उलूक टाइम्स: 2014

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

जाते जाते आने वाले को कुछ सिखाने के लिये कान में बहुत कुछ फुसफुसा गया एक साल


बहुत
कुछ बता गया 
बहुत
कुछ सिखा गया 
याद
नहीं है सब कुछ 
पर
बहुत कुछ
लिखा गया एक साल 

और
आते आते 
सामने से साफ साफ 
दिख रहा है अब

सीटी बजाता जाता हुआ एक साल 

पिछले
सालों की तरह 
हौले हौले से
जैसे मुस्कुरा कर

अपने ही 
होंठों के अन्दर अन्दर कहीं
अपने ही
हाथ का अँगूठा 
दिखा गया एक साल 

अच्छे दिन 
आने के सपने 
सपनों के सपनों में भी 

बहुत
अन्दर अन्दर तक कहीं 
घुसा गया एक साल 

असलियत 
भी बहुत ज्यादा खराब 
नहीं दिख रही है 
अच्छे अच्छे हाथों में 
एक नया साफ सुथरा 
सरकारी कोटे से थोक में खरीदे गये 
झाड़ुओं में से एक झाडू‌ 
थमा गया एक साल 

लिखने को 
इफरात से था 
बहुत कुछ खाली दिमाग में था 
शब्द चुक गये लिखते लिखते 
पढ़ने वालों की 
पढ़ने की आदत छुड़ा गया एक साल 

ब्लाग बने कई नये 
पुराने ब्लागों के पुराने पन्नों को 
थूक लगा लगा कर 
चिपका गया एक साल 

अपनी अपनी अपने घर में 
सबके घर की सब ने कह दी 

सुनने वालों को ही बहरा 
बना गया एक साल 

खुद का खाना खुद का पीना 
खुद के चुटकुल्लों पर 
खुद ही हंस कर 

बहुत कुछ 
समझने समझाने की किताबें 
खुद ही लिखकर 

अनपढ़ों को बस्ते भर भर कर 
थमा गया एक साल 

खुश रहें आबाद रहें 
हिंदू रहें मुसलमान रहें 
रहा सहा आने वाले साल में कहें 

गिले शिकवे बचे कुचे 
आने वाले साल में 
और भी अच्छी तरह से लपेटने के नये तरीके 
सिखा गया एक साल । 

चित्र साभार: shirahvollmermd.wordpress.com

भगवान जी भगवान जी होते हैं और नंगे नंगे होते हैं भगवान जी का नंगों से कोई रिश्ता नहीं होता है नंगा भगवान से बड़ा होता है


किसी को कैसे बताऊं अपना धर्म
नहीं बता सकता 

कुछ लोग मेरे धर्म के
शुरु कर चुके हैं रक्त पीना 
वो मुर्गा नहीं खाते हैं ना ही वो बकरी खाते हैं 

समझ में
बस एक बात नहीं आती है 
कि वो कुत्ता क्यों नहींं खाते हैं 
वो कुत्तों से प्यार भी नहीं करते हैं 
ना ही कुत्ते उनको देख अपनी पूँछ हिलाते हैं 

मुझे अपने सर के बाल नोचने हैं 

वो व्हिस्की के नशे में कुछ लोगों को आदेश दे रहे हैं 
भाई तेरी पूँछ और मेरी पूँछ का बाल हरा है 

शुरु हो जा नोचना
गंजो के सिर के बालों को 
सबसे अच्छा होता है 

पैसा उसका धर्म है किसी को नहीं पता होता है 

नंगा होना अपराध नहीं है 
पैसा है तो नंगा हो जा मुनि कहलायेगा 
पैसा नहीं है भिखारी कहलायेगा 

नियम कानून कोर्ट नंगो के लिये नहीं होती है 
नंगों की जय जयकार होती है 

काश कोई नंगा मेरा भी बाप होता 
मैं भी शायद कहीं आबाद होता। 

चित्र साभार: www.fotosearch.com

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

पी के जा रहा है और पी के देख के आ रहा है

अरे ओ मेरे
भगवान जी
तुम्हारा मजाक
उड़ाया जा रहा है
आदमी पी के जैसी
फिलम बना रहा है
जनता देख रही है
मारा मारी के साथ
बाक्स आफिस का
झंडा उठाया
जा रहा है
ये बात हो रही थी
भगवान अल्ला
ईसा और भी
कई कई
कईयों के देवताओं
के सेमिनार में
कहीं स्वरग
या नरक या
कोई ऐसी ही जगह
जिसका टी वी
कहीं भी नहीं
दिखाया जा रहा है
एक देवता भाई
दूसरे देवता को
देख कर
मुस्कुरा रहा है
समझा रहा है
देख लो जैसे
आदमी के कुत्ते
लड़ा करते हैं
आपस में पूँछ
उठा उठा कर
बाल खड़े
कर कर के
कोई नहीं
कह पाता है
आदमी उनको
लड़ा रहा है
तुमने आदमी को
आदमी से
लड़वा दिया
कुत्तों की तरह
पूरे देश का
टी वी दिखा रहा है
भगवान जी
क्या मजा है
आप के इस खेल में
आपकी फोटो को
बचाने के लिये
आदमी आदमी
को खा रहा है
आप के खेल
आप जाने भगवान जी
हम अल्ला जी के साथ
ईसा जी को लेकर
कहीं और किसी देश में
कोई इसी तरह की
फिलम बनाने जा रहे हैं
बता कर जा रहे हैं
फिर ना कहना
भगवान जी का
कापी राईट है
और किसी और का
कोई और भगवान
उसकी नकल बना कर
मजा लेने जा रहा है ।

चित्र साभार: galleryhip.com

रविवार, 28 दिसंबर 2014

फिसलते हुऐ पुराने साल का हाथ छोड़ा जाता नहीं है

शुरु के सालों में
होश ही नहीं था

बीच के सालों में
कभी पुराने साल
को जाते देख
अफसोस करते
और
नये साल को
आते देख
मदहोश होकर
होश खोते खोते
पता ही नहीं चला
कि
बहुत कुछ खो गया

रुपिये पैसे की
बात नहीं है
पर बहुत कुछ
से कुछ भी
नहीं होते होते
आदमी
दीवालिया हो गया

पता नहीं
समझ नहीं पाया
उस समय समझ थी
या
अब समझ खुद
नासमझ हो गई

साल के
बारहवें महीने
की अंतिम तारीख
आते समय
कुछ अजीब अजीब
सी सोच
सबकी होने लगी है
या
मेरे ही दिमाग
की हालत
कुछ ऐसी
या वैसी
हो गई है

पुराने साल
को हाथ से
फिसलते देख
अब रोना
नहीं आता है

नये साल के
आने की
कोई खुशी
नहीं होती है

हाथ में
आता हुआ
एक नया हाथ
जैसे पकड़ा
जाता नहीं है

पता होता है
तीन सौ
पैंसठ दिन
पीछे के
जाने ही थे
चले गये हैं

तीन सौ पैंसठ
आगे के आने है
आयेंगे ही शायद
आना शुरु हो गये हैं

खड़ा भी
रहना चाहो
बीच में
सालों के
बिना
इधर हुऐ
या बिना
उधर हुऐ ही
ऐसा किसी
से किया
जाता नहीं है

इक्तीस की रात
कही जा रही है
कई जमानों से
कत्ल की रात
यही राज तो
किसी के
समझ में
आता नहीं है
जिसके आ
जाता है
वो भी
समझाता नहीं है ।

चित्र साभार: community.prometheanplanet.com

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

इक्तीस दिसम्बर इस साल नहीं आ पाये सरकार के इस फरमान का मान रखें


ख्याल रखें
नया साल इस साल  मनाने की सोच कर
अपने लिये पैदा नहीं करें कोई बबाल
तुगलक और उसके फरमानों की फेहरिस्त
लिख लिखा कर
कहीं पैंट की जेब में सँभाल रखें

इक्तीस दिसम्बर को पूजा करें
हनुमान जी का ध्यान धरें
राम नामी माला ओढ़ कर
तुलसी माला के 108 दाने
दूध में धो कर धूप में सुखाकर
जनता को कुछ नया कर दिखाने का
मन ही मन ठान रखें

बीमार नहीं होना है छुट्टी नहीं लेनी है
पीने पिलाने का कार्यक्रम करें कोई रोक नहीं है
परदा लगा कर एक मोटा
इक्तीस को छोड़ कर किसी और दिन 
अपने घर से कहीं दूर किसी और की गली में करते समय 
ध्यान से अपने चेहरे पर एक रुमाल रखें

जनता के लिये जनता के द्वारा 
जनता के बीच जनता के साथ
तुगलक के नये वर्ष की तुगलकी एक जनवरी 
साल के किसी तीसरे या चौथे महीने से शुरु करते हुऐ
उम्मीदों को खरीदने बेचने की एक
नई दुकान की नई पहल के नये फरमान का
कुछ तो मान रखें ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

इसके जाने और उसके आने के चरचे जरूर होंगे

समाधिस्त होने
की प्रक्रिया में
एक और वर्ष
संत
दो शून्य एक चार
चार की जगह पाँच
पैदा होने को तैयार
संतों की परम्पराओं
में खरा उतरने
कुछ नया करने
कुछ पुराने को कुतरने
सीमा पाँच दिन दूर
होना है कुछ तो
आर या पार
कंघा निकाल ले
तू भी गंजे
बाल ले अपने संवार
कपड़े अपने नहीं तो
पड़ोसी के ही सही
धुलवा कर स्त्री
करा ले नंगे
किसे पता है
किस गली में
कौन मिल जाये
भगवान भी खेलते हैं
जिस जमीन पर
चोर सिपाही और
तालियाँ पीटते हैं
साथ में भिखमंगे
किस के हाथ
क्या लगे
पानी में तक
नजर है
बहुतों की
गंदगी दिखना
बंद हो रही
बंद गले से
गूँगे भी चिल्लाने
की फिराक में हैं
हर हर गंगे
कूड़े की किस्मत
क्या कहें
झेंप रहा हो
शायद फिराक भी
मुँह छिपा कर
कहीं जन्नत के
किसी कवि
सम्मेलन में
रत्नों में रत्न
अगले किसी दशक
के होने वाले
देश रत्न
सड़क पर फिंकवा
रहे हैं ठेका ले कर
सस्ते में फिर भी
नहीं होते दिख रहे हैं
इस सब पर
कहीं भी पंगे
इंतजार है
बेसब्री से
इसके जाने का
और उसके आने का
पिछले में नहीं आये
अगले में मिल जायें
मरे हुऐ सपने
रात की नींद से
निकल कर कभी तो
जिंदा होकर सामने के
किसी मैदान पर
भगवान राम के साथ
पुष्पक विमान से
हैप्पी न्यू ईयर
कहते कहते शायद
कभी जमीन पर उतरेंगे ।

चित्र साभार: november2013calendar.org

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

मैरी क्रिसमस टू यू

पितामह
और
संध्याकाल

गणेश
स्तुति
रामरक्षा
हनुमान
चालीसा
और
ध्यान

कहीं
अंधेरे में
कुछ कुछ
दिखता हुआ

शायद
भगवान

सुबह
की दौड़
बस्ता

प्रार्थना सभा
ईशू के गीत

चमकता
चेहरा
दाड़ी
कुछ कथाऐं

बलिदान
करता हुआ
एक भगवान

पच्चीस दिसम्बर
सजी हुई
एक इमारत

मोमबत्तियाँ
केक चर्च
कहानियाँ
और
कहानियों
में ही कहीं
कोई
एक शैतान

चर्च की
बजती घंटियाँ
मंदिर की
आरतियाँ

सलीब
पर लटका
कोई
एक ईश्वर
गुदा हुआ
कीलों से

रिसता
हुआ खून

बलिदान
करता
एक भगवान

राम में ईशू
ईशू में राम
भगवान ईश्वर
धनुष तलवार
शंखनाद घंटियाँ
मधुर आवाज

बचपन
से पचपन
की ओर
धर्म और
अधर्म

आदमी
और शैतान
आदमी से
आदमी
की कम
होती पहचान

ना दिखे राम
ना मिले ईशू
होते चले
इसके उसके
और
मेरे भगवान

बाकी
कुछ नहीं
रह गया
कहने को

क्या कहूँ
बस
कुछ भूलूँ
कुछ
याद करूँ

हैप्पी
क्रिसमस टू यू
मैरी
क्रिसमस टू यू ।

चित्र साभार: luvly.co

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

पानी रे पानी लिख तो सही तू भी कभी तो कुछ पानी


बहते पानी की एक लहर लिख
और छोड़ दे
पानी में पानी

गंदा है या साफ है
कोई फर्क नहीं पड़ता है
बस पानी होना चाहिये

और उस पानी को
बहने की तमीज होनी चाहिये

मतलब
एक परिभाषा अनुरूप ही होना चाहिये
पानी

जैसे
पानी में रसायन रासायनिक पानी
पानी का मंत्री मंत्री पानी 
पानी का प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री पानी
गंगा का पानी बिना कपड़े का नंगा पानी

पानी
टाई पहने हुऐ एक शरीफ पानी
शोध परियोजना का सबसे महंगा पानी

कुछ भी कह दो कुछ भी लिख दो
किसे पता चलना है कुछ
जब बह गया हो
पानी में पानी

बहुत आसान है
बहुत बेकार का है हर जगह दिखता है
हर जगह मिलता है वही
जो है पानी

लूटता भी नहीं है जिसको हर लुटेरा
सोचता भी कहाँ है
पानी

बहुत अच्छा है
लिख लेना कभी थोड़ा सा
कुछ पानी

किस को पड़ी है
पानी की
कहीं बहता रहे लिखा लिखाया
उसमें कहीं तेरा भी कुछ कहीं
पानी

कितना अच्छा है सोचने में 
कि
तू भी पानी और मैं भी पानी

कहाँ होता है अलग
पानी से कभी कहीं का भी
पानी

लूट खसोट चूस और मुस्कुरा
और फिर कह दे सामने वाले से
कि मैं हूँ
पानी

‘उलूक’
तेरे पानी पानी हो जाने से भी
कुछ नहीं होना है
पानी को रहना है हमेशा ही
पानी ।

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

सुधर क्यों नहीं जाता है छोटी सी बात करना सीखने के लिये क्यों नहीं कहीं दूर चला जाता है


छोटी छोटी बातों के ऊपर बातें बनाने से 
बात बहुत लम्बी हो जाती है 

अपने आस पास की धुंध गहरी होते होते 
धूल भरी एक आँधी हो जाती है 

बड़ी बात करने वाले को देखने सुनने से 
समझ में आ जाता है 

अच्छी 
मगर एक छोटी पक्की बात 
एक छोटे आदमी को 
कहाँ से कहाँ उठा ले जाती है 

एक छोटी बात से चिपका हुआ आदमी 
अपनी ही बनाई आँधी में आँखें मलता रह जाता है 

एक दिमागदार 
छोटी सी बात का मसीहा 
साल के हर दिन क्रिसमस मनाता है 

सोचने में अच्छा लगता है 
और बात भी समझ में आती है 

मगर 
छोटी छोटी बातों को खोजने परखने में 
सारी जिंदगी गुजर जाती है 

अपने आस पास के देश को देख देख कर 
देश प्रेम उमड़ने से पहले गायब हो जाता है 

देशभक्ति करने की सोच बनाने से पहले 
पुजारी को धंधा और धंधे का फंडा 
कदम कदम पर उलझाता है 

समझदार अपनी आँखों पर दूरबीन 
नाक पर कपड़ा और कान में रुई अंदर तक घुसाता है 

उसका दिखाना दूर आसमान में 
एक चमकता तारा 
गजब का माहौल बनाता है 
तालियों की गड़गड़ाहट में 
सारा आसमान गुंजायमान हो जाता है 

‘उलूक’ आदतन अपनी 
अपने अगल बगल के 
दियों से चोरे गये तेल के 
निशानों के पीछे पीछे 
इस गली से उस गली में चक्कर लगाता है 

कुछ भी हाथ में नहीं लगने के बाद 
खीजता हुआ 
एक लम्बे रास्ते का नक्शा बना कर 
यहाँ छाप जाता है 
छोटे दिमाग की छोटी सोच का 
एक लम्बा उदाहरण और तैयार हो जाता है । 


चित्र साभार: www.gograph.com

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

चाय की तलब और गलत समय का गलत खयाल

अपने सामने 
मेज पर पड़े
खाली चाय के एक कप को
देख 
कर लगा

शायद
चाय 
पी ली है
फिर लगा नहीं पी है

अब चाय 
पी या नहीं 
कैसे पता चले
थोड़ी देर सोचा याद नहीं आया
फिर झक मार कर
रसोई की ओर 
चल देने का 
विचार एक बनाया

पत्नी दिखी 
तैयारी में लगी हुई शाम के भोजन की
काटती हुई कुछ हरे पत्ते
सब्जी 
के लिये चाकू हाथ में ली हुई

गैस के चूल्हे के 
सारे चूल्हे दिखे
कुछ तेज और कुछ धीमे जले हुऐ

हर चूल्हे के ऊपर  
चढ़ा हुआ दिखा एक बरतन
किसी से निकलती हुई भाप दिखाई दी
और किसी से आती हुई कुछ कुछ
पकने उबलने की आवाज सुनाई दी

बात अब एक कप 
चाय की नहीं रह गई
लगा जैसे
जनता के बीच 
बिना कुछ किये कराये
एक मजबूत सरकार की हाय हाय की हो गई

थोड़ी सी हिम्मत जुटा 
पूछ बैठा

कुछ याद है 
कि मैंने चाय पी या नहीं पी
पिये की याद नहीं आ रही है
और दो आँखें 
सामने से एक
खाली कप चाय का दिखा रही हैं

श्रीमती जी ने 
सिर घुमाया
ऊपर से नीचे हमे पूरा देखकर
पहले टटोला 
फिर अपनी नजरों को
हमारे चेहरे 
पर टिकाया 

और कहा

बस यही
होना 
सुनना देखना बच गया है
इतने सालों में 
समझ में कुछ कुछ आ भी रहा है

पढ़ पढ़ कर
तुम्हारा 
लिखा लिखाया
इधर उधर कापियों में किताबों में दीवालों में
सब नजर के सामने घूम घूम कर आ रहा है

पर बस
ये ही समझ में 
नहीं आ पा रहा है
किसको कोसना पड़ेगा
हो रहे
इन सब 
बबालों के लिये

उनको
जिनको 
देख देख कर
तुम लिखने लिखाने का रोग पाल बैठे हो
या
उन दीवालों किताबों 
और कापियों को
जिन पर
लिखे हुऐ 
अपने कबाड़ को
बहुत कीमती कपड़े जैसा समझ कर
हैंगर में टाँक बैठे हो

कौन समझाये 
किसे कुछ बताये

एक तरफ एक आदमी
डेढ़ सौ करोड़ को पागल बना कर
चूना लगा रहा है

और
एक तुम हो
जिसे आधा घंटा पहले पी गई चाय को भी
पिये का 
सपना जैसा आ रहा है

जाओ
जा कर 
लिखना शुरु करो
फिर किसी की कहानी का 
कबाड़खाना

चाय
अब दूसरी 
नहीं मिलने वाली है
आधे घंटे बाद 
खाना बन जायेगा
खाने की मेज पर आ जाना ।

चित्र साभार: pngimg.com

रविवार, 21 दिसंबर 2014

खुद को ढूँढने के लिये खोना जरूरी है

एक नहीं
कई बार
होता है
आभास
भटकने का

समझ में
भी आता
है बहुत


साफ साफ
दिखता
भी है


जैसे

साफ
निर्मल
पानी में
अपना
अक्स ही
इनकार
करता हुआ
खुद ही का
प्रतिबिम्ब
होने से

बस
थोड़े से
लालच
के कारण
जिसे
स्वीकार
करना
मुश्किल
होता है
और
हमेशा
की तरह
कोशिश
व्यर्थ
चली
जाती है

बेचने की
एक
सत्य को
पता होने
के
बावजूद भी
कि
सत्य कभी
भी नहीं
बिका है

बिकता
हमेशा
झूठ ही
रहा है
और
वो भी
कम कम
नहीं
हमेशा ही
बहुत ऊँचे
दामों में
बिना किसी
बाजार
और
दुकान में
सजे हुऐ

जिसे खरीदते
समय किसी
को भी कभी
थोड़ी सी भी
झिझक
नहीं होती है

सोच और
कलम के
लिये कभी
कहीं कोई
बाजार
ना हुआ है
ना कभी होगा

फिर भी
गुजरते हुऐ
बाजारों के बीच
लटके हुऐ
झूठे इनामों
सम्मानों
दुकानों की
चकाचौंध

और

ठेकेदारों की
निविदाओं के
लिये लगाई
जा रही
बोलियों से
जब भी
कलम लेखन
और
लेखक का ध्यान
भटकता है

थोड़ी देर के
लिये ही सही
सत्य नंगा
हो जाता है

खुद का खुद
के लिये
खुद के ही
सामने

और

रास्ता
दिखना
शुरु हो
जाता है
तेज रोशनी
से चौधिया
के अंधी
हो गई
आँखो
को भी ।


चित्र साभार: www.gograph.com

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

पढ़ना जरूरी नहीं हर खत पढ़ दिया तो पढ़ कर मुँह नहीं बनाने का

ठहर जाना
कलम का
विश्राम
लेखन का
विचार शून्य
हो जाना
लेखक की खुद
की सोच का
संकेत नींद के
खुद ही
सो जाने का
ख्वाब देखने में
ऐसा भी कभी
किसी दिन
मौज में ही सही
कोई सौदा नहीं
नफा नुकासन
उठाने का
जैसे होते होते
किसी बात के
हो जाने का
खबर का
फैलने से पहले
सिकुड़ जाने का
वाकये का
अपनी नजर से
गुजरते गुजरते
आकाश
हो जाने का
कुछ भी किया
जा सकने की
ताकत पैदा
करने की
अपने अंदर
कोशिश करने
की एक पहल
कर लेने की
सोच बना
ले जाने का
मुद्दे खोजने
से अच्छा
मुद्दे पकड़ कर
जमीन पर
बैठ जाने का
पूरा अंगद
हो जाने से
पहले उसके
पैर का चित्र
बना बना कर
हर किसी के
दिमाग में
बैठाने का
हर किसी को
नहीं होता है
तजुर्बा
हर तरह का
‘उलूक’
समझने की
कोशिश में
अपने ही
आसपास की
हवा धूल
मिट्टी पानी
बहुत ही उम्दा
रास्ता है
बिना खबर
किये किसी को
दीवाना हो कर
किसी भी बात पर
बेखबर हो कर
खुद की दीवानगी का
झंडा खुद ही
लहराने का
और ढिंढोरा पीटते
चले जाने का
खाली पड़ी
सालों से
किसी गली में
जा कर
बिना आवाज
के सही
कुछ देर
अपने ही गाल
अपने ही हाथों
से बजाने का ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

मजाक है

उसके आते ही
सबको इतनी 
शरम आई 
कि सबने 
छोड़ दी 
सिगरेट दारू
गुटखा सुरती
मुझे विश्वास 
नहीं रह 
गया अब 
खुद पर 
मेरे झूठ 
मुझे कब से
लात मार
रहे हैं 
और हंस
रहे हैं 
चिल्ला रहे हैं 
बेवकूफ बेवकूफ
मुझे पता है
जो बात
उस पर
ध्यान देना 
अच्छी बात
नहीं है 
और आपको भी
इस बात  पर 
ज्यादा ध्यान 
नहीं देना चाहिये 
टिप्प्णी करने से 
भी परहेज करें ।

रविवार, 14 दिसंबर 2014

क्या किया जाता है जब सत्य कथाओं की राम नाम हो रही होती है

ज्यादातर कही
जाने वाली
कथायें
सत्य कथायें
ही होती हैं
जिंदगी
पता नहीं
चल पाता है
कब एक बच्चे
से होते होते
जवाँ होती है
समझ में आने
के लिये
बहुत सी बातें
चलते चलते
सीखनी होती है
कुछ कथनी करनी
एक मजबूरी
होती है और
कुछ करनी कथनी
जरूरी होती है
रात किसी दिन
सोते समय
अचानक बाहर
आवाज होती है
जब कुछ
आसामाजिक
तत्वों की
अंधेरे में
खुद ही के
किसी साथी से
मुटभेड़ होती है
समझ में आती
है बात जब तक
शाँति हो
चुकी होती है
बाहर निकल कर
देखने पर
दिखता है
मार खाई हुई
खून से लथपथ
एक जान
आँगन में अपने
पड़ी होती है
कुछ समझ में
नहीं आता है
और फिर पास
के थाने के
थानेदार से
दूरभाष पर
बात होती है
थानेदार को
घटना से ज्यादा
अपने बारे में
बताने की
पड़ी होती है
साथ में
फँला फँला से
उसके बारे में
पूछ लेने की
राय भी होती है
मुँह पर हँसी और
समझ अपनी
रो रही होती है
अपनी पहचान
भी उसको
बताने की
बहुत ज्यादा
खुद को भी
पड़ी होती है
कैसे बताया
जाये उसको
बस उसकी
उधेड़बुन सोच
बुन रही होती है
देश के प्रधानमंत्री
की डेढ़ सौ करोड़
की सूची की तरफ
उसका ध्यान
खींचने के लिये
किसी एक
तरकीब की
जरूरत हो
रही होती है
एक बड़े बन
चुके आदमी
के सामने
एक छोटे आदमी
की छोटी सोच
बस अपने
ही घर में
डरी डरी सी
रो रही होती है ।

चित्र साभार: weeklyvillager.com

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

जमाने को सिखाने की हिम्मत गलती से भी मत कर जाना

ये अपना अपना
खुद का खुद क्या
लिखना लिखाना
कभी कुछ
ऐसा भी लिख
जिसका कहे
कोई जरा
इंपेक्ट फेक्टर
तो बताना
इधर से टीप
उधर से टीप
कभी छोटा सा
कभी लम्बा
सा बना ना
बिना डरे घबराये
दो चार संदर्भ
लिखे के नीचे
से छोटे छोटे
अक्षरों में कुछ
छपवा ले जाना
इधर उस पर
कुछ पैसा बनाना
उधर इस पर
इनाम कुछ
कह कहलवा
कर उठवाना
अपने आप खुद
अपनी सोच से
कुछ लिख लिखा
लेने वालों का
जनता के बीच
मजाक बनवाना
ऐसा भी क्या
एक झंडा उठाना
जिसे फहराने
के लिये
कहना पड़ जाये
हवा से भी
आ जा ना
आ जा ना
समझ नहीं सका
बेवकूफ तू
ना समझ
पायेगा कभी भी
ये जमाना भी है
उसी का जमाना
अपनी कहते
रहते हैं मूरख
‘उलूक’ जैसे
कुछ हमेशा ही
तू उसके नीम
कहे पर चाशनी
लगा कर
हमेशा मीठा
बना बना कर
वाह वाही पाना
हींग लगेगी
ना फिटकरी
ना तेरी जेब से
कभी भी इस में
कुछ है जाना
लगा रह इसका
उस से कहते हुऐ
उसका इस से
कहते चले जा ना ।

चित्र साभार: www.clker.com

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

कभी कर भी लेना चाहिये वो सब कुछ जो नहीं करना होता है अपने खुद के कानूनो में

कुछ देर के
लिये ही सही
अच्छा है
बहुत दूर को नहीं
अपने आस पास
को छोड़
अपने से थोड़ा
कुछ दूर को ही
देखने सुनने
की कोशिश करना
रोज देखते देखते
वही अपने या
कहीं से थोड़ा सा
भी अपने नहीं भी
कुछ गोल कुछ लम्बे
कुछ हसीन और
कुछ रोते चेहरे
यहाँ तक खुद को
भी टाल देना
हो सके तो खुद से
सुबह सवेरे देख लेना
दूर एक पहाड़ को
उस पर कहीं से
उठ रहे धुऐं को
या फिर पहाड़ की
घुमावदार सड़को
पर उतरती चढ़ती
चीटियों के आकार
की गाड़ियों
को ही सही
और दिन भर
खुश हो लेना
बंदरों के उछलने
कूदने में अपने
ही आस पास
नहीं टोकना
झुँझला कर उनको
उखाड़ने देना
खेत पर मेहनत से
अपनी लगाई हुई
फसल को
और शाम होते होते
ध्यान से सुनने
की कोशिश करना
झिंगुरों की तीखी
आवाज के साथ
जुड़े संगीत को
खोजना सियारों की
चिल्लाने में भी
कोई राग
मस्जिद से आ रही
अजान में खोजना
कोई मंत्र ध्वनी
नहीं खोलना रेडियो टी वी
समाचारों के लिये
मना कर देना फेकने को
हाँकर को कुछ दिन
शहर की खबरों से
पटे अखबारों को
अपने आस पास
बहुत अच्छा होता हुआ
या बहुत अच्छा करने वाले
बहुत दिनों तक
अच्छा अच्छा महसूस
कराते रहें और
वही सब अच्छा
अपने दिमाग में
भर भरा कर
धो धुला कर
सोच के नीरमा से
रोज लाकर रख देना
यहाँ सूखने के लिये
धूप में जैसे
भीगे हुऐ कपड़े
किसी दिन वो सब
भी करना या
कर लेने की
कोशिश कर लेना
जो नहीं करना चाहिये
जो नहीं होना चाहिये
और जो नहीं आता हो
कहीं से भी सोच में
किसी भी तरह से
अपने कानूनों को
तोड़ कर देखना
और भुगतना
सजा भी खुद से
खुद को दी गई
देख तो सही कर के
अच्छा होता है
बहुत कभी कभी ।

चित्र साभार: socialtimes.com

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

कितने आसमान किसके आसमान


मेरे अपने खुद के कुछ खुले आसमान
खो गये पता नहीं कहाँ

याद आया अचानक आज
शाम के समय
डूबते सूरज और नीड़ की ओर
लौटते 
पक्षियों की चहचहाट के बीच

सीमाओं से बंधे हुऐ नहीं
लम्बे काले गेसुओं के बीच
चमचमाते हुऐ चाँद को
उलझा 
के रखे हुऐ हो कोई छाया सी

जैसे माँ रखती हो अपने बच्चे को
छुपा कर अपने आँचल की छाँव में

किसे याद नहीं आयेगी ऐसे अद्भुत आसमानों की

बहुत उदास हो उठी एक शाम के समय
किसी दिन अचानक

जब कई दिन से महसूस करता हुआ
गुजरता 
आसमान के नीचे से एक राही

जिसे नजर आ रहा हो
हर किसी का नोचना आसमान को
अपने पैने नाखूँनो से
खीचने के लिये उसे बस अपने और अपने लिये
आसमान के दर्द और चीख
उसके विस्तार में विलीन हो जाने के लिये हों जैसे

पता नहीं कैसे कैसे भ्रम जन्म लेते हैं
हर सुबह और हर शाम
और कितने आसमानों का हो जाता है कत्ल

दर्द ना तारे दिखाते हैं ना चाँद ना ही सूरज
उनका आना जाना बदस्तूर जारी रहता है

बेबस आसमान बेचारा
एक ऐसी चादर भी तो नहीं हो सकता
टुकड़ा टुकड़ा फटने के लिये 

ना चाहते हुऐ भी 
बट जाना
हर किसी की सोच के अनुसार उसके लिये ।

चित्र साभार: vector-magz.com

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

रंग देखना रंग पढ़ना रंग लिखना रंग समझना या बस रंग से रंग देना कुछ तो कह दे ना

रंग दिखाये
माँ बाप ने
चलना शुरु
किया जब
पावों पर अपने
लड़खड़ाते हुऐ
सहारे से
उँगलियों के
उनकी ही
हाथों की

रंग कम
समझ में आये
उस समय पर
आई समझ में
तितलियाँ
उड़ती उड़ती
पेड़ पौंधे फूल
एक नहीं
बहुत सारे
कौआ काला
कबूतर सफेद

अच्छाई और बुराई
खुशी और दुख:
प्यार और दुलार
रंगीन तोते मोर
और होली में
उड़ते अबीर
और गुलाल

रंग बने इंद्र के
धनुष भी पर
युद्ध कभी भी नहीं
हमेशा उमड़े
भाव रंगीन

रंगों के साथ
रंगों को देखकर
छूकर या
आत्मसात कर
बिना भीगे भी
रंगों से रंगों के
रंगो का देवत्व
कृष्ण का हरा
या राम का हरा

कभी नहीं हरा सका
रंगो को रंगों
के साथ खेलते हुऐ
जैसे अठखेलियाँ
रंगों के ही
धनुष तीर और
तलवार होने
के बावजूद
लाल रंग देख
कर कभी
याद नहीं आया
खून का रंग तक

सालों गुजर गये
ना माँ रही
ना बाप रहे
पूछें किससे
सब बताते बताते
क्यों छिपा गये
रंगों के उस रंग को

जिसे देख कर
निकलने लगें
आँसू उठे दिल
में दर्द और
महसूस होने लगे
रंग का रंग से
अलग होना
समझ में आने लगे
काले का काला
और सफेद का
बस और बस
सफेद होना
रंग का टोपी
झंडा मफलर
और कपड़ा होना

एक नटखट
परी सोच का
बेकाबू बदरंग
जवान होना
रंग जीवन
के लिये
या जीवन
रंग के लिये
हो सके तो
तुम्हीं पूछ लेना
समझ में आ जाये
कभी कुछ इसी तरह
‘उलूक’

रंग को समझना
अगर कुछ भी
तो कुछ रंगों को
मुझे भी एक बार
फिर से समझा देना ।

चित्र साभार:
background-pictures.picphotos.net

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

किसी के दिल को कैसे टटोला जाता है कहीं भी तो नहीं बताया जाता है


बहुत कोशिश 
और
बहुत मेहनत 
करनी पड़ती है 
सामने वाले के दिल को 
टटोलने के लिये 

पहले तो
दिल 
कहाँ पर है 
यही अँदाज नहीं हो पाता है 

दूसरा 
अपना 
नहीं किसी और का 
दिल टटोलना होता है 
इसलिये 
उससे पूछा भी नहीं जाता है 

डाक्टर दिल का 
साथ लेकर 
खोजना शुरु करने का भी 
एक रास्ता नजर आता है 

लेकिन
डाक्टर 
तो उस दिल की 
बात समझ ही नहीं पाता है 
जिसे पान के पत्ते की शक्लों में 
ज्यादातर फिल्मों के पोस्टरों में 

या फिर
किसी 
स्कूल के पास 
के पेड़ो की छालों में 

ज्यादातर 
कीलों से खोद कर उकेरा जाता है 

इस सब के बीच में 
कई कई जमाने गुजर जाते हैं 
और बेचारा अपना खुद का दिल 
खुद से ही भूला जाता है 

अच्छा नहीं होता है 
बहुत ज्यादा उधेड़बुन में उलझ कर रहना 

और फिर
क्यों 
टटोलना किसी और का दिल 
होते हुऐ अपने खुद के पास भी 

अच्छा होता है 
अपने ही दिल से पूछ लेना 
अपने ही दिल का हाल भी 
कभी कभी 

वो बात अलग है 
खाली दिल को टटोलने में 
मजा उतना नहीं आता है 

ना ही कुछ 
मिलता है 
खुद के दिल को टटोलने के बाद 

वैसे भी
खाली 
जगहों को आखिर 
कितनी बार किसी से खाली खाली में 
बस एक खालीपन को ढूँढने के लिये 
टटोला जाता है । 

चित्र साभार: www.freelargeimages.com

रविवार, 7 दिसंबर 2014

लिखे हुऐ को लिखे हुऐ से मिलाने से कुछ नहीं होता है

अंगूठे के
निशान
की तरह

किसी
की भी
एक दिन
की कहानी

किसी
दूसरे की
उसी दिन
की कहानी


जैसी
नहीं हो पाती है

सब तो
सब कुछ
बताते नहीं है

कुछ की
आदत होती है

आदतन
लिख दी जाती है

अब
अपने रोज
की कथा
रोज लिखकर

रामायण
बनाने की
कोशिश
सभी करते हैं

किसी
को राम
नहीं मिलते हैं

किसी
की सीता
खो जाती है

रोज
लिखता हूँ
रोज पढ़ता हूँ

कभी
अपने लिखे
को उसके लिखे के
ऊपर भी रखता हूँ

कभी
अपना
लिखा लिखाया

उसके
लिखे लिखाये से
बहुत लम्बा हो जाता है

कभी उसका
लिखा लिखाया
मेरे लिखे लिखाये की
मजाक उड़ाता है

जैसे
छिपाते छिपाते भी
एक छोटी चादर से

बिवाईयाँ
पड़ा पैर
बाहर
निकल आता है

फिर भी
सबको
लिखना
पड़ता ही है

किसी को
दीवार पर
कोयले से

किसी को
रेत पर
हथेलियों से

किसी को
धुऐं और
धूल के ऊपर
उगलियों से

किसी को
कागज पर
कलम से

कोई
अपने
मन में ही
मन ही मन
लिख लेता है

रोज का
लेखा जोखा
सबका
सबके पास
जरूर
कुछ ना कुछ
होता है

बस
इसका लिखा
उसके लिखे
जैसा ही हो
ये जरूरी
नहीं होता है

फिर भी
लिखे को लिखे
से मिलाना भी
कभी कभी
जरूरी होता है

निशान से
कुछ ना भी
पता चले

पर उस पर
अंगूठे का पता
जरूर होता है ।

चित्र साभार: raemegoneinsane.wordpress.com

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

कुछ भी यूँ ही

शब्द बीजों
से उपजी
शब्दों की
लहलहाती
फसल हो

या सूखे
शब्दों से
सूख चुके
खेत में
पढ़े हुऐ
कुछ
सूखे शब्द

बस
देखते रहिये

काटने की
जरूरत
ना होती है

ना ही
कोशिश
करनी चाहिये
काटने की

दोनों ही
स्थितियों में
हाथ में कुछ
नहीं आता है

खुशी हो
या दुख:
शब्द बोना
बहुत आसान
होता है

खाद
पानी हवा
के बारे में
नहीं सोचना
होता है

अंकुर
फूटने
का भी
किसी को
इंतजार नहीं
होता है

ना ही
जरूरत
होती है

सोच
लेने में
कोई हर्ज
नहीं है

रात के देखे
सुबह होने तक
याद से
उतर जाते
सपनों की तरह

पौंधे
उगते ही हैं

सभी
नहीं तो
कुछ कुछ
उगने
भी चाहिये

अगर
बीज बीज
होते हैं
अंकुरित
होते जैसे
तो हमेशा
ही महसूस
किये जाते हैं

पर
अंकुरण होने
से लेकर
पनपने तक
के सफर में

खोते भी हैं
और
सही एक
रास्ते पर
होते होते
मंजिल तक
पहुँच भी
जाते हैं

कुछ भी हो
खेत बंजर
होने से
अच्छा है
बीज हों भी
और
पड़े भी रहें

जमीन
की ऊपरी
सतह पर
ही सही

दिखते भी रहें
उगें नहीं भी

चाहे किसी को
भूख ना भी लगे

और भरे पेट कोई

देखना भी ना चाहे
ना खेतों की ओर

या
बीजों को
कहीं भी
खेत में

या
कहीं किसी
बीज की
दुकान पर
धूल पड़े कुछ
थैलों के अंदर

शब्दों
के बीच
दबे हुऐ शब्द

कुचलते हुऐ
कुछ शब्दों
को यूँ ही ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

लेखक पाठक गिनता है पाठक लेखक की गिनती को गिनता है

लिखते लिखते

कभी
अचानक
महसूस होता है

लिखा ही
नहीं जा रहा है

अब
लिखा नहीं
जा रहा है

तो
किया क्या
जा रहा है

अपने
ही ऊपर
अपना ही शक

गजब
की बात
नहीं है क्या

लेकिन
कुछ सच
वाकई में
सच होते हैं

क्यों होते हैं
ये तो
पता नहीं
पर होते है

लिखते लिखते

कब
लेखक
और पाठक

दोनो शुरु
हो चुके होते हैं
कुछ गिनना

क्या
गिन रहे होते हैं
ये तो नहीं मालूम

पर
दिखता
कुछ नहीं है

गिनने
की आवाज
भी नहीं होती है

बस
कुछ लगता है
एक दो तीन चार
सतरह अठारह
नवासी नब्बे सौ

अब
लेखक
कौन सी
गिनती कर
रहा होता है

गिनतियाँ

लिख
लिख कर
क्या गिन
रहा होता है

पाठक
क्या पढ़
रहा होता है

लेखक
का सौ
पाठक का नब्बे
हो रहा होता है

लेकिन हो
रहा होता है

ये
लेखक भी
जानता है

और
लेखक
की गिनतियों को

पाठक भी
पहचानता है

बस
मानता नहीं है
दोनों में से एक भी

गिनतियों
की बात को

बहस जारी
रहती है

गिनतियों में
ही होती है

गिनतियाँ
गड़बड़ाती है

सौ
पूरा होने
के बावजूद
अठहत्तर पर
वापिस
लौट आती है

लेखक
और पाठक
दोनो झल्लाते है

मगर
क्या करें
मजबूर होते हैं

अपनी अपनी
आदतों से
बाज नहीं आते हैं

फिर से
गिनना
शुरु हो जाते हैं

स्वीकार
फिर भी
दोनों ही
नहीं करते हैं

कि गिनती
करने के लिये

गिनते गिनते
इधर उधर
होते होते

बार बार
एक ही
जगह पर
गिनती करने
पहुँच जाते हैं ।

चित्र साभार: vecto.rs

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

बिना नोक की कील जैसा लिखा नहीं ठोका जा सकता सोच में कितना भी बड़ा हो हथौड़ा

 

हो गये होते होते
आठ पूरे और एक आधा सैकड़ा
कुछ नहीं किया जा सका
केकड़े में नहीं दिखा
चुल्लू भर का भी परिवर्तन

दुनियाँ बदल गई
यहाँ से वहाँ पहुँच गई
उसे कहाँ बदलना क्यों बदलना
किसके लिये बदलना

वो नहीं बदलेगा
जिसको रहना अच्छा लगता रहा हो
हमेशा से ही एक केकड़ा

खुद भी टेढ़ा मेढ़ा सोच भी टेढ़ी मेढ़ी
लिखा लिखाया कभी नहीं हो पाया
एक सवार खड़ा रहा पूँछ हिलाता हुआ 
सामने से हमेशा तैयार
एक उसकी खुद की लेखनी का लंगड़ा घोड़ा

रहा लकीर का फकीर 
उस लोटे के माँनिंद
पैंदी उड़ गई हो जिसकी
किसी ने मार कर कोड़ा उसे बहुत बेदर्दी से हो तोड़ा

बेपेंदी की सोच कुछ लोटों की लोट पोट

मवाद बनता रहा 
बड़ा होता चला गया
जैसे बिना हवा भरे ही एक पुराना छोटा सा फोड़ा

सजा कर लपेट कर
एक शनील के कपड़े में
बना कर गुलाब छिड़क कर इत्र

हवा में हवाई फायर कर
धमाके के साथ
एक नयी सोच की नयी कविता ने
ठुमके लगा ध्यान अपनी ओर इस तरह से मोड़ा

उधर का उधर रह गया इधर का इधर रह गया
जमाने ने 
मुँह काले किये हुऐ को ही ताजो तख्त नवाज कर छोड़ा

शुक्रिया जनाब यहाँ तक पहुँचने का

‘उलूक’ जानता है पर्दे के पीछे से झाँकना

जो शुरु किया था किसी जमाने में
किसी ने आज तक
उस सीखे सिखाये को
सिखाने के धंधे का
अभी भी बाँधा हुआ है 
अपने दीवान खाने पर
अकबर के गधे को उसकी पीठ पर लिखकर घोड़ा ।

चित्र साभार: http://www.fotosearch.com/