गुपचुप गुपचुप गुमसुम गुमसुम
अंधेरे में खड़ी हुई तुम
अलसाई सी घबराई सी
थोड़ा थोड़ा मुरझाई सी
बोझिल आँखे पीला चेहरा
लगा हुवा हो जैसे पहरा
सूरज निकला प्रातः हुवी जब
आँखों आँखों बात हुवी तब
तब तुम निकली ली अंगड़ाई
आँखो में फिर लाली छाई
चेहरा बदला मोहरा बदला
घबराहट का नाम नहीं था
चोली दामन साँथ नहीं था
हँस कर पूछा क्या आओगे
दिन मेरे साथ बिताओगे
अब साया मेरी मजबूरी थी
ड्यूटी बारह घंटे की पूरी थी
पूरे दिन अपने से भागा
साया देख देख कर जागा
सूरज डूबा सांझ हुवी जब
कानो कानो बात हुवी तब
तुम से पूछा क्या आओगे
संग मेरे रात बिताओगे
सूरज देखो डूब गया है
साया मेरा छूट गया है
बारह घंटे बचे हुए हैं
आयेगा फिर से वो सूरज
साया मेरा जी जायेगा
तुम जाओगे सब जायेगा
अब यूँ ही मैं घबरा जाउंगा
गुपचुप गुपचुप गुमसुम गुमसुम
अपने में ही उलझ पडूंगा ।
बहुत खूबसूरत..एक से एक लफ़्ज़ जैसे कि एक माला मे पेरो दिये हों..आनंद आ गया.
जवाब देंहटाएंगुपचुप गुपचुप
जवाब देंहटाएंगुमसुम गुमसुम
अपने में ही
उलझ पडूंगा।
-बढ़िया है.
बहुत खुबसुरत व उम्दा रचना। बहुत-बहुत बधाई,,,,,,,........
जवाब देंहटाएंहम सुलझे हुओं को
जवाब देंहटाएंदेखा दिया है उलझा
अब सुलझा तब सुलझा
कहां सुलझा नहीं सुलझा
गुमसुम गुपचुप सब गुमचुप।
बेहतरीन भाव, बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुती साथ ही वो हुआ कि जगह हुवा का भाव...प्रात: हुवी(हुई) जब
जवाब देंहटाएंएक अलग एहसास रहा पढ़ना। बेहतरीन
कल 13/अगस्त/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंउलूक के पिटारे में व्यंग्य में भिगोई गयी लच्छेदार बातों के अलावा भी बहुत कुछ है.
जवाब देंहटाएंउलूक अब बहुत अच्छी और भावुकतापूर्ण कविता भी करने लगा है.