चिट्ठियाँ इस जमाने की
बड़ी अजीब सी हो गई हैं
आदत रही नहीं
पड़े पड़े पता ही नहीं चला एक दो करते
बहुत बड़ा एक कूड़े का ढेर हो गई हैं
कितना लिखा क्या क्या लिखा
सोच समझ कर लिखा तौल परख कर लिखा
किया क्या जाये अगर पढ़ने वाले को ही
समझ में नहीं आ पाये
कि
उसी के लिये ही लिखी गई हैं
लिखने वाले की भी क्या गलती
उससे उसकी नहीं बस अपनी अपनी ही
अगर कही गई है
अगर कही गई है
ऐसा भी नहीं है कि पढ़ने वाले से पढ़ी ही नहीं गई हैं
आखों से पढ़ी हैं मन में गड़ी हैं
कुछ नहीं मिला समझने को तो पानी में भिगो कर
निचोड़ी तक गई हैं
उसके अपने लिये कुछ नहीं मिलने के कारण
कोई टिप्पणी भी नहीं करी गई है
कोई टिप्पणी भी नहीं करी गई है
अपनी अपनी कहने की
अब एक आदत ही हो गई है
चिट्ठियाँ हैं घर पर पड़ी हैं बहुत हो गई हैं
भेजने की सोचे भी कोई कैसे ऐसे में किसी को
अब तो बस उनके साथ ही
रहने की आदत सी हो गई है ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (01-07-2014) को ""चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए" (चर्चा मंच 1661) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अरे चिट्ठी लिखी ही थी आप ने पढ़ भी दी :)
हटाएंआभार ।
एक लम्बी अवधि के बाद आप सब से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ सो, प्रभु को धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंअथ छोटी -छोटी पंक्तियों में अच्छी राचना !
आभार प्रसून जी ।
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अच्छी खबरें आती है...तभी अच्छे दिन आते है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआभार शिवम जी ।
हटाएंबढ़िया सुंदर लेखन , सर धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंआभार आशीष !
हटाएंवाह , बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंआभार ।
हटाएंबढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय-
आभार रविकर जी ।
हटाएंचिट्ठियों के साथ रहने की आदत हो गयी ... यानी ख़्वाबों में रहने की आदत हो गयी ...
जवाब देंहटाएंगहरी बात ...
आभारी हूँ नासवा जी :)
हटाएं