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सोमवार, 18 अगस्त 2014

नहीं लिख पाउंगा उसके लिये कुछ भी जिसके जलवे में आदमी बन कर के कोई शामिल होता है



दिमाग से लिखना मन की बात लिखना
किताब से लिखना बेबात की बात लिखना 
सुबह सवेरे बैठ कर एक रात लिखना 
अखबार में छपने छपाने के लिये लिखना 
अलग अलग होता है भाई क्यों परेशान होता है

डाक्टर ने नहीं कहा होता है 
पढ़ने के लिये वो सब कुछ 
जो इस दुनिया में 
हर जगह किसी भी दीवार पर
ऐरे गैरे नत्थू खैरे ने 
लिखा या लिखवा दिया होता है

पैजामे और टोपी देख कर 
लिखने वाले की बात पर क्यों चला जाता है

यहाँ हर कोई 
बिना कपड़े का ही आता है 
जैसा होता है उसी तरह आता है

अपने हिसाब किताब को देख कर
दुनियाँ को पागल बनाता है

कपड़े 
के बिना जो होता है 
उसे गूगल का 
शब्दकोश क्या कहता है 
उससे क्या करना होता है

सीधे सीधे 
नंगा कह देना 
अच्छा नहीं होता है 

दुनियाँ 
ऐसे लोगों से ही चल रही है

एक 
तू है ‘उलूक’
अपनी बेवकूफियों को
हरे पत्तों से ढकने में लगा रहता है 

अखबार में छपे 
कबूतरों के मनन चिंतन से
परेशान मत हुआ कर
कबूतर अपने घोंसले में 
अपनी ही बीट पर सोता है

जनता 
उस की तरह की ही
उस की 
वाह वाही में लगी रहती है

जिनको 
पता सब होता है
वो उनकी तरह का ही होता है

अल्पसंख्यक 
बस एक संख्या है
उसी ने बिल्ली की तरह 
खंभा ही तो बस एक नोचना होता है ।

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

सरकार की नहीं सोच पा रहा हूँ सरकार

तेरी वोट से ही
बनने जा रही है
इस बार की सरकार
सुन नहीं रहा है
अब की बार बस
उसकी सरकार
सुन तो रहा हूँ पर
गणित में कमजोर हूँ
समझ नहीं पा रहा हूँ
फिर भी जितना है
बचा खुचा दिमाग
गुणा भाग करके
लगा रहा हूँ
उसकी तो ऐसे
कह रहा है जैसे
तेरे को बता
कर गया हो वो
सरकार बस मैं
ही बना रहा हूँ
किसी जमाने में
इसकी बनती थी
या उसकी बनती थी
जमाने ने तक कर
दिया अब पलटवार
देख क्यों नहीं लेता
आज का ही अखबार
तीन चार चुनाव
लड़ लड़ा कर
एक दूसरे को
जिता हरा कर
अब दोनों एक ही
मंच में साथ साथ
गले में बाहें डाल
कर हैं एक दूसरे
को बहुत प्यार
एक बार ये
ले गया था वोट
उसकी बन गई
थी सरकार
दूसरी बार वो
ले गया था वोट
इसकी बन गई
थी सरकार
वोटर
उलूक
फाड़ कर रख ले
अपनी वोट को
आधी इसके लिये
और आधी उसके
लिये इस बार
कोई भी बनेगी
कहीं एक सरकार
तेरी की जायेगी
जै जै कार
बुद्धिजीवियों के बस में
है नहीँ करना कुछ
परजीवियों का फल रहा
हो जहाँ सारा कारोबार
अब की बार इसकी भी
और उसकी भी सरकार
बहस करना है बेकार ।

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

क्यों परेशाँ रहे कोई रात भर सुबह के अखबार से सब पता चल जाता है

कैसे काट लेता है
कोई बिना कुछ कहे
एक पूरा दिन यहाँ
जहाँ किसी का बोरा
गले गले तक शाम
होने से पहले
ही भर जाता है
सब कुछ सबको
दिखाने लायक
भी नहीं होता है
थोड़ा कुछ झाड़ पोछ
कर पेश कर
ही दिया जाता है
घर से निकलता है
बाहर भी हर कोई
रोज ही काम पर
कपड़े पहन कर आता है
कपड़े पहने हुऐ ही
वापस चला जाता है
आज का अभी
कह दिया जाये
ठीक रहता है
कल कोई सुनेगा
भरौसा ही कहाँ
रह पाता है
भीड़ गुजर जाती है
बगल से उसके
सब देखते हुऐ हमेशा
एक तुझे ही पता नहीं
उसे देखते ही
क्या हो जाता है
उसको भी पता है
बहुत कुछ तेरे बारे में
तभी तो तेरा जिक्र भी
ना किसी नामकरण में
ना ही किसी जनाजे में
कभी किया जाता है
इधर कुछ दिन तूने भी
रहना ही है बैचेन बहुत
उनकी बैचेनी के पते का
पता भी चल ही जाता है
डबलरोटी के मक्खन को
मथने के लिये कारों का
काफिला कर तो रहा है
मेहनत बहुत जी जान से
रोटी के सपने देखने वालों
की अंगुली में लगे
स्याही के निशान का फोटो
अखबार में एक जगह पर
जरूर दिखाया जाता है
कौन बनाने की सोच रहा है
एक नया रास्ता तुझे पता है
पुराने रास्तों की टूट फूट कि
निविदाओं से ही कागज का
मजबूत रास्ता रास्तों पर
मिनटों में बन जाता है
इसको जाना है इस तरफ यहाँ
उसको जाना है उस तरफ वहाँ 

उलूक बस एक तू ही अभी तक 
असमंजस में नजर आता है । 

सोमवार, 17 मार्च 2014

होली हो ली तशरीफ ले जायें

मौगैम्बो
सुबह सुबह
जब नींद से उठा
बहुत खुश हुआ

उसे जैसे ही
पता चला होली का

होली आज हो रही है
छपा हुआ दिखा
अखबार में
मुख्यपृष्ठ के ऊपर के
दायें कौने में छोटा सा

"होली की शुभकामनाएं"

जैसे कह रहा हो
रोज ही होती है
आज भी होगी
तैयार हो जायें

हो ली कह जाये
कोई इससे पहले
जुट जायें

पुराने ट्रंक
को खुलवाये
कई सालो से
हर साल पहने
जा रहे होली के
कपडों को आज
एक बार फिर से
बाहर निकलवायें

धूल को झा‌ड़ लें
कहीं उधड़ा हुआ
दिखे कोई कौना
उसे सुई और धागा
सफेद ना भी मिले
सब चलता है
मानकर सुधार लें

इस्त्री करने की
जरूरत नहीं होती है
तुरंत पहने और
सिर पर टोपी
पाँव में चप्पल
एक टूटी डाल लें

कुछ लाल नीले
हरे पाउडर को
फटी हुई दहिनी
जेब में पालिथिन
की पुड़िया में
सम्भाल लें

कुछ मुँह में
ऐसा रंग लगाये
चेहरे के ऊपर ही
एक चेहरा बन जाये
कोई भी मिले उसे
देख कर जबरदस्ती
ही सही मुस्कुरायें

"होली की बहुत
बहुत बधाई"
बड़बड़ायें

दो चार घंटे सुबह के
किसी तरह काट ले
फिर चैन की साँस लें

पानी गरम करवायें
साबुन से रंग छुड़ाये

होली हो ली सोच कर
होली के कपड़ों
को धुलवायें

धूप में सुखा कर
फिर से पुराने ट्रंक
में डाल आयें

निपट गयी होली
मान कर
आराम फरमायें ।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

इस बार भी चढ़ जायेगा रंग कहाँ कुछ नहीं बतायेगा

होली के
रंगो के बीच
भंग की
तरँगो के बीच
रंग में रंग
मत मिला
मान जा
एक ही
रंग में रह
कोशिश कर
तिरंगा रंगों
का मत फहरा
रंगो का भी
होता है ककहरा
हरे को रहने
ही दे हरा
लाल बोल कर
रँग को रंग
से मत लड़ा
जिस रंग
में रंगा है
उसी रंग
से खेल
दो चार दिन
का सब्र कर
सालों साल
की मेहनत
पर ना डाल
मिट्टी या तेल
एक दिन
मुस्कुरायेगा
गले से लगायेगा
आशीर्वाद ढोलक
की थापों के साथ
एक नहीं कई
कई दे जायेगा
हो हो होलक रे
करता हुआ रंग
हवा में उड़ेगा
कुछ ही देर
फिर थोड़ा
मिट्टी में मिलेगा
कुछ पानी की
फुहारों के साथ
बह जायेगा
रंग बदलने वाला
क्या करेगा
बस यही नहीं
किसी के समझ
में आ पायेगा
रेडियो कुछ कहेगा
टी वी कुछ दिखायेगा
रंगों का गणित
बहुत सरल तरीके
से हल किया हुआ
अखबार भी बतायेगा
हर कोई कहेगा
जायेगा तो “आप”
के साथ ही
इस बार जायेगा
रंग रंग में मिलेगा
पता भी नहीं चलेगा
होली हुई नहीं
सब कुछ बदल जायेगा
जिसका चढ़ेगा रंग
वही बस वही
बाप हो जायेगा
रंग को रंग
ही रहने दे
अगर मिलायेगा
समझ ले बाद में
तेरे ही सर
चढ़ के बोलेगा
होली का होला
कब हो गया
“उलूक” तू बस
ऊपर से नीचे
देखता रह जायेगा ।

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

खड़ा था खड़ा ही रह पड़ा

पत्रकार मित्र ने
पढ़ा जब लिखा
हुआ अखबार में
छपा बड़ा बड़ा
समीक्षा करते हुऐ
कहा जैसा सभी
कह देते हैं अच्छा
बहुत अच्छा है लिखा
और एक बुद्धिजीवी
इससे ज्यादा कभी
कर भी नहीं है सका
कभी कुछ लिख
देने के सिवा
उसके पास नहीं
होता है एक उस्तरा
ना होता है हिम्मत से
लबालब कोई घड़ा
बहुत कायर होता है
लिख लिख कर
करता है साफ
अपने दिमाग से
बेकाम का देखा भोगा
घर का अड़ोस का
या पड़ौस का
हर रगड़ा झगड़ा
परजीवी तो नहीं
कहा जा सकता
पर करने में
लगा रहा हमेशा
कुछ इसी तरह का
खून छोड़िये लाल रंग
को देख कर होता है
कई बार भाग खड़ा
क्रांंति लाया हो कभी
अपने विचारों से
इतिहास में कहीं भी
ऐसा नहीं है देखा गया
मजदूरों ने जब भी
किया कहीं भी कोई
किला इंकलाब का खड़ा
हाँ वहाँ पर जा कर
हमेशा एक बुद्धिजीवी
ही है देखा गया
झंडा फहराता हुआ
एक बहुत बड़ा
पढ़ने वालों से
बहुत है पाला पड़ा
पर ऐ बेबाक मित्र
सलाम है तुझे
तूने मेरे मुँह पर ही
साफ साफ मेरा सच
कड़वा ही सही कहा
कुछ कहते हुऐ
ही नहीं बन पड़ा ।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

किसी की दुखती रग पर क्या इसी तरह हाथ रखा जाता है

सुबह सुबह उठते
ही कोई पूछ बैठे
कल के बारे में
तो वही बता पाता है
जिसको आज के
बारे में बहुत कुछ
विस्तार से समझ
में आता जाता है
उस के लिये कोई
कुछ नहीं कर सकता है
जिसकी सोच में
मोच आने से बहुत
लोच आ जाता है
अब ये भी कोई
प्रश्न हुआ पूछना
क्या आपके वहाँ भी
गणतंत्र दिवस
मनाया जाता है
प्रश्न कठिन भी
नहीं होता है
पर घूमा हुआ
दिमाग ऐसे में
कलाबाजी खा
ही जाता है
एक एक अर्जुन
अपने हाथ में
अपनी मछली की
आँख को लिया हुआ
तीर से कुरेदता हुआ
सामने सामने ही
दिखने लग जाता है
ऐसे में जवाब
दिया ही जाता है
जी हाँ बिल्कुल
मनाया जाता है
गणों के द्वारा
हमारे तंत्र में भी
गणतंत्र दिवस
हमेशा हर वर्ष
जैसा हर जगह
मनाया जाता है
झंडा भी होता है
तिरंगा भी होता है
जय हिंद का नारा
भी जोर शोर से
लगाया जाता है
सारे देश भक्त
जरूर दिखते हैं
उस दिन दिन में
अखबार में समाचार
भी फोटो शोटो
के साथ आता है
सारे अर्जुनोँ की
मछलियों की आँख
और तीर में ही
मगर हमेशा की तरह
हर गणतंत्र दिवस में
'उलूक' का ध्यान
भटक जाता है
देश भक्ति का
सबूत देने का मौका
आते आते हमेशा ही
उसके हाथ से
इसी तरह फिर
एक बार छूट जाता है ।

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

सब कुछ जायज है अखबार के समाचार के लिये जैसे होता है प्यार के लिये

समाचार
देने वाला भी
कभी कभी
खुद एक
समाचार
हो जाता है

उसका ही
अखबार
उसकी खबर
एक लेकर
जब चला
आता है

पढ़ने वाले
ने तो बस
पढ़ना होता है

उसके बाद
बहस का
एक मुद्दा
हो जाता है

रात की
खबर जब
सुबह तक
चल कर
दूर से आती है

बहुत थक
चुकी होती है
असली बात
नहीं कुछ
बता पाती है

एक कच्ची
खबर
इतना पक
चुकी होती है

दाल चावल
के साथ
गल पक
कर भात
जैसी ही
हो जाती है

क्या नहीं
होता है
हमारे
आस पास

पैसे रुपिये
के लिये
दिमाग की
बत्ती गोल
होते होते
फ्यूज हो
जाती है

पर्दे के
सामने
कठपुतलियाँ
कर रही
होती हैं
तैयारियाँ

नाटक दिखाने
के लिये
पढ़े लिखों
बुद्धिजीवियों
को जो बात
हमेशा ही
बहुत ज्यादा
रिझाती हैं

जिस पर्दे
के आगे
चल रही
होती है
राम की
एक कथा

उसी पर्दे
के पीछे
सीता के
साथ
बहुत ही
अनहोनी
होती चली
जाती है

नाटक
चलता ही
चला जाता है

जनता
के लिये
जनता
के द्वारा
लिखी हुई
कहानियाँ
ही बस
दिखाई
जाती हैं

पर्दा
उठता है
पर्दा
गिरता है
जनता
उसके उठने
और गिरने
में ही भटक
जाती है

कठपुतलियाँ
रमी होती है
जहाँ नाच में
मगन होकर

राम की
कहानी ही
सीता की
कहानी से
अलग कर
दी जाती है

नाटक
देखनेवाली
जनता
के लिये ही
उसी के
अखबार में
छाप कर
परोस दी
जाती है

एक ही
खबर
एक ही
जगह की
दो जगहों
की खबर
प्यार से
बना के
समझा दी
जाती है ।

रविवार, 5 जनवरी 2014

होता तो है मतलब का पता पर समझ में नहीं आ पाता है

मकड़ियां होती ही हैं
सामने से, आस पास
या कहीं दूर पर भी
जहाँ तक नजर
में आ जाती हैं
अब होती हैं
तो होती हैं
और किसी के कहीं
होने में किसी का
दोष नहीं होता है
अब क्या करें वो भी
उनको भी कहाँ
पता होता है
कोई उनको जब तब
देख परख रहा होता है
आज अचानक
ऐसी ही कुछ मकड़ियों
की स्ट्रेटेजी का ख्याल
पता नहीं कहाँ
से आ गया
ऐसा होता है
सोये हुऐ मन में
भी बहुत कुछ
सोया रहता है
पर जो वास्तव में
सोया सोया हुआ
सा नहीं होता है
स्ट्रेटेजी किसी के लिये
रणनीति हो जाती है
किसी को एक
कपट विद्या
नजर आती है
कोई युद्ध-कला
समझाता है
किसी के लिये वही
युद्ध-कौशल हो जाता है
शराफत से बताने
वाला कार्यनीति
कह ले जाता है
बाबा “उलूक” भी
क्या करे ऐसे में
जो कुछ देखना
सुनना नहीं चाहता है
वो सब उसी दिन के
सुबह सुबह के
अखबार के मुख्यपृष्ट
पर छप के आ जाता है
अब अगर एक मकड़ी
के हाथ में किसी को
मछली पकड़ने का
तागा और सामान
नजर आता है
तो इसमें कौन सा
अनर्थ हो जाता है
मकड़ी भी तो
छोड़ सकती है
जाल बुनना और
मक्खी चूसना
क्या पता मछली
फंसाने में उसको
अब और ज्यादा
मजा आता है
खिसियाता हुआ
खुद को कुछ
इस तरह समझाता है
तू लगा रह चूसने में
शाकाहार सा कुछ
हरी घास के मैदानों में
बहुत कुछ तेरे जैसों के
लिये पाया जाता है
तुझे जब पकड़नी ही
नहीं है मक्खी या मछली
तो फिर काहे को बेकार में
स्ट्रेटेजी का सही मतलब
समझना चाहता है ।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

सब को आता है कुछ ना कुछ तुझे क्यों नहीं आता है

लिख देने
के बाद भी

यहीं पर
पड़ा हुआ
नजर आता है

इतनी सी
भी मदद
नहीं करता
कहीं को चला
भी नहीं जाता है

अखबार
से ही सीख
लेता कुछ कभी

कितनो
का लिखा
अपने सिर पर
उठा उठा
कर लाता है

खुद ही जाकर
हर किसी के घर भी
रोज हो ही आता है

अपनी
अपनी खबर
पढ़ लेने का मौका

हर कोई
समानता से
पा भी जाता है

बहुत
कम होते हैं ऐसे
जिन्हे है फुरसत यहाँ
जमाने भर की

और वो
यहाँ आ कर
पढ़ क्या गया तुझको

तू तो
बहुत ही मजे
मजे में आ जाता है

कुछ तो
सऊर सीख भी ले अब

इधर उधर के
पन्नों से कभी

जिसमें
लिखा हुआ
कुछ भी कहीं भी

बहुत
सी जगह
पर जा जा कर
कुछ ना कुछ
लिखवा ही लाता है

एक तू है पता नहीं
किस चीज का बना हुआ

ना खुद लिख पाता है
ना ही कुछ किसी से
लिखवा ही पाता है

जब देखो
जिस समय देखो
यहीं पर पड़ा रह रह कर

बेकार में
सारी जगह
घेरता चला जाता है

अरे ओ
बेवकूफ पन्ने
किसी की समझ में
बात आये ना आये

तेरी समझ में
कभी भी कुछ
क्यों नहीं आता है

'उलूक'
के बारे में
भी कुछ सोच
लिया कर कभी

उससे भी
आँखिर
कब तक और
कहाँ तक सब
लिखा जाता है ।

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

चेहरे को खुद ही बदलना आखिर क्यों नहीं आ पाता है

घर के चेहरे
की बात करना 
फालतू
हो जाता है
रोज देखने की
आदत जो
पड़ जाती है
याद जैसा
कुछ कुछ
हो ही जाता है
किस समय
बदला हुआ है
थोड़ा सा भी
साफ नजर में
आ जाता है
मोहल्ले से
होते हुऐ
एक चेहरा
शहर की
ओर चला
जाता है
भीड़ के
चेहरों में
कहीं जा
कर खो
भी अगर
जाता है
फिर भी
कभी दिख
जाये कहीं
जोर डालने
से याद
आ जाता है
चेहरे भी
चेहरे
दर चेहरे
होते हुऐ
कहीं से
कहीं तक
चले जाते हैं

कुछ टी वी
कुछ अखबार
कुछ समाचार
हो जाते हैं
उम्र का
असर
भी हो
तब भी
कुछ कुछ
पहचान ही
लिये जाते हैं
समय के
साथ
कुछ चेहरे
बहुत कुछ
नया भी
करना
सीख ही
ले जाते हैं
पहचान
बनाने
के लिये
हर चौराहे
पर
चेहरा अपना
एक टांक
कर आते हैं
कुछ चेहरों
को
चेहरे बदलने
में महारथ
होती है
एक चेहरे
पर
कई कई
चेहरे
तक लगा
ले जाते हैं
'उलूक'
देखता है
रोज ऐसे
कई चेहरे
अपने
आस पास
सीखना
चाहता है
चेहरा
बदलना
कई बार
रोज
बदलता है
इसी क्रम में
घर के
साबुन
बार बार
रगड़ते
रगड़ते
भी कुछ
नहीं हो
पाता है

सालों साल
ढोना एक
ही चेहरे को
वाकई
कई बार
बहुत बहुत
मुश्किल सा
हो जाता है !

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

एक की हो रही पहचान है एक पी रहा कड़वा जाम है !

अगला
आदमी भी
कितना
परेशान है

अपनी
एक पहचान
बनाने की
कोशिश में
हो रहा
हलकान है

बगल वाला
है तो
उसका ही जैसा

कुछ भी
नहीं है
थोड़ा सा भी
कहीं कुछ
अलग अलग सा

दिखता भी
नहीं है
करता हुआ
कुछ
अजब गजब सा

समझ में
नहीं आता
हर गली
हर मौहल्ले में
हो रहा फिर भी
उसका ही नाम है

अखबार
रेडियो टी वी
वालों से बनाई
अगले ने
 पहचान है

हजार जतन
कर कराने
के बाद भी

कोई
क्यों नही देता
ऐसे शख्स की तरफ
थोड़ा सा भी ध्यान है

सभी तो
सब कुछ
करने में लगे हुऐ हैं

बस अपने
लिये ही तो
यहां या वहां
होना है

किसी और
के लिये
नहीं जब
कुछ इंतजाम है

इसे मिलता है
उसे मिलता है

अगले
को ही बस
क्यों नहीं मिलता
कुछ सम्मान है

किसी का
नाम होने से
किसी को हो रहा
बहुत नुकसान है

कोई करे
कुछ तो
उसके लिये कभी

इसकी
और उसकी
हो रही पहचान से
किसी की सांसत में
देखो फंस रही जान है ।

शनिवार, 28 सितंबर 2013

कल तक चाँद हो रहा था रात ही रात में दाग हो गया

सुबह के
अखबार से
सबको पता
हो गया
बच्चा बापू
से बहुत
नाराज हो गया
उसके जवान
हो जाने का
जैसे कहीं कोई
ऐलान हो गया
घर के अंदर
लग रहा था
कल ही कल
में कोई
संग्राम हो गया
अंदर ही अंदर
पक रहा हलुवा
पता नहीं कैसे
आम हो गया
चाँद के सुंदर
होने की बात
पीछे हो गई
दाग होने से
ही वो आज
बेकाम हो गया
माँ की
अंगुली छोड़
अचानक
बेटा खड़ा
हो कर
आम हो गया
विदेश गये
बापू जी
का वहाँ रहना
हराम हो गया
एक बड़ा
दाग होना
होने जा रहा था
सोने में सुहागा
अचानक कोड़ में
खाज हो गया
कुछ खास बड़ा
नहीं बस एक
छोटा सा
अध्यादेश
मुंह में शहद
हो रहा था
गले तक पहुंचते
पहुंचते मुर्गे की
हड्डी हो गया
सच्ची मुच्ची में
लगने लगा है
किसी को कुछ
कुछ हो गया
क्या था कल तक
घर का ही आदमी
घर ही घर में
क्या से क्या
आज हो गया
बेवफा तू ऐसे में
पूरी पूरी रात
चैन की नींद
कैसे सो गया ।

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

याद नहीं रहा आज से पहले खतड़ुवा कब था हुआ

बरसात जब
कुछ कम हो गई
घर की सफाई
कुछ शुरु हो गई
काम पर लगे नंदू
से पूछ बैठा यूं ही
ठंड भी शुरु
हो गई ना
हां होनी ही है
खतड़ुवा भी हो गया
उसका ये बताना
जैसे मुझे धीरे से
छोटा करते हुऐ
कहीं बहुत
पीछे पहुंचाना
याद आने लगा मुझे
पशु प्रेमी ग्वालों
का पारंपरिक पर्व
का हर वर्ष अश्विन
माह की संक्रांती
को मनाना और
याद आया
भूलते चले जाना
घास का एक
त्योहार पशुधन
की कुशलता और
गौशालाऐं गाय से
भरी रहने की कामना
गाय के मालिकों की
वंशवृद्धि होती रहे
गाय का सम्मान भी
करती रहे की भावना
त्योहार मनाना
ना होता हो जैसे
कोई खेल होता हो
भांग के पौंधे के एक
सूखे से डंडे को
सुबह से घास फूल
पत्तियों से सजाना
गाय के जाने के
रास्ते के चौराहे पर
घास के चार हाथ पैर
बनाकर फुलौरी
एक बनाना
शाम ढले सपरिवार
उस आकृति
को आग लगाना
सुबह बनायी गई
सजायी गई
लकड़ी से आग को
पीटते चले जाना
'भैल्लो जी भैल्लो
भैल्लो खतड़ुवा
भाग खतड़ुवा भाग'
साथ साथ चिल्लाते
भी चले जाना
जली आग का एक
हिस्सा ले जा कर
गाय के गौठ और
घर पर ला
कर घुमाना
पीली ककड़ी
काट कर बांटना
और मिलकर खाना
फिर याद आया
खो जाना शहर के
पेड़ और घास
घर से गायों
का रंभाना
गायों का
कारें हो जाना
दूध का
यूरिया हो जाना
हर हाथ का
कान से जा कर
चिपक जाना
सड़क पर
चलते चलते
बोलते चले जाना
पड़ोसी की
मौत की खबर
अखबार से
पता चल पाना
ऐसे में बहुत
 बड़ी बात है
खतड़ुऐ की याद
भर आ जाना ।

रविवार, 1 सितंबर 2013

गजब के भाई जी के गजब के खेल !

भाई जी बहुत
अच्छे खिलाड़ियों
में गिने जाते हैं
क्या खेलते हैं
कभी किसी को
नहीं बताते हैं
कारनामें उनके
अखबार में
बहुत बार आते हैं
हरफन मौला
उनको अखबार
वाले बताते हैं
बाकी बहुत होता है
उनके बारे में
अखबार में
बस उनके खेलने
के बारे में बताने
से वो भी हमेशा
कुछ कतराते हैं
बहुत अनुभवी हैं
अच्छा खेलते हैं
जहाँ कोई नहीं
पहुँच पाता है
वहाँ जा कर के भी
गोल कर के आते हैं
फिर समझ में
ये नहीं आता
लोग उनकी इस
कला की बात
करने में क्यों
शरमाते हैं
जब की सब ही
उनके खेल के
कायल होते हैं
खेलना भी उनकी
तरह ही चाहते हैं
मैच फिक्सिंग की
समस्या कहीं भी
नहीं आ पाती है
खेल ऎसे खेला
जाता है जिसमें
बस एक ही टीम
खेल पाती है
गोल भी बस एक
ही देखा जाता है
खेल के हिसाब से
मन चाही जगह
पर जा कर बना
लिया जाता है
बौल भी दिखाई
नहीं जाती है
कमेंटरी भी की
नहीं जाती है
महत्वपूर्ण तो
ये होता है कि
किसी काम को
करवाने के लिये
बस खेल भावना
जगा ली जाती है
एक गोल होने से
मतलब होता है
अच्छे खिलाडी़ को
ये बात बहुत अच्छी
तरह समझ में आती है
काम के हिसाब से
खिलाड़ी उसे खेलने
के लिये घुस जाता है
इन सब में बहुत
ही महारथी होता है
अपनी दूरदृष्टी
काम में लाता है
सब से बात भी
अलग अलग
कर के आता है
हर एक को एक
बौल का सपना
थमा के आता है
खेल खेल में गोल
जब हो जाता है
सबको जा जा के
समझाया जाता है
मिल जुल कर
खेलने से कितना
फायदा हो जाता है
मैदान में कोई
कहीं नहीं जाता है
अच्छा नहीं है
क्या कि खेल
एक टीम से ही
खेला जाता है
दो टीम के खेल
में फिक्सिंग होने
का डर हो जाता है
ऎसे भाई जी के
ऎसे खेल को
ओलंपिक में क्यों
नहीं खेला जाता है
अपने देश में तो
पता नहीं क्या
संख्या होगी पर
मेरे आसपास में
दो में से एक का
भाई जी होना
मेरे लिये गर्व
का विषय एक
जरूर हो जाता है ।

शनिवार, 24 अगस्त 2013

सुबह सुबह ताजी ताजी गरम गरम

विधायक जी ने 
जिलाधिकारी जी को
रात को बारा बजे
जब दूरभाष लगाया

लड़खड़ाती
आवाज से उनकी
उन्हे आभास हो आया

पक्का ही
डी एम ने
पव्वा है लगाया

विधायक जी ने
तुरंत ही
इस घटना को
आयुक्त को
जब बताया

आयुक्त ने भी
पुष्टि करने को
डी एम
साहब को
फोन लगाया

भाई
तुम्हारी
आवाज तो
लड़खड़ा रही है

तुमने
पी हुई है
ऎसा कुछ
बता रही है

डी एम
साहब को
बहुत जोर
का गुस्सा
आना ही था
वो आया

थोड़ी सी
तो पी है
चोरी तो
नहीं की है

जो बनता है
बना डालो
मेडिकल
चाहो तो
वो भी
करवालो

ये सब
मुझे ही
किसी ने
नहीं है
बताया

मेरे घर में
जितने
अखबार
आते हैं

उनमें से
एक के
मुख्य पृष्ठ
पर मैं इसे
पढ़ पाया

तब से
कुछ भी
समझ में
नहीं आ
रहा है

इस समाचार का
विश्लेषण दिमाग
नहीं कर पा रहा है

वैसे खाली फोन में
आवाज से कोई कैसे
पकड़ा जाता है

हर अधिकारी
के घर में
सी सी टी वी
क्यों नहीं
लगाया जाता है

खुश्बू का भी पता
चल जाया करे
क्या ऎसा कोई
इंस्ट्रूमेंट बाजार में
नहीं आता है

शुरुआत तो
विधायक
निवास से ही
की जानी चाहिये

तस्वीर जनता तक
भी तो जानी चाहिये

खाली पड़ी
विधायक
हास्टल के
पीछे की
गली की
बोतलें भी
किसी ने
एक बार
ऎसी ही
अखबार में
छपवा दी थी

बताया गया था
विरोधी दल
के नेता ने
कबाड़ी से
खरीद कर
रखवा दी थी

फोटो खिंचवा के
अखबार के दफ्तर
को भिजवा दी थी

पता नहीं कुछ भी
समझ में नहीं
आ पा रहा है

शराब को
आखिर
इतना बदनाम
क्यों किया
जा रहा है

मुम्बई में हुआ है
फिर से गैंग रेप
पर
शराब की
खबर को
उससे भी
हाई
टी आर पी
का बताया
जा रहा है

आभारी रहूँगा
अगर आप में
से कोई
मुझे समझा देगा

इस समाचार में
अखबार वाला
क्या हमको
बताना चाह रहा है ।

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

लिखने में अभी उतना कुछ नहीं जा रहा है

सभी के आसपास 
इतना कुछ होता है
जिसे वो अगर
लिखना चाहे तो
किताबें लिख सकता है
किसी ने नहीं कहा है
सब पर लिखना
जरूरी होता है
अब जो लिखता है
वो अपनी सोच
के अनुसार ही
तो लिखता है
ये भी जरूरी नहीं
जो जैसा दिखता है
वो वैसा ही लिखता है
दिखना तो ऊपर वाले
के हाथ में होता है
लिखना मगर अपनी
सोच के साथ होता है
अब कोई सोचे कुछ और
और लिखे कुछ और
इसमें कोई भी कुछ
नहीं कर सकता है
एक जमाना था
जो लिखा हुआ
सामने आता था
उससे आदमी की
शक्लो सूरत का भी
अन्दाज आ जाता था
अब भी बहुत कुछ
बहुतों के द्वारा
लिखा जा रहा है
पर उस सब को
पढ़कर के लिखने
वाले के बारे में
कुछ भी नहीं
कहा जा रहा है
अब क्या किया जाये
जब जमाना ही नहीं
पहचाना जा रहा है
एक गरीब होता है
अमीर बनना नहीं
बल्की अमीर जैसा
दिखना चाहता है
सड़क में चलने से
परहेज करता है
दो से लेकर चार
पहियों में चढ़ कर
आना जाना चाहता है
उधर बैंक उसको
उसके उधार के
ना लौटाने के कारण
उसके गवाहों को
तक जेल के अंदर
भिजवाना चाहता है
इसलिये अगर कुछ
लिखने के लिये
दिमाग में आ रहा है
तो उसको लिखकर
कहीं भी क्यों नहीं
चिपका रहा है
मान लिया अपने
इलाके में कोई भी
तुझे मुँह भी
नहीं लगा रहा है
दूसरी जगह तेरा लिखा
किसी के समझ में
कुछ नहीं आ रहा है
तो भी खाली परेशान
क्यों हुऎ जा रहा है
खैर मना अभी भी
कहने पर कोई लगाम
नहीं लगा रहा है
ऎसा भी समय
देख लेना जल्दी ही
आने जा रहा है
जब तू सुनेगा
अखबार के
मुख्यपृष्ठ में
ये समाचार
आ रहा है  
गांंधी अपनी
लिखी किताब
“सत्य के साथ 

किये गये प्रयोग “
के कारण मृ्त्योपरांत
एक सदी के लिये
कारावास की सजा
पाने जा रहा है ।

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

सुबह एक सपना दिखा उठा तो अखबार में मिला

कठपुतली वाला
कभी आता था
मेरे आँगन में
धोती तान दी
जाती थी एक
मोहल्ले के बच्चे
इक्ट्ठा हो जाते थे
ताली बजाने के
लिये भी तो कुछ
हाथ जरूरी हो
जाते थे
होते होते सब
गायब हो गया
कब पता ही
कहाँ ये चला
कठपुतलियाँ
नचाने वाले
नियम से
चलते हुऎ
हमेशा ही देखे
जाते थे
धोती लांघ कर
सामने भी नहीं
कभी आते थे
कठपुतलियाँ
कभी भी पर्दे
के पीछे नहीं
जाती थी
काठ की जरूर
होती थी सब
पर हिम्मत की
उनकी दाद
सभी के द्वारा
दी जाती थी
धागे भी दिखते
थे साफ साफ
बंधे हुऎ कठपुतलियों
के बदन के साथ
समय के साथ
जब समझ कुछ
परिपक्व हो जाती है
चीजें धुँधली भी हों
तो समझ में आनी
शुरु हो जाती है
कठपुतली वाला
अब मेरे आँगन
में कभी नहीं आता है
कठपुतलियाँ के काठ
हाड़ माँस हो गये हैं
वाई फाई के आने से
धागे भी खो गये हैं
धोती कौन पहनता
है इस जमाने में
जब बदन के कपडे़
ही खो गये हैं
बहुत ही छोटे
छोटे हो गये हैं
कठपुतली का नाच
बदस्तूर अभी भी
चलता जा रहा है
सब कुछ इतना
साफ नजर सामने
से आ रहा है
कठपुतलियाँ ही
कठपुतलियों को
अब नचाना सीख
कर आ रही है
पर्दे के इधर भी हैं
और पर्दे के उधर
भी जा रही हैं
बहुत आराम से
है कठपुतलियाँ
नचाने वाला
अब कहीं और
चला जाता है
उसको इन सब
नाचों में उपस्थिती
देने की जरूरत
कहाँ रह जा रही है
खबर का क्या है
वो तो कुछ होने
से पहले ही
बन जा रही है
क्या होगा ये
भी होता है पता
कठपुतलियाँ सब
सीख चुकी हैं
ऎ आदमी तू
अभी तक है कहाँ
बस एक तुझे ही
क्यों नींद आ रही है
जो सुबह सुबह
सपने दिखा रही है ।

सोमवार, 10 जून 2013

कुछ नहीं हुआ

कुछ नहीं हुआ

 बस एक कूँची
चलाना सिखाने
वाले ने पेपर
कटर घुमा दिया

अपनी ही एक
शिष्या को
सुना है
हस्पताल में
पहुँचा दिया

सुबह से खबर
पर खबर
चल रही थी

इधर से उधर
भी आ और
जा रही थी

इसके मुँह में
बीज थी उसके
मुँह में फूल सा
एक बनता हुआ
दिखा रही थी

अखबार वाले
टी वी वाले
पुलिस वाले
हाँ असली
भूल गया
मेरे घर के
अंदर के ,
डंडे वाले

सभी टाईम
से आ गये थे
अपना अपना
धरम सब ही
निभा गये थे


टी वी में
कच्ची खबर
चलना शुरू
हो चुकी थी


असली खबर
मसाले के साथ
प्रेस में पकना
शुरु हो चुकी थी


कल सुबह
सारे अखबारों
के फ्रंट पेज में
आ भी जायेगी


क्या बतायेगी
ये तो कल को
ही पता
चल पायेगी


बहुत से मेडल
मिल रहे हैं
मेरी संस्था को
उसमें एक को
और
जोड़ ले जायेगी


मैंने जो क्या
किया है कुछ
मुझको क्यों
शरम आ जायेगी


सारी दुनियाँ
में जब हो
रहे हैं हजारों
कत्लेआम
रोज का रोज


एक बस
मेरे घर में
होने को हुआ
तो क्या हुआ


बस इतना सा
ही तो हुआ
और किसी
को कुछ भी
तो नहीं हुआ


चिंता किसी
को बिल्कुल
भी नहीं हुई


ये सबसे
अच्छा हुआ
जवाबदेही
किसी की
नहीं बनती है

थोड़ी सी भी
जब कुछ भी
कहीं भी
नहीं हुआ ।

मंगलवार, 28 मई 2013

सरकार होती है किसकी होती है से क्या ?


अब भाई होती है 
हर जगह एक सरकार बहुत जरूरी होती है 

चाहे बनाई गयी हो 
किसी भी प्रकार 
घर की सरकार दफ्तर की सरकार
शहर की सरकार जिला प्रदेश होते हुऎ
पूरे देश की सरकार 

कुछ ही लोग बने होते हैं 
सरकार बनाने के लिये 
उनको ही बुलाया जाता है हमेशा हर जगह 
सरकार को चलाने के लिये 

कुछ नाकारा भी होते हैं 
बस सरकार के काम करने के तरीके पर 
बात की बात बनाने वाले 

काम करने वाले
काम 
करते ही चले जाते हैं 
बातें ना खुद बनाते हैं 
ना बाते बनाने वालों की बातों से
परेशान 
हो गये हैं कहीं दिखाते हैं 

छोटी छोटी सरकारें 
बहुत काम की सरकारें होती हैं 

सभी दल के लोग
उसमें 
शामिल हुऎ देखे जाते हैं 
दलगत भावनाऎं
कुछ 
समय के लिये अपने अंदर दबा ले जाते हैं 

बडे़ बडे़ काम 
हो भी जाते हैं पता ही नहीं चलता है 
काम करने वाले काम के बीच में
बातों को 
कहीं भी नहीं लाते हैं 

छोटी सरकारों से 
गलतियाँ भी नहीं कहीं हो पाती है 
सफाई से हुऎ होते हैं 
सारे कामों के साथ साथ 
गलतियाँ भी आसानी से सुधार ली जाती हैं 

तैयारी होती है तो 
मदद भी हमेशा 
मिल ही जाती है 
गलती खिसकती भी है तो
अखबार तक पहुँचने 
से पहले ही पोंछ दी जाती है 

ज्यादा परेशानी होने पर 
छोटी सरकार के हिस्से 
आत्मसम्मान अपना जगाते हैं 
अपनी अपनी पार्टी के झंडे निकाल कर ले आते हैं 

मिलकर काम करने को 
कुछ दिन के लिये टाल कर
देश बचाने के 
काम में लग जाते हैं 
बड़ी सरकार की बड़ी गलतियों से
छोटी सरकारों की छत्रियां बनाते हैं 

बडी सरकार में भी 
तो
इनके पिताजी 
लोग ही तो होते हैं 
वो भी तुरंत कौल का गेट बंद कर कुछ दिन 
आई पी एल की फिक्सिंग का ड्रामा 
करना शुरु हो जाते हैं । 

चित्र साभार: https://www.gograph.com/