रोज
घर के
घर के
कूड़े की
एक थैली
बनाता है
मुंह अंधेरे
एक चेहरा
खिड़की से
बाहर
निकल
निकल
कर आता है
ताकत लगा
कर
थैली को
थैली को
दूसरे घर
के
आंगन में
आंगन में
पहुँचाता है
चेहरा
खिड़की बिना
आवाज किये
बंद करता
हुआ
लौट
लौट
कर अपने
बिस्तरे पर
जा कर
फिर से
लुढ़क
जाता है
इस आँगन
से उस
आँगन तक
होता हुवा
थैला
थैलों
थैलों
से टकराते
छटकते
अंतत:
कूडे़दान
में
समा तो
समा तो
नहीं पाता है
पर कुछ
मुरझाये
कुछ
थके हारे
थके हारे
सा होकर
सड़क तक
पहुँच कर
फट फटा
जाता है
कूड़ा अंदर
का निकल
कर बाहर
खुले में फैल
जाता है
बाहरी कूडे़
का
सलीकेदार
सलीकेदार
प्रबंधन
मेरे
मेरे
शहर के हर
पढे़ लिखे
को आता है
जैविक अजैविक
कूडे़ की थैलियाँ
आते जाते
कहीं ना कहीं
टकरा
ही जाती हैं
घर वालों
की
की
औकात
कूड़े
कूड़े
में फेंके गये
सामान से
मेल भी
खाती हैंं
थोड़ी सी
बात 'उलूक'
के
पाव भर
पाव भर
के
हवा भरे
हवा भरे
दिमाग में
बस यहाँ
पर नहीं
घुस पाती है
दिमाग
में
में
भरे हुवे
कूडे़ का
निस्तारण
वही चेहरा
अपने
अंदर से
कौन से
थैले में
और
कहाँ
कहाँ
जा कर
कराता है
टी वी
में
में
होता है कुछ
रेडियो
में
में
होता है कुछ
कुछ
अखबार
के
समाचार में
समाचार में
चिपका हुआ
नजर आता है
चेहरा
अपने
अपने
अंदर के कूड़े
के साथ
ईमानदारी
दिखाता है
कोई थैला
कहीं भी
फटा हुआ
किसी गली
किसी सड़क
में नजर
दूर दूर
तक भी
नहीं आता है ।
चित्र साभार: cliparts.co
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