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रविवार, 16 मार्च 2014

रंगों को समझने का स्कूल कहाँ पाया जाता है

होते होते
एक 
जमाना ही गुजर जाता है

रंगों को समझने 
बूझने में ही
कहाँ से कहाँ पहुँचा जाता है

पिछले साल ही 
तो लाल दिखा था एक रंग
एक ही साल में क्या से क्या हो जाता है

कल ही मिला था 
वही रंग होली में
लगा जैसे कुछ  हरा
और कुछ 
नीला सा कहीं नजर आता है

पूरा जीवन एक 
होली ही तो होती है
होली दर होली रंग के ऊपर 
रंग की परत चढ़ाना भी सीख ही लिया जाता है

कई सालों से 
साथ रहते रहते भी नहीं पता चलता है

कोई
एक बेरंग 
रंग अपना कितनी खूबी के साथ छिपा ले जाता है

रंग का
रंग रूप 
चुराना
बहुत ही 
आसानी से
किसी से भी सीखा जाता है

एक सीधा साधा 
रंग ही कभी
अपना रंग नहीं बदल पाता है

रंगो की दुनिया में 
ही बनते हैं इंद्रधनुष
रंगो को लेकर 
छल कपट छीना झपट कर लेने वाला ही रंगबाज कहलाता है

प्रकृति
कभी नहीं 
छेड़ती है रंगो को
रंग खेलने का तरीका किसी को तो आता है

श्याम का रंग भी 
राधा ही जानती थी
'उलूक'
ताजिंदगी 
रंगो को समझने की कोशिश में ही
एक उल्लू 
बन जाता है ।

चित्र साभार: http://www.govtedu.com/

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

कुत्ते का भौंकना भी सब की समझ में नहीं आता है पुत्र


कल
दूरभाष
पर 

हो रही
बात पर 
पुत्र
पूछ बैठा 

पिताजी
आपकी 
लम्बी लम्बी
बातें तो 
बहुत हो जा रही हैं 

मुझे
समझ में ही 
नहीं आ रहा है 
ये क्या सोच कर 
लिखी जा रही हैं 

मैं
हिसाब 
लगा रहा हूँ 
ऐसा ही अगर 
चलता चला जायेगा 

तो
किसी दिन 
कुछ साल के बाद 

ये
इतना हो जायेगा 
ना
आगे का दिखेगा 
ना
पीछे का छोर
ही 
कहीं नजर आयेगा 

इतना
सब लिखकर 
वैसे भी
आपका 
क्या
कर ले जाने 
का इरादा है

या 
ऐसा ही
लिखते रहने 
का
आप किसी
से 
कर चुके
कोई वादा हैंं 

सच पूछिये

तो 
मेरी समझ में 

आपकी लिखी 
कोई बात 
कभी भी 
नहीं आती है 

उस
समय 
जो लोग 
आपके लिखे 
की
तारीफ
कर रहे होते हैं 

उनकी
 पढ़ाई लिखाई 
मेरी
पढ़ाई लिखाई
से 
बहुत ही ज्यादा 
आगे
नजर आती है 

ये सब
को
सुन कर 

पुत्र को
बताना 
जरूरी हो गया 

लिखने विखने
का 
मतलब समझाना 
मजबूरी
हो गया 

मैंने
बच्चे को
अपने 
कुत्ते का
उदाहरण 
देकर बताया 

क्यों
भौंकता रहता है 
बहुत बहुत
देर तक 
कभी कभी

इस पर 
क्या
उसने कभी 
अपना
दिमाग लगाया है 

क्या
उसका भौंकना 
कभी
किसी के समझ
में 
थोड़ा सा भी
आ पाया है 

फिर भी
चौकन्ना 
करने की कोशिश 
उसकी
अभी भी जारी है 

रात रात
जाग जाग
कर 
भौंकना नहीं लगता 
उसे
कभी भी भारी है 

मै

और
मेरे जैसे
दो चार 
कुछ
और

इसी तरह 
भौंकते
जा रहे हैं 

कोई
सुने ना सुने 
इस बात
को

हम भी 
कहाँ
सोच पा रहे हैं 

क्या पता
किसी दिन 
सियारों
की 
टोली की तरह 

हमारी
संख्या 
भी
बढ़ जायेगी 

फिर
सारी टोली 
एक साथ
मिलकर 
हुआ हुआ
की 
आवाज लगायेगी 

बदलेगा
कुछ ना कुछ 
कहीं ना कहीं
कभी तो 

और
यही आशा 
बहुत कुछ 
बहुत दिनों
तक 
लिखवाती
ही 
चली जायेगी 

शायद
अब मेरी बात 
कुछ कुछ
तेरी भी 
समझ में
आ जायेगी ।
चित्र साभार: 
https://www.fotosearch.com/

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

किसी की लकीरों का किसी को समझ में आ जाना

कई दिन से
देख रहा हूँ
उसका एक
खाली दीवार
पर कुछ
आड़ी तिरछी
लकीरें बनाते
चले जाना
उसके चेहरे
के हाव भाव
के अनुसार
उसकी लकीरों
की लम्बाई
का बढ़ जाना
या फिर कुछ
सिकुड़ जाना
रोज निकलना
दीवार के
सामने से
राहगीरों का
कुछ का
रुकना
कुछ का
उसे देखना
कुछ का
बस दीवार
को देखना
कुछ का
उसके चेहरे
को निहारना
फिर मुस्कुराना
उसका किसी
के आने जाने
ठहरने से
प्रभावित
नहीं होना
बिना नागा
जाड़ा गरमी
बरसात
लकीरों को
बस गिनते
चले जाना
हर लकीर
के साथ
कोई ना
कोई अंतरंग
रिश्ता बुनते
चले जाना
उसकी खुशी
उसके गम
उसके
अहसासों का
कुछ लकीरें
हो जाना
सबसे बड़ी बात
मेरा कबूल
कर ले जाना
उसकी हर
लकीर का
मतलब उतना
ही उसकी
समझ के
जितना ही
समझ ले जाना
उसकी लकीरों
का मेरी अपनी
लकीरें हो जाना
महसूस हो जाना
लकीर से
शुरु होना
एक लकीर का
और लकीर पर
जा कर
पूरी हो जाना | 

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

कभी होता है पर ऐसा भी होता है

मुश्किल
हो जाता है
कुछ
कह पाना
उस
अवस्था में
जब सोच
बगावत
पर उतरना
शुरु हो
जाती है
सोच के
ही किसी
एक मोड़ पर

भड़कती
हुई सोच
निकल
पड़ती है
खुले
आकाश
में कहीं
अपनी मर्जी
की मालिक
जैसे एक
बेलगाम घोड़ी
समय को
अपनी
पीठ पर
बैठाये हुऐ
चरना शुरु
हो जाती है
समय के
मैदान में
समय को ही

बस
यहीं
पर जैसे
सब कुछ
फिसल
जाता है
हाथ से

उस समय
जब लिखना
शुरु हो
जाता है
समय
खुले
आकाश में
वही सब
जो सोच
की सीमा
से कहीं
बहुत बाहर
होता है

हमेशा
ही नहीं
पर
कभी कभी
कुछ देर के
लिये ही सही
लेकिन सच
में होता है

मेरे तेरे
उसके साथ

इसी बेबसी
के क्षण में
बहुत चाहने
के बाद भी
जो कुछ
लिखा
जाता है
उसमें
बस
वही सब
नहीं होता है
जो वास्तव में
कहीं जरूर
होता है

और जिसे
बस समय
लिख रहा
होता है
समय पढ़
रहा होता है
समय ही
खुद सब कुछ
समझ रहा
होता है ।

रविवार, 10 नवंबर 2013

सोच तो होती ही है सोच

अपनी अपनी
होती है सोच

सुबह होते
अंगडाई सी
लेती है सोच

सुबह की
चाय के कप
से निकलती
भाप होती
है सोच

दूध की
दुकान की
लाईन में
हो रही
भगदड़
से उलझ रही
होती है सोच

दैनिक
समाचार
पत्रों के प्रिय
हनुमानों की
हनुमान
चालीसा
पढ़ रही
होती
है सोच

काम पर
जाने के
उतावले पन
में कहीं
खो रही
होती है सोच

दिन
होते होते
पता नहीं क्यों
बावली हो रही
होती है सोच

कहां कहां
भटक रही
होती है
बताने
की बात
जैसी नहीं हो
रही होती है सोच

शाम
होते होते
जैसे कहीं
कुछ खुश
कहीं
कुछ उदास
कहीं
कुछ थकी
कहीं
कुछ निराश
हो रही
होती है सोच

जब घर
को वापस सी
लौट रही
होती है सोच

रात
होते होते
ये भी होता है
जैसे किसी की
किसी से
घबरा रही
होती है सोच

कौन
बताता है
अगर बौरा रही
होती है सोच

सुकून
का पल
बस वही होता है

जब यूं ही
उंघते उंघते
सो जा रही
होती है सोच

पता किसे
कहाँ होता है
सपनों में क्या
आज की रात
दिखा रही है सोच

मुझे
अपनी समझ
में कभी भी
नहीं आती

क्या
तुझे समझ
में कुछ आ
रही है सोच ।

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

बात ही अजीब हो तो कोई कैसे समझ पायेगा

कई बार
बहुत सारे
विषय
हो जाते हैं

लिखने
लिखने तक
सारे के
सारे ही
भूले जाते हैं

सोच ही
रहा था
आज उनमें
से किस पर
अच्छा सा कुछ
लिखा जायेगा

किसे
मालूम था
कुत्ता
आज ही
कहीं से
मार खा
कर चला
आयेगा

जानता था
विज्ञान को
समझना
बहुत मुश्किल
नहीं कभी
हो पायेगा

पता नहीं था
आस पास का
मनोविज्ञान ही
हमेशा
कुछ यूं
घुमायेगा

और एक
अजीब सा
इत्तेफाक
ये हो जायेगा

डाकिया
जितनी बार
अच्छी खबर
का एक
पोस्टकार्ड
ला कर
घर पर
दे जायेगा

शुभकामनाओं
की उम्मीद
किसी से ऐसे में
कोई कैसे
कर पायेगा

जब
हर अच्छी
खबर के बाद
किसी के
घर का
कुत्ता

हमेशा ही
मार
कहीं से खा
कर चला
आयेगा ।

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2013

जरूरी नहीं सब सबकुछ समझ ले जायें


विचारधाराऐं 
नदी के दो किनारों की धाराऐं 

किसी एक को अपनायें 

सोचें कुछ नहीं
बस आत्मसात करें और फैलायें 
लोगों को अनुयायी बनायें 

सबको बतायें 
किनारे कभी मिलते नहीं 
किनारे किनारे तैरें तो कभी डूबते नहीं 
संभव नहीं 
इस किनारे वाले उस किनारे पर चले जायें 

अवसर होती हैं 
नदी के बीच बह रही धाराऐं 
जब भी कभी नजर आयें किसी को ना बतायें 
खुद डुबकी लगायें 

बस ध्यान रहे इतना 
किसी भी अनुयायी को इसकी भनक ना हो पाये 
संगम होता दिखे किनारे किनारे चलते चलते
कभी दो नदियों का रुक जायें मनन करें 
खोज करने से पहले परहेज करना होता है
बेहतर के फलसफे को अपनायें 

इससे पहले अनुयायिओं को दिखे 
दो किनारों का जुड़ना 
और 
विचारधाराओं का मिलना 
सबका ध्यान बटायें 

एक महाकुंभ करवाने का जुगाड़ लगवायें 
अवसरों के संगम को जाने ना दें भुनायें 
खुद किनारे को छोड़ कर 
संगम करती नदियों के बीच में 
डुबकियां लगायें 

विचारधारायें 
नदी के दो किनारों की धारायें 
संभव नहीं होता है मिलन जिनका कभी 
अनुयायियों को समझाते 
यही बस चले जायें 

आ ही गया किसी के समझ में थोड़ा बहुत 
कभी ना घबरायें 
किनारे पर ना रहने दें 
अपने साथ डुबकी लगाने नदी के बीच 
उसे भी लेते चले जायें ।

चित्र साभार: 
https://mark-borg.github.io/blog/2016/river-crossing-puzzles/

शनिवार, 11 मई 2013

फिर देख फिर समझ लोकतंत्र



रोज एक
लोकतंत्र समझ में आता है
तू फिर भी लोकतंत्र समझना चाहता है 

क्यों तू
इतना बेशरम हो जाता है 
बहुमत को
समझने में सारी जिंदगी यूँ ही गंवाता है

बहुमत
इस देश की सरकार है
क्या तेरे भेजे मेंये नहीं घुस पाता है 

देखता नहीं
सबसे ज्यादा 
मूल्यों की बात उठाने वाला ही तो 
मौका आने पर
अपना बहुमत अखबार में छपवाता है 
मौसम मौसम दिल्ली सरकार 
और उसके लोगों को
कोसने वालों की भीड़ का झंडा उठाता है 

अपनी गली में
उसी सरकार के झंडे के परदे का
घूँघट बनाने से बाज नहीं आता है 

मेरे देश की हर गली कूँचे में 
एक ऎसा शख्स जरूर पाया जाता है 
जो अपना उल्लू
सीधा करने के लिये
लोकतंत्र की धोती को
सफेद से गेरुआँ रंगवाता है 
तिरंगे के रंगो की टोपियाँ बेचता हुआ 
कई बार पकड़ा जाता है

ऎसा ही शख्स
कामयाबी की बुलंदी छूने की मुहिम में
इस समाज के बहुमत से
दोनो हाथों में उठाया जाता है

और एक तू बेशरम है
सब कुछ देखते सुनते हुऎ 
अभी तक दलाली के पाठ को नहीं सीख पाता है
तेरे सामने सामने कोई तेरा घर नीलाम कर ले जाता है

'उलूक'
जब तू अपना घर ही नहीं बेच पाता है 
तो कैसे तू
पूरे देश को नीलाम करने की तमन्ना के
सपने पाल कर 
अपने को भरमाता है । 

चित्र साभार: https://www.pravakta.com/what-the-poor-in-democracy/

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

तितली उड़ तोता उड़ कौआ उड़ पेड़ उड़

तितली उड़ तोता उड़ कौआ उड़
कहते कहते बीच में 
पेड़ उड़ कह जाना

सामने वाले के पेड़ उड़ कहते ही 
तालियाँ बजाना

बेवकूफ बन गया 
पेड़ उड़ कह गया
सोच सोच के बहुत खुश हो जाना

ऎसे ही 
बचपन के खेल और तमाशों का
धीरे धीरे धुंधला पड़ते चले जाना

समय की बलिहारी
कोहरे का धीरे धीरे हटते चले जाना

गुणा भाग करते करते
उम्र निकाल ले जाना
पेड़ नहीं उड़ता है सबको समझाना

परीक्षा करवाना परीक्षाफल का आना

पेड़ उड़ कहने वालों का
बहुत ज्यादा अंको से पास हो जाना 

तितली तोते कौऎ उड़ कहने वालों का
ढेर हो जाना

लोक और उनके तंत्र का 
उदाहरण सहित समझ में आ जाना ।

रविवार, 8 अप्रैल 2012

मदारी और बंदर

हर
मदारी
अपने बंदर
नचा रहा है

बंदर बनूं
या मदारी

समझ में
ही नहीं
आ रहा है

हर कोई
ज्यादा से
ज्यादा बंदर
चाह रहा है

ज्यादा
बंदर वाला

बड़ा
हैड मदारी
कहलाया
जा रहा है

बंदर
बना
हुवा भी

बहुत खुश
नजर आ
रहा है

मदारी
मरेगा तो

डमरू
मेरे ही हाथ
में तो पड़ेगा
के सपने
सजा रहा है

बंदर
बना कर
नचाना

और
मदारी
हो जाना

अब
सरकारी
प्रोग्राम होता
जा रहा है


सुनाई दे
रहा है

जल्दी ही
बीस सूत्रीय
कार्यक्रम में
भी शामिल
किया जा
रहा है

काश !

मुझे भी
एक बंदर
मिल जाता

या फिर  

कोई
मदारी
ही मुझको
नचा ले जाता

पर
कोई भी
मेरे को 
जरा सा भी
मुंह नहीं
लगा रहा है

क्या
आपकी
समझ में कुछ
आ रहा है?

चित्र साभार: 1080.plus

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

बंदर

बंदर
अब जंगल में
नहीं पाये जाते हैं

पहाड़
के कस्बे में
कूड़े के ढेर पर
खाना ढूंढते हुऐ
देखे जाते हैं

बंदर
देख रहा है
गाँव के घर को
टूटता हुवा

गाँव
के लोगों को
मैदान की ओर
फूटता हुवा

बंदर
को भी
आदमी का
व्यवहार

अब
बहुत अच्छी
तरह समझ मेंं
आने लगा है

नकलची बंदर

कोशिश कर
अपने को
आदमी ही
बनाने लगा है

ऎसा ही
होता रहा
तो वो दिन
दूर नहीं

जब
आप देखेंगे
बंदर सपरिवार
पहाड़ छोड़
देहरादून को
जाने लगा है

वैसे भी
बंदर अब
बंदर नहीं
रह गया है

प्राकृतिक
भोजन और
रहन सहन के बिना

अब
आदमी जैसा
ही हो गया है

बंदर
के बच्चे
बच्चों की
तरह प्यारे
कोमल
दिखाई दिया
करते थे कभी

कूड़े
के ढेर से
शुरू किया
है पेट भरना
बंदर ने जब से

बच्चे
भी हो गये हैं
उसके बूढे़ से
रूखे सूखे से तब से

आदमी
का बच्चा
भी दिखने लगा
है जैसा अभी

बंदर
जानता है
आदमी ने
पहाड़ को
बनाना नहीं है

जंगल
को पनपाना
भी नहीं है

आदमी
तो व्यस्त है

खबरे सिलने
बनाने में

बंदर के
उजड़ने
की खबर
अखबार टी वी
पर दिखाने में

जंगल
पर डाक्यूमेंटरी
बनवाने में

जानवरों
के नाम पर
फंड उगवाने में

एन जी ओ
चलाने में

बंदर ने भी
छोड़ दिया
आदमी पर
करना विश्वास

जंगल
को छोड़
बंदर चल दिया
लेकर एक नयी आस

बनाने
मैदानी शहर में
एक आलीशान
आशियाना

इससे पहले
आदमी
समझ सके
बंदर समझ चुका है

और बंदर
को भी ना पडे़
कुछ भी
अपनी तरफ से
फाल्तू में
उसको समझाना।