उलूक टाइम्स: कविता
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शनिवार, 20 अप्रैल 2013

मत परेशां हुआ कर

मत परेशां हुआ कर
क्या कुछ हुआ है कहीं
कुछ भी तो नहीं
कहीं भी तो नहीं
देख क्या ये परेशां है
देख क्या वो परेशां है
जब नहीं कोई परेशां है
तो तू क्यों परेशां है
सबके चेहरे खिले जाते हैं
तेरे माथे पे क्यों
रेशे नजर आते हैं
तेरी इस आदत से
तो सब परेशां है
वाकई परेशां है
तुझे देख कर ही तो
सबके चेहरे इसी
लिये उतर जाते हैं
कुछ कहीं कहाँ होता है
जो होता है सब की
सहमति से होता है
सही होता होगा
इसी लिये होता है
एक तू परेशां है
क्यों परेशां है
अपनी आदत को बदल
जैसे सब चलते हैं
तू भी कभी तो चल
कविता देखना तेरी
तब जायेगी कुछ बदल
सब फूल देखते हैं
सुंदरता के गीत
गाते हैं सुनाते हैं
तेरी तरह हर बात पर
रोते हैं ना रुलाते हैं
उम्रदराज भी हों अगर
लड़कियों की
तरफ देख कर
कुछ तो मुस्कुराते हैं
मत परेशां हुआ कर
परेशां होने वाले
कभी भी लोगों
में नहीं गिने जाते हैं
जो परेशांनियों
को अन्देखा कर
काम कर ले जाते हैं
कामयाब कहलाते हैं
परेशानी को अन्देखा कर
जो हो रहा है
होने दिया कर
देख कर आता है
कविता मत लिखा कर
ना तू परेशां होगा
ना वो परेशां होगा
होने दिया कर
जो कर रहे हैं कुछ
करने दिया कर
मत परेशां हुआ कर ।

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

फेसबुक पर मिले एक संदेश का जवाब: बकवास रहने दीजिये कविता मत कहिये जनाब

S.k. SrivastavaJoshi ji ajkal apki kavitayen nahi aa rahi hai.



हाँ 
वो
आजकल 
नहीं आ रही है
जो बकवास आपको
कविता नजर आ रही है 

पता ही 
नहीं लग पा रहा है 
कहाँ जा रही है 

रोज ही 
कुछ ना कुछ 
देने आ जाती थी 
कुछ दिन से लग रहा है 
सब नहीं दे जाती थी 
कुछ कुछ छुपा भी ले जाती थी 

वैसे वो
आये 
या ना आये 
बहुत अंतर नहीं आता है 

आती है तो 
कोई ना कोई 
कुछ ना कुछ कह जाता है 
नहीं आती है 
तब भी खाना पच ही जाता है 

अब
जब 
आपने कहा 
वो आजकल नहीं आ रही है 
हमे भी लगा 
वाकई वो नहीं आ रही है 

फिर अगर
वो 
नहीं आ रही है 
तो पता तो लगना ही चाहिये 
कि वो 
कहाँ जा रही है 

अब 
आप ही
पता 
लगा दीजिये ना 
कुछ हमारा भी भला हो जायेगा 
कुछ होगा या नहीं 
ये बाद में फिर देखा जायेगा 

कम से कम 
आप की तरह कोई मेहरबान 
उसको पकड़ कर
वापिस 
मेरे पास ले आयेगा 

वापिस आ गयी 
फिर से
आने 
जाने लग जायेगी 
जैसे पहले 
आया जाया कर रही थी 
करना शुरु हो जायेगी 

फिर 
आप भी नहीं कह पायेंगे 
वो आजकल 
क्यों नहीं आ रही है 

क्या करें कैसे लिखें
बकवास ही सही
जब वो 
हमको ही आजकल
कुछ 
नहीं बता रही है

'उलूक' की बकवास 
कविता
कही जा रही है
बिना बात इतरा रही है।

चित्र साभार: 
https://sites.google.com/

बुधवार, 12 सितंबर 2012

चित्रकार का चित्र / कवि की कविता

तूलिका के 
छटकने भर से 
फैल गये रंग चारों तरफ 

कैनवास पर 
एक भाव बिखरा देते हैं 
चित्रकार की कविता चुटकी में बना देते हैं 

सामने वाले के लिये 
मगर होता है बहुत मुश्किल ढूँढ पाना 

अपने रंग 
उन बिखरे हुवे इंद्रधनुषों में अलग अलग 

किसी को नजर आने शुरु हो जाते हैं 
बहुत से अक्स आईने की माफिक 
तैरते हुऎ जैसे होंं उसके अपने सपने 

और कब अंजाने में 
निकल जाता है उसके मुँह से वाह !

दूसरा उसे देखते ही सिहर उठता है 

बिखरने लगे हों जैसे उसके अपने सपने 
और लेता है एक ठंडी सी आह !

दूर जाने की कोशिश करता हुआ 
डर सा जाता है 
उसके अपने चेहरे का रंग 
उतरता हुआ सा नजर आता है 

किसी का किसी से 
कुछ भी ना कहने के बावजूद 
महसूस हो जाता है 

एक तार का झंकृत होकर 
सरगम सुना देना 
और एक तार का 
झंकार के साथ उसी जगह टूट जाना 

अब अंदर की बात होती है 
कौन किसी को कुछ बताता है 

कवि की कविता और चित्रकार का एक चित्र 
कभी कभी यूँ ही बिना बात के
 एक पहेली बन जाता है ।

 चित्र साभार: 
https://www.kisscc0.com/

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

मान भी जाया कर इतना मत पकाया कर

अब
अगर
उल्टी
आती है
तो कैसे
कहें उससे
कम आ

पूरा मत
निकाल
थोड़ा सा
छोटे छोटे
हिस्सों में ला

पूरा निकाल
कर लाने का
कोई जी ओ
आया है क्या

कुछ पेट में भी
छोड़ कर आ

लम्बी कविता
बन कर के क्यों
निकलती है
कुछ क्षणिंका
या हाईगा
जैसी चीज
बन के आ जा

अब अगर
कागज में
लिखकर
नहीं होता हो
किसी से
हिसाब किताब
तो जरूरी
तो नहीं ऎसा
कि यहाँ आ आ
कर बता जा

अरे कुछ
बातों को रहने
भी दिया कर
परदे में
बेशर्मों की
तरह घूँघट
अपना उधाड़
के बात बात
पर मत दिखा
रुक जा

वहाँ भी कुछ
नहीं होने वाला
यहाँ भी कुछ
नहीं होने वाला
नक्कार खाने
में कितनी भी
तूती तू बजाता
हुआ चले जा

इस से
अच्छा है
कुछ अच्छी
सोच अपनी
अभी भी
ले बना

मौन रख
बोल मत
शांत हो

अपना भी
खुश रह
हमको भी
कभी चाँद
तारों सावन
बरसात
की बातों
का रस
भी लेने दे

बहुत
पका लिया
अब जा ।

रविवार, 15 जुलाई 2012

कविता कमाल या बबाल

अखबार
में छपी
मेरी
एक कविता

कुछ
ने देख कर
कर दी
अनदेखी

कुछ
ने डाली
सरसरी नजर

कुछ
ने की
कोशिश 
समझने की

और
दी 
प्रतिक्रिया

जैसे
कहीं पर
कुछ हो गया हो

किसी
का जवान लड़का 
कहीं खो 
गया हो

हर
किसी 
के भाव

चेहरे पर 
नजर
आ जा रहे थे

कुछ 
बता रहे थे

कुछ 
बस खाली

मूँछों
के पीछे
मुस्कुरा रहे थे

कुछ 
आ आ कर
फुसफुसा रहे थे

फंला फंला 
क्या
कह रहा था

बता के
भी
जा रहे थे

ऎसा 
जता रहे थे

जैसे
मुझे 

मेरा कोई
चुपचाप 
किया हुआ
गुनाह 
दिखा रहे थे

श्रीमती जी 
को मिले
मोहल्ले के 
एक बुजुर्ग

अरे 
रुको 
सुनो तो 
जरा

क्या 
तुम्हारा वो
नौकरी वौकरी
छोड़ आया है

अच्छा खासा 
मास्टर
लगा तो था
किसी स्कूल में

अब क्या 
किसी
छापेखाने 
में
काम पर 
लगवाया है

ऎसे ही 
आज

जब अखबार में
उसका नाम 
छपा हुआ 
मैंने देखा

तुम 
मिल गयी
रास्ते में 
तो पूछा

ना 
खबर थी वो

ना कोई 
विज्ञापन था

कुछ 
उल्टा सुल्टा
सा
लिखा था

पता नहीं 
वो क्या था

अंत में 
उसका
नाम भी 
छपा था

मित्र मिल गये
बहुत पुराने

घूमते हुवे 
उसी दिन
शाम को 
बाजार में

लपक 
कर आये
हाथ मिलाये 
और बोले

पता है 
अवकाश पर
आ गये हो

आते ही 
अखबार
में छा गये हो

अच्छा किया
कुछ छ्प छपा
भी जाया करेगा

जेब खर्चे के लिये
कुछ पैसा भी
हाथ
में आया करेगा

घर 
वापस पहुंचा
तो

पड़ोसी की
गुड़िया आवाज
लगा रही थी

जोर जोर से
चिल्ला रही थी

अंकल 
आप की
कविता आज के
अखबार में आई है

मेरी मम्मी 
मुझे आज 
सुबह दिखाई है

बिल्कुल 
वैसी ही थी
जैसी मेरी 
हिन्दी की
किताब में 
होती है

टीचर 
कितनी भी
बार समझाये 

लेकिन
समझ से 
बाहर होती है

मैं उसे 
देखते ही
समझ गयी थी 

कि ये जरूर 
कोई कविता है

बहुत ही 
ज्यादा लिखा है

और
उसका 
मतलब भी
कुछ नहीं 
निकलता है।

बुधवार, 27 जून 2012

विदाई

आज मैडम जी को
विदा कर के आया
उनके अवकाश ग्रहंण
के उपलक्ष्य में था
विभाग ने एक
समारोह करवाया
विदाई समारोह में
ऎसा महसूस होने
लग जाता है
मजबूत से मजबूत
आदमी भी थोड़ा
भावुक अपने को
जरूर दिखाता है
कौऎ मुर्गी कबूतर
भी होते हैं कहीं
आस पास में मौजूद
माहौल उन सबको भी
बगुला भगत बनाता है
एक के बाद एक
मँच पर बोलने
को बुलाया जाता है
कभी कुछ नहीं
कहने वाला भी
लम्बा एक भाषण
फोड़ ले जाता है
कोई शेर लाता है
शायर हो जाता है
कोई गाना सुनाता है
किशोर कुमार की
टाँग तोड़ने में जरा
भी नहीं घबराता है
कविता ले के आने वाला
अपने को सुमित्रा नन्दन पँत
हूँ कहने में नहीं शरमाता है
सेवा काल में सबसे ज्यादा
गाली खाने वाला जो होता है
सबसे बड़ी माला
वो ही तो पहनाता है
सारे गिले शिकवे भूल कर
नम आँखों से मुस्कुराता है
आँसू बनाने के लिये
कोई भी ग्लीसरीन
तक नहीं लगाता है
शब्दों का चयन देखने
लग जाये अगर कोई
अपने को अर्थ ढूढने में
असमर्थ पाता है
भावार्थ ढूँढने के लिये
घर वापस लौट कर
शब्दकोष ढूँढने
लग जाता है
इससे सिद्ध ये जरूर
लेकिन हो जाता है
कि अवकाश ग्रहण
करना माहौल को
ऊर्जावान जरूर ही
बना ले जाता है
फिर ये समझ में
नहीँ आ पाता है
कि विभागों में
शाँति व्यवस्था
कायम करने के लिये
अवकाश लेने देने को
हथियार क्यों नहीं
सरकार द्वारा एक
बना लिया जाता है ।

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

छ से छन्द

कविता सविता
तो तब लिखता
अगर गलती से
भी कवि होता

मैं सिर्फ
बातें बनाना
जानता हूँ
छंद चौपाई
दोहे नहीं
पहचानता हूँ

रोज दिखते
हैं यहां कई
उधार लेकर
जिंदगी बनाते

कुछ जुटे
होते हैं
फटती हुवी
जिंदगी में
पैबंद लगाते

जो देखता
सुनता
झेलता
हूँ अपने
आस पास
कोशिश कर
लिख ही
लेता हूँ
उसमें से
कुछ
खास खास

ऎसे में
आप कैसे
कहते हो
छंद बनाओ
हमारी तरह
कविता एक
लिख कर
दिखाओ

गुरु आप
तो महान हो
साहित्य जगत
की एक
गरिमामय
पहचान हो

खाली दिमाग
वालों पर
इतना जोर
मत लगाओ
बेपैंदे के
लोटे को तो
कम से कम
ना लुढ़काओ

क से कबूतर
लिख पा
रहा हो
अगर
कोई यहां
गीत लिखने
की उम्मीद
उससे तो
ना ही लगाओ

हो सके
तो उसे  

ख से
खरगोश
ही
सिखा जाओ

नहीं कर
सको
इतना भी
तो
कम से कम
उसके लिये
एक ताली ही
बजा जाओ।

मंगलवार, 31 जनवरी 2012

वोट घुस गया

लम्बे इंतजार के बाद
हुवा आज मैं सपरिवार
वोट देने के लिये तैयार
बहुत खुश था जैसे
बनाने जा रहा था अपनी
केवल अपनी सरकार
वोटर आई डी कार्ड
लौकर से निकाला
बटुवे की चोर जेब
के अंदर डाला
जूते को पौलिश लगाया
सिर में तेल डाल
बालों को संवारा
छोटे बेटे को बताया
पड़ोसी को सुनाया
दरवाजा अंदर से
बंद जरूर कर लेना
वोट डालने जा रहा हूँ
यूँ गया और यूँ ही
वापस आ रहा हूँ
एक बूथ के बगल
से निकल रहा था
हर पार्टी का आदमी
बड़ी आशा भरी
निगाहो से हमे
तौल रहा था
हौले हौले अपने
बूथ पर पहुंच पाया
लिस्ट देखने वाले को
वोटर आई डी कार्ड
मैने हाथ में थमाया
पूरी लिस्ट जब छान
मारी तो अपना ही
नहीं पूरे परिवार के
नामों को गायब पाया
निराश हो कर
अगल बगल
के कुछ और बूथों में
चक्कर लगाया
मैं अपने परिवार के
सांंथ खो चुका था
किसी को कहीं
भी नहीं ढूंड पाया
वापस लौट के जब आ
रहा था चाल में वो
तेजी नहीं पा रहा था
मन ही मन चुनाव आयोग
को धन्यवाद देता जा रहा था
एक कविता अपनी भड़ास का
अंतिम हथियार कुड़ता हुवा
सोचता चला जा रहा था
आज शायद एक पाप
करने से ऊपर वाले
ने मुझे बचा लिया
इसीलिये मेरा
और मेरे परिवार
वालों के नाम को
वोटर लिस्ट से
ही हटा लिया ।

रविवार, 4 दिसंबर 2011

पहचान

शब्दों
के समुंदर
में गोते लगाना

और

ढूँढ
के लाना
कुछ मोती

इतना
आसान
कहां होता है

कविता
बता देती है
तुम्हारे अंदर के
कव्वे का पता

जो
सफेद शब्द
खोज के
लाता तो है हमेशा

पर
कव्वे की
काली छाया

उन्हे भी
बना देती
है काला

और

कोयल
की कूँक
होते हुवे भी

वो
न जाने क्यूं
कांव कांव ही
सुनायी देते हैं

और

लोग जान
जाते हैं मुझे ।