उलूक टाइम्स

बुधवार, 26 अगस्त 2015

दे भी दे बचा आधा भी बचा कर कहाँ ले जायेगा

आधा बचा
कर क्यों
रखा है
पूरा बांट
क्यों नहीं
देता है
अभी भी
ज्यादा
कुछ नहीं
बिगड़ा है
एक उधर
एक इधर ही
बस उखड़ा
उखड़ा है
नहीं बाँटेगा
तो तीसरा
चौथा भी
खड़ा हो
जायेगा
सब खड़े
हो गये तो
बाँट भी
नहीं पायेगा
पहले वाले
आधों के हाथ
भी क्या कुछ
आ पाया है
बाकी आधों
के लिये भी
कहाँ क्या
कुछ बचा
बचाया है
दे दे इसे
भी कुछ
कुछ उसे भी
निपटा दे
इस बार
बचे हुऐ
आधे को भी
सब बँट
बँटा जायेगा
बबाल ही
खत्म हो
जायेगा
सबके पास
होगा थोड़ा थोड़ा
हर कोई उसका
एक बिल्ला
बना कर
सीने से अपने
लगायेगा
झगड़े की
जड़ ही
नहीं रहेगी
एक और
दासता से
देश एक बार
और आजाद
हो जायेगा
‘उलूक’ भी
एक सौ आठ
रुद्राक्ष के
दानों की
माला लिये
किसी सूखे
पेड़ की सबसे
ऊँची डाल
पर बैठ जायेगा
नाम तेरा
जपेगा जोर से
जपते जपते
शायद तर
भी जायेगा ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

बाजार गिरा है अपने घर पर रहो उसे संभाल दो

बहुत कुछ गिरता है
पहले भी गिरता था

गिरता चला आया है
आज भी गिर रहा है 

कोई नई चीज तो
नहीं गिरी है
हल्ला किस बात का


अब जिम्मेदारी होती है
इसका मतलब
ये नहीं होता है
सब चीज की जिम्मेदारी
एक के सर पर डाल दो
अंडे की तरह छिलके
सहित कभी भी उबाल दो

घर की जिम्मेदारी
कुछ अलग होती है

स्कूल कालेज हस्पताल
सड़क हवा पानी बिजली
दीवाने और दीवानी
फिलम की कहानी

गिनाने पर आ जाये कोई
तो गिनती करने की
जिम्मेदारी भी होती है

पिछले साठ सालों में
उसने और उसके लोगों ने 
कितनी बार गिराई
जान बूझ कर गिराई
तब तो कोई नहीं चिल्लाया

छोटी छोटी बनाता था
रोज गिराता था
आवाज भी नहीं आती थी
बात भी रह जाती थी

अब इसको क्या पता था
गिर जायेगी
बड़ी बड़ी खूब लम्बी चौड़ी
अगर बना दी जायेगी

अब गिर गई तो गिर गई
बाजार ही तो है
कल फिर खड़ी हो जायेगी

अभी गिरी है
चीन या अमेरिका के
सिर पर डाल दो
खड़ी हो जायेगी

तो फिर आ कर
खड़े हो जाना
बाजार के बीचों बीच

अभी पतली गली से
खबर को पतला कर
सुईं में डालने वाले
धागे की तरह
इधर से उधर निकाल दो 


उलूक को ना बाजार
समझ में आता है
ना उसका गिरना गिराना

रोज की आदत है उसकी
बस चीखना चिल्लाना

हो सके तो उसकी कुण्डली
कहीं से निकलवा कर
उसके जैसे सारे उल्लुओं को

इसी बात पर साधने का
सरकारी कोई आदेश
कहीं से निकाल दो ।

चित्र साभार:
www.clipartpanda.com


सोमवार, 24 अगस्त 2015

दलों के झोलों में लगें मोटी मोटी चेन बस आदमी आदमी से पूछे किसलिये है बैचेन

कंधे पर लटके हुऐ
खुद के कर्मों के
एक बेपेंदी के
फटे हुऐ झोले में
रोज अपने खाली
हाथ को डालना
मुट्ठी भर हवा
को पकड़ कर
हाथ को बाहर
निकालना
कुछ इधर फेंकना
कुछ उधर फेंकना
बाकी शेष कुछ हवा
को हवा में ऊपर
को उछालना
ये सोच कर
शायद
किसी को कुछ
नजर आ जाये
और लपक ले जाये
उस कुछ नहीं में से
कोई कुछ कुछ
अपने लिये भी
उस समय जब
भरे झोले वाले लोग
चाहना शुरु करें
कोई ना देखे
उनके झोले
कोई ना पूछे
किसके झोले
सूचना भरे झोलों
का आदान प्रदान
हो सके तो बस
बंद झोलों और
बंद झोलों के बीच
ही बिना किसी के
कहीं कोई जिक्र
किये हुऐ और
बाकी एक अरब से
ऊपर के पास के
झोलों के पेंदें रहें
फटे और खुले
ताकि बहती रहे
हवा नीचे से ऊपर
और ऊपर से नीचे
आसान हो
निकालना
हवा को हाथ से
मुट्ठी बांध कर
और चिल्लाना
भूखे पेट ही
इंकिलाब
जिंदाबाद
आर टी आई
मुर्दाबाद।

चित्र साभार: www.manofactionfigures.com


रविवार, 23 अगस्त 2015

कहते कहते ही कैसे होते हैं कभी थोड़ी देर से भी होते हैं



तुम तो पीछे ही पड़ गये दिनों के 
दिन तो दिन होते हैं 
अच्छे और बुरे नहीं होते हैं 

अच्छी और बुरी तो सोच होती है 
उसी में कुछ ना कुछ 
कहीं ना कहीं कोई लोच होती है 

सब की समझ में सब कुछ 
अच्छी तरह आ जाये 
ऐसा भी नहीं होता है 

आधी दुनियाँ में उधर रात 
उसके इधर होने से नहीं होती है 

इधर की दुनियाँ में दिन होने से 
रात की बात नहीं होती है 

किसी से 
नाँच ना जाने आँगन टेढ़ा 
कहना भी
बहुत अच्छी बात नहीं होती है 

पहले ही
पूछ लेने की आदत ही 
सबसे अच्छी एक आदत होती है 

जो हमेशा
भले लोगों की 
हर भली बात के साथ होती है 

लंगड़ा कर
यूँ ही शौक से 
नहीं चलना चाहता है कोई भी कभी भी 

सोच में
नहीं होती है 
दायें या बाँयें पाँव में से 
किसी एक में कहीं थोड़ी बहुत 
मोच पड़ी होती है 

अच्छा अगर
नहीं
दिख रहा होता है 
सामने से कहीं 

कहीं ना कहीं 
रास्ते में होती है
उस अच्छे की गाड़ी 
और
थोड़ा सा
लेट हो रही होती है 

दिन तो
दिन होते हैं 
अच्छे और बुरे नहीं होते हैं 

किस्मत
भी होती है 
भेंट नहीं हो पा रही होती है 

वैसे भी 
सबके
एक साथ नहीं होते हैं 
जिसके हो चुके होते है 
'उलूक' 

उसके
अगली बार 
तक
तो
होने भी नहीं होते हैं । 

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

शनिवार, 22 अगस्त 2015

सच कभी अपने झूठ नहीं कहता है

ऐसा
नहीं होता है

ऐसा भी होता है

सारे
सचों को
सच सच
कह देने का भी
कभी कभी
मन होता है

रोज ही
झूठ बोलने से
जायका भी
खराब होता है

सब रखते हैं
अपने अपने
सबके सामने से

उसमें क्या सच
क्या झूठ होता है

किसी
को कुछ
पता होता है
किसी को कुछ
पता नहीं होता है

ऐसा भी
नहीं होता है
खुद का सच
खुद को ही
पता नहीं होता है

कौन सा सच
सच होता है
कौन सा सच
झूठ होता है
कौन सा झूठ
सच होता है
कौन सा झूठ
झूठ होता है

सोच कर
देख ‘उलूक’
किसी दिन

दुनियाँ
दिखाती है
बहुत कुछ
दिखाती है

उसमें
कितना कुछ
बहुत कुछ होता है

कितना कुछ
कुछ भी नहीं होता है

जो कुछ भी
कहीं भी
नहीं देखता है

जो कुछ भी
कभी भी
नहीं सोचता है

आज
सब से आगे
बस वही और
वही होता है

सच
और झूठ के
चक्कर में पड़ना

इस जमाने में
वैसे भी ठीक
नहीं होता है ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com