बाहर निकलते हुऐ
पैरों की लम्बाई देखकर
उनको मोड़ लेने की
उनको मोड़ लेने की
बहुत तेज हो चुकी है जिंदगी
पटरी को बिना छुऐ उसके ऊपर हवा में
दौड़ती हुई एक सुपर फास्ट रेल की तरह
हैसियत की बात को
चादर से जोड़ने वालों को
अपने ख्यालात दुरुस्त करने में
जरा सा भी नहीं हिचकिचाना चाहिये
उन्हें समझना होगा
गंवार कह कर
नहीं बुलाया जा सकता है किसी को यहाँ
नहीं बुलाया जा सकता है किसी को यहाँ
जिस जगह गाँव भी
रोज एक नये शहर को ओढ़ कर दूसरे दिन
अपने को अपडेट करने से नहीं चूकता हो
क्योंकि सब जानते हैं
जमीन की मिट्टी से उठ रही धूल
कुछ ही दिनों में बैठ जायेगी
उनकी आशायें उड़ चुकी हैं
बहुत दिन हुऐ आकाश की तरफ
दूर बहुत दूर के लिये
बस एक नजर भर रखने की जरूरत है
रोज के अखबार के मुख्य पृष्ठ पर
उस समय जब सब कुछ बहुत तेज चल रहा हो
पुरानी हो चुकी
धूल खा रही मुहावरों की किताब को
झाड़ने की सोच भी दिल में नहीं लानी होती है
झाड़ने की सोच भी दिल में नहीं लानी होती है
जहाँ हर खबर दूसरे दिन ही
नई दुल्हन की तरह बदल कर
सामने से आ जा रही हो
‘उलूक’ तेरी चादर के अंदर
सिकोड़ कर मोड़ दिये गये पैरों पर
किसी ने ध्यान नहीं देना है
चादरें अब पुरानी हो चुकी हैं
कभी मंदिर की तरफ मुँह अंधेरे निकलेगा
तो ओढ़ लेना
गाना भी बजाया जा सकता है उस समय
मैली चादर वाला
ऊपर वाले के पास
फुरसत हुई तो देख ही लेगा
एक तिरछी नजर मारकर
तब तक बस वोट देने की तैयारी कर ।
चित्र साभार: https://www.alamy.com/
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (15-04-2014) को "खामोशियों की सतह पर" (चर्चा मंच-1574) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया सर ! , धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंजिस जगह गाँव
जवाब देंहटाएंभी रोज एक
नये शहर को
ओढ़ कर दूसरे दिन
अपने को अपडेट
करने से नहीं चूकता हो ... क्या सटीक बात कही है सुशील जी, बहुत ही सार्थक व सामयिक रचना !
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सावधानी हटी ... दुर्घटना घटी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर है सुशील कुमार जोशी भाई :
जवाब देंहटाएं‘उलूक’ तेरी चादर
के अंदर सिकौड़ कर
मोड़ दिये गये पैरों पर
किसी ने ध्यान
नहीं देना है
चादरें अब
पुरानी हो चुकी हैं
कभी मंदिर की तरफ
मुँह अंधेरे निकलेगा
तो ओढ़ लेना
गाना भी बजाया
जा सकता है
उस समय
मैली चादर वाला
ऊपर वाले के पास
फुरसत हुई तो
देख ही लेगा
एक तिरछी
नजर मारकर
तब तक बस
वोट देने की
तैयारी कर ।
कभी मंदिर की तरफ निकलेगा तो ओढ लेना। सही सीख।
जवाब देंहटाएंचादर ओढने वाले को कौन देखता है।
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना बुधवार 16 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
जवाब देंहटाएंhttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
तीखी .. सटीक बात ...
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