उलूक टाइम्स

रविवार, 15 दिसंबर 2013

मुझ गधे को छोड़ हर गधा एक घोड़ा होता है

कोई भी
समझदार

पुराना
हो जाने पर

कभी भी
भरोसा
नहीं करता है

इसी लिये
हमेशा
लम्बी रेस
का एक
घोड़ा होता है

पुराना
होने से
बचने का
तरीका भी

बहुत ही
आसान होता है

परसों तक
माना कि
बना रहा
कहीं एक
मकान होता है

आज
के दिन
एक बहुत
माना हुआ
बड़ा किसान होता है

किसी को
नजर भर
अपने को
देखने का
मौका नहीं देता है

जब तक
समझने
में आता है

किसी को
जरा सा भी
कुछ कुछ

आज के
काम को छोड़
कल के किसी
दूसरे काम
को पकड़ लेता है

एक ही
काम से
चिपके
रहने वाला

उसके
हिसाब से
एक गधा होता है

धोबी दर
धोबी के
हाथों में
होते होते
पुराने से पुराना
होता ही रहता है

धोबी
बदल देने
वाला गधा ही
बस खुश्किस्मत होता है

होता होगा
गधा कभी
किसी जमाने में

पर आज
के जमाने का

सबसे
मजबूत घोड़ा
बस वही होता है

रोज का रोज

एक नये
काम को
नये सिरे से
जो कर लेता है

किसी
के पास
इतना बड़ा
दिमाग ही
कहाँ होता है

जो ऐसों के
किये गये
काम को
समझ लेता है

एक ही
आयाम में
जिंदगी
काटने वालों
के लिये

वही तो
एक बहुआयामी
व्यक्तित्व होता है

जिसने
कुछ भी
कभी भी
कहीं भी
पूरा ही नहीं
किया होता है ।

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

आँख में ही दिखता है पर बाजार में भी बिकता है अब दर्द

आँख में झाँक कर
दिल का दर्द
देख कर आ गया
मुझे पता है तू
अंदर भी बहुत सी
जगहों पर जा कर
बहुत कुछ देख सुन
कर वापस आ गया
कितना तुझे दिखा
कितना तूने समझा
मुझे पता नहीं चला
क्योंकि आने के बाद
तुझसे कुछ भी कहीं भी
ऐसा कुछ नहीं कहा गया
जिससे पता चलता
किसी को कि
तू गया तो
इतने अंदर तक
कैसे चला गया
और बिना डूबे ही
सही सलामत पूरा
वापस आ गया
जमाने के साथ
नहीं चलेगा तो
बहुत पछतायेगा
किसी दिन अंदर गया
वाकई में डूब जायेगा
वैसे किसी की
आँखों तक
नहीं जाना है
जैसी बात
किसी किताब
ने बताई नहीं है
कुऐं के मुडेर से
रस्सी से पानी
निकाल लेने में
कोई बुराई नहीं है
बाल्टी लेकर कुऐं
के अंदर भी जाते थे
किसी जमाने के लोग
पर अब कहीं भी
उस तरह की साफ
सफाई और
सच्चाई नहीं है
आ जाया कर
आने के लिये
किसी ने नहीं रोका है
पर दलदल में उतरने में
तेरी भी भलाई नहीं है
जो दिखता है
वो होता नहीं
जो होता नहीं
उसी को बार बार
दिखाने की रस्म
लगता है अभी तक
तुझे किसी ने भी
समझाई नहीं है
कितने जमाने
गुजर गये और
तुझे अभी तक
जरा सी भी
अक्ल आई
नहीं है ।

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

बात कोई नई नहीं कह रहा हूँ आज फिर हुई कहीं बस लिख दे रहा हूँ

समय के साथ
समय का मिलना
धीरे धीरे कम
होता चला गया
बच्चों से अपेक्षाओं
का ढेर कहीं
मन के कोने में
लगता चला गया
एक बूढ़ा और
एक बुढ़िया अब
अकले में
एक दूसरे से
बतियाते बतियाते
कहीं खो से जाते हैं
बात करते करते
भूल जाते हैं
बात कहाँ से
शुरु हुई थी
कुछ ही देर पहले
फिर मुस्कुराते हैं
उम्र के आखिरी
पड़ाव पर
दिखता है
कहीं असर
अपेक्षाओं
के भार का
फिर खुद बताना
शुरु हो जाते हैं
किस तरह
काटना होता है
समय को
समय की
ही छुरी से
रोज का रोज
कतरा कतरा
दिखने लगता है
कहीं दूर पर
अकेली
भटकती हुई
खुद की
परछाई भी
जैसे उन्ही
की तरह
ढूँढ रही हो
खुद को
खुद में ही
फिर बूढ़ा
देखता है
बुढ़िया के
चेहरे की
तरफ और
जवाब दे देता है
जैसे बिना कोई
प्रश्न किये हुऐ
किसी से भी
क्या सिखाया था
बच्चों को कभी
कि अ से अदब
भी होता है
नहीं सिखाया ना
मुझे पता है
सब सिखाते हैं
अ से अधिकार
और समझ आते ही
उसकी समझ में
आ जाता है
अपने लिये
अपना अधिकार
और फिर समय
नहीं बचता उसके
पास किसी और
के लिये कभी ।

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

हो ही जाता है ऐसा भी कभी भी किसी के साथ भी

कभी
अचानक
उल्टी चलती
हुई एक
चलचित्र
की रील

अनायास
ही
पता नहीं
कैसे
बहुत पीछे
की ओर
निकल
पड़ती है

जब
सामने से
आता हुआ
कोई तुम्हें
देख कर
थोड़ा सा
ठिठकता
हुआ
आगे की
ओर चल
पड़ता है

बस
दो कदम
फिर
दोनो की
गर्दने
मुड़ती हैं
और
एक ही साथ
निकलता है
मुँह से
अरे आप हैं

इस बीच
दोनो
देखना
शुरु हो
चुके होते हैंं

एक दूसरे
के चेहरों पर
समय के
कुछ निशान

जैसे ढूँढ
रहे होंं
अपना सा
कुछ
जो अपने को
याद आ जाये

ऐसा कुछ
पता चले
या
खबर मिले

किसी की
कहीं से भी
पर
ऐसा होता
नहीं हैं

सारी बातें
इधर उधर
घूमती हैं
बेवजह

कुछ देर
ना वो कुछ
कह पाता है
ना ये ही
कुछ कह
लेना
चाहता है

हाथ
मिलते हैं
कुछ देर
जैसे
महसूस करना
चाह रहे
होते हैं कुछ

फिर हट
जाते हैं
अपनी अपनी
जगह

और
बाकी सब
ठीक ही
होगा पर
बात खत्म
हो जाती है

दोनो निकल
पड़ते हैं
फिर आगे
अपने
सफर पर
जैसे
कोशिश
कर रहे हों
वापस
उसी जगह
लौटने की
जहाँ पर
से पीछे
मुड़ पड़े
थे दोनो
दो दो
कदम ।

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

क्या करे कोई गालिब खयाल वो नहीं हैं अब

होते होंगे कुछ कहीं
इस तरह के खयाल
तेरे पास जरूर गालिब
दिल बहल जाता होगा
बहुत ही आसानी से
उन दिनो तेरे जमाने में
अब ना वो दिल
कहीं नजर आता है
ना ही कोई खयाल
सोच में उतरता है कभी
ना ही किसी गालिब की
बात कहीं दूर बहुत दूर
तक सुनाई देती है
ठंडे खून के दौरों से
कहाँ महसूस हो पाती है
कोई गरमाहट
किसी तरह की
चेहरे चेहरे में पुती
हुई नजदीकियां
उथले पानी की गहराई
सी दिखती है जगह जगह
मिलने जुलने उठने बैठने
के तरीकों की नहीं है
कोई कमी कहीं पर भी
वो होती ही नहीं है
कहीं पर भी बस
बहुत दूर से आई
हुई ही दिखती है
जब भी होता है कुछ
लिख देना सोच कर कुछ
तेरे लफ्जों में उतर कर
बारिश ही बारिश होती है
बस आँख ही से नमी
कुछ दूर हो आई सी
लगती है अजनबी सी
कैसे सम्भाले कोई
दिल को अपने
खयाल बहलाने के
नहीं होते हों जहाँ
जब भी सोचो तो
बाढ़ आई हुई सी
लगती है गालिब ।