सब कुछ
एक साथ
नहीं दौड़ता है
टाँगें
कलम हो जायें
बहुत कम होता है
वजूका
खेत के बीच में
भी हो सकता है
कहीं किनारे पर
बस यूँ ही खड़ा
भी किया होता है
कहने लिखने को
रोज हर समय
कुछ ना कुछ
कहीं किसी
कोने में
जरूर होता है
लिखे हुऐ
सारे में से
जान बूझ कर
नहीं लिखा गया
कहीं ना कहीं
किसी पंक्ति
के बीच से
झाँक रहा होता है
समुन्दर
लिख लेने
के बाद
नदी लिखने
का मन
किसी का
होता होगा
पता कहाँ
चलता है
कलम की
पुरानी
स्याही को
नाले के पास
लोटे में धोना
और फिर
चटक धूप में
सुखा कर
नयी स्याही
भर लेना
एक पुराना
मुहावरा
हो चुका
होता है
नये मुल्ले
और
प्याज पर
लिखने से
दंगा भड़कने
का अंदेशा
हो रहा
होता है
रोज के
रोजनामचे
को लिखने
वाले ‘उलूक’
का दिल
साप्ताहिक
हो लेने
पर भी
बाग बाग
हो रहा
होता है
लिखना
लिखाना
और
उस पर
टिप्पणी
पाने की
लालसा पर
हमेशा
की तरह
नये सिपाही
का बंदूक
तानने पर
अपनी
पुरानी
जंक लगी
बन्दूक से
खुद का
फिर से
सामना
हो रहा
होता है
अपना लिखना
अपने लिखे को
अपना पढ़ लेना
समझ में आ जाना
सालों साल में
पुराने प्रश्न से
जैसे नया
सामना हो
रहा होता है ।
बिल्लियों के
अखबार में
बिल्लियों ने
फिर छ्पवाया
सुबह का
अखबार
रोज की तरह
आज भी
सुबह सुबह
उसी तरह से
शर्माता हुआ
जबर्दस्ती
घर के दरवाजे से
कूदता फाँदता
हुआ ही आया
खबर
शहर के कुछ
हिसाब की थी
कुछ किताब की थी
शरम लिहाज की थी
शहर के पन्ने में ही
बस दिखायी गयी थी
चूहों की पढ़ाई
को लेकर आ रही
परेशानियों की बात
बिल्लियों के
अखबार नबीस के द्वारा
बहुत शराफत के साथ
रात भर पका कर
मसाले मिर्च डाले बिना
कम नमक के साथ
बिना काँटे छुरी के
सजाई गयी थी
मुद्दा
दूध के बंटवारे
को लेकर हो रहे
फसाद का नहीं है
खबर में
समझाया गया था
बिल्लियाँ
घास खाना
शुरु कर जी रही हैं
बिल्लियों का
वक्तव्य भी
लिखवाया गया था
सफेद
चूहों को अलग
और
काले चूहों को
कुछ और अलग
बताया गया था
खबर जब
कई दिनों से
सकारात्मक सोच
बेचने वालों की
छपायी जा रही थी
पता नहीं बीच में
नकारात्मक उर्जा
को किसलिये
ला कर
फैलाया जा रहा था
बात
चूहों के
शिकार की
जब थी ही नहीं
बेकार में
दूध के बटवारे
को लेकर पता नहीं
किस बात का
हल्ला
मचवाया जा रहा था
चूहे चूहों को गिन कर
पूरी गिनती के साथ
बिल से निकल कर
रोज की तरह वापस
अपने ही बिल में
घुस जा रहे थे
दूध और
मलाई के निशान
बिल्लियों की मूँछों
में जब आने ही
नहीं दिये जा रहे थे
बिल्लियों के
साफ सुथरे धंधों को
किसलिये
इतना बदनाम
करवाया जा रहा था
ईमानदारी की
गलतफहमियाँ
पाला ‘उलूक’
बेईमानी के
लफड़े में
अपने हिस्से का
गणित लगाता हुआ
रोज की तरह
चूहे बिल्ली के
खेल की खबर
खबरची
अखबार की गंगा
और डुबकी
सोच कर
हर हर गंगे
मंत्र के जाप के
एक हजार आठ
पूरे करने का
हिसाब लगा रहा था।
चित्र साभार: www.dreamstime.com
लिखना
पड़ जाता है
कभी मजबूरी में
इस डर से
कि कल शायद
देर हो जाये
भूला जाये
बात निकल कर
किसी किनारे
से सोच के
फिसल जाये
जरूरी
हो जाता है
लिखना नौटंकी को
इससे पहले
कि परदा गिर जाये
ताली पीटती हुई
जमा की गयी भीड़
जेब में हाथ डाले
अपने अपने घर
को निकल जाये
कितना
शातिर होता है
एक शातिर
शातिराना
अन्दाज ही
जिसका सारे
जमाने के लिये
शराफत का
एक पैमाना हो जाये
चल ‘उलूक’
छोड़ दे लिखना
देख कर अपने
आस पास की
नौटंकियों को
अपने घर की
सबसे
अच्छा होता है
सब कुछ पर
आँख कान
नाक बंद कर
ऊपर कहीं दूर
अंतरिक्ष में बैठ कर
वहीं से धरती के
गोल और नीले
होने के सपने को
धरती वालों को
जोर जोर से
आवाज लगा लगा
कर बेचा जाये।
चित्र साभार: www.kisspng.com
बहाने
मत बना
सही बात
साफ साफ बता
कलम
बीमार है
कागज का
पेट आज
बहुत खराब है
जैसा जुमला
अब रहने भी दे
किसी पुराने
पीतल या ताँबे के
गमले में दे सजा
कुछ भी
लिख
देने वाले
के साथ
ऐसा ही
है होता
कितने
साल हो गये
लिखते बकते
अब तो समझ ले
अभी भी
समय है
एक बार
फिर से
समझाया
जा रहा है
सुधर जा
अपने
पन्ने पर कर
जो करना है
जो देखना है
जो कहना है
किसी ने
नहीं है रोका
इधर उधर
इसके उसके
लिखे लिखाये को
देखने पढ़ने
के लिये तो
भूल कर
भी मत जा
कपड़े उतार
सड़क पर
लेट जा
अखबार के
चौथे पन्ने
यानी
बस कस्बे
की खबर
हो जा
छ्प जा
तर जा
बिना कोई
गुल छिपाये
गुल खिलाये
घर के अन्दर
मुख्य पृष्ठ में
छपने का
भूल जा
सोचना
सच में
होता है
बहुत ही बुरा
किसलिये
खाये जाता है
अपना ही दिमाग
इसमें कुछ
दिमाग लगा
लोग लिख रहे हैं
लिखते रहेंगे
दीवाने गालिब
की सोच कर
दीवाने होते रहेंगे
काहे
पागल लोगों के
लिखे लिखाये
के पीछू जाता है
अपने
पागलपन की
खुद कोई
पगलाई हुई सी
एक पागल
मोहर बना
बुराई
नहीं है
सच में
सलीकेदार
समझे बुझाये
पागलों की
भीड़ में
सच्चा एक
पागल हो जा
‘उलूक’
दुनियाँ को
समझने के लिये
किताबें मत पढ़
दुनियाँ
पागल बनाती है
समझ ले पहले से
पागल हो जा
फावड़ा उठा
अपनी
ही कब्र खोद
कब्र का पेटेंट
2019 के चुनावों
के होने से पहले
तुरन्त करा ।
चित्र साभार: www.shutterstock.com
जिन्दगी
शुरु होती है
और
गिनतियाँ
शुरु हो जाती है
शून्य कहीं भी
किसी को नहीं
सिखाया जाता है
एक से शुरु
की जाती हैं
गिनतियाँ
सारा सब कुछ
पैदा होते ही
एक
हिसाब किताब
हो जाता है
बताया ही
नहीं जाता है
समझाया भी
नहीं जाता है
फिर भी
गिनतियाँ
खुद उसी तरफ
उसी रास्ते पर
अँगुली पकड़ कर
खींच ले जाती हैं
जिस तरह
हिसाब किताब
चलता चला जाता है
हर किसी को
आता है गिनना
मौका मिलते ही
गिनना शुरु
हो जाता है
सामने वाले के
हिसाब किताब को
अँगुलियों में
कर ले जाता है
कोई पूछ बैठे
उससे उसके
हिसाब किताब
के बारे में
गिनतियाँ करना
भूल बैठा है
किसी जमाने से
बताने में
जरा सा भी
नहीं शर्माता है
बहुत
आसान होता है
गिनना अपने
सामने वाले
की उम्र को
उसके
चेहरे पर
हर चेहरा
कुछ नहीं
कहने के
बावजूद
बहुत कुछ
बताता है
आसान होता है
गिनना सामने
खड़े पेड़
की उम्र भी
अलग बात है
यहाँ गोल गहरी
पड़ी रेखाओं से
समय का हिसाब
लगाया जाता है
लाखों गिनता है
करोड़ों गिनता है
अरब खरब तक
पहुँचने का
जुगाड़ लगाता है
सौ तक पहुँचने वाले
एक दो होते हैं
सोच में आने से
पहले ही गजल
गुनगुनाना चाहता है
आदत से मजबूर
लेकिन पाँच सौ
हजार दो हजार
दिखते ही
बत्तीस दाँत
एक साथ दिखाता है
‘उलूक’
उल्टी गिनतियाँ
चलती रहती
हैं साथ साथ
पता
कहाँ चलता है
राकेट
कब कहाँ
और क्यों
छूट जाता है ।
चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com
एक भीड़ से
दूसरी भीड़
दूसरी भीड़ से
तीसरी भीड़
भीड़ से भीड़ में
खिसकता चलता है
मतलब को जेब में
रुमाल की तरह
डाल कर जो
वो हर भीड़ में
जरूर दिखाई
दे जाता है
भीड़ कभी
मुद्दा नहीं
होती है
मुद्दा कभी
मतलबी
नहीं होता है
मतलबी
भीड़ भी
नहीं होती है
भीड़ बनाने वाला
भीड़ नचाने वाला
कहीं किसी भीड़ में
नजर नहीं आता है
जानता है
पहली
भीड़ के हाथ
दूसरी भीड़
में पहुँच कर
भीड़ के पाँव
हो जाते हैं
दूसरी भीड़ से
तीसरी भीड़ में
पहुँचते ही पाँव
पेट होकर
गले के रास्ते
चलकर
भीड़ की
आवाज
हो जाते हैं
ये शाश्वत सत्य है
भीड़ की जातियाँ
बदल जाती हैंं
धर्म बदल जाता है
अपने मतलब के
हिसाब से समय
घड़ी की दीवार से
बाहर आ जाता है
आइंस्टाईन
का सापेक्षता
का सिद्धांत
निरपेक्ष भाव से
आसमान में
उड़ते हुऐ
चील कव्वे
गिनने के
काम का भी
नहीं रह जाता है
आती जाती
भीड़ से
निकलकर
एक मोड़ से
दूसरे मोड़ तक
पहुँचने से पहले
ही फिसलकर
एक नयी
भीड़ बनाकर
एक नया
झंडा उठाता है
बस वही एक
सत्यम शिवम सुंदरम
कहलाता है
समझदार
आँख मूँद
कर भीड़ के
सम्मोहन में
खुद फंसता है
दूसरों को
फ़ंसाता है
फिर खुद
भीड़ में से
निकलकर
भीड़ में
बदलकर
भीड़ भीड़
खेलना
सीख जाता है
बेवकूफ
‘उलूक’
इस भीड़ से
उस भीड़
जगह जगह
भीड़ें गिनकर
भीड़ की बातों को
निगल कर
उगल कर
जुगाली करने में
ही रह जाता है।
चित्र साभार: https://www.shutterstock.com
खोला तो
रोज ही
जाता है
लिखना भी
शुरु किया
जाता है
कुछ नया
है या नहीं है
सोचने तक
खुले खुले
पन्ना ही
गहरी नींद में
चला जाता है
नींद किसी
की भी हो
जगाना
अच्छा नहीं
माना जाता है
हर कलम
गीत नहीं
लिखती है
बेहोश
हुऐ को
लोरी सुनाने
में मजा भी
नहीं आता है
किस लिये
लिख दी
गयी होती हैं
रात भर
जागकर नींदें
उनींदे
कागजों पर
सोई हुवी
किताबों के
पन्नों को जब
फड़फड़ाना
नहीं आता है
लिखने
बैठते हैं
जो
सोच कर
कुछ
गम लिखेंगे
कुछ
दर्द भी
लिखना
शुरु होते ही
उनको अपना
पूरा शहर
याद
आ जाता है
सच लिखने की
हसरतों के बीच
कब किसी झूठ
से उलझता है
पाँव कलम का
अन्दाज ही
नहीं आता है
उलझता
चला जाता है
बहुत आसान
होता है
क्योंकि
लिख देना
एक झूठ ‘उलूक’
जिस पर
जब चाहे
लिखना
शुरु करो
बहुत कुछ
और
बहुत सारा
लिखा जाता है
घर
और तमाशे
से शुरु कर
एक बात को
चाँद
पर लाकर
इसी तरह से
छोड़ दिया
जाता है ।
चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com
समझदारी
समझदारों
के साथ में
रहकर
समझ को
बढ़ाने की है
पकाने की है
फैलाने की है
नासमझ
कभी तो
कोशिश कर
लिया कर
समझने की
नासमझी
की दुनियाँ
आज बस
पागल हो
चुके किसी
दीवाने की है
कुछ खेलना
अच्छा होता है
सेहत के लिये
कोई भी हो
एक खेल
खेल खेल में
खेलों की
दुनियाँ में
खेलना
काफी
नहीं है
लेकिन
ज्यादा
जरूरत
किसी
अपने को
अपना
मन पसन्द
एक खेल
खिलाने
की है
जिसकी
ताजा एक
पकी हुई
खबर
कहीं भी
किसी एक
अखबार के
पीछे के
पन्ने में
ही सही
कुछ ले दे के
छपवाने की है
कौन
आ रहा है
कौन
जा रहा है
लिखना बन्द
किये हुऐ
दिनों में
बड़ी हुई
इतनी भीड़
खाली पन्नों में
सर खपाने की है
कहना
सुनना
चलता रहे
कागज का
कलम से
कलम का
दवात से
बकवास
ही तो हैं
‘उलूक’ की
कौन सा
पहेलियाँ हैंं
जो दिमाग
उलझाने की हैं ।
आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से
अंतराल में
सिमट
जाती हैं
खोल में किसी
खुद के
बनाये हुऐ
आभास
देने भर
के लिये बस
अस्तित्व
होने से लेकर
नहीं होने की
जद्दोजहद जारी
रहती है हमेशा
मजबूरियाँ
जकड़ लेती हैं
अँगुलियों को
लेखनी के
आभास भर
के साथ भींच कर
लिखता
चला जाता है
समय
रेंगता हुआ
सब कुछ हमेशा
रेत पर
धुएं में
या फिर
उड़ती हुई
पतझड़
से गिरी
सूखी पत्तियों
के ढेर पर
कई
सारे चित्र
यादों से
निकल कर
ओढ़ लेते हैं
फूल मालायें
होने से
ना होने तक
की दौड़ में
फिसल कर
भीड़ में से
ना जाने कब
कौन गिनता है
चित्रकारों के
काफिलों में
कैनवासों से
निकलकर
बहते
बिखरते रंगों को
किसे
फिक्र होती है
कूँचियों के
निर्जीव झड़ते
टूटते बालों की
उतरते
रंगों में सिमटते
घुलते बिखरते
इंद्रधनुषों की
नजर का
जरूरी नहीं
होता है
टिके रहना
आसमान पर
चमकते
किसी तारे पर
हमेशा के लिये
रोशनी
होती ही है
लम्बी चमक
के बाद
धुँधलाने के लिये
सब कुछ
बहुत जल्दी
सिमट जाता है
छोटे छोटे
बाजारों में
मेले
रोज ही
लगा करते हैं
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
तो कहीं
और सही
आज
कल परसों
रोज नहीं भी तो
बरसों में कभी
एक बार ही सही
आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से अंतराल में
सिमट जाती हैं
खोल में किसी
खुद के बनाये हुऐ
अपने
होने ना होने
का आभास
खुद के लिये
जरूरी है ‘उलूक’
याद
करने के लिये
अपने हाथ में
चिकोटी
काट लेना
बहुत जरूरी
होता है कभी कभी ।
चित्र साभार: https://www.pinterest.co.uk/
काँव काँव
कर्कश होती है
कभी कह भी
दिया होता है
किसी ने तो
ऐसा भी तो
नहीं होता है
कि मुँडेर पर
आना ही
छोड़ दो
निर्मोही
मोह
होता ही है
भंग
होने के लिये
चल
लौट आ
और बैठ ले
सुबह सवेरे
पौ फटते ही
मेरे ही दरवाजे
के सामने के
पेड़ की किसी
एक डाल पर
कर लेना
जैसी मन
चाहे आवाज
एक नहीं कई
होती हैं बातें
ढल जाती हैं
कब आदतों में
पता तब चलता है
जब उड़ जाता है
कोई
तेरी तरह का
अचानक
अनजानी
दिशा को
नहीं लौटने की
कसम
रख कर जैसे
आसपास कहीं
सन्नाटा मन
मोहक होता
होगा बहुत
जैसा भ्रम
तेरे जैसे काले
बेसुरी मानी
जाने वाली
आवाज वाले के
मुँह मोड़ लेने के
बाद ही टूटता है
माया मोह
समझ में
आ जाना
बहुत बड़ी
बात है रे
तू समझ लिया
और उड़ लिया
‘उलूक’
बैठा है
अभी भी
इन्तजार में
अखबार के
समाचार के
रंग ढंग
बदलने के
मानकर
कि कुछ दिन
चुपचाप
आँख बन्द कर
बैठने के बाद
सूरज
सुबह का
नहाया धोया सा
चमकदार
दिखना
शुरु हो
जाता है ।
चित्र साभार: http://www.alamy.com
दरवाजा
खोल कर
निकल लेना
बेमौसम
बिना सोचे समझे
सीधे सामने के
रास्ते को
छोड़ कर कहीं
मुड़ कर
पीछे की ओर
ना चाहते हुऐ भी
जरूरी
हो जाता है
कभी कभी
जब हावी
होने लगती
है सोच
आस पास की
उड़ती हवा की
यूँ ही
जबर्दस्ती
उड़ा ले जाने
के लिये
अपने साथ
लपेटते हुए
अपनी सोच
के एक
आकर्षक
खोल में
अपने अन्दर
के 'ना' को
नकारने में माहिर
बहुत सारे
साफ हाथों से
सुलेख में
'हाँ' लिखे हुऐ
पोस्टर बैनर
ली हुयी
भीड़ के बीच
'नहीं' को
बचा ले जाने
की कोशिशें
नाकाम होनी
ही होती हैं
अच्छा होता है
नजर हटा लेना
अपने अन्दर
जल रही
आग से
बने कोयले
और राख से
पारदर्शी आयने
हो चुके चेहरों से
और देख लेना
आरपार
सड़क पर खड़े एक
जीवित शरीर को
आत्मा समझ कर
दूर कहीं
हरे भरे पेड़ पौंधों
उड़ते हुऐ चील कौवों
या क्रिकेट खेलते हुऐ
खिलदंडों से भरे
मैदान से उड़ती
हुई धूल को
कविताओं के शोर में
दब गयी आवाज को
बुलन्द कर ले जाना
आसान नहीं होता है
चलती साँस को
कुछ देर रोक कर
धीरे से छोड़ने के लिये
इसीलिये कहा जाता
होगा शायद
खाली
सफेद पन्ने भी
पढ़े जा सकते हैं
लिखना छोड़ कर
किसी मौसम में
‘उलूक’
खुद ही पढ़ने
और
समझ लेने
के लिये
खुद लिखे गये
आवारा रास्तों
के निशान।
चित्र साभार: canstockphoto.com
बहुत दिन हो गये
सफेद पन्ने
को छेड़े हुऐ
चलो आज फिर से
कोशिश करते हैं
पिचकारियॉ उठाने की
गलत सोच का
गलत आदमी होना
बुरा नहीं होता है प्यारे
सही आदमी की
संगत से
कोशिश किया कर
थोड़ा सा दूर जाने की
जन्नत उन्हीं की होती है
जहॉ खुद के होने का भी
नहीं सोचना होता है
मर जायेगा एक दिन
जिंदा रहते कभी तो
कोशिश कर लिया कर
एक खाली कफन उठाने की
हफ्ते दस दिन
लिखना छोड़ देने से
कमीने कमीनी
सोच का लिखना
छोड़ने वाले नहीं
करने वाले बहुत
ज्यादा कमीने हैं
इतना काफी है
एक कमीने की
कलम को
कमीनापन
दिखाने की
नंगे होने का मतलब
कपड़े उतार देने से होता है
किताबें समझाती हैं
पचास साल लग गये
बहुत होता है बेवकूफ
कपड़े और नंगे
समझने में
असली कलाकारी
नंगई की
दिखाई देती है
होती भी है
देश की ही नहीं
विदेशियों के भी
ताली बजाने की
‘उलूक’ नहीं लिखेगा
तब भी नहीं मरेगा
‘उलूक’ लिखेगा
तब भी नहीं मरेगा
‘उलूक’ बात मरने की
कौन बेवकूफ कर रहा है
बात आज उसकी है
जिसकी बात बात से
बात निकल आती है
लाशें बिछवाने की
‘उलूक’ तू लगा रह
तेरे ‘उलूकपने’ की
दुकान पर बिकने
वाली शराफत की
गली कभी भी गांंधी की आत्मा
मरने मरने तक
तो नहीं आने की।
चित्र साभार: www.nycfacemd.com