उलूक टाइम्स: ऐसा भी तो होता है या नहीं होता है

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

ऐसा भी तो होता है या नहीं होता है


जाने
अंजाने में 

खुद
या
सामूहिक 
रूप से

किये गये 
अपराधों के 
दंश को 

मन के
किसी 
कोने में दबा कर 

उसके ऊपर 

रंगबिरंगी 
फूल पत्तियाँ 

कुछ
बनाकर 
ढक देने से 

अपराधबोध
छिप 
कहाँ पाता है 

सहमति
के
साथ 
तोड़ मरोड़कर 

काँटों के जाल
का 
एक फूल
बना 
देने से

ना तो 
उसमें खुश्बू 
आ पाती है 

ना ही
ऐसा कोई 
सुन्दर
सा रंग

जो 
भ्रमित कर सके 
किसी को
भी 
कुछ देर
के 
लिये ही सही 

सदियां
हो गई 
इस तरह की
प्रक्रिया
को 
चलते आते हुऐ 

पता नहीं
कब से 

आगे भी
चलनी हैं 

बस
तरीके बदले हैं 
समय के साथ 

जुड़ते
चले जा रहे हैं 
इस तरह एक साथ 
अपराध दर अपराध 

जिसकी
ना किसी 
अदालत में सुनवाई 
ही होनी है

ना ही 
कोई फैसला
किसी 
को ले लेना है
सजा के लिये 

बस
शूल की तरह 
उठती हुई चुभन को 

दैनिक जीवन
का 
एक नित्यकर्म 
मानकर

सहते 
चले जाना है 
और
मौका मिलते ही 
संलग्न
हो जाना है 
कहीं
खुद

या कहीं 
किसी
समूह के साथ 
उसके दबाव
में 

करने
के लिये एक 
मान्यता प्राप्त
अपराध।

9 टिप्‍पणियां:

  1. सच अपराध कैसा भी कभी न कभी वह आगे-पीछे सामने आता है..भले ही सबके सामने नहीं तो अपने मन में कभी न कभी उभर कर आता है ..
    बहुत बढ़िया

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  2. मित्र! सचमुच आपकी छन्द-मुक्त रचना छन्द-बढ रचना से अधिक सशक्त होंती है साथ ही आप की शान्त और गंभीर रसव में रूचि भी सराहनीय है !!

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  3. लम्बी सशक्त रचना सवगत कथन शैली में।

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  4. कल 01/जून /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  5. अपराध का आत्मबोध,उसकी आत्म स्वीकृति सबसे बड़ी शक्ति है जी इंसान को महान बना देती है , छी रचना हेतु सुशीलजी आपका आभार

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