उलूक टाइम्स: अंधे
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मंगलवार, 21 मई 2019

लगती है आग धीमे धीमे तभी उठता है धुआँ भी खत्म कर क्यों नहीं देता एक बार में जला ही क्यों नहीं दे रहा है


नोट: किसी शायर के शेर नहीं हैं ‘उलूक’ के लकड़बग्घे हैं पेशे खिदमत

शराफत
ओढ़ कर
झाँकें

आईने में
अपने ही घर के

और देखें

कहीं
किनारे से

कुछ
दिखाई तो
नहीं दे रहा है
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पता
मुझको है
सब कुछ

अपने बारे में

कहीं
से कुछ
खुला हुआ थोड़ा सा

किसी
और को

बता ही
तो
नहीं दे रहा है
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खुद को
मान लें खुदा

और
गलियाँयें
गली में ले जाकर

किसी को भी घेर कर

कौन सा
कोई
थाना कचहरी

ले जा ही
जो क्या ले रहा है
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बदल रही है
आबो हवा
हर मोहल्ले शहर 

छोटे बड़े की

किस लिये अढ़ा है

मुखौटा
नये फैशन का

खुद के
लिये भी

सिलवा ही
क्यों नहीं ले रहा है
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बहुत अच्छा
कोई है

बहुत दूर है

चर्चा बड़ी है
बड़ा जोर है

श्रृँ
खला की
उसकी सोच का
अन्तिम छोर
पास का

दिखा रहा है
कितना मोर है

जँगल
में उसके
नाचने का
अंदाज अच्छे का

समझ में
आ रहा है

समझा ही
क्यों नहीं दे रहा है
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पेट
भरना भी
जरूरी है पन्नों का

कुछ भी
खिलाना
गलत है
या सही है

सोचना बेकार है

भूख मीठी
होती है भोजन से

रोज
कुछ ना कुछ

खिला ही
क्यों नहीं दे रहा है
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शेर
हर तरफ से
लिखे जा रहे हैं
शेरों के लिये

बहुत हैं
शायर यहाँ

कुछ नयी चीज लिख

“लकड़बग्घे” ही सही

लिख कर
दिखा 
ही
क्यों नहीं दे रहा है
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‘उलूक’
आँख के अंधे

रख
क्यों नहीं लेता
नाम अपना
नया कुछ नयन सुख जैसा

बस
दो ही दिन
के बाद में
मत कह बैठना

कुछ भी कहीं
अपने
मतलब का

सुनाई
क्यों नहीं दे रहा है
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चित्र साभार: https://pngtree.com

सोमवार, 23 मई 2016

लिखना हवा से हवा में हवा भी कभी सीख ही लेना

कफन
मरने के
बाद ही
खरीदे
कोई

मरने
वाले के लिये
अच्छा है

सिला सिलाया
मलमल का
खूबसूरत सा
खुद पहले से
खरीद लेना

जरूरी है
थोड़ा सा कुछ
सम्भाल कर
जेब में उधर
ऊपर के लिये
भी रख लेना

सब कुछ इधर
का इधर ही
निगल लेने से
भी कुछ नहीं होना

अंदाज आ ही
जाना है तब तक
पूरा नहीं भी तो
कुछ कुछ ही सही
यहाँ कितना कुछ
क्या क्या
और किसका
सभी कुछ
है हो लेना

रेवड़ियाँ होती
ही हैं हमेशा से
बटने के लिये
हर जगह ही

अंधों के
बीच में ही
खबर होती
ही है

अंधों के
अखबारों में
अंधों के लिये ही

आँख वालों
को इसमें
भी आता है
ना जाने
किसलिये इतना
बिलखना रोना

लिखने वाले
लिख गये हैं
टुकडे‌ टुकड़े में
पूरा का पूरा
आधे आधे का
अधूरा भी
हिसाब सारा
सब कुछ कबीर
के जमाने से ही

कभी तो माना
कर जमाने के
उसूलों को
‘उलूक’

किसी एक
पन्ने में पूरा
ताड़ का पेड़
लिख लेने से
सब कुछ
हरा हरा
नहीं होना ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

इसका और उसका रहने दे ना देश सुना है जलजले से दस फिट खिसका है किसका क्या जाता है


नाम से लिखने पर बबाला हो जाता है 
इस और उस से काम चलाया जाये तो क्या जाता है 

अंधे देख रहे हैं अपने अपनो के कामों को 
कुछ कहना हो तो बहुत ही सोचना पड़ जाता है 

वैसे भी चम्मचें फैली हुई हैं इंटरनेट की दुनियाँ में 
गरीब और उसकी सोच पर बात करने वाला 
सबसे बड़ा पागल एक हो जाता है 

टी वी पर बहस देखिये 
इसका भी होता है उसका भी होता है 
देखने वाले पागलों को क्या कहा जाता है 

बूंद बूंद से भरता है घड़ा
यही बताया यही समझाया भी जाता है 
बूंद पाप की होती है बहुत छोटी सी 
उसको अंदेखा करना अभिमन्यू की तरह 
पेट के अंदर ही सिखाया जाता है 

नाम नहीं ले रहा हूँ उसका घिन आती है 
ओले पकड़ने के लिये खेतों में क्यों नहीं जाता है 
उसकी बात कही है मैंने
तेरी समझ में आ गया होगा मेरी समझ में भी आता है 

कुछ कहने की हिम्मत नहीं है तुझ में 
तेरे को क्या मतलब है

चमचे
तुझे तो उसके लिये देश को रौंदना 
अच्छी तरह आता है ।

चित्र साभार: www.123rf.com