उलूक टाइम्स: भेड़
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रविवार, 21 जनवरी 2024

कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी

शीशे के घर में बैठ कर
आसान है बयां करना उस पार का धुंआ
खुद में लगी आग
कहां नजर आती है आईने के सामने भी तभी

बेफ़िक्र लिखता है
सारे शहर के घोड़ों के खुरों के निशां लाजवाब
अपनी फटी आंते और खून से सनी सोच
खोदनी भी क्यों है कभी

हर जर्रा सुकूं है
महसूस करने की जरूरत है लिखा है किताब में भी
सब कुछ ला कर बिखेर दे सड़क में
गली के उठा कर हिजाब सभी

पलकें ही बंद नहीं होती हैं कभी
पर्दा उठा रहता हैं हमेशा आँखों से
रात के अँधेरे में से अँधेरा भी छान लेता है
क़यामत है आज का कवि 

कौन अपनी लिखे बिवाइयां
और आंखिर लिखे भी क्यों बतानी क्यों है
सारी दुनियां के फटे में टांग अड़ा कर
और फाड़ बने एक कहानी अभी

‘उलूक’ तूने करनी है बस बकवास
और बकवास इतिहास नहीं होता है कभी
कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख
कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी 

नबी = ईश्वर का गुणगान करनेवाला, ईश्वर की शिक्षा तथा उसके आदेर्शों का उद्घोषक।
चित्र साभार: https://www.istockphoto.com/

रविवार, 28 जुलाई 2019

जरूरी है अस्तित्व बचाने या बनाने के लिये खड़े होना किसी ना किसी एक भीड़ के सहारे भेड़ के रेवड़ ही सही


जरूरी है
मनाना
जश्न 

कुत्तों के द्वारा
घेर कर
ले जायी जा रही
भेड़ों के  रेवड़ से
बाहर रहकर
जिन्दा बच गयी
भेड़ के लिये

गरड़िया
गिनता है भेड़ 

रेवड़ से बाहर
जंगल में
शेर की
शिकार
हो गयी भेड़ेंं

घटाना
जरुरी नहीं होता है

भीड़
भीड़ होती है
भीड़ का
चेहरा नहीं होता है

जरूरी भी
नहीं 
होता है कोई आधार कार्ड
भीड़ के लिये 

गरड़िये को
चालाक
होना ही पड़ता है

भेड़ें बचाने
के लिये नहीं

झुंड
जिन्दा रखने के लिये

भेड़ें बचनी
बहुत जरूरी होती हैंं
संख्या नहीं

लोकतंत्र
और भीड़तंत्र
के अलावा
भेड़तंत्र का भी
एक तंत्र होता है 

होशियार
लम्बे समय
तक जीते हैं

मूर्ख
मर जाते हैं
जल्दी 
ही
अपने
कर्मों के कारण 

जन्म भोज
से लेकर
मृत्यू भोज तक
कई भोज होते हैं

बात
आनन्द
ले सकने
की होती है

उसके
लिये भी
किस्मत होनी
जरूरी होती है 

इक्यावन
एक सौ एक
से लेकर करोड़
यूँ ही फेंके जाते हैं

किसी
एक भंडारे में
कई लोग
पंक्ति में बैठ कर
भोजन करते हुऐ
सैल्फी खिंचाते हैं

भेड़ेंं
मिमियाने में ही
खुश रहती होंगी
शायद

उछलती कूदती
भेड़ों
को देखकर
महसूस होता है

‘उलूक’
भेड़ें बकरियाँ
कुत्ते बन्दर गायें
बहुत कुछ सिखाती हैं

किस्मत
फूटे हुऐ लोग
आदमी
गिनते रह जाते हैं

आदमी
गिनने से
तरक्की नहीं होती है

जानवरों की
बात करते करते
बिना कुछ गिने

कहाँ से कहाँ
छ्लाँग
लगायी जाती है

स्टंट
करने वाले
बस
फिल्मीं दुनियाँ
में ही
नहीं पाये जाते हैं

बिना डोर की
पतंग
उड़ाने की
महारत
हासिल कर गये लोग

चाँद में
पतंग रख कर
वापस भी आ जाते हैं

वैज्ञानिक
हजार करोड़
से उड़ाये गये
राकेट के
धुऐं के चित्र
देख देख कर

अपने कॉलर
खड़े करते हैं
कुछ
ताली बजाते हैं
कुछ
मुस्कुराते हैं ।

चित्र साभार: www.clipartlogo.com

मंगलवार, 8 मई 2018

टिप्पणियों पर बिफरते नये शेर को देख कर पुराने हो चुके भेड़ को कुछ तो कह देना हो रहा है

सब कुछ
एक साथ
नहीं दौड़ता है

टाँगें
कलम हो जायें
बहुत कम होता है

वजूका
खेत के बीच में
भी हो सकता है
कहीं किनारे पर
बस यूँ ही खड़ा
भी किया होता है

कहने लिखने को
रोज हर समय
कुछ ना कुछ
कहीं किसी
कोने में
जरूर होता है

लिखे हुऐ
सारे में से
जान बूझ कर
नहीं लिखा गया
कहीं ना कहीं
किसी पंक्ति
के बीच से
झाँक रहा होता है

समुन्दर
लिख लेने
के बाद
नदी लिखने
का मन
किसी का
होता होगा
पता कहाँ
चलता है

कलम की
पुरानी
स्याही को
नाले के पास
लोटे में धोना
और फिर
चटक धूप में
सुखा कर
नयी स्याही
भर लेना

एक पुराना
मुहावरा
हो चुका
होता है

नये मुल्ले
और
प्याज पर
लिखने से
दंगा भड़कने
का अंदेशा
हो रहा
होता है

रोज के
रोजनामचे
को लिखने
वाले ‘उलूक’
का दिल

साप्ताहिक
हो लेने
पर भी
बाग बाग
हो रहा
होता है

लिखना
लिखाना
और
उस पर
टिप्पणी
पाने की
लालसा पर

हमेशा
की तरह
नये सिपाही
का बंदूक
तानने पर

अपनी
पुरानी
जंक लगी
बन्दूक से
खुद का
फिर से
सामना
हो रहा
होता है

अपना लिखना
अपने लिखे को
अपना पढ़ लेना
समझ में आ जाना
सालों साल में

पुराने प्रश्न से
जैसे नया
सामना हो
रहा होता है ।

सोमवार, 11 मई 2015

बकरी और शेर भेड़िया और भेड़

भेड़िये ने
खोल ली है
आढ़त
बीमे कराने की

भेड़ें
बहुत खुश हैं अब

मरेंगी भी तो

मेमने
सड़क पर
नहीं आयेंगे

खा पी सकेंगे
बढ़ा सकेंगे खून
तब तक जब तक
शरीर के बाल उनके
बड़े नहीं हो जायेंगे

वैसे भी
भेड़िये को
कुछ नहीं
करना होता है

समझदार
भेड़िये का
एक इशारा ही
बहुत होता है

भेड़ेंं
पढ़ लिख
कर भी
अनपढ़ बनी रहें

इसका
पूरा इंतजाम
उनके पाठ्यक्रम
में ही दिया होता है

बेवकूफी
भेड़ों की
नस नस में
बसी होती है

भेड़िये
का आम
मुख्तार
होने की
हौड़ में
भेड़ें ही
भेड़ों से भिड़
रही होती हैं

इन सब में
‘उलूक’
बस
इतना ही
सोच
रहा होता है

काटने
के बाद
गर्दन
भेड़ की

किस जगह
दुनियाँ में
दूसरा कौन
ऐसा और है

जो पैसे
बीमे के
गिन रहा
होता है ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

गुरुवार, 22 मई 2014

पहचान के कटखन्ने कुत्तों से डर नहीं लगता है

पालतू
भेड़ों की
भीड़ को
अनुशाशित
करने के
लिये ही

पाले
जाते हैं
कुत्ते
भेड़ों को
घेर कर
बाड़े तक
पहुँचाने में
माहिर
हो जाने से
निश्चिंत
हो जाते हैं
भेड़ों के
मालिक

कुत्तों के
हाव भाव
और चाल
से ही रास्ता
बदलना
सीख लेती
हैं भेड़े

मालिक
बहुत सारी
भेड़ों को
इशारा करने
से अच्छा
समझते हैं
कुत्तों को
समझा लेना

भेड़ों
को भी
कुत्तों से
डर नहीं
लगता है

जानती हैं
डर के आगे ही
जीत होती है

भेड़ों को
घेर कर
बाड़े तक
पहुँचाने का
इनाम

कुछ
माँस के टुकड़े

कुत्ते
भेड़ों के
सामने से
ही नोचते हैं

भेड़े
ना तो खाती हैं
ना ही माँस
पसँद करती हैं

पर
उनको
कुत्तों को
माँस नोचता
देखने की
आदत
जरूर हो
जाती है

रोज
होने वाले
दर्द की
आदत
हो जाने
के बाद
दवा की
जरूरत
महसूस
नहीं होती है ।

मंगलवार, 6 मई 2014

जिसको काम आता है उसको ही दिया जाता है

अपनी
प्रकृति के
हिसाब से

हर
किसी को

अपने
लिये काम
ढूँढ लेना

बहुत
अच्छी तरह
आता है

एक
कबूतर
होने से
क्या होता है

चालाक
हो अगर

कौओं को
सिखाने
के लिये भी
भेजा जाता है

भीड़
के लिये
हो जाता है
एक बहुत
बड़ा जलसा

थोड़े से
गिद्धों को
पता होता है

मरा
हुआ घोड़ा
किस जगह
पाया जाता है

बहुत
अच्छी बात है

अगर कोई
काली स्याही
अंगुली में
अपनी
लगाता है

गर्व करता है

इतराता हुआ
फोटो भी
कई खिंचाता है

चीटिंयों की
कतार चल
रही होती है
एक तरफ को

भेड़ो
का रेहड़
अपने हिसाब से

पहाड़ पर
चढ़ना चाहता है

एक
खूबसूरत
ख्वाब

कुछ दिनों
के लिये ही सही
फिल्म की तरह
दिखाया जाता है

देवता लोग
नहीं बैठते हैं
मंदिर मस्जिद
गुरुद्वारे में

हर कोई
भक्तों से
मिलने
बाहर को
आ जाता है

भक्तों
की हो रही
होती है पूजा

न्यूनतम
साझा कार्यक्रम
के बारे में

किसी
को भी
कुछ नहीं
बताया जाता है

चार दिन
शादी ब्याह
के बजते
ढोल नगाड़ों
के साथ

कितना भी
थिरक लो

उसके बाद

दूल्हा
अकेले दुल्हन के
साथ जाता है

तुझे
क्या करना है

इन
सब बातों से
बेवकूफ ‘उलूक’

तेरे पास
कोई
काम धाम
तो है नहीं

मुँह उठाये
कुछ भी
लिखने को
चला आता है ।

सोमवार, 7 अप्रैल 2014

आदत से मजबूर कथावाचक खाली मैदान में कुछ बड़बड़ायेंगे

भेड़ियों
के झुंड में
भेड़ हो चुके

कुछ
भेड़ियों के
मिमयाने की
मजबूरी को

कोई
व्यँग कह ले
या
उड़ा ले मजाक

अट्टहासों
के बीच में
तबले की
संगत जैसा ही
कुछ महसूस
फिर भी
जरूर करवायेंगे

सुने
ना सुने कोई

पर
रेहड़ में
एक दूसरे को
धक्का देते हुऐ
आगे बढ़ते हुऐ
भेड़ियों को
भी पता है

शेरों के
शिकार में से
बचे खुचे माँस
और
हड्डियों में
हिस्से बांट
होते समय

सभी
भेड़ों को
उनके अपने
अंदर के डर
अपने साथ
ले जायेंगे

पूँछे
खड़ी कर के
साथ साथ

एक दूसरे के
बदन से बदन
रगड़ते हुऐ
एक दूसरे का
हौसला बढ़ायेंगे

काफिले
की रखवाली करते
साथ चल रहे कुत्ते

अपनी
वफादारी
अपनी जिम्मेदारी

हमेशा
की तरह
ही निभायेंगे

बाहर की
ठंडी हवा को
बाहर की
ओर ही
दौड़ायेंगे

अंदर
हो रही
मिलावटों में

कभी
पहले भी
टाँग नहीं अढ़ाई
इस बार भी
क्यों अढ़ायेंगे

दरवाजे
हड्डियों के
खजाने के
खुलते ही

टूट पड़ेंगे

भेड़िये
एक दूसरे पर

नोचने
के लिये
एक दूसरे
की ताकत
को तौलते हुऐ

शेर को
लम्बी दौड़
के बाद की
थकावट को
दूर करने की
सलाह देकर

आराम करने का
मशविरा जरूर
दे कर आयेंगे

भेड़
हो चुके भेड़िये

वापस
अपने अपने
ठिकानो पर
लौट कर
शाँति पाठ
जैसा कुछ
करवाने
में जुट जायेंगे

पंचतंत्र
नहीं है
प्रजातंत्र है

इस
अंतर को
अभी
समझने में

कई
स्वतंत्रता
संग्राम
होते हुऐ
नजर आयेंगे ।