उलूक टाइम्स

सोमवार, 16 सितंबर 2019

अपनी गाय अपना गोबर अपने कंडे खुद ही ढोकर जला कुछ आग बना कुछ राख




कुछ
हंसते हंसते 

कुछ
रो धो कर 

अपना घर 
अपनी दीवार 

रहने दे
सर मत मार 

अपनी गाय 

अपनी गाय
का 
अपना गोबर

गोबर के कंडे 
खुद ही बनाये गये 
अपने ही हाथों से 
हाथ साफ धोकर

अपना 

ही घर 
अपने ही 
घर की दीवार

कंडे ही कंडे

अपना सूरज 
अपनी ही धूप 
अपने कंडे
कुरकुरे
खुद रहे सूख 

अपने कंडे

अपनी आग 
अपना जलना
अपनी फाग 
अपने राग
अपने साग 

आग पर लिख ना
साग पर लिख ना 
राग बे राग पर लिख ना 

जल से दूर
कहीं 
पर जाकर
कुछ कुछ जल जाने 
पर लिख ना 

अपना अपना 
होना खाक 
थोड़ा पानी
थोड़ी राख 

अपनी किताब
अपने पन्ने
अपनी अपनी
कुछ बकवास 

अपना उल्लू
अपनी सीध

बेवकूफ 
‘उलूक’

थोड़ा सा 
कुछ 
अब 
तो सीख 

अपनी गाय 
अपना गोबर 
अपने कंडे
अपनी दीवार
अपनी आग 
अपनी राख 
अपने अपने
राग बे राग 
अपने कंडे
खुद ही थाप 
रोज सुखा
जला कुछ आग। 

वैधानिक चेतावनी: 
कृपया इस बकवास को ब्लॉगिंग यानि चिट्ठाकारी से ना जोड़ें

चित्र साभार: https://timesofindia.indiatimes.com

रविवार, 15 सितंबर 2019

काम है रोजगार है बेरोजगार मौज के लिये बेरोजगार है ना जाने कब बेवकूफों के समझ में आयेगा



कितने पन्ने 
और 
कब तलक 

आखिर कोई 

रद्दी में 
बेचने 
के 
लिये जायेगा

लिखते लिखते 
कुछ भी 
कहीं भी 

कभी 
किसी दिन 
कुछ तो 
सिखायेगा

शायद 
किसी दिन 
यूँ ही 
कभी कुछ 

ऐसा भी 
लिख 
लिया जायेगा

याद 
भी रहेगा 
क्या लिखा है 

और 
पूछने पर 
फिर से 

कह भी 
दिया जायेगा

रोज के 
तोड़ने 
मरोड़ने 
फिर 
जोड़ देने से 

कोई 
कुछ तो 
निजात पायेगा

घबराये 
से 
परेशान 
शब्दों को 

थोड़ी सी 
राहत ही सही 

कुछ 
दे पायेगा 

जिस 
दिन से 
छोड़ देगा 

देखना 
टूटते घर को 

और 
सुनना 

खण्डहर 
की 
खामोशियों को 

देखना 
उस दिन से 

एक 
खूबसूरत 
लिखा लिखाया 
चाँद 

घूँघट 
के 
नीचे से 
निखर 
कर आयेगा

अच्छा 
नहीं होता है 

खुद ही 
कर लेना 
फैसले 

लिखने लिखाने के 

रोज के 
देखे सुने 
पर 

कुछ नहीं 
लिखने वाले की 

नहीं लिखी 
किताबों 
को ही बस 

हर 
दुकान में 
बेचने 
का फरमान 

‘उलूक’ 
पढ़े लिखों का 
कोई खास 
अनपढ़ ही 

तेरे घर का 
ले कर के 
सामने से 
निकल 
के 
आयेगा।
चित्र साभार: https://myhrpartnerinc.com/

शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

कुछ भी लिख और सोच ले इसी लिखे से शेयर बाजार चढ़ रहा है




ना तो
तू शेर है

ना ही
हाथी है 

फिर
किस लिये
इच्छा
करता है

दहाड़ने की
और
चिंघाड़ने की 

तेरी मर्जी
कैसे
चल सकती है

हिम्मत है
तुझे

फर्जी होने की 

जंगल में होना
और
शिकार करना 

नंगे होना
साथ में
तीर तलवार
होना

कोई
पाषाण युग

थोड़े ना
चल रहा है 

दर्जी है
खुद ही
खुदगर्जी
सिल रहा है

ऊल जलूल
लिखने से
अलग
नहीं
हो जाती है
लेखनी

बहुत से हैं
जानते हैं
पहचानते हैं

चिढ़
के मारे
जान बूझ कर

फजूल
लिख रहा है 

अलग
रह कर

आदमी
अलग नहीं
हो जाता है 

इच्छायें
तो
भीड़ की
जैसी ही हैं

बस
हिम्मत की
कमी है

किस लिये
ठंडा ठंडा
कूल
दिख रहा है 

सीख
क्यों
नहीं लेता है

वायदा कर लेना

फायदा
बहुत है

पैसे
वसूल
हो जाते हैं

दिखाई
देना चाहिये

हर
फटे कोने से
एक उसूल
दिख रहा है

रायता
फैल जाता है

फैलाना
जरूरी है

यही
एक कायदा
होता है
आज के समय में

‘उलूक’

गाँधी
बहुत पहले
बेच दिया गया था

जमाना
विवेकानंद
के
शेयरों पर

आज
नजर रख रहा है

एक
वही है
 जो
सबसे ज्यादा
प्रचलन में है

और
नारों में

खूबसूरत
नजारों में

नाचता
सामने सामने
दिख रहा है ।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com


मंगलवार, 10 सितंबर 2019

नींद खराब करने को गहरी जागते रहो जागते रहो का जाग लिखता है




कहने में 
क्या है 

कहता है 

कि 
लिखता है 

बस
आग 
और आग 
लिखता है 

दिखने में 
दिखता है 

थोड़ा 
कुछ धुआँ 
लिखता है 

थोड़ी कुछ 
राख लिखता है

आग 
लिखने से 
उठता है धुआँ 

बच 
जाती है 
कुछ राख 

फिर भी 
नहीं 
कहते हैं 
लोग 

कि 
खाक 
लिखता है 

सोच 
नापाक 
होती है 

पता ही 
नहीं
चलता है 

लिखता है 

तो सब 

पाक
और 
पाक लिखता है 

शेरो शायरी 
गीत और गजल 

सब कुछ 
एक साथ 

एक पन्ने
पर 
लिख देने के 

ख्वाब 
लिखता है 

जब 
मन में 
आता है 

लिखने 
बैठ
जाता है 

कोई 
नहीं
कहता है 

दाल भात

और 
साग
लिखता है 

‘उलूक’
को 
पता होता है

अंधेरी 
रात में 

खुद
के डर 
मिटाने को 

जागते रहो 
जागते रहो 

का
जाग 
लिखता है ।

चित्र साभार: 


सोमवार, 9 सितंबर 2019

गंदा लिख भी गया अगर माना साबुन लगा कर क्या धो नहीं सकता है

लिखी
लिखायी
बकवास को

लिखने के
बाद ही सही

थोड़ा सा
नीरमा लेकर
क्या
धो नहीं सकता है

लिखे को
धोने में
परेशानी है अगर

सोच को ही
धो लेने का
कोई इन्तजाम

क्या
लिखने से पहले
हो नहीं सकता है

दिखता है

देखने
वाले के
देखने से

थोड़ा सा
कुछ लिखने
की कोशिश में

असली बात
इस तरह से
हमेशा ही कोई
खो नहीं सकता है

सालों
लिखते
हो गये
थोड़ा सच
और
थोड़ा झूठ

अब
यहाँ तक
पहुँच कर

एक
पूरा सच
और
एक
पूरा झूठ

सामने
रख दे
सीधे सीधे
हँसते हँसाते

थोड़ी
देर के लिये
झूठा ही सही

क्या
रो नहीं सकता है

‘उलूक’
सीखता
क्यों नहीं कुछ

कभी
पढ़कर भी कुछ

कुछ भी
लिखता
लिखाता
सही गलत
ही सही

होने
का क्या है
ठान ले
अगर कोई

क्या कुछ
हो नहीं सकता है।

 चित्र साभार: https://www.teepublic.com

रविवार, 8 सितंबर 2019

नेहरू के भूत ने ही पक्का प्रज्ञान को चाँद पर गिराया है



भारत एक खोज

एक
बेवकूफ था

पता नहीं
क्या खोज पाया

क्या खोया
क्या पाया

चन्द्रयान
से भेजा गया
एक पार्सल

जरूर वही होगा

उसी
ने होगा
गिराया

परिपक्व
हो चुके हैं हम
समझते हैं
समझ होनी
जरूरी है

आस पास
बहुत कुछ
होता है
बताना
किसलिये
जरूरी है

मदारी
ने ध्यान
भटकाया है

उसी
भारत
एक खोज
वाले के
भूत ने
प्रज्ञान को
लुढ़काया है

रोना
छाती पीटना
गले लगाना
पीठ थपथपाना
भी स्वाभाविक था
समझ में आया है

चन्द्रयान
मंगलयान
फिर कभी
उड़ लेगा

मदारी
को मौका
फिर फिर
मिलेगा

जमूरे
गजब हैं
पता नहीं है
उनके चरण
किधर हैंं

तीव्र इच्छा है
चूमने हैं छूने हैं

ऐसा समय
भारत
का आयेगा
सपने में
कभी भी
नहीं आया है 

‘उलूक’
किसी
मंदिर में जा
पण्डित से
जॉप करवा

कुल्हाड़ी पर
पैर मारने
का आदेश
किसने दिया है
और
क्यों कर के आया है

‘ब्लॉग सेतू’
रैंक ने
नाराज
हो कर
फिर से
ऊपर की
ओर हो
मुँह
चिढ़ाया है ?

चित्र साभार: https://pixabay.com/

शनिवार, 7 सितंबर 2019

सब का अलग व्यवहार है पर कोई बहुत समझदार है रेत में लिखने के फायदे समझाता है


भाटे के
 इन्तजार में
कई पहर
शांत
बैठ जाता है

पानी
उतरता है

तुरन्त
रेत पर
सब कुछ
बहुत साफ
लिख ले जाता है

फिर
ज्वार को
उकसाने के लिये

चाँद को
पूरी चाँदनी के साथ
आने के लिये
गुहार लगाता है

बोझ सारा
मन का
रेत में फैला हुआ

पानी चढ़ते ही

जैसे
उसमें घुल कर
अनन्त में फैल जाता है

ना कागज ही
परेशान किया जाता है

ना कलम को
बाध्य किया जाता है

किसे
पढ़नी होती हैं
रेत में लिखी इबारतें

बस
कुछ देर में
लिखने से लेकर
मिटने तक का सफर

यूँ ही
मंजिल पा के जैसे
सुकून के साथ
जलमग्न हो जाता है

ना किताबें
सम्भालने का झंझट

ना पन्ने
पलटने का आलस

बासी पुरानी
कई साल की

बीत चुकी
उलझनों की
परतों पर पड़ी
धूल झाड़ने के लिये

रोज
पीछे लौटने
की
कसरतों से भी
बचा जाता है

‘उलूक’
रेत में दबी
कहानियों को

और
पानी में बह गयी
कविताओं को

ना बाँचने कोई आता है
ना टाँकने कोई आता है

कल का लिखा
आज नहीं रहता है

आज
फिर से
कुछ लिख देने के लिये

रास्ता भी
साफ हो जाता है

जब कहीं
कुछ नहीं बचता है

शून्य में ताकता
समझने की
कोशिश करता

एक समझदार

समझ में
नहीं आया

नहीं
कह पाता है।

चित्र साभार: https://www.bigstockphoto.com

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

प्रश्न अच्छे हों लिखते चले जायें सौ हो जायें किताब एक छपायें



रात की
एक बात

और
सुबह के
दो
जज्बात 


पता नहीं
कौन

कहाँ से

कौन सी
कौड़ी
ढूँढ कर
कब
ले आये 


बस
पन्ने पर
चिपका हुआ

कुछ
नजर आये 

नजर
छ: बटा छ:
हो

जरूरी नहीं

कौड़ी 

कौआ
या
कबूतर
हो जाये 

असम्भव
भी नहीं

उड़ ही जाये 

जो भी है

कुछ देर
ठहर लें 

गीले
जज्बातों को
 सुखाने
के लिये

और
सूखों के

कुछ
नमीं
पी जाने के लिये

बात का
क्या है
निकलती है 

दूर तलक
जाये या ना जाये

या

फिर
लौट कर

अपनी जगह
पर
आ जाये

नियम
की किताब

पर
बने सौ आने

कोई
भी बनाये

खुद भी पढ़े
ढेर सारी बटें

बरगद की
लटों की तरह
फैलती
चली जायें

सबके पास
अपनी अपनी
कम से कम
एक
हो जायें

फिर
चाहे
नाक की
सीध पर

बिना
इधर उधर देखे

सामने
की ओर
कहीं
निकल जाये

बीच बीच
में
जाँच लिया जाये

किताब
रखी है पास
में

या
घर तो
नहीं भूल आये 

बात
का क्या है
लिख लिया जाये

अपनी
किताब में
अपना
हिसाब हो जाये

जज्बात
अपने आप
निकलेंं

कलम
से
निकल
कागज
पर
फैल जायेंं

प्रश्न
सूझने जरूरी हैं
बूझने भी

कभी

मन करे

पूछ्ने

निकल कर
खुले मैदान में
आ जायें

‘उलूक’
के
लिखे लिखाये
में

बात कोई
जज्बात
जैसी
नजर आ जाये

और
उसपर
अगर

समझ
में भी
आ जाये

गलती
हो गयी होगी

मान कर
भूल जायें

प्रश्न चिन्ह
ना लगायें।

चित्र साभार: https://airjordanenligen2015.com

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

‘उलूक’ साफ करना है बहुत सारा इतिहास है


ना खुश है ना उदास है 
थोड़ी सी बची हुयी है
है कुछ आस है 

बहुत कुछ लिखना है 
कागज है कलम की है इफरात है 

ना नींद है ना सपने हैं 
शाम से जरा सा पहले की है बात है 

बन्द है बोतल है खाली है गिलास है
अंधेरा है अमावस की है रात है 

ना पढ़ना है ना पढ़ाना है 
किताबों के नीचे दबी है खुद की है किताब है 

श्याम पट काला है सफेद है चॉक है 
खाली है कक्षा है बस थोड़ी सी उदास है 

ना समझना है ना समझाना है 
नयी तकनीक है आज है सब की है बॉस है 

गुरु घंटाल हैं जितने मालामाल हैं 
सरकारी ईनाम हैं लेने गये हैंं सारे हैं खास हैं 

ना राधा है ना कृष्ण है 
राधाकृष्णन का जन्मदिन
सुना है शायद है आज है 

पदचिन्ह हैंं मिटाने हैं नये अपने बनाने हैं ‘उलूक’ 
साफ करने हैंं बहुत हैंं सारे हैं इतिहास हैंं । 

चित्र साभार:
https://www.1001freedownloads.com

सोमवार, 2 सितंबर 2019

मुखौटों के ऊपर मुखौटा कुछ ठीक से बैठता नहीं ‘उलूक’ चेहरा मत लिख बैठना कभी अपना शब्दों पर




एक
भीड़
लिख रही है 

लिख रही है
चेहरे
खुद के 

संजीदा
कुछ
पढ़ लेने वाले

अलग
कर लेते हैं

सहेजने
के लिये 

खूबसूरती
किसी भी
कोण से 

बना लेते हैं
त्रिभुज
या
वर्ग 

या
फिर
कोई भी
आकृति

सीखने में
समय
लगता है 
सीखने वाले को

पढ़ने वाले 
के
पढ़ने के
क्रम

जहाँ
क्रम होना
उतना 
जरूरी नहीं होता 

जितना
जरूरी होता है 

होना
चेहरा
एक अ‍दद 

जो
ओढ़ सके
सोच 

चेहरे के
ऊपर से 

पढ़ने
वाले की
आँखों की 

आँख से
सोचने वालों
को

जरूरत
नहीं होती
दिल
और
दिमाग की 

‘उलूक’
कभाड़
और
कबाड़ में 

कौन
शब्द सही है
कौन गलत 

कोई
फर्क
नहीं पड़ता है 

लगा रह
समेटने में 
लिख लिखा कर
एक पन्ना

संजीदगी
से
संजीदा
सोच का 

बस
चेहरा
मत दे देना
अपना

कभी
किसी
लिखे के ऊपर 

मुखौटों के ऊपर
मुखौटा
कुछ
ठीक से
बैठता नहीं।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com