उलूक टाइम्स

मंगलवार, 27 मार्च 2012

खुदा और नजर

नजर से नजर मिलाता है
नजर की नजर से मार खाता है

महफिल वो इसीलिये सजाता है

बुला के तुझको वहाँ ले जाता है

नजरों के खेल का इतना माहिर है
तुझे पता है कितना शातिर है

तुझ को पता नहीं क्या हो जाता है
चुंबक सा उसके पीछे चला जाता है

सबको पहले से ही बतायेगा
उसके इक इशारे पे चला आयेगा

इस बार फिर से महफिल सजायेगा
तुझको हमेशा की तरह बुलायेगा

सब मिलकर नजर से नजर मिलायेंगे
तुझे कुछ भी नहीं कभी बतायेंगे
तुझको तेरी नजर से गिरायेंगे

पर तू तो खुदा हो जाता है
खुदा कहां नजर बचाता है
मिला कर नजर मिलाता है।

सोमवार, 26 मार्च 2012

लड़की भाग गयी

एक लड़की
बरतन धो के
परिवार चलाती है

गाँव के
उसी घर से
एक लड़की
एक लड़के
के साथ
भाग जाती है

खाने के
जुगाड़ में
बाप
हाड़ तोड़ता
चला जाता है

पता नहीं
बच्ची के हाथ में
मोबाइल
क्यों दे जाता है

पहाड़ के बच्चों में
एक नया खेल
चल रहा है

मोबाइल रखना
और
मोटरसाईकिल पे चलना
नये भारतीय मूल्यों की
रामायण रच रहा है

दो कदम
चल नहीं सकते
पहाड़ के नौनीहाल
जो कभी सेना में जाते थे

मेडिकल मे
अन्फिट हो रहे है
वो जो गुटका खाते थे

लड़के मोटरसाईकिल
लड़किया स्कूटी में ही जाते हैं
घर के नीचे से उसमें
वो सब्जी लाते हैं

दो किलोमीटर
की त्रिज्या के शहर मेंं 
पचास चक्कर लगाते हैं

बरतन
धोने वाली लड़की
कल से काम पे
नहीं जाती है

बहन ढूढने को बेचारी
थाने के चक्कर लगाती है

गाँव गाँव में पहाड़ के
रोजगार नहीं मिल पाता है

पत्थर तोड़ने भी आदमी
पैदल दूर शहर में जाता है

खाने को रोटी तब भी
बड़ी मुश्किल से पाता है

क्यों उसके बच्ची को
मोबाईल मिल जाता है
और
बच्चा उसका
मोटरसाईकिल चलाता है

पैट्रोल चोरने के लिये
फिर एक पाईप लगाता है

ये सब करना
भी सही चलो
पर इन सब
बातों से ही
एक बाप
अपनी बेटी
पहाड़ की
मुफ्त में
बिकवाता है

लड़की को एक
बरतन धोने
पे लगाता है
लड़की मेहनत से
परिवार चलाती है
मोबाईल के चक्कर
में बहन गवांती है
रोती जाती है लड़की
रोती जाती है।

रविवार, 25 मार्च 2012

सारे साहब

अपने रोज के नये साहब
को नया सलाम बोलता है
आके फिर से यहाँ
वो किताब खोलता है
सुबह खोलता है
शाम खोलता है
किताब के पन्ने
एक गुलाम खोलता है
देख कर नये पन्ने
जब दिमाग डोलता है
कई बार खोलता है
अपने आप बोलता है
खेल नहीँ खेलता है
खिलाड़ी को झेलता है
फुटबाल बना के कोई
जब हवा पेलता है
हर कोई अपने को
साहब बोलता है
गुलाम कभी नहीं
जुबान खोलता है
अपने रोज के नये साहब
को नया सलाम बोलता है
आके फिर से यहाँ
वो किताब खोलता है।

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

धुआँ

जरूरी नहीं 
कुछ जले और धुआँ भी उठे

धुऎं का धुआँ बनाना तो
और भी मुश्किल काम है

कब कौन क्या जला ले जाता है
किसी को पता नहीं चल पाता है

हर कोई अपना धुआँ बनाता है
हर कोई अपना धुआँ फैलाता है

कहते हैं 
आग होगी तो धुआँ भी उठेगा

माहिर लोग 
इन सब बातो को नहीं मानते हैं

वो तो 
धुऎं का धुआँ बनाना 
बहुत ही अच्छी तरह जानते हैं

बहुत बार
धुआँ धुऎं में ही मिल जाता है
कौन किसका धुआँ था 
पता नहीं लग पाता है

ये भी जरूरी नहीं 
हर चीज जल कर धुआँ हो जाये
बिना जले भी कभी कभी धुआँ देखा जाता है

धुऎं का धुआँ बनाकर धुआँ देखने वाला 
खुद कब धुआँ हो जाता है
ये धुआँ जरूर बताता है।

चित्र साभार: imgarcade.com

गुरुवार, 22 मार्च 2012

चेहरे


चेहरे दर चेहरे
कुछ
लाल होते हैं
कुछ होते हैं
हरे

कुछ
बदलते हैं 
मौसम के साथ

बारिश में 
होते हैं
गीले
धूप में हो 
जाते हैं
पीले

चेहरे चेहरे 
देखते हैं

छिपते हुवे
चेहरे
पिटते हुवे
चेहरे

चेहरों
को कोई 
फर्क पढ़ना 
मुझे नजर 
नहीं आता है

मेरा चेहरा 
वैसे भी 
चेहरों को 
नहीं भाता है

चेहरा शीशा 
हो जाता है 

चेहरा
चेहरे को 
देखता तो है
चेहरे में चेहरा 
दिखाई दे जाता है

चेहरे
को चेहरा 
नजर नहीं आता है
चेहरा अपना 
चेहरा देख कर
ही
मुस्कुराता है 
खुश हो जाता है

सबके 
अपने अपने 
चेहरे हो जाते हैं

चेहरे
किसी के
चेहरे को 
देखना कहाँ 
चाहते हैं

चेहरे बदल 
रहे हैं रंग 
किसी 
को दिखाई 
नहीं देते हैं

चेहरे
चेहरे को 
देखते जा रहे हैं
चेहरे अपनी 
घुटन मिटा रहे हैं

चेहरे
चेहरे को 
नहीं देख पा रहे हैं
चेहरे पकड़े 
नहीं जा रहे हैं
चेहरे चेहरे 
को
भुना रहे हैं

चेहरे दर चेहरे
कुछ
लाल होते हैं
कुछ होते हैं
हरे

कुछ
बदलते हैं 
मौसम के साथ

बारिश में 
होते हैं गीले
धूप में हो 
जाते हैं पीले।