उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

परिभाषायें बदल देनी चाहिये अब चोर को शरीफ कह कर एक ईमानदार को लात देनी चाहिये

सारे
शरीफ हैं

और

एक भीड़
हो गयी है

शरीफों की

तू
नहीं है
उसमें

और
तुझे
अफसोस
भी नहीं
होना चाहिये

किसलिये
होना है
होना ही
नहीं चाहिये

किसलिये
लपेट कर
बैठा है

कुछ कपड़े

ये
सोच कर


ढक लेंगे
सारा सब कुछ

नंगों का
कुछ नहीं
होना है

नंगा
भगवान होता है

होना भी चाहिये

एक
मन्दिर में

मन्दिर
वालों के
पाले हुऐ

कुछ
कबूतरों ने
बर्थडे
केक काटा

जन्मदिन
होता है
होना है

होना भी चाहिये

मन्दिर
प्राँगण में
शोर मचाया

कुछ
लोगों
ने देखा 

कुछ
बुदबुदाया

और 
इधर उधर
हो गये
उनमें
मैं भी एक था

आप मत मुस्कुराइये

लिखने
लिखाने से 
कभी कुछ
हुआ है क्या 

जो अब होना चाहिये

हिम्मत
होती ही
नहीं है 
नंगई
लिखने की

नंगों के
बीच में
रहते हैं
 शराफत से
कुछ नंगे

शरीफ
भी कुछ
हम जैसे

शराफत से
नंगई
छिपाते हुऐ

कुछ
कहना है

कुछ नहीं
कहना है

कहना भी नहीं चाहिये

सारा
सब कुछ
लिख भी
दिया जाये

तो भी क्या होना है

सबने
अपनी अपनी
औकात का रोना है

लिखना पढ़ना
पढ़ना लिखना

दो चारों के बीच
ही तो होना है

घर घर में
लगे हैं
ग़णेश जी के चूहे

उन्होने ही
सारा
सब कुछ
खोद देना है

‘उलूक’
गिरते
मकान को
छोड़ने की
सोचने से पहले

गणेश
की भी
और
उसके
चूहों की भी

जय जयकार
करते हुऐ

अब सबको रोना है

रोना भी चाहिये।

चित्र साभार: http://paberish.me/clip-art-of-owl-on-book/clip-art-of-owl-on-book-read-birthday-cake-ideas

बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

समझ में नहीं आ रही है ऊँचाई एक बहुत ऊँची सोच की किसी से खिंचवा के ऊँची करवा ही क्यों नहीं ले रहा है

एक
बहुत बड़ी सोच 
रख दी गयी है 
बहुत ऊँचाई पर ले जाकर 

बहुत दूर से अब
अंधे को भी 
कुछ कुछ सोचता एक 
बड़ा सा सिर दिखाई दे रहा है 
दीवारों में
छपवा ही क्यों नहीं दे रहा है 

खर्चा
बहुत हो गया है कह रहे हैं कुछ लोग 
जिनकी सोच शायद छोटी है 

हिसाब किताब 
थोड़े से हजार थोड़े से करोड़ों का 
अच्छी तरह से कोई उन्हें 
समझा ही क्यों नहीं दे रहा है 

सोच का
भूख गरीबी या बदहाली से 
कोई रिश्ता नहीं होता है
भूखा बस रोटी सोच सकता है 

खिलाना कौन सा है 

सपने ही 
कुछ बड़ी सी रोटियों के 
दिखा ही क्यों नहीं दे रहा है 

कुछ भरे पेट 
कुछ भी सोचना शुरु कर देते हैं 

कुछ बड़ा सोचने के लिये 
कुछ बड़े लोगों के बड़े प्रमाण पत्र 
पास में होना बहुत जरूरी होता है 

इतनी छोटी सी बात है 
किसी भाषण के बीच में 
बता ही
क्यों नहीं दे रहा है 

कुछ बड़ा ही नहीं
बहुत बड़ा बनाने के लिये 
बड़ा दिल पास में होना ही होता है 

रामवृक्ष बेनीपुरी के लिखे निबन्ध का 
गेहूँ भी और गुलाब भी 
इतना पुराना हो गया होता है 
कि 
सड़ गया होता है 

सड़ा कुछ
बहुत बड़ा सा ला कर 
सुंघा ही क्यों नहीं दे रहा है 

अच्छा किया ‘उलूक’ 
तूने टोपी पहनना छोड़ कर 

गिर जाती जमीन पर पीछे कहीं 
इतनी ऊँचाई देखने में 

टोपी पहनाना शुरु कर चुका है जो सबको 
उसके लिये 
बहुत बड़ी सी कुछ टोपियाँ 

तू किसी से 
खुद सिलवा ही क्यों नहीं दे रहा है ।

चित्र साभार: https://wonderopolis.org/wonder/who-is-the-tallest-person-in-the-world

रविवार, 28 अक्तूबर 2018

बकना जरूरी है ‘उलूक’ के लिये पढ़ ना पढ़ बस क्या लिखा है ये मत पूछ

शहीद राजेंद्र सिंह बुंगला


जय हिन्द 
भारत माता 
की
जय 
वन्दे मातरम 

हवाई यात्रा 
करते हुऐ 
एक 
कॉफिन बॉक्स 

एक
पत्थर से 
कूटी गयी
 लाश 

यात्रा
से
थकी हुयी 
जैट लैग
से 

कुछ
बंदूकें 
सलामी 

मंत्री 
मुख्य मंत्री 
प्रधान मंत्री 
संत्री
के
चित्रो से 
भरे

अखबार 
के
समाचार 

गर्व
करने 
साझा करने 
के
आदेश 

पालन
ना 
करने पर 
कुछ
महत्वपूर्ण 

जैसे
धरम 
छीन लेने 
की 
गीदड़ भभकी 
के
बीच 

बहुत 
दूर कहीं 

पहाड़ी 
गरीब
माँ बाप 

याद
करते हुऐ 
अपने
खून को 
उसके
जुनून को 

उसी
बच्चे की 
जिद पर 
बेच दिये गये 

रोजी रोटी
दिलाने 
वाले
घोड़े
सुकून को 

दो तीन
दिन 
की
कहानी 

जैसे
एक चिट्ठे 
पर
छपी

एक 
पोस्ट की
जवानी 

एक
वक्तव्य 
सेनाध्यक्ष
का 

देख लेने
की 
धमकी का 

पत्थर
मार कर 
कत्ल
कर दिये गये 

सपने
पर
सियासत 

कुछ
मालायें 
कुछ
मूर्तियाँ 
कुछ
जयजयकार 

एक
खींच कर 

लम्बा
कर दिये गये 
स्प्रिंग
का दोलन 

एक
आन्दोलन 

पत्थर से मर रहे जवान 

वन्दे मातरम 
बुलवा तो रहा है
कोई 

देख रहा है
उसे 
आज
पूरा हिंदुस्तान 

‘उलूक’
बेवकूफ 
हमेशा की तरह 
अंगूठा चूस 

सोचते हुऐ 
उसे
लेमनचूस 

नतमस्तक
चरणों में 

लिखा
उसका 
नहीं
समझ पाने वाले 

पाठकों
के लिये 
बनाता 

हमेशा
की तरह 
बकवासों
को 
मिला मिला
कर 
कोई जूस 

सोचता हुआ 

बकवास 
करने वालों
की 
कोई नहीं 
होती है
पूछ 

जय हिन्द 
भारत माता
की जय 
वन्दे मातरम
की 
जरूरी है
बहुत 
कब्रगाहों
में
भी गूँज। 

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

घोड़ा ऐनक या होर्स ब्लाइंडर किस किस को समझ आ जाता है?

कैसे
पता करे
कोई खुद

कि


वो होश में है
या बेहोश है

वहाँ जहाँ


बेहोश रहने को
होश का पैमाना
माना जाता है

आँख में
चश्में लगे हो भी
और 

नहीं भी हों

दिखायी
दे जाता है
साफ साफ

बहुत दूर से
नजर भी
आ जाता है

सोच
के चश्में
किसी की
सोच में

शायद कोई
दूर वाला
बहुत दूर से
बैठ कर भी
लगा ले जाता है

एक जैसी
लकीर को
खींचते हुऐ
एक दो नहीं

एक
बहुत
बड़ी भीड़
का स्वभाव
एक सा
हो जाता है

जहाँ

बस लकीर
खींचनी ही
नहीं होती है

खींचने के बाद
एक ही तरीके से
उसे पीटना
आना भी
बहुत जरूरी
माना जाता है

बस

इसी
तस्वीर के
अन्दर
झांंकने पर

आदमी का
घोड़ा हो जाना

और
घोड़े का
ऐनक लगाकर
सीधी
एक लकीर
पर चलते चलते

एक शतरंज
की बिसात में
खड़े वजीर के लिये
फकीर हो जाना

समझ में आना
शुरु हो जाता है

घो‌ड़े
की आँखों में
ऐनक लगाना तो

जरूरी
हो जाता है
उसे रास्ते से
भटकने से
बचाने के लिये

सामने
देखने के लिये
इसी तरह मजबूर
किया जाता है

घोड़े
वफादार भी होते हैं
ऐनक लगी रहती है
दिखायी देती है

वफादारी
देखने के लिये
चश्मा
बना बनाया
बाजार में
नहीं पाया जाता है
जरूरी भी नहीं होता है

खबर में
घोड़ों का
आदमी को काट
खाने का वाकया

छपा हुआ
नजर में नहीं
ही आता है

अजीब बात है
कब आदमी
आदमियों की
भीड़ के बीच में

आँख में
ऐनक लगे घोड़ों से
अपने को
घिरा हुआ होना
महसूस करना
शुरु हो जाता है

कौन होश में है
कौन बेहोश है

कैसे समझ में आये
किस से पूछा जाये

ऐसी बात
कोई सीधे सीधे
जो क्या बताता है

और  ‘उलूक’ भी

पता नहीं

आदमी और
घोडों के बीच
एक ऐनक
को लेकर

होश और बेहोश
के पैमाने लेकर

क्या किसलिये
और क्यों नापना
शुरु हो जाता है ?

चित्र साभार: http://lakhtakiyabol.com

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

आज कुछ हड्डी की बात थोड़ा चड्डी की बात कुछ कबड्डी की बात

"चिट्ठे ‘उलूक टाइम्स’ तक पहुँचे 18 लाख कदमों के लिये दर्शकों पाठकों और टिप्पणीकारों को दिल से आभार" 



किसी को लग रहा है 
कबड्डी चल रही है 

जी नहीं 
ये एक जगह की 
बात नहीं है जनाब 

देश में 

हर गली मोहल्ले में 
ध्यान से देखिये जनाब 

कान खोलिये नाक खोलिये 
आँख खोलिये जनाब 

बस एक हड्डी 
और 
बस हड्डी 

चल रही है जनाब 

हड्डी चलती है 
उसके चल जाने के बाद 
कबड्डी चलती है जनाब 

कबड्डी किस के बीच में चल रही है 
बस यही मत देखिये जनाब 

कबड्डी के मैदान के आस पास ढूँढिये 
जरूर दिखेगी 
कोई ना कोई आपको 
हड्डी जनाब 

जमाना हड्डियों का है 
इशारे से हो रही हैं 
छोटे बड़े सारे मैदानों में 
कबड्डियाँ जनाब 

और 

आप का ध्यान 
भटक रहा है 
बस राजधानी की कबड्डी पर 
जा कर अपने आप 

हो सकता है 
शौक रहा हो आपको भी कभी 
कबड्डी का बेहिसाब 

खेलने की इच्छा हो रही हो 

हो सकती है 
भड़क रही हो इसलिये 
क्या पता अन्दर की आग 

इसीलिए बन भी रही हो 
सोचते सोचते सोच की भाप 

पकड़ने वाले कर रहे हैं 
पकड़ पकड़ 
खेतों के बीच घुसे हुऐ हैं 
बहुत बड़ी बड़ी उगा कर घास 

छूट जा रहे हैं 
इस सब में नेवलों के हाथों से 
पकड़े हुऐ जहरीले साँप 

जमाना बदल रहा है 
इन्द्रियों बेचारी रह गयी 
आप के पास अभी तक पाँच 

जागृत करिये छटी इन्द्री 
हो सके तो सातवीं और आठवीं भी 

बन सको आप भी संजय महाभारत के 
माहिर हो कर घर बैठे बैठे लो पैंतरे भाँप 

‘उलूक’ क्या देखता है 
रात को उठा हुआ 
दिन में सोया हुआ 

रहने भी दो जनाब 

हड्डी हो या चड्डी या कबड्डी 
कोई मेल नहीं दिखता 

चलने दीजिये 
मान कर उसकी 
आखें कान नाक हो गयी हैं 
बहुत ज्यादा खराब 

छोटी सी बात को 
करने लगा है बड्डी बड्डी और बड्डी 
खेलने के लिये खुद 
बातों की कबड्डी जनाब । 

चित्र साभार: http://www.clipartguide.com