उलूक टाइम्स: बेबस पेड़

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

बेबस पेड़

एक झंडा एक भीड़
बेतरतीब होते हुऎ
भी परिभाषित
दे देती है अंदाज
चाहे थोड़ा ही
अपने रास्ते का
अपनी सीमा का
यहाँ तक अपनी
गुंडई का भी
दूसरी भीड़
एक दूसरा झंडा
सब कुछ तरतीब से
कदमताल करते हुऎ
मोती जैसे गुंथे हों
माला में किसी
परिभाषित नजर
तो आती है पर
होती नहीं है
यहां तक कि
अपराध करने का
अंदाज भी होता है
बहुत ही सूफियाना
दोनो भीड़ होती हैं
एक ही पेड़
की पत्तियाँ
बदल देने पर
झंडे के रंग और
काम करने के
ढंग के बावजूद
भी प्रदर्शित
कर जाती हैं
कहीं ना
कहीं चरित्र
बेबस पेड़
बस देखता
रह जाता है
अपनी ही
पत्तियों को
गिरते गिरते
बदलते हुऎ
रंग अपना
पतझड़ में ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. एक ही पेड़...और विरोध में खड़खडाते उसके अपने पत्ते ! वस्त्रहीन तो पेड़ को होना है,फिर जड़ से उखड़ जाना है

    जवाब देंहटाएं
  2. गहन भावपूर्ण प्रस्तुति..बहुत सुन्दर..

    जवाब देंहटाएं
  3. वो जो भीड़ है
    झंडा लिए
    झंडा छिपा है
    उसी भीड़ में!

    जवाब देंहटाएं
  4. भावपूर्ण प्रस्तुति सर बेहतरीन रचना

    जवाब देंहटाएं
  5. सदाबहारों में गिने, जाते हैं जो पेड़ |
    पतझड़ वाले क्यूँ रहे, उन पेड़ों को छेड़ |
    उन पेड़ों को छेड़, नहीं उनका कुछ बिगड़े |
    खाद नमी भरपूर, खाय के होते तगड़े |
    उल्लू क्यों गमगीन, बहुत शाखाएं हाजिर |
    हर शाखा पर एक, किन्तु बैठा है शातिर ||

    जवाब देंहटाएं