बहुत कुछ कहना है कैसे कहा जाये नहीं कहा जा सकता है
लिखना सोच के हिसाब से किसने कह दिया सब कुछ साफ साफ सफेद लिखा जा सकता है
सब दावा करते हैं सफेद झूठ लिखते हैं
सच लिखने वाले शहीद हो चुके हैं कई जमाने पहले ये जरूर कहा जा सकता है
लिखने लिखाने के कोर्ट पढ़े लिखे वकील परिपक्व जज होते होंगे बस इतना कहा जा सकता है
सबको पता होता है सब ही जानते है सबकुछ कुछ कहते हैं कुछ कुछ पढ़ते हैं कुछ ज्यादा टिप्पणी नहीं देते हैं कुछ दे देते हैं यूँ ही देना है करके कुछ कुछ अपने अपने का रिश्ता अपने अपने का धंधा लिखने लिखाने ने भी बना रखा है
‘उलूक’ खींच अपने बाल किसी ने रोका कहाँ है बस मगर थोड़ा सा हौले हौले
जोर से खींचना ठीक नहीं गालियाँ खायेंगे गालियाँ खाने वाले कह कर दिन की अंधी एक रात की चिड़िया को सरे आम गंजा बना रखा है।
(कृपया बकवास को कवि, कविता और हिंदी की किसी विधा से ना जोड़ेंं और टुकड़ों को ना जोड़ें, अभिव्यक्ति कविता से हो और कवि ही करे जरूरी नहीं होता है ) सोच खोलना बंद करना भी आना चाहिये सरकारी दायरे में ज्यादा नहीं भी कम से कम कुछ घंटे ही सही >>>>>>>>>>>>
बेहिसाब रेत में बिखरे हुऐ सवालों को रौंदते हुऐ दौड़ने में कोई बुराई नहीं है गलती सवालों की है किसने कहा था उनसे उठने के लिये बेवजह बिना सोचे बिना समझे बिना जाने बिना बूझे और बिना पूछे उससे जिसपर उठना शुरु हो चले >>>>>>
मालूम है बात को लम्बा खींच देने से ज्यादा समझ में नहीं आता है
खींचने की आदत पड़ गई होती है जिसे उससे फिर भी आदतन खींचा ही जाता है जानता है ज्ञानी बहुत अच्छी तरह से अपने घर में बैठे बैठे भी अपने आस पास दूसरों के घरों के कटोरों की मलाई की फोटो देख देख कर अपने फटे दूध को नहीं सिला जाता है >>>>>>>
कोई नहीं खोलता है अपनी खुद की किताबें दूसरों के सामने
खोलनी भी क्यों हैं पढ़ाने की कोशिश जरूर करते हैं लोग समझाने के लिये किताबें लोगों को
बहुत सी किताबें रखी हुई दिखती भी हैं किताबचियों के आस पास कहीं करीने से लगी हुई कहीं बिखरी हुई सी कहीं धूल में लिपटी कहीं साफ धूप दिखाई गई सूखी हुई सी ।