उलूक टाइम्स: चादर नहीं होती है अपडेट और कुछ बदल

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

चादर नहीं होती है अपडेट और कुछ बदल


किसी को
कहाँ 
जरूरत होती है अब
एक चादर 
ओढ़ने के बाद
बाहर निकलते हुऐ
पैरों की लम्बाई देखकर
उनको 
मोड़  लेने की

बहुत तेज हो 
चुकी है जिंदगी
पटरी को बिना छुऐ उसके ऊपर हवा में
दौड़ती हुई एक सुपर फास्ट रेल की तरह

हैसियत की बात 
को
चादर से 
जोड़ने वालों को
अपने ख्यालात दुरुस्त करने में
जरा सा भी नहीं हिचकिचाना चाहिये

उन्हें समझना होगा
गंवार कह कर 
नहीं बुलाया जा सकता है किसी को यहाँ

जिस जगह गाँव 
भी
रोज एक 
नये शहर को ओढ़ कर दूसरे दिन
अपने को अपडेट करने से नहीं चूकता हो

क्योंकि सब जानते हैं
जमीन की मिट्टी से उठ रही धूल
कुछ ही दिनों में बैठ जायेगी

उनकी आशायें 
उड़ चुकी हैं
बहुत दिन हुऐ आकाश की तरफ
दूर बहुत दूर के लिये

बस एक नजर भर 
रखने की जरूरत है
रोज के अखबार के मुख्य पृष्ठ पर
उस समय जब सब कुछ बहुत तेज चल रहा हो

पुरानी हो चुकी
धूल खा रही मुहावरों की किताब को
झाड़ने 
की सोच भी दिल में नहीं लानी होती है

जहाँ हर खबर 
दूसरे दिन ही
नई दुल्हन की तरह बदल कर
सामने से आ जा रही हो

‘उलूक’ तेरी चादर 
के अंदर
सिकोड़ कर 
मोड़ दिये गये पैरों पर
किसी ने ध्यान नहीं देना है

चादरें अब 
पुरानी हो चुकी हैं
कभी मंदिर की तरफ मुँह अंधेरे निकलेगा
तो ओढ़ लेना
गाना भी बजाया जा सकता है उस समय
मैली चादर वाला

ऊपर वाले के पास 
फुरसत हुई तो देख ही लेगा 
एक तिरछी नजर मारकर

तब तक बस 
वोट देने की तैयारी कर ।

चित्र साभार: 
https://www.alamy.com/

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (15-04-2014) को "खामोशियों की सतह पर" (चर्चा मंच-1574) पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जिस जगह गाँव
    भी रोज एक
    नये शहर को
    ओढ़ कर दूसरे दिन
    अपने को अपडेट
    करने से नहीं चूकता हो ... क्या सटीक बात कही है सुशील जी, बहुत ही सार्थक व सामयिक रचना !

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सावधानी हटी ... दुर्घटना घटी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. सुन्दर है सुशील कुमार जोशी भाई :

    ‘उलूक’ तेरी चादर
    के अंदर सिकौड़ कर
    मोड़ दिये गये पैरों पर
    किसी ने ध्यान
    नहीं देना है
    चादरें अब
    पुरानी हो चुकी हैं
    कभी मंदिर की तरफ
    मुँह अंधेरे निकलेगा
    तो ओढ़ लेना
    गाना भी बजाया
    जा सकता है
    उस समय
    मैली चादर वाला
    ऊपर वाले के पास
    फुरसत हुई तो
    देख ही लेगा
    एक तिरछी
    नजर मारकर
    तब तक बस
    वोट देने की
    तैयारी कर ।

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  5. कभी मंदिर की तरफ निकलेगा तो ओढ लेना। सही सीख।
    चादर ओढने वाले को कौन देखता है।

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  6. आपकी लिखी रचना बुधवार 16 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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