उलूक टाइम्स: अंधा
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गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

रात का गंजा दिन का अंधा ‘उलूक’ बस रायता फैला रखा है

बहुत कुछ
कहना है
कैसे
कहा जाये
नहीं कहा
जा सकता है

लिखना
सोच के
हिसाब से
किसने
कह दिया
सब कुछ
साफ साफ
सफेद लिखा
जा सकता है

सब दावा
करते हैं
सफेद झूठ
लिखते हैं

सच
लिखने वाले
शहीद हो
चुके हैं
कई जमाने
पहले
ये जरूर
कहा जा
सकता है

लिखने
लिखाने
के कोर्ट
पढ़े लिखे
वकील
परिपक्व
जज
होते होंगे
बस इतना
कहा जा
सकता है

सबको पता
होता है
सब ही
जानते है
सबकुछ
कुछ
कहते हैं
कुछ कुछ
पढ़ते हैं
कुछ
ज्यादा
टिप्पणी
नहीं देते हैं
कुछ
दे देते हैं
यूँ ही
देना है
करके कुछ
कुछ
अपने अपने
का रिश्ता
अपने अपने
का धंधा
लिखने
लिखाने
ने भी
बना रखा है

‘उलूक’
खींच
अपने बाल
किसी ने
रोका
कहाँ है
बस मगर
थोड़ा सा
हौले हौले

जोर से
खींचना
ठीक नहीं
गालियाँ
खायेंगे
गालियाँ
खाने वाले
कह कर
दिन की
अंधी एक
रात की
चिड़िया को
सरे आम
गंजा बना
रखा है।

चित्र साभार: Dreamstime.com

रविवार, 20 नवंबर 2016

तालियाँ एक हाथ से बज रही होती हैं उसका शोर सब कुछ बोल रहा होता है

तालियों के
शोर के बीच
बोलने की
बेवकूफी
करता है

फिर ढूँढता
भी है अपनी
ही आवाज को

कान तक
बहुत कुछ
पहुँच रहा
होता है
उसमें खुद
का बोला
गया कुछ
नहीं होता है

प्रकृति
बहुत कुछ
सिखाती है
अपने ही
आसपास की

लेकिन
खुली आँख
का अँधा
नयनसुख
अपने ही
चश्मे का
आईना बना
अपनी ही
जुल्फों में
अपनी ही
बेखुदी से
खेल रहा
होता है

सोचता ही
नहीं है
जरा सा भी
कि सियारों
का हूँकना
अकेला कभी
नहीं होता है

आवाज से
आवाज
को मिलाता
दूसरा तीसरा
भी कहीं
आसपास
ही होता है

कुत्तों का
भौंकना
तक उस
माहौल में
अपने मूल
को भूल कर
सियारों के
ही अन्दाज
की उसी
आवाज में
अपने आप
ही अपनी
आवाज को
तोल रहा
होता है

हर तरफ
हुआँ हुआँ
का शोर ही
जो कुछ भी
जिसे भी
बोलना
होता है
बोल रहा
होता है

तालियाँ
ना सियारों
को आती
हैंं बजानी
ना कुत्तों
का ध्यान
तालियों के
शोर की
ओर हो
रहा होता है

‘उलूक’
कानों
में अपने
अपने ही
हाथ लगाये
अपना
ही कहा
अंधेरे में
ढूँढने की
खातिर
डोल रहा
होता है

कुछ नहीं
सुनाई देता
है कहीं से
भी उसे

सुनाई भी
कैसे दे

जब
हर समय
हर तरफ
एक हाथ से
बज रही
तालियों
का शोर
ही सब
कुछ बोल
रहा होता है ।

चित्र साभार: k--k.club

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

देखना/ दिखना/ दिखाना/ कुछ नहीं में से सब कुछ निकाल कर ले आना (जादू)

गाँधारी ने
सब कुछ
बताया
कुछ भी
किसी से
नहीं छिपाया
वैसा ही
समझाया
जैसा
धृतराष्ट्र ने
खुद देखा
और देख कर
उसे दिखाया

धृतराष्ट्र
ने भी
सब कुछ
वही कहा
जो घर
घर में
रखी हुई
संजयों की
आँखोँ ने
संजयों को
दिखाया

संजयों
को जो
समझाया
गया
अपनी समझ
को बिना
तकलीफ दिये
उन्होने भी
ईमानदारी
के साथ
अपने धृतराष्ट्र
की आन
की खातिर
आगे को
बढ़ाया

परेशान
होने की
जरूरत
नहीं है
अगर
आँख वाले
को वो सब
आँख फाड़
कर देखने
से भी नजर
नहीं आया

एक नहीं
हजार
उदाहरण हैं
कुछ कच्चे हैं
कुछ पके
पकाये हैं

असम्भव
नहीं है
एक देखने
वाले को
अपनी
आँख पर
भरोसा
नहीं होना
सम्भव है
देखने वाले
की आँख का
खराब होना

आँख खराब
होने की
उसे खुद ही
जानकारी
ना होना

दूरदृष्टि
दोष होना
निकट दृष्टि
दोष होना
काला या
सफेद
मोतियाबिंद
होना
एक का
दो और
दो का एक
दिख
रहा होना

फिर ऐसे में
वैसे भी
किसी से
क्या कहना
अच्छा है
जिसे जो
दिख रहा हो
देखते
रहने देना

किसी
से कहें
या ना
कहें पर
बहुत
जरूरी है
गाँधारी को
क्या दिखा
जरूर देखने
के लिये
अपनी
आँख पर
पट्टी बाँध
कर देखने
का प्रयास
करना

आज सारे
के सारे
गाँधारी
अपने अपने
धृतराष्ट्रों
 के ही
देखे हुऐ को
देख रहे हैं
एक बार फिर
सिद्ध हो गया है
कहीं के भी हों
सारे गाँधारी
एक जैसा
एक सुर
में कह रहे हैं

ऐसे में
तू भी
खुशी
जाहिर कर
मिठाई बाँट
दिमाग
मत चाट

किसने
क्या देखा
क्या बताया
इस सब को
उधाड़ना
बंद कर
उधड़े फटे
को रफू
करना सीख
कब तक
अपनी आँख
से खुद ही
देखता रहेगा
‘उलूक’

गोद में
चले जा
किसी
गाँधारी के
सीख
कर आ
किसी
धृतराष्ट्र
के लिये
आँख
बंद कर
उसकी
आँखों से
देखने
की कला

तभी होगा
तेरा और
तेरी सात
पुश्तों का
तेरी घर
गली शहर
प्रदेश देश
तक के
देश प्रेमी
संतों
का भला ।

चित्र साभार: ouocblog.blogspot.com

बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

आज यानी अभी के अंधे और बटेरें

कोई भी कुछ
नहीं कर सकता
आँखों के परदों
पर पड़ चुके
जालों के लिये
साफ दिखना
या कुछ धुँधला
धुँधला हो जाना
अपना देखना
अपने को पता
पर मुहावरों के
झूठ और सच
मुहावरे जाने
कहने वाले
कह गये
बबाल सारे
जोड़ने तोड़ने
के छोड़ गये
अब अंधे के
हाथ में बटेर
का लग जाना
भी किसी ने
देखा ही होगा
पर कहाँ सिर
फोड़े ‘उलूक’ भी
जब सारी बटेरें
मुहँ चिढ़ाती हुई
दिखाई देने लगें
अंधों के हाथों में
खुद ही जाती हुई
और हर अंधा
लिये हुऐ नजर
आये एक बटेर
नहीं बटेरें ही बटेरें
हाथ में जेब में
और कुछ नाचती
हुई झोलों में भी
कोई नहीं समय
की बलिहारी
किसी दिन कभी
तो करेगा कोई
ना कोई अंधा
अपनी आँख बंद
नोच लेना तू भी
बटेर के एक दो पंख
ठंड पड़ जायेगी
कलेजे में तब ही
फिर बजा लेना
बाँसुरी बेसुरी अपनी ।

चित्र साभार: clipartmountain.com

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

छोड़ भी दे देख कर लिखना सब कुछ और कुछ लिख कर देख बिना देखे भी कुछ तो जरूर लिखा जायेगा


रात को सोया कर 
कुछ सपने वपने हसीन देखा कर 
सुबह सूर्य को जल चढ़ाने के बाद ही 
कुछ लिखने और लिखाने की कभी कभी सोचा कर 

देखेगा
सारा बबाल ही चला जायेगा 
दिन भर के कूड़े कबाड़ की कहानियाँ 
बीन कर जमा करने की आदत से भी बाज आ जायेगा 

छोड़ देगा सोचना 
बकरी कब गाय की जगह लेगी
कब मुर्गे को राम की जगह पर रख दिया जायेगा 

कब दिया जायेगा राम को फिर वनवास
कब उसे लौट कर आने के लिये मजबूर कर दिया जायेगा

ऐसा देखना भी क्या
ऐसे देखे पर कुछ लिखना भी क्या 

राजा के
अपने गिनती के बर्तनों के साथ
अराजक हो जाने पर अराजकता का राज होकर भी 
ना दिखे किसी भी अंधे बहरे को 

इससे अच्छा मौसम लगता नहीं ‘उलूक’ 
तेरी जिंदगी में फिर कहीं आगे किसी साल में दुबारा आयेगा 

छोड़ भी दे देख कर लिखना सब कुछ 
और कुछ लिख कर देख बिना देखे भी 
कुछ तो जरूर लिखा जायेगा । 

चित्र साभार: altamashrafiq.blogspot.com

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

कौन जानता है किस समय गिनती करना बबाल हो जाये

गिनती करना
जरूरी नहीं हैं
सबको ही आ जाये
कबूतर और कौऐ
गिनने को अगर
किसी से कह
ही दिया जाये
कौन सा बड़ा
गुनाह हो गया
अगर एक कौआ
कबूतर हो जाये
या एक कबूतर की
गिनती कौओं
मे हो जाये
कितने ही कबूतर
कितने ही कौऔं को
रोज ही जो देखता
रहता हो आकाश में
इधर से उधर उड़ते हुऐ
उससे कितने आये
कितने गये पूछना ही
एक गुनाह हो जाये
सबको सब कुछ
आना भी तो
जरूरी नहीं
गणित पढ़ने
पढ़ाने वाला भी
हो सकता है कभी
गिनती करना
भूल जाये
अब कोई
किसी और ज्ञान
का ज्ञानी हो
उससे गिनती
करने को कहा
ही क्यों जाये
बस सिर्फ एक बात
समझ में इस सब
में नहीं आ पाये
वेतन की तारीख
और
वेतन के नोटों की
संख्या में गलती
अंधा भी हो चाहे
भूल कर भी
ना कर पाये
ज्ञानी छोड़िये
अनपढ़ तक
का सारा
हिसाब किताब
साफ साफ
नासमझ के
समझ में
भी आ जाये !