उलूक टाइम्स: घर
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रविवार, 1 दिसंबर 2013

घर पर पूछे गये प्रश्न पर यही जवाब दिया जा रहा है

इस पर उस पर
पता नहीं
किस किस पर
क्या क्या
कब से
कहाँ कहाँ
लिखते ही
चले जा रहे हो
क्या इरादा है
करने का
किसी को नहीं
बता रहे हो
रोज कहीं
जा कर
लौट कर
यहाँ वापस जरूर
आ जा रहे हो
बहुत दिन से
देख रहे हैं
बहुत कुछ
लिखा हुआ भी
बहुत जगह
नजर आ रहा है
किसी भी
तरफ निकलो
हर कोई
इस बात को
बातों बातों में
बता रहा है
छोटी मोटी
भी नहीं
पूरी पेज भर
की बात
रोज बनाते
जा रहे हो
सारी दुनिया
का जिक्र
चार लाईनों में
करते हुऐ
साफ साफ
नजर आ रहे हो
घोड़े गधे
उल्लू खच्चर
नेता पागल
जैसे कई और
लिखे हुऐ में
कहीं ना कहीं
टकरा ही
जा रहे है
बस एक
हम पर
कही हो
कभी कहीं
पर कुछ भी
लिखा हुआ
तुम्हारे लिखे में
दूरबीन से
देखने पर भी
देख नहीं
पा रहे है
समझा करो
कितना बड़ा
खतरा कोई
इस सब को
यहाँ लिख कर
उठा रहा है
माना कि
इसे पढ़ने को
उनमें से कोई भी
यहाँ नहीं
आ रहा है
लिखा जरूर
है लेकिन
बिना सबूत
के सच को
कोई नहीं
समझ पा रहा है
तुम पर लिखने
को वैसे तो
हमेशा ही
बहुत कुछ
आसानी से
घर पर ही
मिल जा रहा है
पर जल में रहकर
मगर से बैर करना
'उलूक' के बस से
बाहर हो जा रहा है ।

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

देश बड़ा है घर की बनाते हैं

देश की सरकार
तक फिर कभी
पहुँच ही लेगें
चल आज अपने
घर की सरकार
बना ले जाते हैं
अंदर की बात
अंदर ही रहने
देते हैं किसी को
भी क्यों बताते हैं
ना अन्ना की टोपी
की जरूरत होती है
ना ही मोदी का कोई
पोस्टर कहीं लगाते हैं
मनमोहन को चाहने
वाले को भी अपने
साथ में मिलाते हैं
चल घर में घर की ही
एक सरकार बनाते हैं
मिड डे मील से हो
रही मौतों से कुछ तो
सबक सीख ले जाते हैं
जहर को जहर ही
काटता है चल
मीठा जहर ही
कुछ कहीं फैलाते हैं
घर के अंदर लाल
हरे भगवे में तिरंगे
रंगो को मिलाते हैं
कुछ पाने के लिये
कुछ खोने का
एहसास घर के
सदस्यों को दिलाते हैं
चाचा को समझा
कुछ देते हैं और
भतीजे को इस
बार कुछ बनाते हैं
घर की ही तो है
अपनी ही है
सरकार हर बार
की तरह इस
बार भी बनाते हैं
किसी को भी इस
से फरक नहीं
पड़ने वाला है कहीं
कल को घर से
बाहर शहर की
गलियों में अगर
हम अपने अपने
झंडों को लेकर
अलग अलग
रास्तों से निकल
देश के लिये एक
सरकार बनाने
के लिये जाते हैं ।

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मेरी संस्था मेरा घर मेरा शहर या मेरा देश कहानी एक सी

उसे लग रहा है
मेरा घर शायद
कुछ बीमार है
पता लेकिन नहीं
कर पा रहा है
कौन जिम्मेदार है
वास्तविकता कोई
जानना नहीं चाहता है
बाहर से आने वाले
मेहमान पर तोहमत
हर कोई लगाता है
बाहर से दिखता है
बहुत बीमार है
शायद किसी जादूगर
ने किया जैसे वार है
पर घाव में पडे़ कीडे़
किसी को नजर
कहाँ आते हैं
हमारे द्वारा ही तो
छुपाये जाते हैं
वो ही तो घाव के
मवाद को खाते हैं
अंदर की बात
यहाँ नहीं बताउंगा
घर का भेदी
जो कहलाउंगा
खाली कुछ सच
कह बैठा अगर
हमाम के बाहर भी
नंगा हो जाउंगा
असली जिम्मेदार
तो मैं खुद हूँ
किसी और के
बारे में क्या
कुछ कह पाउंगा
लूट मची हो जहाँ
अपने हिस्से के लिये
जरूर जोर लगाउंगा ।

शनिवार, 19 जनवरी 2013

साँप जी साँप

नमस्कार !
साँप जी
आप कुछ भी
नहीं करते
फिर भी
आप बदनाम
क्यों हो जाते हो
पूछते क्यों नहीं
अपने सांपो से कि
साँप  साँप से
मिलकर साँपों की
दुनियाँ  आप क्यों
कर नहीं बसाते हो
डरता हुआ
कोई भी कहीं
नहीं दिखता
सबके अपने
अपने  काम
समय पर
हो जाते हैं
मेरे घर का साँप
मेरे मौहल्ले का साँप
मेरे जिले और
मेरे प्रदेश का साँप
हर साँप का
कोई ना
कोई साँप
जिंदा साँप
मरा हुआ साँप
सभी सांप
ढूँड  ढूँड कर
कोई ना कोई साँप
ले ही आते हैं
साँप अगर घूमने
को जाता है
कम से  कम एक
साँप को निगरानी
करने को जरूर
छोड़ जाता है
साँपो की जाति
साँपों की श्रैणी
की  साँप लोग कहाँ
परवाह  करते हैं
हर साँप दूसरे साँप
के जहर की दूध
से पूजा करते हैं
कभी भी अखबार में
साँप का साँप के द्वारा
सफाया किया गया
खबर नहीं आती
शहर के साँप की
अखबार के सांप
के द्वारा फोटो
जरूर ही है
दी जाती
अखबार के साँप
की जय जयकार है
जो साँप की सोच के
साथ दोस्ती
जरूर है निभाती
साँप को पत्थर में भी
लेकिन नेवला
हमेशा नजर आता है
साँप गुलाब के फूल को
देख कर भी घबराता है
साँप नहीं बन रहा है
प्रधानमंत्री सोच
सोच कर साँप
बहुत रोता जाता है
नेवला भी उसको
ढाँढस जरूर
बंधाता है
किसी को इस बात में
कोई अचरज नजर
नहीं आता है
ना तेरे ना मेरे
बाप का कहीं कुछ
जाता है
लाईक तभी
करना जब
लगे तेरे को
भेजे में तेरे
मेरे भेजे की
तरह गोबर
कहीँ भी थोड़ा
नजर आता है।

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

भ्रम एक शीशे का घर

हम जब
शरीर
नहीं होते हैं
बस मन
और
शब्द होते हैं

तब लगता है
शायद ज्यादा
सुन्दर और
शरीफ होते हैं

आमने सामने
होते हैं
जल्दी समझ
में आते हैं
सायबर की
दुनियाँ में
कितने
कितने भ्रम
हम फैलाते हैं

पर अपनी
आदत से हम
क्योंकी बाज
नहीं आते हैं
इसलिये अपने
पैतरों में
अपने आप ही
फंस जाते हैं

इशारों इशारो
में रामायण
गीता कुरान
बाइबिल
लोगों को
ला ला कर
दिखाते हैं

मुँह खोलने
की गलती
जिस दिन
कर जाते हैं
अपने
डी एन ऎ का
फिंगरप्रिंट
पब्लिक में
ला कर
बिखरा जाते हैं

भ्रम के टूटते
ही हम वो सब
समझ जाते हैं

जिसको समझने
के लिये रोज रोज
हम यहाँ आते हैं

ऎसा भी ही
नहीं है सब कुछ
भले लोग कुछ
बबूल के पेड़ भी
अपने लिये लगाते हैं

दूसरों को आम
की ढेरियों पर
लाकर लेकिन
सुलाते हैं

सौ बातों की
एक बात अंत में
समझ जाते हैं

आखिर हम
हैं तो वो ही
जो हम वहाँ हैं
वहाँ होंगे
कोई कैसे
कब तक बनेगा
बेवकूफ हमसे

यहाँ पर अगर
हम अपनी बातों
पर टाई
एक लगाते हैं
पर संस्कारों
की पैंट
पहनाना ही
भूल जाते हैं ।

सोमवार, 9 जुलाई 2012

सुझाव

पहले खुद ही
पेड़ और पौंधे
घर के आसपास
अपने लगाता है
फिर बंदर आ गये
बंदर आ गये
भी चिल्लाता है
किसने कहा था
इतनी मेहनत कर
अपने लिये खुद
एक गड्ढा तैयार कर
कटवा क्यों नहीं देता
सब को एक साथ
पैसा आ जायेगा बहुत
तेरे दोनो हाथ
जमीन भी खाली
सब हो जायेगी
ये अलग बात
वो अलग से तुझको
नामा दिलवायेगी
फिर सुबह पीना
शाम को पीना
मौज में सारी
जिंदगी तू जीना
पढ़ा लिखा है बहुत
सुना है ऎसा
बताया भी जाता है
फिर क्यों पर्यावरण
वालों के सिखाये
में तू आता है
थोड़ा सा अपनी
बुद्धी क्यों नहीं
कभी लगाता है
बंदर भी औकात में
अपनी आ जायेंगे
जब पेड़ ही
नहीं रहेंगे कहीं
तो क्या खाक
हवा में उड़कर
इधर उधर जायेंगे
कुछ समझा कर
बेवकूफी इतनी
तो ना कर
अभी भी सुधर जा
हमारी जैसी सोच
अपनी भी बना
बहुमत के साथ
अगर आयेगा
तो जीना भी
सीख जायेगा
कम से कम
बंदरों का
मुकाबला कर
ले जायेगा
मौका मिल
गया कभी तो
देश चलाने
वालों में शायद
कहीं से
घुस जायेगा
किस्मत फूट
गयी खुदा
ना खास्ता
कभी तेरी
तो क्या पता
भारत रत्न
ही तू कहीं से
झपट लायेगा।

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

ढूँढ सके तो ढूँढ

सूरज निकलते
ही एक सवेरा
ढूँढता है
चाँद निकलते
ही एक अंधेरा
ढूँढता है
पढ़ लिख कर
सब कुछ 
एक पाठशाला
ढूँढता है
पीता नहीं है
एक  मधुशाला
ढूँढता है
मरने से डरता है
फिर भी हाला
ढूँढता है
कुआँरा है अपना
एक साला
ढूँढता है
मंदिर में जाकर
ऊपर वाला
ढूँढता है
बना कर मकान
एक घर
ढूँढता है
घर घर में
जाकर एक
बेघर ढूँढता है
सब के काम
में एक खता
ढूँढता है
संभाला कहाँ
खुद का पता
ढूँढता है
सोता नहीं है
लेकिन सपने
ढूँढता है
ठोकर लगा कर
सब को अपने
ढूँढता है
सब कुछ है
फिर भी
कुछ कुछ
ढूँढता है
सारी उमर
बेसबर
ढूँढता है
कोई नहीं
कहीं एक
कबर
ढूँढता है।

शुक्रवार, 11 मई 2012

धैर्य मित्र धैर्य

आज प्रात:
उठने से ही

विचार
आ रहा था

श्रीमती जी पर
कुछ लिखने का
दिल चाह रहा था

सोच बैठा
पूरे दिन
इधर उधर
कहीं भी
नहीं देखूंगा

कुछ
अच्छा सा
उन पर लिख कर
शाम को दे दूंगा

घर से
विद्यालय तक
अच्छी बातें
सोचता रहा

कूड़ा
दिखा भी तो
उसमें बस
फूल ही
ढूंढता रहा

पर
कौए की
किस्मत मेंं
कहां
मोर का
पंख आता है

वैसे
लगा
भी ले
अगर तो
वह मोर नहीं
हो जाता है

कितना भी
सीधा देखने
की कोशिश करे

भैंगे को
किनारे में
हो रहा सब
नजर आ
ही जाता है

उधर
मेरा एक साथी
रोता हुआ सा
कहीं से
आ रहा था

एक
महिला साथी से
बुरी तरह
डांठ
उसने
अभी अभी
खायी है

सबको
आ कर के
बता रहा था

ऎसा
पता चला
कि
महिला को
महिला पर ही
गुस्सा आ रहा था

मेरे को तो
भाई जी पर
बहुत तरस
आ रहा था

इसी
उधेड़बुन में
घर वापस आया
तो श्रीमती जी 
मैने अपनी भुलायी

कलम
निकाली मगर
श्रीमती तो दूर दूर
तक कहीं भी
नजर नहीं आयी

दिमाग ने
बस एक
निरीह मित्र को
किसी से मार
खाते हुवे जैसी
छवि एक दिखाई

योजना
आज की
मैंने खटाई
में डुबायी

कोई बात नहीं
कुम्भ जो क्या है
फिर कभी मना लूंगा

अपनी ही
हैंं श्रीमती
उसपर
कविता एक
किसी और दिन
चलो बना लूंगा।

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

बात

सुबह से
शुरू होती
है बात

रात सोने
तक चलती
है बात

घर से
निकलते
बाजार
में चलते
आफिस
पहुंचने
तक होती
है बात

और
यहां हैं
भी तो
बात
ही बात

सबकी
अपनी बात
एक
अनोखी बात

मेरी तू
सुन बात
तेरी मैं
सुनुंगा बात

मेरे पड़ौस
में भी
आज हुवी
एक बात

बाजार में
भी सुनी
मैंने एक
रसीली बात

कालेज में
भी थी
कुछ
चटपटी बात

हाय ये
कैसी
अनोखी
अजीब सी
है बात

इन सब
बात में
एक भी
ऎसी
नहीं बात

मैं कैसे
किस
मुंह से
बताउं वो
सब बात

यहां कोई
ऎसी वैसी
नहीं करता
कभी बात

सब बनाते
हैं अपनी
अपनी
एक बात

लिखते चले
जाते हैं
आसानी से
वो बात

कोई नहीं
बताना
चाहता
सही
सही बात

ये भी क्या
हुवी बात

कह डाली
एक बात
उस बात
पर भी
सिब्बल की
करो बात
मना कर
रहा है वो

क्यों कर
रहे हो बात।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

विश्वविद्यालय स्थापना दिवस

टूटती हुवी
चीज कोई
दिखाई दे
तो स्थापना
उसकी करवाईये

स्थापना
करने से
सुना है
दोष निवारण
हो जाता है

की हुवी
गलतियों पर
पर्दा सा एक
गिर जाता है

पाप बोध होने से
वो बच जाता है
जिसने टूटते हुवे
उस चीज पर
दांव कभी
लगाया था

मेरा घर
अगर कभी
मेरे से
गलती से
टूट जायेगा

मैं स्थापना
अपने घर की
करवाउंगा

परेशान
ना होईये
साथ में दावत
भी खिलवाउंगा

मेरी संताने
मेरे को नहीं
कोस पायेंगी

टूटे घर के
अवशेष
के साथ

जब वे
स्थापना के
शिलान्यास के
पत्थर को भी
गड़ा पायेंगी।