उलूक टाइम्स

सोमवार, 23 जुलाई 2018

अपना वित्त है अपना पोषण है ‘उलूक’ तेरी खुजली खुद में किया तेरा अपना ही रोपण है

(21/07/2018 की पोस्ट:‘शरीफों की बस्ती है  कुछ नहीं होना है एक नंगे चने की बगावत से’ की अगली कड़ी है ये पोस्ट। इसका देश और देशप्रेम से कुछ लेना देना नहीं है। उलूक की अपनी दुकान की खबर है जहाँ वो भी कुछ सरकारी बेचता है )
पहले से
पता था

कुछ नया
नहीं होना था

खाली टूटी
मेज कुर्सियाँ
सरकार की
दुकान में

सरकारी
हिसाब किताब
जैसा ही
कुछ होना था

सरकारी
दुकान थी
सरकार के
दुकानदार थे

सरकारी
सामान था

 किसी के
अपने घर का
कौन सा
नुकसान
होना था

दुकानदार
को भी
आदेशानुसार

कुछ देर
घड़ियाली
ही तो रोना था

दुकान
फिर से
खुलने की
खुशखबरी
आनी थी

दो दिन बस
बंद कर रहे हैं
की खबर
फैलानी थी

दुकान
बंद हो रही है
दुकानदारों की
फैलायी खबर थी

अखबार वाले
भी आये थे
अच्छी पकी
पकायी खबर थी

दस्तखत की
जरूरत नहीं थी
दुकान वालों
की लगायी
दुकान की
ही मोहर थी

सरकारी
दुकान के अन्दर
खोली गयी
व्यक्तिगत
अपनी अपनी
दुकान थी

बन्द होने की
खबर छपने से
दुकानदारों की
निकल रही जान थी

तनखा
सरकारी थी
काम सरकारी था
समय सरकारी
के बीच कुछ
अपना निकाल
ले जाने की
मारामारी थी

‘उलूक’
देख रहा था
उल्लू का पट्ठा
उसे भी देखने
और देखने
के बाद लिखने
की बीमारी थी

बधाई थी
मिठाई थी
शरीफों की
बाँछे फिर से
खिल आयी थी
दुकान की
ऐसी की तैसी
पीछे के
दरवाजों में
बहुत जान थी ।

चित्र साभार: www.gograph.com

शनिवार, 21 जुलाई 2018

शरीफों की बस्ती है कुछ नहीं होना है एक नंगे चने की बगावत से

शरीफों
ने तोड़ी
कुर्सियाँ
शरीफों की

लात
मार कर
शराफत
के साथ

मेज फेंकी
शराफत से

दी
भेंट में
कुछ
गालियाँ
शरीफों
की ही दी
इजाजत से

काँच
की बोतलें
रंगीन पानी

खुश्बू
शराफत की
और मुँह
शरीफों के

साकी
छिड़क
रही थी
अल सुबह से
वीरों पर
थोड़ी सी बस
कुछ नफासत से

शरीफों ने
इजहार किया
शराफत का
शरीफों
के सामने

शरीफ बैठे
शराफत के साथ
मिले बातें किये
और चल दिये
शराफत से

जश्ने शराफत
घर में हो रहा था
कुछ शरीफों के ही
ऐसा कहना
शराफत नहीं

सम्मानित
देश भर के

भी दिखा
रहे थे
शराफत

शरीफ
बने थे
महारथी

शराफत की
महारत से

किताबें
शराफत की
शराफत के
स्कूलों की

बातें
शरीफों की
पढ़ने पढ़ाने की

इजाजत
नहीं है
बकने की
बकाने 
की
'उ
लूक’

शरीफों
की बस्ती है
कुछ
नहीं होना है
एक नंगे
चने की
बगावत से।

चित्र साभार: forum.wordreference.com

रविवार, 15 जुलाई 2018

किसी किसी आदमी की सोच में हमेशा ही एक हथौढ़ा होता है

दो और दो
जोड़ कर
चार ही तो
पढ़ा रहा है
किसलिये रोता है

दो में एक
इस बरस
जोड़ा है उसने
एक अगले बरस
कभी जोड़ देगा
दो और दो
चार ही सुना है
ऐसे भी होता है

एक समझाता है
और चार जब
समझ लेते हैं
किसलिये
इस समझने के
खेल में खोता है

अखबार की
खबर पढ़ लिया कर
सुबह के अखबार में

अखबार वाले
का भी जोड़ा हुआ
हिसाब में जोड़ होता है

पेड़
गिनने की कहानी
सुना रहा है कोई
ध्यान से सुना कर
बीज बोने के लिये
नहीं कहता है

पेड़ भी
उसके होते हैं
खेत भी
उसके ही होते हैं

हर साल
इस महीने
यहाँ पर यही
गिनने का
तमाशा होता है

एक भीड़ रंग कर
खड़ी हो रही है
एक रंग से
इस सब के बीच

किसलिये
उछलता है
खुश होता है

इंद्रधनुष
बनाने के लिये
नहीं होते हैं

कुछ रंगों के
उगने का
साल भर में
यही मौका होता है

एक नहीं है
कई हैं
खीचने वाले
दीवारों पर
अपनी अपनी
लकीरें

लकीरें खीचने
वाला ही एक
फकीर नहीं होता है

उसने
फिर से दिखानी है
अपनी वही औकात

जानता है
कुछ भी कर देने से
कभी भी यहाँ कुछ
नहीं होना होता है

मत उलझा
कर ‘उलूक’
भीड़ को
चलाने वाले
ऐसे बाजीगर से
जो मौका मिलते ही
कील ठोक देता है

अब तो समझ ले
बाजीगरी बेवकूफ

किसी किसी
आदमी की
सोच में
हमेशा ही एक
हथौढ़ा होता है ।

चित्र साभार: cliparts.co

शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

नियम नहीं हैं कोई गल नहीं बिना नियम के चलवा देंगे हजूर हम समझा देंगे

जो भी
आप
समझायेंगे

हजूर


हम समझा देंगे

किस
किस को

समझाना है

क्या क्या

और

कैसे कैसे
बताना है

हमें
लिख कर

बता देंगे

हजूर


हम समझा देंगे

मत
समझियेगा


हम भी
समझ

ले रहे हैंं
वो सब


जो
आप

लोगों को

समझाने
के लिये


हमें समझा रहे हैं


हम
आप के

कहे को

जैसे का तैसा


इधर से उधर

पहुँचा देंगे हजूर

हम समझा देंगे

खाली
किस लिये

अपना दिमाग
लगाना है

आप के
दिमाग में
जब
सब कुछ सारा


बहुत सारा

तेज धार
का पैमाना है

इशारा
करिये तो सही  

पानी में ही

आग लगा देंगे
हजूर

हम समझा देंगे


अखबार में
आने वाली है
खबर पक कर
रात भर में

नमक
मसालों
को

ही बदलवा देंगे

हजूर

हम समझा देंगे


नहीं होगा
नहीं होगा


छपवा कर

रखवा भी
दिया होगा


कहाँ तक
रखवायेगा कोई


और
ऊपर से

जोर की डाँठ

पड़वा देंगे

हजूर


हम समझा देंगे

चिंता
जरा सा
भी
मत
कीजियेगा


ज्यादा
से ज्यादा

कुछ नहीं होगा

टेंट
लगवा कर

दो चार दिन

एक
भीड़
को बैठा देंगे


हजूर

हम समझा देंगे


‘उलूक’

तू भी

आँख बन्द कर
कान में उँगली
डाल कर बैठा रह

किसी
दिन आकर

तुझे भी

दो चार दिन

देश
चलाने की

किताब के
दो पन्ने
तेरे शहर के

पढ़ा देंगे


हजूर

हम समझा देंगें। 


चित्र साभार: http://www.newindianexpress.com

शुक्रवार, 29 जून 2018

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के साथ साथ बहुत जरूरी है थोड़ा थोड़ा बेटी धमकाओ भी

पता नहीं
क्या क्या
उल्टा सीधा
देख सुन कर
आ जा रहा है

चुपचाप
बैठ ले रहा था
कुछ दिन के लिये
बीच बीच में इधर

फिर से
जरा सा में
सनक जा रहा है

कोई
क्यों नहीं
समझा रहा है

बेटी बेटी
नहीं कही
जा सकती है

जब उम्र
पचास पचपन
के पार
हो जाती है

बेटी की
बेटियाँ पैदा
हो जाती हैं

उम्र के
किसी मोड़
पर जा कर
माँग भी
उजड़ जाती है

सुगम के
सपने
देखते देखते
दुर्गम की
कठिन हवा धूप
में सूख जाती है

ऐसी महिला को
कैसे सोच रहा है

लक्ष्मीबाई
खुद को मान
लेने का हक

बेटी पढ़ाओ
बेटी बचाओ
के नारों के
जमाने में

फालतू में
यूँ ही मिल
जा रहा है

अखबार
रेडियो दूरदर्शन
सब देख रहे हैं
सब सही हो रहा है
इनमें से कोई भी
उसके लिये
रोने नहीं जा रहा है

बेटी
कहलवाने
का भाव उसके
सनकी हो गये
दिमाग में से
नहीं निकल
पा रहा है
उसकी समस्या है

तू किसलिये
फनफना रहा है
अगर कोई
बेटी
धमका रहा है

ठन्ड रख
उसके सनकने
का दण्ड भी उसे
निलम्बित कर के
दिया जा रहा है

बहुत सही
हो रहा है
‘उलूक’
तेरे सनकने
के लिये रोज
एक ना एक
बखेड़ा

जरूरी किताब
के जरूरी पाठ
का एक जरूरी
दोहा हो जा रहा है।

चित्र साभार: https://drawingismagic.com

गुरुवार, 28 जून 2018

कबीर दौड़ रहा है सूर को सावधान रहने के लिये कहने के लिये ढूँढ रहा है तुलसी अदालत में फंसा हुआ है





आज
अचानक
गली के
मोड़ पर
तेजी से
भागता हुआ
कबीर मिला था

एक नयी
बहुत मंहगी
चमकीली
साफ सुथरी
चादर से
ढका हुआ
उड़ता हुआ
जैसे एक
बुलबुला
बन रहा था

पूछ बैठा
था कोई
भाई तू
लगभग
पाँच सौ
साल से
यूँ ही
पड़ा रहा था

अब
किस लिये
मजार
छोड़ कर
भाग आया

एक नयी
चादर में
उलझा हुआ
अपना
एक पाँव

बाहर
निकाल
कर उसने
चादर को
किनारे लगाया

जोर से
चिल्लाया
समझा करो
कबीर था

तब तक
जब तक
किसी को
मेरे जुलाहे
होने का
पता नहीं था

पाँच सौ
साल में
बदल जाती
है कायनात तक

मैं तो
उस जमाने
के सीधे साधे
आदमियों के
बीच का था
बस एक
फकीर था

हिंन्दू रहा था
ना मुसलमान रहा था

जुलाहे होने का
थोड़ा सा बस
अभिमान रहा था

दोहे
कह बैठा था
उस समय
के हिसाब से

पर आज
उन सब में जैसे
सारी जिन्दगी का
फलसफाऐ शैतान था

किसे पता था
पाँच सौ साल बाद
रजिया गुँडों के
बीच फंस जायेगी

कबीर के दोहे
किताबों से
दब जायेंगे
ईवीएम
की मशीन
कबीर के
भजन गायेगी
संगीत सुनायेगी

‘उलूक’
कब सुधरेगा
पता नहीं
उसकी बकवास
करने की आदत
भी नहीं जायेगी

कबीर ने
कुछ कहा था
समझना जरूरी
भी नहीं था

कल शायद
सूर की भी बारी
कहीं ना कहीं
आ जायेगी

तुलसी
फंसा हुआ है
मन्दिर की
सोच रहा है

पता नहीं
कौन सी कब्र
किस समय
और किसलिये
खोली जायेगी

बकवास है
शहर की
नहीं है
विनती है आपसे

मत कह देना
कबीर की आत्मा
मेरे घर में रुकी थी
कल चली जायेगी।

चित्र साभार: http://www.pngnames.com

बुधवार, 27 जून 2018

आओ भूत खोद कर लायें भविष्य की बात आये उससे पहले उसकी कब्र वर्तमान में ही बनाकर मंगलगीत मिलकर गायें

छोड़ें
शराफतें
करें
शरारतें
कुछ
खुराफातें

अपनी
नहीं भी हों
कोई बात नहीं

पर गिनें

सामने वाले की
बड़ी या छोटी
जो भी दिख जाये
सामने से

वो वाली आतें

रोकें
लटक कर
आगे बढ़ रही
घड़ी की सूईयों पर

समय
को 
खींचें
पीछे ले जायें

बायीं नाक से
खींच कर हवा
आहिस्ता
दायीं नाक से
बाहर का रास्ता
बना कर दिखायें
उल्टा पीछे को
चलने का
रास्ता सिखायेंं

बहुत
जरूरी है
समय को भी
सीख लेना
इस जमाने में
करना प्राणायाम

उसके भी
निकाले
जा सकते हैं
कभी भी
कैसे भी
कहीं भी
प्राण

लिखाकर
थाने में

चोर रहा था
बेशरम

आने वाले
समय के
पेड़ों से
समय से
पहले ही
पके हुऐ
लाल पीले
हरे आम

पीछे चलें
उल्टे पैरों से
मुँह आगे कर

कहीं भी
जाकर गिनें
गिरे हुऐ मरे हुऐ
बटेर और तीतर
शिकारी को
बिल्कुल भी
नहीं पकड़ना
है ठानकर

गिनती बढ़ायें
सौ के दस
हजार दिखायें

उस
समय के चित्र
इस समय
के अखबार
में छपवायें
ढोल नगाड़े
बजवायें

तीतर बटेरों
की आत्मायें
आकर
बता गयी हैं
शिकारी
के नाम पते

हरे पेड़ों के
झड़ गये
पत्तों पत्तों
पर लिखवा
लिखवा
कर बटवायें
मुनादी करवायें

पिछ्ली पीढ़ी
के भूत पिशाचों
को फाँसी की
सजा दिलवायें

आओ
‘उलूक’
संकल्प करें

प्राणवान
कुछ भी
समझ
में आये
उसका श्राद्ध
गया जाकर
प्राण
निकलवाने
से पहले
करवाने
का आदेश
करवायें

आओ
भूत खोद
कर लायें
भविष्य की
बात आये
उससे पहले
उसकी कब्र
वर्तमान में
ही बनाकर
मंगलगीत
मिलकर गायें।

चित्र साभार: https://www.fotosearch.com/

गुरुवार, 21 जून 2018

कतारें खूबसूरत सारी की सारी बहुत सारी बस आज ऐसे ही बनानी हैं

तपती रेत है
बहुत तेज धूप है
हैरान नहीं होना है
रोज की परेशानी है

यहाँ की रेत की
बात यहीं तक रखनी है
किसी को नहीं बतानी है

बस हरी दूब लानी है

बहुत जगह उगी है
बहुत सारी उगी है
हरी हरी दूब है
पानी नहीं होने की
बात ही बेमानी है

बहुत तेज जोरों से
प्यास ही तो लगी है

धैर्य रख
ज्ञानी हैं विज्ञानी हैं
बस यहीं कहीं हैं
सच बात है
नहीं कोई कहानी है

करना कुछ नहीं है
सपने उगाने तो हैं
पर बोना कुछ नहीं हैं
बीज ही नहीं हैं

देखनी रेत है
दूब बस सोचनी है
कौन सा उगानी है

पानी नहीं है
पीना कुछ नहीं है

प्यास
बस एक सोच है
बातें की बहती हुई
नदी एक दिखानी है

एक साफ
चादर ही तो लानी है
गरम रेत
के ऊपर से बिछानी है

दूब हरी हरी
दूर से कहीं से भी
लाकर फैलानी है
बोनी नहीं है
उगानी नहीं है
बस एक दिन
की बात ही है
कुछ नहीं होना है
सूखनी है सुखानी है

गाय भैंस बकरी हैं
कम ज्यादा
कुछ भी मिले
बिकनी बिकानी है

कुछ खड़े होना है
कुछ देर सोना है
इसको उसको सबको
एक साथ एक बार
एक ही बात बतानी है

चोंच नीचे लानी है
पूँछ ऊपर उठानी है
‘उलूक’
कुछ भी कह देने की
तेरी आदत पुरानी है

भीड़ नहीं कहते हैं
बहुत सारे लोगों को

दूर तलक दूर दूर
कतारें खूबसूरत
सारी की सारी
बहुत सारी
बस आज
और आज
ऐसे ही
बनानी हैं।

चित्र साभार: www.123rf.com

रविवार, 17 जून 2018

‘उलूक’ तू दो हजार में उन्नीस जोड़ या इक्कीस घटा तेरी बकवास करने की आदत का सरकार पेटेंट कराने फिर भी नहीं जा रही है

झंडों को 
हो रही

इधर की
बैचेनी

कुछ कुछ
समझ में
आ रही है

शहर में
आज एक
नयी भीड़

एक नये
रंग के
एक नये
झंडे के नीचे

एक नया
झंडा गीत
गा रही है

पुराने
झंडों के
आशीर्वादों
से भर चुके

झंडा
बरदारों
को नींद से

लग रहा है
जैसे
नयी हवा
जगा रही है

कुछ उस
रंग के झंडे
के नीचे से
कुछ ला कर

कुछ इस
रंग के झंडे
के नीचे से
कुछ ला कर

कुछ बेरंगे
हो चुके रंगों
में नया रंग

भरने
जा रही है

एक नये रंग
के झंडे का
पुराने झंडों
में से ही

मिल जुल कर
पैदा हो जाने
की खबर

कल के
अखबार के
मुख्य पृष्ठ पर
सुबह सुबह
आने जा रही है

अवसरवादियों
की बाँछें
फिर से एक बार
और जोर लगा कर
मुस्कुरा रही हैं

इस झंडे को
उठाने वालों को
उस झंडे को
उठाने वालों से

मिलजुल कर
रहने का अभ्यास
नये झंडे तले
करा रही हैं

लाल गेरुआ
नीला पीला
हरा बैगनी
की बात
करने की
रुत जा रही है

मेला नजदीक है
सुनाई दे रहा है

झंडों की
नई दुकाने
सजाने के लिये

फड़ों
की लाईन
लगायी
जा रही है

झंडों के
ठेकेदारों की
नयी योजना से

बेपेंदे के लौटों
के लुढ़कने की
आदत सुना है
बदलने जा रही है

झंडे खुश हैं
झंडा बरदार
भी खुश हैं

धीरे धीरे
हौले हौले
टोपियाँ
इस सर से
उस सर
की ओर
खिसकायी
जा रही हैं

‘उलूक’
तू दो हजार
में उन्नीस
जोड़ या
इक्कीस घटा

तेरी
बकवास
करने की
आदत का
सरकार
पेटेंट कराने
फिर भी
नहीं जा
रही है।

 चित्र साभार: www.dreamstime.com

सोमवार, 11 जून 2018

जरूरी है फटी रजाई का घर के अन्दर ही रहना खोल सफेद झक्क बस दिखाते चलें धूप में सूखते हुऐ करीने से लगे लाईन में

खोल
जरूरी है

साफ
सफेद झक्क

फटी हुई
रजाई को
ढकने के लिये

सारे
सफेद खोल
लटके हुऐ
करीने से
चमचमाती
धूप में 

सूखते हुऐ

खुशनसीब
खुशफहमी
की रूईयाँ

उधड़ी 
दरारों से
झाँकती हुई

घर के अन्दर
अंधेरे की
खिड़कियों को
समझाती हुई

परहेज करना
रोशनी से 


फटी
रजाई ओढ़ते
आदमी का

बाहर
झाँकता चेहरा
साँस लेने के लिये

साफ हवा
भी जरूरी है

लेकिन खोल
ज्यादा जरूरी है

और
जरूरी है

उसका
धुला होना
साफ होना
झक्कास रहना

चमकना 
धूप में
फिर स्त्री 

किया जाना

फटी हुयी
रजाइयाँ 

और
आदत 

में शामिल
बाहर 

को लटकते
रूई के फाहे

खोल
मजबूरी
नहीं होते हैं
किसी के लिये

एक
पाठ्यक्रम
हो जाते हैं

बिना 

खोल के
उधड़ा 

हुआ आदमी
बेकार है 

बेमानी है

आइये
सजायें
ला ला कर
सफेद
झक्कास
खोलों को

अलग अलग
जगह के
अलग अलग
आदमी के

आदमी के
लिये ही
बनाने 

और
दिखाने के
लिये इंद्रधनुष

सात रंगों
के नशे में
चूर के लिये
नशे की सोच
भी पाप है

और 

प्रायश्चित
बस 

एक ही है

साफ 

सफेद
धुले हुऐ
धूप में
लाईन 

लगा कर
सुखाये 

गये खोल

फटी हुई
रजाई
कहीं भी
नजर नहीं
आनी चाहिये
'उलूक'
किसे
जरूरत है

आँखें
अच्छा देखें
कान
अच्छा सुनें
अच्छे
की आशायें
खोल में
समाहित
होती हैं

यही
फलसफा है
बकवास
करते चले
जाने का।

चित्र साभार: www.amazon.com

सोमवार, 4 जून 2018

इसकी उसकी पूजा करने के दिन लद गये ‘उलूक’ कुछ दिन अपनी अब करवाले मंदिर संदिर हो सके कहीं तो आज और अभी दो चार छोटे बड़े बनवाले

बहुत
दिन हो गये
चुपचाप बैठे

चलिये

बैठे ठाले
के
जमा किये
का
कुछ बाहर
निकालें

कथा
करा लें

ठीक नहीं
होता है

देखा भाला
सुना समझा
सम्भाल लेना

पोटली में
कहीं अंदर

अपनी
भाषा में
फिर से

कुछ
जुगाली
कर डालें

आईये
बिना तीरों
की
कमान से
कुछ तीखे
तीर निकालें

मरना
मारना
किस को
करना है

कुछ
हल्ला गुल्ला
हल्ले गुल्ले
के लिये
कर डालें

दर्ज करें
उपस्थिति
समाज में

सामाजिक
होने का दावा
मुट्ठी बन्द कर
हवा में उछालें


बैठे  
बैठे 
इधर उधर
बिखरे
कंकड़ पत्थर
जमा करें

कुछ फैलायें
कुछ उछालें

कुछ लाईन
में लगा कर
रास्ते दिखाने
भर के लिये

दीवारों में
चिपका कर
पोस्टर बाजी
ही कर डालें

आईये
चीटियों के
काटने के
निशानों की
कुछ फोटो
खिंचवालें

कुछ
फाईल में
दबा लें

कुछ
धो पोछ कर

अखबार
नवीसों
के घर जा
कर दे डालें

कुछ तो करें
कभी ही सही

थोड़ी देर
के लिये
ही सही
कहीं भी
एक लाईन
लगवालें

आईये
कुछ
कबूतरों को
कुछ
कौओं को
कुछ
चूहों को
कुछ
शेरों को

जंगल गीत
गाने
का न्योता

शहर के
पाँँच सितारा
में दे डालें
आईये 
अन्धे बन कर
कुछ आइने
ही सही
आँख वालों
को बेच डालें

कुछ बदलें
कुछ बदलने
का आह्वाहन
बस कर डालें

कुछ
श्रँगार रस
विधवाओं के
श्रँगार करने
के लिये
रच डालें
आईये रूप बदलें

बहुरूपियों
को ललकारें

शब्दों की
निकाल कर
कुछ कटारें

सफेद
पृष्ठभूमि पर
काले खून से

होली
काली सफेद
ही सही मनालें

आईये
नासमझ
‘उलूक’ को
कुछ
पढ़ालें
कुछ
समझालें

ढोंगियों
के बीच
रहकर
लिलार
पढ़ने
की आदत

बहुत हो गया
अब तो
डाल ही डाले

‘आम’
को ‘राम’
और
‘राम’ को
‘आम’
समझाना
सीखे

जगह जगह
हर जगह
‘उल्लू’ के
मन्दिर
ढलवा ले

‘आमकथा’
लिखवाले

कथावाचकों
को तैयार करे

अपनी पूजा
खुद करने
की आदत
खुद भी डाले

और भी

जिस जिस
से करवा
सके
करवाले ।

चित्र साभार: picclick.com

गुरुवार, 17 मई 2018

आसार नजर आ रहे हैं बेवकूफ होशियारों में शामिल हो कर जल्दी ही उजड़ने जा रहे हैं

सारे
होशियार
होशियारों
में शामिल
होते जा रहे हैं

सारे
होशियार
होशियारों
के लिये
होशियारी
के साथ
होशियारी
के गीत
गा रहे हैं

बचे हुओं
को महसूस
करा रहे हैं

उनका हो
खो जाना

और सियार
हो जाना

सियार सारे
मिलकर भी
मातम नहीं
मना पा रहे हैं

बहुत
नाइन्साफी है
सोचना
ठीक नहीं है

इन्साफ
करने वाले
लगे हुऐ तो हैं

अपने तराजू के
पलड़े धुलवा कर
जमी हुयी धूल
मिट्टी उड़ा रहे हैं

बेवकूफों को
साफ समझ
में आने लगा है
अपना मन भर
बेवकूफ हो जाना

पता नहीं
फिर भी क्यों

चारों तरफ से
हो रहे होशियारों
के हल्ले गुल्ले में से
होशियारी निकाल
कर होशियार
हो लेने के
मंसूबे बना रहे हैं

होशियारों को भी
समझ में आ रही है
अपनी होशियारी

होशियारी
के महलों में
पहुँच लेने के
होशियार पुल
बना रहे हैं

घर की कहानी
घर में समझ
रहे हैं अपने अपने

सारे
बेवकूफ
दूरदर्शन में
चल रही

होशियारी की
बहसों को
सुन सुन कर
होशियारी
पका पका
कर खा रहे हैं

होशियारी
गली मुहल्ले
गाँव शहर में
फैलती जा रही है

बेवकूफों के
जीने मरने के
लाले पड़ने के
दिन आ रहे हैं

‘उलूक’ बैचेन है
गणित देख कर
होशियार की
होशियारी का

उसे
बेवकूफों के
होशियारों में
शामिल होकर
उजड़ने के दिन
बहुत नजदीक
नजर आ रहे हैं ।

चित्र साभार:
zenzmurfy.deviantart.com

सोमवार, 14 मई 2018

दस टिप्पणी और एक सौ से ऊपर पेज हिट होना बहुत होता है

होता है
एक नहीं
कई बार
होता है

कुछ पर
लिखने
के लिये
कुछ भी
नहीं होता है

तो मत लिख

लिखने की
बीमारी का
इलाज सुना है

हकीम
लुक मान
के पास भी
नहीं होता है

किस ने
कहाँ लिखा है
लिखना
इतना भी
जरूरी होता है

पीछे
का लिखा
पीछे
चला गया
होता है

आगे देख
लिया कर
उधर
बहुत कुछ
होने वाला
होता है

सावन
पर ही
लिख दे कुछ
हर साल
आता है
इस बार
नहीं आयेगा
सोचना ही
नहीं होता है

सावन से
पहले अंधा
हो लेने से
सब कुछ
पहले ही
हरा हो जाये
ऐसा भी
नहीं होता है

अपनी गाय
अपनी होती है

गोबर
कोई उठा ले जाये
जरूरत के अनुसार
ही उठाना होता है

मत का दान
दान करने तक
ही छुपाना होता है

उसके बाद
पागलों के
उन्माद का मेला
हर जगह होता है

पढ़ा होता है
या नहीं
पढ़ा होता है

अनपढ़ के
फैसलों पर
यू पी एस सी
तक टिका होता है

यू जी सी
के फैसले
इण्टर पास
को ले ले ने का
बहुत बड़ा
हौसला होता है

शेर लिखने
लिखाने की
कक्षा के
मास्टर के
पास हड़काने
का लाइसेंस
होता है

‘उलूक’
की बकवास
विद्वानों
के बीच
फंस जाती
है हमेशा

बहुत
दर्द होता है
डूब मरने का
बस हौसला
नहीं होता है ।

चित्र साभार: mariafresa.ne

शनिवार, 12 मई 2018

इंतजार है इज़हार करने का गुलाब हाथ में है तसवीर ख़्वाब में है वफ़ा करने का नशा है बता तो सही तू है तो कहाँ है

रोज
अपना ही
मत गोड़

कभी
उसके
लिये भी
लगा लिया
कर दौड़

इंतजार
सबको है

किसका है
किसे
बताना है
रहने भी दे
छोड़

किस लिये
करता है
इजहार

कुछ
बदलने के
नहीं हैं
यहाँ आसार

लिख
और
लिख कर
हवा में उड़ा

धुआँ देख
खुश हो
मन
मत मार

गुलाब ही
गुलाब हैं
सारे फूल हैं

सब
लिख रहें हैं
सब ही
सुरखाब हैं

कलम घिस्सी
काली सफेद

रहने दे
मत कर

रंगों के
जमाने हैं

रंग ही बस
अब आबाद हैं

ख्वाब देख
सुबह देख

दोपहर में देख
रात में देख

संगीत मान ले
मक्खियों
की भिन भिन

कौन से
पूरे होने हैं
कौन से
अधूरे
रहने हैं

दिखाने
वाले पर
छोड़ दे
चुनाव के
दिन गिन

बेवफाई कर
जिंदा रहेगा

घर में रहेगा
खबर में रहेगा

वफा करेगा
वफादार रहेगा

कोई
कुत्ता कहेगा
बेमौत मरेगा

नशे में लिख
नशा लिख
बस लिखे में
मत लड़खड़ा

'उलूक'
लिखे
लिखाये से

कौन
सा पता
चलना है
किसी के
बारे में

कौन है
क्या है
कितना है
खड़खड़ा।

चित्र साभार www.canstockphoto.com

मंगलवार, 8 मई 2018

टिप्पणियों पर बिफरते नये शेर को देख कर पुराने हो चुके भेड़ को कुछ तो कह देना हो रहा है

सब कुछ
एक साथ
नहीं दौड़ता है

टाँगें
कलम हो जायें
बहुत कम होता है

वजूका
खेत के बीच में
भी हो सकता है
कहीं किनारे पर
बस यूँ ही खड़ा
भी किया होता है

कहने लिखने को
रोज हर समय
कुछ ना कुछ
कहीं किसी
कोने में
जरूर होता है

लिखे हुऐ
सारे में से
जान बूझ कर
नहीं लिखा गया
कहीं ना कहीं
किसी पंक्ति
के बीच से
झाँक रहा होता है

समुन्दर
लिख लेने
के बाद
नदी लिखने
का मन
किसी का
होता होगा
पता कहाँ
चलता है

कलम की
पुरानी
स्याही को
नाले के पास
लोटे में धोना
और फिर
चटक धूप में
सुखा कर
नयी स्याही
भर लेना

एक पुराना
मुहावरा
हो चुका
होता है

नये मुल्ले
और
प्याज पर
लिखने से
दंगा भड़कने
का अंदेशा
हो रहा
होता है

रोज के
रोजनामचे
को लिखने
वाले ‘उलूक’
का दिल

साप्ताहिक
हो लेने
पर भी
बाग बाग
हो रहा
होता है

लिखना
लिखाना
और
उस पर
टिप्पणी
पाने की
लालसा पर

हमेशा
की तरह
नये सिपाही
का बंदूक
तानने पर

अपनी
पुरानी
जंक लगी
बन्दूक से
खुद का
फिर से
सामना
हो रहा
होता है

अपना लिखना
अपने लिखे को
अपना पढ़ लेना
समझ में आ जाना
सालों साल में

पुराने प्रश्न से
जैसे नया
सामना हो
रहा होता है ।

सोमवार, 30 अप्रैल 2018

नकारात्मकता फैला कर सकारात्मकता बेचने वालों के लिये सजदे में सर झुका जा रहा था

बिल्लियों के
अखबार में
बिल्लियों ने
फिर छ्पवाया

सुबह का
अखबार
रोज की तरह

आज भी
सुबह सुबह
उसी तरह से
शर्माता हुआ
जबर्दस्ती
घर के दरवाजे से
कूदता फाँदता
हुआ ही आया

खबर
शहर के कुछ
हिसाब की थी
कुछ किताब की थी
शरम लिहाज की थी
शहर के पन्ने में ही
बस दिखायी गयी थी

चूहों की पढ़ाई
को लेकर आ रही
परेशानियों की बात
बिल्लियों के
अखबार नबीस के द्वारा
बहुत शराफत के साथ
रात भर पका कर
मसाले मिर्च डाले बिना
कम नमक के साथ
बिना काँटे छुरी के
सजाई गयी थी

मुद्दा
दूध के बंटवारे
को लेकर हो रहे
फसाद का नहीं है

खबर में
समझाया गया था

बिल्लियाँ
घास खाना
शुरु कर जी रही हैं
बिल्लियों का
वक्तव्य भी
लिखवाया गया था

सफेद
चूहों को अलग
और
काले चूहों को
कुछ और अलग
बताया गया था

खबर जब
कई दिनों से
सकारात्मक सोच
बेचने वालों की
छपायी जा रही थी

पता नहीं बीच में
नकारात्मक उर्जा
को किसलिये
ला कर
फैलाया जा रहा था

बात
चूहों के
शिकार की
जब थी ही नहीं

बेकार में
दूध के बटवारे
को लेकर पता नहीं
किस बात का
हल्ला
मचवाया जा रहा था

चूहे चूहों को गिन कर
पूरी गिनती के साथ
बिल से निकल कर
रोज की तरह वापस
अपने ही बिल में
घुस जा रहे थे

दूध और
मलाई के निशान
बिल्लियों की मूँछों
में जब आने ही
नहीं दिये जा रहे थे

बिल्लियों के
साफ सुथरे धंधों को
किसलिये
इतना बदनाम
करवाया जा रहा था

ईमानदारी की
गलतफहमियाँ
पाला ‘उलूक’

बे‌ईमानी के
लफड़े में
अपने हिस्से का
गणित लगाता हुआ

रोज की तरह
चूहे बिल्ली के
खेल की खबर
खबरची
अखबार की गंगा
और डुबकी
सोच कर

हर हर गंगे
मंत्र के जाप के
एक हजार आठ
पूरे करने का
हिसाब लगा रहा था।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

बुधवार, 18 अप्रैल 2018

उसी समय लिख देना जरूरी होता है जिस समय दूर बहुत कहीं अंतरिक्ष में चलते नाटक को सामने से होता हुआ देखा जाये

लिखना
पड़ जाता है
कभी मजबूरी में

इस डर से
कि कल शायद
देर हो जाये
भूला जाये

बात निकल कर
किसी किनारे
से सोच के
फिसल जाये

जरूरी
हो जाता है
लिखना नौटंकी को

इससे पहले
कि परदा गिर जाये

ताली पीटती हुई
जमा की गयी भीड़
जेब में हाथ डाले
अपने अपने घर
को निकल जाये

कितना
शातिर होता है
एक शातिर
शातिराना
अन्दाज ही
जिसका सारे
जमाने के लिये
शराफत का
एक पैमाना हो जाये

चल ‘उलूक’
छोड़ दे लिखना
देख कर अपने
आस पास की
नौटंकियों को
अपने घर की

सबसे
अच्छा होता है
सब कुछ पर
आँख कान
नाक बंद कर

ऊपर कहीं दूर
अंतरिक्ष में बैठ कर

वहीं से धरती के
गोल और नीले
होने के सपने को
धरती वालों को
जोर जोर से
आवाज लगा लगा
कर बेचा जाये।

चित्र साभार: www.kisspng.com

मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

अपनी कब्र का पेटेंट 2019 के चुनावों से पहले तुरन्त करा बिल्कुल नया है ये आईडिया

बहाने
मत बना
सही बात
साफ साफ बता

कलम
बीमार है
कागज का
पेट आज
बहुत खराब है

जैसा जुमला

अब रहने भी दे
किसी पुराने
पीतल या ताँबे के
गमले में दे सजा

कुछ भी
लिख
देने वाले
के साथ
ऐसा ही
है होता

कितने
साल हो गये
लिखते बकते

अब तो समझ ले

अभी भी
समय है
एक बार
फिर से
समझाया
जा रहा है

सुधर जा

अपने
पन्ने पर कर

जो करना है
जो देखना है
जो कहना है

किसी ने
नहीं है रोका

इधर उधर
इसके उसके
लिखे लिखाये को

देखने पढ़ने
के लिये तो
भूल कर
भी मत जा

कपड़े उतार
सड़क पर
लेट जा

अखबार के
चौथे पन्ने
यानी
बस कस्बे
की खबर
हो जा
छ्प जा
तर जा

बिना कोई
गुल छिपाये
गुल खिलाये
घर के अन्दर

मुख्य पृष्ठ में
छपने का
भूल जा

सोचना
सच में
होता है
बहुत ही बुरा

किसलिये
खाये जाता है
अपना ही दिमाग

इसमें कुछ
दिमाग लगा

लोग लिख रहे हैं
लिखते रहेंगे
दीवाने गालिब
की सोच कर
दीवाने होते रहेंगे

काहे
पागल लोगों के
लिखे लिखाये
के पीछू जाता है

अपने
पागलपन की
खुद कोई
पगलाई हुई सी
एक पागल
मोहर बना

बुराई
नहीं है

सच में

सलीकेदार
समझे बुझाये
पागलों की
भीड़ में
सच्चा एक
पागल हो जा

‘उलूक’
दुनियाँ को
समझने के लिये
किताबें मत पढ़

दुनियाँ
पागल बनाती है
समझ ले पहले से

पागल हो जा

फावड़ा उठा

अपनी
ही कब्र खोद

कब्र का पेटेंट
2019 के चुनावों
के होने से पहले
तुरन्त करा ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 11 अप्रैल 2018

सौ पाँचसौ हजार के चक्कर में कौन नहीं आता है

जिन्दगी
शुरु होती है
और
गिनतियाँ
शुरु हो जाती है

शून्य कहीं भी
किसी को नहीं
सिखाया जाता है

एक से शुरु
की जाती हैं
गिनतियाँ

सारा सब कुछ
पैदा होते ही
एक
हिसाब किताब
हो जाता है

बताया ही
नहीं जाता है
समझाया भी
नहीं जाता है

फिर भी
गिनतियाँ
खुद उसी तरफ
उसी रास्ते पर
अँगुली पकड़ कर
खींच ले जाती हैं

जिस तरह
हिसाब किताब
चलता चला जाता है

हर किसी को
आता है गिनना
मौका मिलते ही
गिनना शुरु
हो जाता है

सामने वाले के
हिसाब किताब को
अँगुलियों में
कर ले जाता है

कोई पूछ बैठे 
उससे उसके
हिसाब किताब
के बारे में

गिनतियाँ करना
भूल बैठा है
किसी जमाने से
बताने में
जरा सा भी
नहीं शर्माता है

बहुत
आसान होता है
गिनना अपने
सामने वाले
की उम्र को
उसके
चेहरे पर

हर चेहरा
कुछ नहीं
कहने के
बावजूद
बहुत कुछ
बताता है

आसान होता है
गिनना सामने
खड़े पेड़ 

की उम्र भी

अलग बात है
यहाँ गोल गहरी
पड़ी रेखाओं से
समय का हिसाब
लगाया जाता है

लाखों गिनता है
करोड़ों गिनता है
अरब खरब तक
पहुँचने का
जुगाड़ लगाता है

सौ तक पहुँचने वाले
एक दो होते हैं
सोच में आने से
पहले ही गजल
गुनगुनाना चाहता है

आदत से मजबूर
लेकिन पाँच सौ
हजार दो हजार
दिखते ही
बत्तीस दाँत
एक साथ दिखाता है

‘उलूक’
उल्टी गिनतियाँ
चलती रहती
हैं साथ साथ
पता
कहाँ चलता है
राकेट
कब कहाँ
और क्यों
छूट जाता है ।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com