उलूक टाइम्स

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

कौन जानता है किस समय गिनती करना बबाल हो जाये

गिनती करना
जरूरी नहीं हैं
सबको ही आ जाये
कबूतर और कौऐ
गिनने को अगर
किसी से कह
ही दिया जाये
कौन सा बड़ा
गुनाह हो गया
अगर एक कौआ
कबूतर हो जाये
या एक कबूतर की
गिनती कौओं
मे हो जाये
कितने ही कबूतर
कितने ही कौऔं को
रोज ही जो देखता
रहता हो आकाश में
इधर से उधर उड़ते हुऐ
उससे कितने आये
कितने गये पूछना ही
एक गुनाह हो जाये
सबको सब कुछ
आना भी तो
जरूरी नहीं
गणित पढ़ने
पढ़ाने वाला भी
हो सकता है कभी
गिनती करना
भूल जाये
अब कोई
किसी और ज्ञान
का ज्ञानी हो
उससे गिनती
करने को कहा
ही क्यों जाये
बस सिर्फ एक बात
समझ में इस सब
में नहीं आ पाये
वेतन की तारीख
और
वेतन के नोटों की
संख्या में गलती
अंधा भी हो चाहे
भूल कर भी
ना कर पाये
ज्ञानी छोड़िये
अनपढ़ तक
का सारा
हिसाब किताब
साफ साफ
नासमझ के
समझ में
भी आ जाये !

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

तैंतीस करोड़ देवताओं को क्यों गिनने जाता है

तैंतीस करोड़ देवताओं
की बात जब भी होती है
दिमाग घूम जाता है
बारह पंद्रह देवताओं से
घर का मंदिर भर जाता है
कुछ पूजे जाते हैं
कुछ के नाम को भी
याद नहीं रखा जाता है
क्यों होते होंगे
इतने ज्यादा देवता
इस बात में जरूर कोई
गूढ़ रहस्य होता होगा
ऐसा कभी कभी
लगने लग जाता है
पूजा अर्चना का सही
अर्थ भी उस समय
साफ साफ पता
लग जाता है
जब कोई भी देवता
कहीं भी काम करते हुऐ
नजर नहीं आता हैं
ना तो उससे काम करने
को कहा जाता है
ना ही किसी देवता को
कोई कामचोर कहने की
हिम्मत कर पाता है
काम बिगाड़
ना दे कोई देवता
इसीलिये डर के मारे
पूजा जरूर जाता है
अपने आस पास
देवताओं को छोड़
हर किसी के पास
कुछ ना कुछ काम
नजर आता है
खुश्किस्मत
भारत देश में
हर देवता
देवताओं की संख्या
बढ़ाने में जोर शोर से
लगा हुआ नजर आता है
देवता क्यों होते होंगे
करोड़ से भी ज्यादा
अपने आसपास
के देवताओं
को देख कर
अच्छी तरह
समझ में
आ जाता है
देवता होना ही
अपने आप में
सब कुछ हो जाता है
एक देवता
दूसरे को भी
अपना जैसा
ही देवता
बनाना चाहता है
अपने पास ही हैं
सारे तैंतीस
करोड़ देवता
फिर किसलिये
मंदिर मंदिर
भटकते हुऐ गिनती
करना चाहता है ।

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

एक की हो रही पहचान है एक पी रहा कड़वा जाम है !

अगला
आदमी भी
कितना
परेशान है

अपनी
एक पहचान
बनाने की
कोशिश में
हो रहा
हलकान है

बगल वाला
है तो
उसका ही जैसा

कुछ भी
नहीं है
थोड़ा सा भी
कहीं कुछ
अलग अलग सा

दिखता भी
नहीं है
करता हुआ
कुछ
अजब गजब सा

समझ में
नहीं आता
हर गली
हर मौहल्ले में
हो रहा फिर भी
उसका ही नाम है

अखबार
रेडियो टी वी
वालों से बनाई
अगले ने
 पहचान है

हजार जतन
कर कराने
के बाद भी

कोई
क्यों नही देता
ऐसे शख्स की तरफ
थोड़ा सा भी ध्यान है

सभी तो
सब कुछ
करने में लगे हुऐ हैं

बस अपने
लिये ही तो
यहां या वहां
होना है

किसी और
के लिये
नहीं जब
कुछ इंतजाम है

इसे मिलता है
उसे मिलता है

अगले
को ही बस
क्यों नहीं मिलता
कुछ सम्मान है

किसी का
नाम होने से
किसी को हो रहा
बहुत नुकसान है

कोई करे
कुछ तो
उसके लिये कभी

इसकी
और उसकी
हो रही पहचान से
किसी की सांसत में
देखो फंस रही जान है ।

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

किसी दिन तो कह मुझे कुछ नहीं है बताना

वही
रोज रोज 
का रोना 
वही
संकरी 
सी गली 
उसी गली का अंधेरा कोना 

एक
दूसरे को 
टक्कर मार कर निकलते हुऐ लोग 

कुछ कुत्ते 
कुछ गायें कुछ बैल 

उसी से 
सुबह शाम गुजरना 
गोबर में जूते का फिसलना 

मुंह बनाकर 
थूकते हुऐ 
पैंट उठा कर संभलते हुऐ 
उचक उचक कर चलना 

कुछ सीधे
कुछ 
आड़े तिरछे लोगों का
उसी 
समय मिलना 

इसी सब का 
दस के सरल से पहाड़े की तरह
याद 
हो जाना 

इसी
खिचड़ी 
को
बिना 
नमक तेल मसाले के 
रोज का रोज 
बिना पूछे 
किसी के सामने परोस आना 

एक दो बार 
देखने के बाद 
सब समझ में आ जाना 

खिचड़ी 
खाना तो दूर 
उसे देखने भी नहीं आना 

पता ही नहीं 
चल पाना 
गली का रोम रोम में घुस जाना

एक
चौड़ी 
साफ सुथरी 
सड़क की कल्पना का सिरा
गली 
में ही खो जाना 

गली के
एक 
कोने से दूसरी ओर 
उजाले में निकलने से पहले ही अंधेरा हो जाना 

समझ में 
आने तक बहुत देर हो जाना
गली का 
व्यक्तित्व में ही शामिल हो जाना 

गली का 
गली में जम जाना 

उस दिन 
का इंतजार 
कयामत का इंतजार हो जाना 
पता चले जिस दिन 

छोड़ दिया 
है
तूने भी 'उलूक'
अब 
उस गली से  आना जाना ।

चित्र साभार: https://www.alamy.com/

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

अपेक्षाऐं कैसी भी किसी से रखने में क्या जाता है

दो टांगों पर
चलता 
चला जाऊं अपनी ही 
जिंदगी भर
ऐसा 
सोचना तो
समझ में 
थोड़ा थोड़ा आता है 

सर के बल चल कर 
किसी के पास पहुंचने की
किसी की अपेक्षा 
को
कैसे पूरा 
किया जाता है 

पता कहां 
चल पाती हैं 
किसी की अपेक्षाऐं 
जब अपेक्षाऐं रखना अपेक्षाऐं बताना
कभी 
नहीं हो पाता है 

अपने से जो होना 
संभव कभी नहीं हो पाता है
वही 
सब कुछ
किसी से 
करवाने की अपेक्षा रखते हुऐ
आदमी 
दुनियां से विदा भी हो जाता है 

पर अपेक्षा भी 
कितनी कितनी 
अजीब से अजीब कर सकता है सामने वाला 
ऐसा किसी 
किताब में लिखा हुआ भी नहीं बताया जाता है 

इधर आदमी 
तैयार कर रहा होता है अपने आप को
किसी 
का गधा बनाने की 

उधर अगला 
सोच रहा होता है 
आदमी के शरीर में बाल उगा कर
उसे 
भालू बनाने की 

क्या करे कोई बेचारा 
किसी को किसी की अपेक्षाओं का सपना 
जब नहीं आता है

अपेक्षाऐं
किसी से रखने 
का मोह
कभी कोई 
त्याग ही नहीं पाता है 

अपेक्षाऐं होती 
हैं अपेक्षाऐं रह जाती हैं 

हमेशा अपेक्षाऐं 
रखने वाला 
बस खीजता है खुद अपने पर झल्लाता है 

ज्यादा से ज्यादा 
क्या कर सकता है कर पाता है
दो घूंट के बाद 
दीवारों पर अपने ही घर की कुछ 
कुछ गालियां लिख ले जाता है

सुबह होते 
होते उसे भी मगर भूल जाता है

और अपेक्षाओं के पेड़ को 
अपने ही 
फिर से सींचना
अपेक्षाओं से शुरु हो जाता है ।