उलूक टाइम्स: ढूँढ सके तो ढूँढ

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

ढूँढ सके तो ढूँढ

सूरज निकलते
ही एक सवेरा
ढूँढता है
चाँद निकलते
ही एक अंधेरा
ढूँढता है
पढ़ लिख कर
सब कुछ 
एक पाठशाला
ढूँढता है
पीता नहीं है
एक  मधुशाला
ढूँढता है
मरने से डरता है
फिर भी हाला
ढूँढता है
कुआँरा है अपना
एक साला
ढूँढता है
मंदिर में जाकर
ऊपर वाला
ढूँढता है
बना कर मकान
एक घर
ढूँढता है
घर घर में
जाकर एक
बेघर ढूँढता है
सब के काम
में एक खता
ढूँढता है
संभाला कहाँ
खुद का पता
ढूँढता है
सोता नहीं है
लेकिन सपने
ढूँढता है
ठोकर लगा कर
सब को अपने
ढूँढता है
सब कुछ है
फिर भी
कुछ कुछ
ढूँढता है
सारी उमर
बेसबर
ढूँढता है
कोई नहीं
कहीं एक
कबर
ढूँढता है।

7 टिप्‍पणियां:

  1. ढूँढ़ ढूँढ़ के पा गया, आखिर एक-स्थान |
    महाशांति नीरव महल, चाहे कहो मकान |
    चाहे कहो मकान, कुंवारा भी पा जाता |
    किन्तु करे अफ़सोस, नहीं जो लड्डू खाता |
    अंधियारे में लैम्प, श्वेत कपडे में घूमे |
    चले पैर उलटाय, फ़्लैट छ: फुट का चूमे ||

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  2. ढूढने वाला जो ढूंढ रहा है उसे मिल जाए

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  3. दर-दर भटक रहा है मानव अकेला ही इस सभ्यता के जंगल में...

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (07-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  5. 'तलाश'के लिये गम औ खुशी बराबर है |
    तलाशता एक खोजी बस दर व दर है ||
    'रोशनी क्या,'अँधेरा'है उसके लिये -
    हर पड़ाव तो उसका अपना घर है ||
    यह सिद्धांत अप द्वारा योग-दर्शन को उजागर करता है ||

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