उलूक टाइम्स

रविवार, 18 नवंबर 2018

गधा धोबी का धोबी के लिये गधा दोनों एक दूसरे का पर्याय हो ही जाता है

हर समय
कुछ ना कुछ
किसी पर
लिखा ही
जाता है

क्यों
लिखा जाये
किस के लिये
लिखा जाये
अलग बात है

पर
प्रश्न तो एक
सामने से
आकर खड़ा
हो ही जाता है

रोकते
रोकते हुऐ
फिर भी

ज्वालामुखी
फटने की
कगार पर
होने के
आसपास

थोड़ा सा लावा
आदममुख
से बाहर
निकल कर
आ जाता है

माफ करेंगे
झेलने वाले

बकवास
करने के लिये
कोई अगर
यहाँ चला
भी आता है

‘उलूक’ की
बकवास में
एक दो शब्दों
का बहुतायत में
पाया जाना

अभी तक तो
नाजायज नहीं
माना जाता है

झेलना
परिस्थिति को
हर किसी के
आसपास

और
हिसाब की
कहना भी
जरूरी
हो जाता है

तो शुरु करें
आज का
पकाया हुआ

देखें कहाँ तक
अपनी गंध
फैला पाता है

हर गधा

गौर करियेगा
गधा

गधे की
बकवासों में
कितनी कितनी बार
प्रयोग किया जाता है

हाँ तो
हर गधा
धोबी होना
चाहता है

धोबी होकर
अपने
मातहतों को
गधा बना कर
धोना चाहता है

सबसे
अच्छा गधा
होने के लिये
वाहन चालक होना
जरूरी माना जाता है

कम्प्यूटर
जानने वाला गधा
दूसरे नम्बर पर
रखा जाता है

गधा बनाने
की प्रक्रिया में
जाति धर्म
देश प्रदेश पर
ध्यान नहीं
दिया जाता है

सोशियल
मीडिया में
भेजा गया गधा

कभी अपना
खाली दिमाग
नहीं लगाता है

खुद ही
अपने लिखे
लिखाये से

किसका
गधा हूँ
बता जाता है

किसी के
सच का आईना
सामने लाने पर
गधों का एक समूह
पगला जाता है

तर्क देना
जरूरी नहीं
माना जाता है

घेर कर
ऐसे ही सच को

गधों
के द्वारा
लपेटने या पटकने
का प्रयास
किया जाता है

हर गधा
अपने सामने वाले के
गधेपन का फायदा
उठाना चाहता है

‘उलूक’ खुद
एक गधा
समझता है
खुद को

अपने
आसपास
के धोबियों से

अपनी पीठ
बचाने का हिसाब
खुद ही लगाता है

कभी
फंस जाता है
कभी
थोड़ा कुछ
बचा भी ले जाता है

माफ करेंगे
विद्वान लोग

गधा धोबी
पुराण से
देश चल रहा
हो जहाँ

वहाँ
जो जितनी जोर से
रेंक लेता है

उतना
सम्मानित
बता कर
उपहारों से
लाद दिया जाता है

बहुत ज्यादा
एक ही बार में
लिखना ठीक
भी नहीं है

छोटी छोटी
कहानियाँ
गधों की
मिला कर भी
गधा पुराण
बनाया जाता है ।

चित्र साभार: https://moralstories29897.blogspot.com

शनिवार, 17 नवंबर 2018

निकाय चुनाव चन्डूखाना और गणित शहर की चैन की साँसों के अंतिम पड़ाव की शाम आँसू बहा रही है

कुछ
के लिये
नशा है

कुछ
के लिये
मगजमारी है

निकाय चुनाव
की पूर्व संध्या पर

हार जीत के
गणित के सवाल

हल करना
अभी अभी तक
सुना गया है

जारी है

भाई
किस को
दे रहें हैं
मत अपना

बहनें
किस धारा में
बहने जा रही हैं

पता
करने वाले
जुगाड़ी 
लगे हुऐ है
जुगाड़
लेकर अपने


किसी के
सवाल
सरल से हैं
किसी के
बहुत भारी हैं

कोई
बुजुर्गों को
बहला रहा है

उम्र के लिहाज

के पलड़े को
शरम आ रही है

कोई
जवानों के
सपनों को
ठोक रहा है

सपने

दिखा दिखा कर

दिन भी
उनके लिये
रात हो जा रही है

निचोड़
सब का
निकाल कर
देखने पर

एक
ही बात
समझ में
आ रही है

एक
दल छोड़ने
को तैयार नहीं है

देख रहा है
गधे की लगी
सामने से
ही सवारी है


एक

गधे पर ही
बाजी लगाने
का मन
बना चुका है

दल की

ऐसी तेसी
करने की
उसकी
तैयारी है


गधे
खुश हैं बहुत

इधर से नहीं

तो उधर से

उन्हीं के किसी
रिश्तेदार को
सेहरा बंधने
की तैयारी है

‘उलूक’ ने
हर हाल में
नोचने हैं खम्बे

खबर है
चन्डूखाने की

कि
शहर
की उसके

किस्मत
फूटने की घड़ी

जल्दी ही
भिजवाने की

सरकार
कहीं दूर
बियाँबान में

मुनाँदी
करवा रही है ।

चित्र साभार:
https://www.amarujala.com/uttar-pradesh/kanpur/niveditas-chair-in-danger

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

कुछ नहीं हो सकता है एक पक चुकी सोच का किसी कच्ची मिट्टी को लपेटिये जनाब

फूल होकर
डाल से उतरा

पक पका गया
एक फल
हो चुकी है आज

कैसे 

फिर से वही
बीज हो जाये 



जिस से
पैदा हुयी थी
कभी जनाब

कैसे बदलें
अब इस
पुरानी सोच को

सोच भी
नहीं पा रहे हैं
अपने आप

आप यूँ ही
कह देते
हैं हम से

अपनी
सोच को 
अब बदल
लीजिये जनाब

मित्र
पढ़ते हैं
कुछ लिखा
लिखाया हमारा

तुरन्त राय
देते हैं
जरूर एक दाग

बहुत साल
गधे रह लिये हैं

अब
घोड़े ही कुछ
सोच में
देख लीजिये जनाब

बेचैनी
शुरु होती है
क्या करें
जब देख लेते हैं
कुछ धुँआ
कहीं पर बिना आग

आग की बात कर
धुँआ दिखा कर ही
रोटियाँ सेक रहे हैं
सबसे बड़े साहब

अब आज ही
दिखे थे कुछ
दलाल घूमते हुऐ
अपने घर मोहल्ले
शहर के आस पास

कोई बिकेगा
कोई खरीदेगा
जल्दी ही कुछ

बड़ी कुर्सी पर
किसी के कहीं
जाकर बैठने
का जैसा
हो रहा है आभास

उम्र हो गयी
‘उलूक’ की
सीखते सीखते
सब गलत सलत सारा

ये होगा आपका हिसाब

कुछ नहीं
हो सकता है
माटी के पक चुके
इस घड़े का

जिसपर
अपनी सोच की
कलाकारी नक्काशी
उकेर देने वाले
अब नहीं भी कहीं

बस
उनके मीठे
अहसास बचे हैं

उसके पास
उसकी रूह के
बहुत पासपास

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

थोड़े से शब्दों से पहचान हो जाना, बहुत बुरा होता है ‘उलूक’, कवि की पहचान हो कर बदनाम हो जाना

हर गधे के पास एक कहानी होती है 'उलूक'

कल फिर
कविता से
मुलाकात
हो पड़ी

बीच
रास्ते में
पता नहीं
रास्ता रोककर

ना जाने
क्यों
हो रही थी खड़ी

हमेशा ही
कविता से
बचना चाहता हूँ

फिर भी
पता नहीं

कहाँ
जा कर

किस
खराब
घड़ी में

उसी के
आगे पीछे
अगल बगल
कहीं

अपने को
उलझन में
खड़ा पाता हूँ

समझाते
समझाते
थक जाता हूँ
कवि नहीं हूँ

बस
थोड़ा बहुत
लिखना पढ़ना
कर ले जाता हूँ

सीधे सीधे
भड़ास निकालना
ठीक नहीं होता है

चोर के मुँह
चोर चोर कहकर
नहीं लिपट पाता हूँ

डरना भी
बहुत जरूरी है
सरदारों से भी
और उनके
गिरोहों से भी

नये
जमाने के

इज्जतदारों से

किसी तरह

अलग रहकर

अपनी
इज्जत

लुटने से
बचाता हूँ


बख्श
क्यों नहीं
देते होंगे

कवि
और
उनकी
कविताएं

कुछ एक
शब्दों के
अनाड़ी
खिलाड़ियों को

टूट जाते हैं
जिनसे भूलवश

कुल्हड़
भावनाओं
के यूँ ही
बेखुदी
में कभी
करते हुऐ
बेफजूल
इशारों को

पचने में
सरल सी
बातों से होती
बदहजमी को
जरा सा भी
समझ नहीं
पाता हूँ

कविताओं
की भीड़ से

दूर से ही

बस
उनसे नजरें
मिलाना
चाहता हूँ

कविता
अच्छी लगती है

पढ़ भी
ली जाती है

कभी कभी
थोड़ा बहुत
समझ में भी
आ जाती है

मजबूरियाँ
नासमझी की

बड़ी बड़ी
उलझी हुई 
लटें भी
सुलझा
कर कभी

आश्चर्यचकित

भी कर जाती हैं

पता नहीं
‘उलूक’
की
आड़ी तिरछी
लकीरें
बेशरम सी

क्यों
जान बूझ कर
कविताओं
की भीड़ में
जा जाकर
फिर फिर
खड़ी
हो जाती हैं

बहुत
असहज
महसूस
होने लगता है

ऐसे ही में
जब
एक कविता

सड़क
के बीच
खड़ी होकर
कुछ
रहस्यमयी
मुस्कुराहट
के साथ

कवि और
कविताओं
के बहाने

तबीयत
के बारे में
पूछना शुरु
हो जाती है । 


चित्र साभार:
http://www.poetrydonkey.com/

शनिवार, 10 नवंबर 2018

लिखा हुआ रंगीन भी होता है रंगहीन भी होता है बस देखने वाली आँखों को पता होता है

कुछ
रंगीन
लिखना

ज्यादा
ठीक
होता है
शायद

रंगहीन
कुछ
लिखने से

रंग जो
होते ही
नहीं हैं
कहीं भी

वो रंग

जो
बन भी
नहीं पाते हैं

कुछ
रंगों को
आपस में
मिला देने से

किसलिये लिखने ?

आभास
होना
जरूरी है
आभासी
भी हो तब भी

तितलियाँ
मधुमक्खियाँ
भटक जाती हैं
या
ऐसा प्रतीत होता है

कागज के
फूल पत्तियों पर
उतर आती हैं

हो सकता है
चाह कर
जान बूझ कर
करती हों ऐसा

वर्णान्धता
ओढ़ लेना
कहना

या
प्रयोग करना
कुछ
अजीब सा
लगता है

लेकिन
आँखों को

अपने
मन से
अपने
हिसाब से

देख लेना
सिखा दिया
गया होता है

समय
को पता
नहीं होता है

अपने
आस पास
के फूल भी
दिखते हैं

अपने
आस पास
के फूलों पर
मंडराते
भंवरे भी
साफ साफ
नजर आते हैं

हर आँख
फूल देखे
हर आँख
भँवरे पर
उतर जाये
जरूरी
नहीं होता है

रंगीन
समझने
वालों के लिये
हर रंग का
अन्दाज
अलग होता है

‘उलूक’
रात के काले
और
सुबह के
सफेद रंग
के बीच के

काले सफेद
को ही लिख
लेता कभी

रंगहीन
लिखते
चले जाने से

रंगों को
मुँह फेर ही
लेना होता है

वर्णान्ध होना

रोग भी होता है

रंगों से
बेरुखी हो
तो हो लेना भी
बुरा नहीं होता है ।


चित्र साभार: https://www.tolerance.org/