उलूक टाइम्स

सोमवार, 14 अक्तूबर 2019

सागर किनारे लहरें देखते प्लास्टिक बैग लेकर बोतलें इक्ट्ठा करते कूड़ा बीनते लोग भी कवि हो जाते हैं


ना
कहना
आसान होता है

ना
निगलना
आसान होता है

सच
कहने वाले
के
मुँह
पर राम

और

सीने पर
गोलियों का
निशान होता है

सच
कहने वाला
गालियाँ खाता है

निशान
बनाने वाले का

बड़ा
नाम होता है

‘उलूक’
यूँ ही नहीं
कहता है

अपने
कहे हुऐ
को
एक बकवास

उसे
पता है

कविता
कहने
और
करने वाला
कोई एक
 खास होता है

अभी
दिखी है
कविता

अभी
दिखा है
एक कवि

 कूड़ा
समुन्दर
के पास
बीन लेने
वाले को

सब कुछ
सारा
माफ होता है

बड़े
आदमी के
शब्द

नदी
हो जाते हैं

उसके
कहने
से ही
सागर में
मिल जाते हैं

बेचारा
प्लास्टिक
हाथ में
इक्ट्ठा
किया हुआ
रोता
रह जाता है

बनाने
वालों के
अरमान

फेक्ट्रियों
के दरवाजों
में
खो जाते हैं

बकवास
बकवास
होती है

कविता
कविता होती है

कवि
बकवास
नहीं करता है

एक
बकवास
करने वाला

कवि
हो जाता है ।


चित्र साभार:
https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

शब्द बच के निकल रहे होते हैं बगल से फैली हुयी स्याही के जब कोई दिल लगा कर लिखने के लिये कलम में स्याही भर रहा होता है




लिखा
हुआ भी
रेल गाड़ी
होता है

कहीं
पटरी पर
दौड़
रहा होता है

कहीं
बेपटरी हुआ
औंधा
गिरा होता है

लिखते लिखते
कितनी दूर
निकल
गया होता है

उसे
खुद पता
नहीं होता है

मगर
कलम
जानती है

बहुत
अच्छी तरह से
पहचानती
है

स्याही सूखे
इससे पहले
हमेशा
शब्दों को
अपने
हिसाब से
छानती है

लिखे हुऐ के
कौऐ भी
उड़ते हैं

उड़ते उड़ते
कबूतर
हो लेते हैं

क्या
फर्क पड़ता है
अगर

सफेद
के ऊपर
काला
लिखा होता है

कौन
देखता है

समय
के साथ
लिखा लिखाया
हरे से पीला
हो लेता है

किताबें
पुरानी
हो जाती हैं

लिखाई
से
आती महक

उसकी उम्र
बता जाती है

लिखा हुआ
अकेला
भी होता है

मौके बेमौके
स्टेशन से
रेल पहुँचने
के बाद
निकली भीड़ के
अनगिनत
सिर हो लेता है

शब्द
शब्दों के ऊपर
चढ़ने
शुरु हो जाते हैं

भगदड़
हो जाना
कोई
अजूबा
नहीं होता है

कई शब्द
शब्दों के
जूतों के नीचे
आ कर
कुचल जाते हैं

लाल खून
कहीं
नहीं होता है

ना ही
कहीं के
अखबार रेडियो
या
टी वी
चिल्लाते हैं

कोई
दंगा फसाद
जो क्या
हुआ होता है

सिरफिरे
‘उलूक’ का
रात का
काला चश्मा
सफेद
देख रहा होता है

लिखते लिखते
लिखना लिखाना

घिसी हुई
एक कलम से
फैला हुआ
कुछ रायता सा
हो रहा होता है

शब्द बच के
निकल रहे होते हैं
बगल से
फैली हुयी स्याही के

हर
निकलने वाला
थोड़ी दूर
पहुँच कर

घास
के ऊपर
अपना जूता

साफ
करने के लिये
घिस रहा होता है ।

http://hans.presto.tripod.com



गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

काहे पढ़ लेते हैं कुछ भी सब कुछ लिखना सब को नहीं आता है


यूँ ही
नहीं लिखता
कोई
कुछ भी

अँधेरे में
उजाला लिखना
लिखना अँधेरा
उजाले में

 उजाले में
उजाला लिखना
लिखना
अँधेरे में अँधेरा

एक बार लिखा
बार बार लिखना

 लिखना
बेमौसम
सदाबहार लिखना

यूँ ही
नहीं लिखता
कोई कुछ भी

सब
लिखते हैं कुछ

 कुछ
लिखना
सबको नहीं आता है

सब
सब नहीं लिखते हैं

 सब
लिखने की
हिम्मत
हर कोई
नहीं पा जाता है

सब लिखते हैं

 सब
लिखने पर
बात करते हैं

 सब
कोशिश करते हैं
अपने लिखे को
सब कुछ बताने की

सब
का लिखा
सब को
समझ में
नहीं आता है

 सब से
अच्छी टिप्पणी
सुन्दर होती है

 दो चार शब्द
कहीं दे आने से
ज्यादा कुछ
घट नहीं जाता है

लिखते लिखते

कहाँ
भटक गया होता है
लिखने वाले को भी
पता कहाँ चल पाता है

 कुछ भी है
लेकिन
सच
चाहे अपना हो
पड़ोस का हो
समाज का हो

किसी में
इतनी
हिम्मत
नहीं होती है

कि
लिख ले
कोई

नहीं
लिख पाता है

‘उलूक’
कोशिश करता है
फटे में झाँकने की
और बताने की

लेकिन
उसका जैसा
उल्लू का पट्ठा

शायद
कभी कोई
नजर आये

जो अपने
पैजामे के
नाड़े को
बाँधने के
चक्कर में

पैजामा
कौन सा है
बता पाये
नजर नहीं
आता है

बकवासों
का भी
समय
आयेगा कभी

खण्डहर
बतायेंगे
हर नाड़े को

पैजामा
छोड़ कर
जाने का
मलाल रह
ही जाता है।

 चित्र साभार: https://www.talentedindia.co.in

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

कुछ सजीव लिखें कुछ अजीब लिखें कुछ लगाम लिखें कुछ बेलगाम लिखें

कुछ
उठती उनींदी
सुबह लिखें

कुछ
खोती सोती
शाम लिखें

कुछ
जागी रातों
के नाम लिखें

कुछ
बागी सपनों
के पैगाम लिखें

कुछ
बहकी साकी
के राम लिखें

कुछ
आधे खाली

कुछ
छलके जाम लिखें

कुछ
लिखने
ना लिखने
की बातों में से

थोड़ा
सा कुछ
खुल कर
सरेआम लिखें

कुछ
दर्द लिखें
कुछ खुशी लिखें

कुछ
सुलझे प्रश्नों
के उलझे
इम्तिहान लिखें

कुछ
झूठ लिखें
कुछ टूट लिखें

कुछ
रस्ते कुछ
कुछ सच के
कुछ अन्जान लिखें

कुछ
बनते बनते से
कुछ शैतान लिखें

थोड़े से

कुछ
मिट्ठी से उगते
इन्सान लिखें

कुछ
कुछ लिखते
लिखते कुछ
खुद की बातें

‘उलूक’

कुछ
बातें उसकी
कुछ उससे
पहचान लिखें।

चित्र साभार: https://pngio.com

शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

फितरत छिपाये अपनी लड़ाके सिपाही एक रणछोड़ की झूठी दास्तान सुन रहे हैं


पता ही नहीं है कुछ भी अन्जान बन रहे हैं 
लगता भी नहीं है
कहते हैं
इन्सान बन रहे हैं

खूबसूरत बन रहे हैं कफन
बेफिक्र होकर
जिंदगी के साथ साथ बुन रहे हैं 

आरामदायक भी बनें सोच कर
सफेद रूई को एक
लगातार धुन रहे हैं

कब तक है रहना खबर ही नहीं है
बेखबर होकर
एक सदी का सामान चुन रहे हैं 

कहानियाँ हैं बिखरी
कुछ मुरझाई हुई सी कुछ दुल्हन सी निखरी 

कबाड़ में बैठे हुऐ कबाड़ी
आँख मूँदे हुऐ
जैसे कुछ इत्मीनान गिन रहे हैं 

फितरत छिपाये अपनी
लड़ाके सिपाही
एक रणछोड़ की
झूठी दास्तान सुन रहे हैं

‘उलूक’
रोने के लिये कुछ नहीं है
हँसने के फायदे कहीं हैं
सोच से अपनी लोग खुद
बिना आग बिना चूल्हे
भुन रहे हैं ।

चित्र साभार: https://owips.com https://twitter.com


बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

सत्य अहिंसा सत्याग्रह नाटक के अभ्यास के लिये रोज एक मंचन का अभिनव प्रयोग हो रहा है


जब
गाँधी
मारा गया था

तब
वो
पैदा भी
नहीं हुआ था

उसकी
किताबों से
उसे
बताया गया था

गाँधी
जिस दिन
पैदा हुआ था

असल में
उस दिन
शास्त्री
पैदा
हुआ था

जो
असली 
था
सच था

उसने
ना
गाँधी को
पढ़ा था

ना ही
उसे

शास्त्री
का
ही
पता था

उसे
समझाया
गया था

गाँधी
मरते
नहीं है

शास्त्री
मरते हैं

 इसलिये
गाँधी की
मुक्ति के लिये

शास्त्री
जरुरी है

कभी
कोई
गाँधी की
बात करे

उसे
तुरन्त
शास्त्री
की बात
शुरु
कर देनी
चाहिये

गाँधी
अभी तक
जिन्दा है

और
इसी बात की
शर्मिंदगी है

उसकी
मुक्ति
नहीं
हो पा रही है

देख लो

अभी भी
याद किया
जा रहा है

आज
उसकी
एक सौ
पचासवीं
जयन्ती है

गाँधी को
तब
गोली लगी थी

वो
मरा
नहीं था

मर तो
वो
आज रहा है

रोज
उसे
तिल तिल
मरता
हर कोई
देख रहा है

‘उलूक’
समझाकर

कोई
कुछ
इसलिये
नहीं कह रहा है

क्योंकि
कहीं
गाँधी
होने की

अतृप्त
इच्छा के साथ

पर्दे
के पीछे से
धीरे धीरे
गाँधी
होने के लिये

सत्य अहिंसा सत्याग्रह
नाटक
के
अभ्यास के लिये

रोज
एक मंचन
का

अभिनव प्रयोग
हो रहा है ।

चित्र साभार: https://www.facebook.com/pg/basavagurukul/posts/

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

डरकर शरमाकर सहमकर झेंप रहे हैं गाँधीवादी

सत्य 
अहिंसा 
का 
दूसरा नाम 

कभी 
किसी 
जमाने में 
कहते थे 

होता
था 
गाँधी

झूठ
की 
चल रही है 

इस 
जमाने में 

जर्रे जर्रे 
में 

हवा नहीं है 

है एक 
आँधी

सत्य 
छिपा 
फिर
रहा है 

खुद 
अपना 
मुँह छुपाये 

गलियों 
गलियों में 

झूठ की 
बढ़ गयी है 

हर
तरफ 
आबादी

अहिंसा 
को
डर है 

खुद के 
कत्ल 
हो 
जाने का 

लिंचिंग 
हो जाने 
की
हुई है 

जब से 
उसके
लिये 
घर घर में 
मुनादी

चाचा 
होते होते

नहीं 
हो पाने 
के बाद 

जब 
हो रही है 

बापू 
हो जाने 

की
तीव्र 
इच्छा 

छाती 
फुला रहा है 

विदेश 
जा कर 

फौलादी

एक 
सौ 
पचासवीं 
जयन्ती 

मजबूरी
है 

झंडे के 
रंगों को 
कर 
अलग अलग 

हवा 
खुद नहीं 
चल पाती है 

जब तक 
नहीं 
हो जाती है 

पूरी 
उन्मादी 

आसमान 
की ओर 

मुँह कर 
खड़े
हो गये 
हैं
तीनों बंदर 

खुला 
छोड़ कर 

अपने 
आँख नाक 
और 
मुँह 
‘उलूक’ 

डरकर 
शरमाकर 
सहमकर 

झेंप रहे हैं 
गाँधीवादी।
चित्र साभार: https://depositphotos.com

सोमवार, 30 सितंबर 2019

वो कहीं नहीं जाता है ये हर जगह नजर आता है आने जाने के हिसाब से यहाँ हिसाब लगाया जाता है



गजब है

सारे

उसके
हिसाब से

हिसाब
समझा रहे हैं

गणित
की लिखी
पुरानी
एक किताब को

किसी
बेवकूफ
के द्वारा
लिखा गया
इतिहास
बता रहे हैं

वो
पता नहीं

क्यों
बना हुआ है

अभी तक

कागज के नोट पर

जिसकी
एक सौ
पचासवी
तेरहवी
मनाने के लिये

उसकी
धोती के

हम सब
मिल कर

उसके
परखच्चे
उड़ा रहे हैं

वहम
है शायद
या समझ में
नहीं आता है

जो
सामने
से होता है
किसी को भी
नजर नहीं आता है

कुछ
कहने की
कोशिश करो तो

नजरें
देख कर
सामने वाले की

डर लगता है

जैसे कह रहा हो

औकात
में रहा कर

पहाड़
से लाकर
अपने पहाड़ी कव्वे

किसलिये
रेगिस्तान में
लाकर उड़ाता है

हर किसी ने
ओढ़ा हुआ होता है

एक गमछा
मूल्यों का
अपने गले में

रंग उसका
उसकी
सोच का
परचम
उसके साथ
लहराता है

लाल को
हरे गमछे
में बदल देने से
कौन सा
मूल्य बदल जाता है

मुस्कुराईये मत

अगर

रोज
पैंट पहन कर
घूमने वाला आदमी

कहीं
किसी जगह
एक रंग की
हाफ पैंट के साथ
टोपी भी पहना हुआ
नजर आता है

लाजमी है
उतरना
 रंग चेहरों का
देखकर

कोई अगर
आईना
उनके
सामने से
आ जाता है

शहर में
बहुत कुछ
होता है

हर कोई
कहीं ना कहीं
अपना जमीर
तोलने जाता है

परेशान
किस लिये
होता है
‘उलूक’
इस सब से

अगर तुझे
खुद को
बेचना
नहीं
आता है ।

चित्र साभार: https://www.kissclipart.com/

रविवार, 29 सितंबर 2019

सोच कुछ भी हो आईने सी साफ हो लिखे लिखाये में सूरत दिखनी भी नहीं है



साफ
कहना है

कहने से
कोई परहेज
होना भी नहीं है

बात
अपनी
खुद की

जरा
सा भी
कहीं
करनी भी
नहीं है

थोड़े से
मतभेद
से केवल

अब
कहीं कुछ
होता भी नहीं है

पूरा 
कर लें 
मनभेद 
इस से
अच्छा माहौल

आगे
होना भी नहीं है

झूठ सारे
लिपटे हुऐ हैं
परतों में

पर्दे में
नहाने की

जरूरत
भी नहीं है

बन्द
रखनी हैं
बस आँखें

हमाम
की दीवारें
खिड़कियाँ
दरवाजे

अभी
तैयार
भी नहीं हैं

भेड़िये
सियार कुत्ते
सारे साथ हैं

क्या हुआ
रिश्तेदार
भी नहीं हैं

सोचना
भी नहीं है

नोचना
ही तो है
सबने

कुछ ना कुछ

क्या हुआ
अगर जिन्दा हैं

लाशें अभी
बनी भी नहीं हैं

लिखने में
कुछ नहीं
जाता है

सब कुछ
लिखने के
बीच का

कुछ
लिखना
भी नहीं है

सोच
कुछ
भी हो
‘उलूक’

आईने सी
साफ हो

लिखे
लिखाये में
सूरत दिखनी
भी नहीं है ।

 चित्र साभार: http://clipart-library.com

सोमवार, 23 सितंबर 2019

चलो बस यूँ ही चाँद पर रोटी तोड़ने के लिये हो के आते हैं


कौन 
सोया 
हुआ है

कौन

जागा 
हुआ है

अब तो

ये भी 

पता 
नहीं चलता

वो 
कहते हैं

तुम

सो रहे हो

हमें

वो 
सोये
हुऐ से
नजर 
आते हैं

चलो

इस तरह
ही सही

उनकी 
रात हो
रही होती है

हम 
उठ कर
घूमने

चले
जाते हैं

भूख

और 
रोटी

एक

पुरानी 
सी बात 
लगती है

कुछ

नया 
करते हैं

चलो

चाँद पर

घूम कर

चले

आते हैं ।

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(अपनी 

फेसबुक
दीवार से

मित्र के साथ

बातों बातोंं
 
मे एक बात)

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