उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 17 मई 2013

मुखौटे हम लगाते हैं !

उसे पता होता है
मुझे पता होता है

उसके पास होता है
मेरे पास होता है

 हम दोनो लगाते हैं
बस यूँ मुस्कुराते हैं

खुश बहुत हो जाते हैं
जैसे कुछ पा जाते हैं

बस ये भूल जाते हैं
समझ सब सब पाते हैं

वो जब हमें बनाते हैं
साँचे एक ही लगाते हैं

पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं
किताबें साथ लाते हैं

स्कूल साथ जाते हैं

घर को साथ आते हैं

समझते हैं समझाते हैं

फोटो सुंदर लगाते हैं

हंसते हैं मुस्कुराते हैं

बातें खूब बनाते हैं

इसको ये दिखाते हैं

उसको वो दिखाते हैं

 बिना पहने ही आते हैं

आते ही बनाते हैं


बिना पहने ही जाते हैं
जाते हुऎ छोड़ जाते हैं

ना आते में दिखाते हैं

ना जाते में दिखाते हैं

सब के पास पाते हैं

मिलते ही लगाते हैं

दिल खोल के दिखाते हैं

खुली किताब है बताते हैं

विश्वास में ले आते हैं

विश्वास फिर दिलाते हैं

कुछ कुछ भूल जाते हैं

कुछ कुछ याद लाते हैं

कितना कुछ
कर ले जाते हैं

कितना कुछ ले आते हैं
कितना कुछ दे जाते हैं

ना जाने क्यों फिर भी

हम जब भी मिलते हैं
मिलते ही लगाते हैं

ना जाने क्यों लगाते हैं

ना जाने क्यों बनाते हैं
ना जाने क्यों छिपाते हैं

मुखौटे मेरे और उसके

कब किस समय आके
चेहरे पर हमारे बस
यूँ ही लग जाते हैं

ना वो बताते हैं

ना हम बताते हैं

उनको पता होता है

हमको पता होता है
उनके पास होता है
मेरे पास होता है

हम दोनो लगाते हैं

मुखौटे सब लगाते हैं

सब कुछ बताते हैं

बस मुखौटे छिपाते हैं ।

मंगलवार, 14 मई 2013

कुछ तो सीख बेचना सपने ही सही

उसे देखते ही
मुझे कुछ हो
ही जाता है
अपनी करतूतों
का बिम्ब बस
सामने से ही
नजर आता है
सपने बेचने
में कितना
माहिर हो
चुका है
मेरा कुनबा
जैसे खुले
अखबार की
मुख्य खबर
कोई पढ़
कर सामने
से सुनाता है
कभी किसी
जमाने में
नयी पीढी़ के
सपनों को
आलम्ब देने
वाले लोग
आज अपने
सपनों को
किस शातिराना
अंदाज में
सोने से
मढ़ते चले
जा रहे हैं
इसके सपने
उसके सपने
का एक
अपने अपने
लिये ही बस
आधार बना
रहे हैं
सपने जिसे
देखने हैं
अभी कुछ
वो बस
कुछ सपने
अपने अपने
खरीदते ही
जा रहे हैं
सच हो रहे
सपने भी
पर उसके
और इसके
जो बेच
रहे हैं
खरीदने वाले
बस खरीद
रहे हैं
उन्हे भी
शायद पता
हो गया है
कि वो
सपने सच
होने नहीं
जा रहे हैं
वो तो बस
इस बहाने
हमसे सपने
बेचने की
कला में
पारंगत होना
चाह रहे हैं ।

रविवार, 12 मई 2013

अच्छी सोच छुट्टी के दिन की सोच

अखबार आज
नहीं पढ़ पाया


हौकर शायद
पड़ौसी को
दे आया


टी वी भी
नहीं चल पाया
बिजली का
तार बंदर ने
तोड़ गिराया


सबसे अच्छा
ये हुआ कि
मै काम पर
नहीं जा पाया


आज
रविवार है
बड़ी देर में
जाकर
याद आया


तभी कहूँ
आज सुबह
से अच्छी बातें
क्यों सोची
जा रही हैं


थोड़ा सा
रूमानी
हो जाना
चाहिये
दिल की
धड़कन
बता रही है


बहुत कुछ
अच्छा सा
लिखते हैं
कुछ लोग


कैसे
लिखते होंगे
बात अब
समझ में
आ रही है


लेखन
इसीलिये
शायद
कूड़ा कूड़ा
हुआ
जा रहा है


अखबार हो
टी वी हो
या समाज हो
जो कुछ
दिखा रहा है


देखने
सुनने वाला
वैसा ही होता
जा रहा है


कुछ
अच्छी सोच
से अगर अच्छा
कोई लिखना
चाह रहा है


अखबार
पढ़ना छोड़
टी वी बेच कर
जंगल को क्यों
नहीं चले
जा रहा है ?

शनिवार, 11 मई 2013

फिर देख फिर समझ लोकतंत्र



रोज एक
लोकतंत्र समझ में आता है
तू फिर भी लोकतंत्र समझना चाहता है 

क्यों तू
इतना बेशरम हो जाता है 
बहुमत को
समझने में सारी जिंदगी यूँ ही गंवाता है

बहुमत
इस देश की सरकार है
क्या तेरे भेजे मेंये नहीं घुस पाता है 

देखता नहीं
सबसे ज्यादा 
मूल्यों की बात उठाने वाला ही तो 
मौका आने पर
अपना बहुमत अखबार में छपवाता है 
मौसम मौसम दिल्ली सरकार 
और उसके लोगों को
कोसने वालों की भीड़ का झंडा उठाता है 

अपनी गली में
उसी सरकार के झंडे के परदे का
घूँघट बनाने से बाज नहीं आता है 

मेरे देश की हर गली कूँचे में 
एक ऎसा शख्स जरूर पाया जाता है 
जो अपना उल्लू
सीधा करने के लिये
लोकतंत्र की धोती को
सफेद से गेरुआँ रंगवाता है 
तिरंगे के रंगो की टोपियाँ बेचता हुआ 
कई बार पकड़ा जाता है

ऎसा ही शख्स
कामयाबी की बुलंदी छूने की मुहिम में
इस समाज के बहुमत से
दोनो हाथों में उठाया जाता है

और एक तू बेशरम है
सब कुछ देखते सुनते हुऎ 
अभी तक दलाली के पाठ को नहीं सीख पाता है
तेरे सामने सामने कोई तेरा घर नीलाम कर ले जाता है

'उलूक'
जब तू अपना घर ही नहीं बेच पाता है 
तो कैसे तू
पूरे देश को नीलाम करने की तमन्ना के
सपने पाल कर 
अपने को भरमाता है । 

चित्र साभार: https://www.pravakta.com/what-the-poor-in-democracy/

गुरुवार, 9 मई 2013

मजदूर का हितैषी ठेकेदार


ठेकेदार लोग
बहुत ही ज्यादा
ईमानदार लोग
अपने अपने ठेके
का पूरा पेमेंट
ले के आते हैं
इसलिये वो
मलाई भी
थोड़ा खाते हैं
इतनी सी बात
आप क्यों नहीं
समझ पाते हैं
सब एक जैसे
थोडे़ होते हैं
कुछ मजदूरों का
ध्यान रखने
वाले भी
तो होते हैं
ये बात
दिहाडी़ करने
वाले जानते हैं
हर ठेकेदार की
नब्ज पहचानते हैं
ठेकेदार का हर
काम इसलिये
वो चुटकी में
कर ले जाते हैं
उसके लिये
भीड़ भी
बनाते हैं
समाचार बने
या ना बने
वो बेचारे
अपनी फोटो
जरूर खींच
कर दे जाते हैं
ठेकेदार उनकी
मदद करने
में अपनी
जान न्योछावर
कर ले जाते हैं
रोटी अगर
दिलवा भी
ना सके उनको
डबलरोटी
दिलवाने के
लिये तुरंत
धरने में
बैठ जाते हैं
अपना पैमेंट
पहले ही
ले आते हैं
गरीब मजदूर
को फिर
एक बार
इक्ट्ठा करके
समझाते हैं
वो तो बस
उनके हित के
लिये ही
बस ठेकेदारी
करने के लिये
आते हैं
वरना तो
देश के लिये
जान देने के
लिये दिल्ली
से लोग बडे़ बडे़
उन्हे बहुत
बार बुलाते हैं ।