियाँ
सभी कुछ हमेशा ही
बंद कर के भी
आँखों से देखा
जाता है कुछ कभी
बस यही और यही
देखने के लिये
ही सही कभी
ये भी देखा जाये ।

चित्र साभार: http://www.prwatch.org

शनिवार, 17 मई 2014

कुछ भी कह देने वाला कहाँ रुकता है उसे आज भी कुछ कहना है

एक सपने बेचने
की नई दुकान का
उदघाटन होना है
सपने छाँटने के लिये
सपने बनाने वाले को
वहाँ पर जरूरी होना है
आँखे बंद भी होनी होगी
और नींद में भी होना है
दिन में सपने देखने
दिखाने वालों को
अपनी दुकाने अलग
जगह पर जाकर
दूर कहीं लगानी होंगी
खुली आँखों से सपने
देख लेने वालों को
उधर कहीं जा कर
ही बस खड़े होना है
अपने अपने सपने
सब को अपने आप
ही देखने होंग़े
अपने अपनो के सपनों
के लिये किसी से भी
कुछ नहीं कहना है
कई बरसों से सपनों
को देखने दिखाने के
काम में लगे हुऐ
लोगों के पास
अनुभव का प्रमाण
लिखे लिखाये कागज
में ही नहीं होना है
बात ही बात में
सपना बना के
हाथ में रख देने
की कला का प्रदर्शन
भी साथ में होना है
सपने पूरे कर देने
वालों के लिये दूर
कहीं किसी गली में
एक खिलौना है
सपने बनने बनाने
तक उनको छोड़िये
उनकी छाया को भी
सपनों की दुकान के
आस पास कहीं पर
भी नहीं होना है ।

रविवार, 29 जनवरी 2012

प्रचार बंद हुवा

शक्ति प्रदर्शन
चिल्ल पौं
हल्ला गुल्ला
भौं भौं
सब आज
हो गया पूरा
पांच बजे
और आम
जनता का
हुवा सवेरा
कान पक
गये थे
इतने दिनो
के शोर से
कल से
शायद बाग
की तितलियाँ
दिखाई दे जायेंगी
मधुमक्खियाँ वैसे
तो रोज ही
गुनगुनाया
करती ही हैं
पर अब उनकी
भिन भिन
सुनाई दे जायेंगी
नारे लगाते लगाते
थक गये होंगे
जो बेचारे
थोड़ा राहत
आज पायेंगे
नमक के
पानी से गरारे
भी शायद कुछ के
घरवाले करवायेंगे
जोश देखकर
लोगों का
वैसे आज मन
खुश बहुत हो गया
था मेरा
लग रहा था जैसे
नेता इस जलूस
के इसके बाद
बोर्डर पर
लड़ने जायेंगे ।

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

लोकतंत्र के घरों से

एक बड़े से
देश के
छोटे छोटे
लोकतंत्रों
में आंख बंद
और
मुह बंद
करना सीख
वरना भुगत
अरे हम अगर
कुछ खा रहे हैं
तो देश का
लोकतंत्र भी
तो बचा रहे हैं
देख नहीं रहा है
कितनी बड़ी
बीमारी है
एक बड़े
लोकतंत्र
के सफाई
अभियान
की बड़ी सी
तैयारी है
सारी आँखे
लगी हुवी है
भोर ही से
बाबाओं की ओर
बता अगर हम
ही नहीं जाते
जलूस में टोपियां
नहीं दिखाते
तो तुम्हारे
बाबा जी क्या
कुछ कर पाते
सीख कुछ
तो सीख
घर की बात
घर में रख
बाहर जा
अपने को परख
अरे बेवकूफ
खा भी ले
थोड़ी सी घूस
कुछ नहीं जायेगा
थोड़ा जमा करना
थोडा़ बाबा को देना
छोटा पाप कटा लेना
बड़े पुण्य से
एक बड़े लोकतंत्र
को बचा
छोटा लोकतंत्र
अगर डूब भी
जायेगा तेरा
क्या जायेगा
सोच बड़ा अगर
भूल से गया डूब
छोटा क्या कहीं
रह पायेगा
और
तू कल किसको
फिर मुंह दिखायेगा ?

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

गौरैया

गौरैया
रोज की तरह
आज 
सुबह

चावल
के
चार दाने
खा के
उड़ गयी

गौरैया
रोज आती है

एक मुट्टी
चावल
से
बस चार दाने
ही
उठाती है

पता नहीं क्यों

गौरेया
सपने नहीं देखती
होगी शायद

आदमी
चावल के बोरों
की
गिनती करते
हुवे
कभी नहीं थकता

चार मुट्ठी चावल
उसकी किस्मत
में होना
जरूरी 
तो नहीं

फिर भी
अधिकतर
होते ही हैं
उसे मालूम है
अच्छी तरह

जाते जाते
सारी बंद मुट्ठियां
खुली रह जाती हैंं 

और
उनमें
चावल 
का
एक दाना
भी नहीं होता

गौरैया
शायद ये
जानती होगी ।