उलूक टाइम्स

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

चेहरे को खुद ही बदलना आखिर क्यों नहीं आ पाता है

घर के चेहरे
की बात करना 
फालतू
हो जाता है
रोज देखने की
आदत जो
पड़ जाती है
याद जैसा
कुछ कुछ
हो ही जाता है
किस समय
बदला हुआ है
थोड़ा सा भी
साफ नजर में
आ जाता है
मोहल्ले से
होते हुऐ
एक चेहरा
शहर की
ओर चला
जाता है
भीड़ के
चेहरों में
कहीं जा
कर खो
भी अगर
जाता है
फिर भी
कभी दिख
जाये कहीं
जोर डालने
से याद
आ जाता है
चेहरे भी
चेहरे
दर चेहरे
होते हुऐ
कहीं से
कहीं तक
चले जाते हैं

कुछ टी वी
कुछ अखबार
कुछ समाचार
हो जाते हैं
उम्र का
असर
भी हो
तब भी
कुछ कुछ
पहचान ही
लिये जाते हैं
समय के
साथ
कुछ चेहरे
बहुत कुछ
नया भी
करना
सीख ही
ले जाते हैं
पहचान
बनाने
के लिये
हर चौराहे
पर
चेहरा अपना
एक टांक
कर आते हैं
कुछ चेहरों
को
चेहरे बदलने
में महारथ
होती है
एक चेहरे
पर
कई कई
चेहरे
तक लगा
ले जाते हैं
'उलूक'
देखता है
रोज ऐसे
कई चेहरे
अपने
आस पास
सीखना
चाहता है
चेहरा
बदलना
कई बार
रोज
बदलता है
इसी क्रम में
घर के
साबुन
बार बार
रगड़ते
रगड़ते
भी कुछ
नहीं हो
पाता है

सालों साल
ढोना एक
ही चेहरे को
वाकई
कई बार
बहुत बहुत
मुश्किल सा
हो जाता है !

सोमवार, 11 नवंबर 2013

उलझन उलझी रहे अपने आप से तो आसानी हो जाती है

उलझाती है
इसीलिये तो
उलझन
कहलाती है

सुलझ गई
किसी तरह
किसी की तो
किसी और
के लिये यही
बात एक
उलझन
हो जाती है

अब उलझन का
क्या किया जाये
कुछ फितरत में
होता है किसी के
उलझना किसी से

कुछ के नहीं होती है
अगर कोई उलझन
पैदा कर दी जाती हैं
उलझने एक नहीं कई

कहीं एक सवाल
से उलझन
कहीं एक बबाल
से उलझन

किसी के लिये
आँखें किसी की
हो जाती हैं उलझन

किसी के लिये
जुल्फें ही बन
जाती हैं उलझन

सुलझा हुआ
है कोई कहीं
तो आँखिर है कैसे
बिना यहां
किसी उलझन

उलझनों का
ना होना किसी
के पास ही
एक आफत
हो जाती है

अपनो को तक पसंद
नहीं आती है ये बात

इसीलिये पैर
उलझाये जाते है
किसी के किसी से

घर ही के अपने
बनाते हैं कुछ
ऐसी उलझन

सबकी होती है
और जरूर होती है
कुछ ना कुछ उलझन

अपनी अपनी अलग
तरह की उलझन
देश की उलझन
राज्य की उलझन
शहर की उलझन
मौहल्ले घर
गली की उलझन

उलझन होती है
होने से भी
कुछ नहीं होता है
वो अपनी जगह
अपना काम करती है
उलझाने का

पर उलझने को कौन
कहाँ तैयार होता है
अपनी उलझन से
उसे तो किसी
और की उलझन
से प्यार होता है

सारी जिंदगी
उलझने यूं ही
उलझने रह जाती हैं

सबकी अपनी
अपनी होती हैं
कहाँ फंसा पाती हैं

अपनी जुल्फों को
देखने के लिये
आईना जरूरी होता है
सामने वाले की जुल्फ
साफ नजर आती है

आसानी से
सुलझाई जाती हैं
अपनी उलझन
अपने में ही
उलझी रह जाती है ।

रविवार, 10 नवंबर 2013

सोच तो होती ही है सोच

अपनी अपनी
होती है सोच

सुबह होते
अंगडाई सी
लेती है सोच

सुबह की
चाय के कप
से निकलती
भाप होती
है सोच

दूध की
दुकान की
लाईन में
हो रही
भगदड़
से उलझ रही
होती है सोच

दैनिक
समाचार
पत्रों के प्रिय
हनुमानों की
हनुमान
चालीसा
पढ़ रही
होती
है सोच

काम पर
जाने के
उतावले पन
में कहीं
खो रही
होती है सोच

दिन
होते होते
पता नहीं क्यों
बावली हो रही
होती है सोच

कहां कहां
भटक रही
होती है
बताने
की बात
जैसी नहीं हो
रही होती है सोच

शाम
होते होते
जैसे कहीं
कुछ खुश
कहीं
कुछ उदास
कहीं
कुछ थकी
कहीं
कुछ निराश
हो रही
होती है सोच

जब घर
को वापस सी
लौट रही
होती है सोच

रात
होते होते
ये भी होता है
जैसे किसी की
किसी से
घबरा रही
होती है सोच

कौन
बताता है
अगर बौरा रही
होती है सोच

सुकून
का पल
बस वही होता है

जब यूं ही
उंघते उंघते
सो जा रही
होती है सोच

पता किसे
कहाँ होता है
सपनों में क्या
आज की रात
दिखा रही है सोच

मुझे
अपनी समझ
में कभी भी
नहीं आती

क्या
तुझे समझ
में कुछ आ
रही है सोच ।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

कई बार होता है लम्हे का पता लम्हे को नहीं होता है

कुछ तो जरूर होता है
हर किसी के साथ
अलग अलग सा
कितने भी अजीज
और कितने भी पास हों
जरूरी नहीं होता है
एक लम्हे का
हो जाना वही
जैसा सोच में हो
एक लम्हे को
होना ही होता है
किसी लिये कुछ
और किसी के लिये
कुछ और ही
अपने खुश लम्हे
को उसके उदास
लम्हे में बदल लेना
ना इसके हाथ
में होता है
ना ही उसके
हाथ में होता है
कहते हैं आत्मा में
हर एक के
भगवान होता है
और जब इसके हाथ में
उसका हाथ होता है
एक दूसरे के बहुत ही
पास में होता है
लम्हा एक होता है
इसके लिये भी
और उसके लिये भी
बस इसका लम्हा
उसके लम्हे के पास
कहीं नहीं होता है
ना इसे पता होता है
ना उसे पता होता है
एक लम्हे को अपने
से ही कैसा ये
विरोधाभास होता है ।

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

फसल तो होती है किसान ध्यान दे जरूरी नहीं होता है

ना कहीं खेत होता है 
ना ही कहीं रेत होती है 

ना किसी तरह की खाद की 
ना ही पानी की कभी कहीं जरूरत होती है 

फिर भी कुछ ना कुछ 
उगता रहता है 

हर किसी के पास 
हर क्षण हर पल 
अलग अलग तरह से कहीं सब्जी तो कहीं फल 

किसी को काटनी 
आती है फसल 
किसी को आती है पसंद बस घास उगानी 
काम फसल भी आती है और उतना ही घास भी 

शब्दों को बोना हर किसी के 
बस का नहीं होता है 
 बावजूद इसके कुछ ना कुछ उगता चला जाता है 
काटना आता है जिसे काट ले जाता है 
नहीं काट पाये कोई तब भी कुछ नहीं होता है 
अब कैसे कहा जाये 
हर तरह का पागलपन हर किसे के बस का नहीं होता है

कुकुरमुत्ते भी तो 
उगाये नहीं जाते हैं 
अपने आप ही उग आते हैं  
कब कहाँ उग जायें किसी को भी पता नहीं होता है 

कुछ कुकुरमुत्ते 
मशरूम हो जाते हैं 
सोच समझ कर अगर कहीं कोई बो लेता है 

रेगिस्तान हो सकता है 
कैक्टस दिख सकता है 

कोई लम्हा कहा जा सके 
कहीं एक बंजर होता है 
बस शायद ऐसा ही कहीं नहीं होता है ।