सूरज निकलते
ही एक सवेरा
ढूँढता है
चाँद निकलते
ही एक अंधेरा
ढूँढता है
पढ़ लिख कर
सब कुछ
एक पाठशाला ही एक सवेरा
ढूँढता है
चाँद निकलते
ही एक अंधेरा
ढूँढता है
पढ़ लिख कर
सब कुछ
ढूँढता है
पीता नहीं है
एक मधुशाला
ढूँढता है
मरने से डरता है
फिर भी हाला
ढूँढता है
कुआँरा है अपना
एक साला
ढूँढता है
मंदिर में जाकर
ऊपर वाला
ढूँढता है
बना कर मकान
एक घर
ढूँढता है
घर घर में
जाकर एक
बेघर ढूँढता है
सब के काम
में एक खता
ढूँढता है
संभाला कहाँ
खुद का पता
ढूँढता है
सोता नहीं है
लेकिन सपने
ढूँढता है
ठोकर लगा कर
सब को अपने
ढूँढता है
सब कुछ है
फिर भी
कुछ कुछ
ढूँढता है
सारी उमर
बेसबर
ढूँढता है
कोई नहीं
कहीं एक
कबर
ढूँढता है।
ढूँढ़ ढूँढ़ के पा गया, आखिर एक-स्थान |
जवाब देंहटाएंमहाशांति नीरव महल, चाहे कहो मकान |
चाहे कहो मकान, कुंवारा भी पा जाता |
किन्तु करे अफ़सोस, नहीं जो लड्डू खाता |
अंधियारे में लैम्प, श्वेत कपडे में घूमे |
चले पैर उलटाय, फ़्लैट छ: फुट का चूमे ||
बहुत सार्थक प्रस्तुति,,,
जवाब देंहटाएंसुशील जी,,,,बधाई,,,,
RECENT POST...: दोहे,,,,
ढूढने वाला जो ढूंढ रहा है उसे मिल जाए
जवाब देंहटाएंदर-दर भटक रहा है मानव अकेला ही इस सभ्यता के जंगल में...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (07-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
बहुत रोचक भावमई अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएं'तलाश'के लिये गम औ खुशी बराबर है |
जवाब देंहटाएंतलाशता एक खोजी बस दर व दर है ||
'रोशनी क्या,'अँधेरा'है उसके लिये -
हर पड़ाव तो उसका अपना घर है ||
यह सिद्धांत अप द्वारा योग-दर्शन को उजागर करता है ||