उलूक टाइम्स: लोग
लोग लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
लोग लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

विनम्र श्रद्धांजलि ब्लागर निलॉय नील

जमघट
हर जगह
एक नहीं
कई सारे

एक जैसी
आकाँक्षाऐं
एक जैसी
महत्वाकाँक्षाऐं

एक सी
आवाजें
और शोर
तीखे संगीत
और गीतों के
सायों से कहीं
दूर बहुत दूर
कुकर्म की
उर्जा का जोर

सियार
एक नहीं
बहुत सारे
एक हो कर
कुचलने
को आमादा
तिमिर से
ढक कर
निचोड़ कर
हर नई भोर

कहाँ कहाँ
देखे कोई
क्या कुछ सोचे
क्या करे कोई

हताशा
अपने आस पास
बहुत नजदीक भी

हताशा
दूर बहुत दूर
उसी तरह की वही

क्रूरता
लालच
बेरहमी की
जय जयकार
से खुश हो रहे
लोग दर लोग

फिर से
एक बार
कुचल दी गई
हत्या कर
एक और
आवाज

बोलने
लिखने की
आजादी को
करने के
लिये कमजोर

पर रुक
नहीं पाये
कभी
इस तरह
दीवानों
के कारवाँ

उठ
खड़े होंगे
तेरे जैसे
एक नहीं
हजारों
हजारों
कई ओर

श्रद्धांजलि
नम आँखों
के साथ
निलॉय नील

शहादत
मारेगी
जरूर
तुम्हारी
बहुत जोर

उठेगी
आवाजें
उसी तरह
सत्य की
सत्य के लिये
बहुत सारी
पुरजोर

श्रद्धांजलि
और नमन
की आवाज है
आज हर ओर ।

चित्र साभार: www.patrika.com

सोमवार, 27 जुलाई 2015

नमन श्रद्धाँजलि विनम्र हे महापुरुष महाइंसान माननीय डा0 ऐ पी जे अब्दुल कलाम

एक अहसास है
और रहेगा भी
हमेशा तेरे लिये
कहीं दिल के किसी
एक कोने में कहीं
नहीं बता सकता
सही सही किस
जगह और कहाँ
लिख नहीं सकता
लिखना भी कठिन
है कुछ भी यहाँ
लिख भी दिया
समझेगा कौन
उस जगह जहाँ
शब्द ढूढने में
माहिर हैं और
कम नहीं बहुत
हैं सारे हैं लोग
यहाँ से लेकर
गिनती नहीं है
कहाँ से कहाँ
इंसान और
इंसानियत
डूबती रही है
एक बार नहीं
कई कई बार
पता नहीं
कहाँ कहाँ
तुझ जैसी पवित्र
आत्माऐं ही
होती हैं रही हैं
सदियों से डूबते
मरते हुऐ अँधेरे
में डूबते को तिनके
के सहारे की
जैसी प्राण रोशनी
होता रहा है जिससे
जीवित मरता जहाँ
अवसान हुआ होगा
पवित्र शरीर का
अमर आया था है
और रहेगा नाम
धरती पर आकाश
पर तेरा जैसा सच में
इंसानियत से भरा
इंसानों में सबसे
बड़ा इंसान दूसरा
इसके बाद अब
कब दिखेगा
कौन जाने यहाँ ।

चित्र साभार: pages.rediff.com

मंगलवार, 19 मई 2015

शब्दों की श्रद्धांजलि मदन राम

चपरासी मदन राम
मर गया
उसने बताया मुझे
मैंने किसी
और को बता दिया
मरते रहते हैं लोग
इस दुनियाँ में
जो आता है
वो जाता भी है
गीता में भी
कहा गया है
मदन राम भी
मर गया
मदन राम
चाय पिलाता था
जब भी उसके
विभाग में
कोई जाता था
अब चाय पिलाना
कोई बड़ी बात
थोड़ी होती है
मदन राम जैसे
बहुत से लोग हैं
काम करते हैं
मदन राम
शराब पीता था
सभी पीते हैं
कुछ को छोड़ कर
मदन राम को
किसी ने कभी
सम्मानित
नहीं किया कभी
अजीब बात
कह रहे हो
चपरासी कोई
कुलपति या
प्रोफेसर जो
क्या होता है
मदन राम मरा
पर मरा जहर पी कर
ऐसा सुना गया
थोड़ा थोड़ा रोज
पी रहा था
सब कुछ ठीक
चल रहा था
क्यों मर गया
एक बार में ही पीकर
शायद शिव
समझ बैठा होगा
अपने आप को
शोक सभा हुई
या नहीं पता नहीं
परीक्षा और वो भी
विश्वविद्यालय की
बड़ा काम बड़े लोगों का
देश के कर्णधार
बनाने की टकसाल
एक मदन राम के
मर जाने से
नहीं रुकती है
सीमा पार भी तो
रोज मर रहे हैं लोग
कोरिया ने अरबों
डालर दे तो दिये हैं
कुछ तो कभी
मौज करना
सीखो ‘उलूक’
श्रद्धांजलि
मदन राम ।

चित्र साभार: www.gograph.com

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

बापू इस पुण्यतिथी पर आप ही कुछ नया कर लीजिये

बापू अब तो
कुछ नया
कर लीजिये
बहुत पुरानी
हो गई
धोती आपकी
नई डिजायन
कर करवा कर
डिजायनर
कर लीजिये
इतना गरीब
भी नहीं रहा
अब देश कि
आप धोती से
ही बदन
छुपाते रहें
आठ दस लाख
की सिल्क धोती
कम से  कम
पहन कर
जनता के
सामने आने
की अपनी
आदत कर लीजिये
जन्मदिन के तोहफे
जन्मदिन पर फिर
सुझा देंगे आपको
अभी बहुत दिन हैं
पुण्यतिथी पर
पहनियेगा नहीं भी
कोई बात नहीं
खरीद कर
बिकवाने की बात
ही कर लीजिये
गुजरात की या
हिंदुस्तान की सफेद
धोती हो ये भी
जरूरी नहीं
कौन पूछ रहा है
ग्लोबलाइजेशन
का फंडा सिखा
कर लंदन से ही
आयात कर लीजिये
हमने तो ना
आप को देखा बापू
ना ही आपकी
धोती को कभी
कहीं नजर तो
आइये कभी
धोती हाथ में
लेकर ही सही
आमना सामना
तो कर लीजिये
आदत हो गई है
‘उलूक’ को अब
झूठ के साथ
सफल प्रयोग
कर लेने की
कुछ हमें कर
लेने दीजिये नया
नये जमाने की
नयी चोरियाँ
आप बस फोटो में
बने रहने की
अपनी आदत अब
पक्की कर लीजिये ।

चित्र साभार: shreyansjain100.blogspot.com

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

गांंधी सुना है आज अफ्रीका से लौट के घर आ रहा है

घर वापसी
किस किस की
कहाँ कहाँ से और
कब कब होनी है
कोई भी हो
लौट ही तो रहा है
तेरी सूरत किसलिये
रोनी रोनी है
नया क्या कोई
कुछ करने जा रहा है
तेरे चेहरे पर पसीना
क्यों आ रहा है
गांंधी जी
ना मैंने देखे
ना तूने देखे
बस सुनी सुनाई
बात ही तो है
क्या कर गये
क्या कह गये
किस ने समझा
किस ने बूझा
चश्मा लाठी
चप्पल बचा के
रखा हुआ है और
हमारे पास ही तो है
कौन सा उनका भूत
उन सब का प्रयोग
फिर से करने
आ रहा है
कर भी लेगा तो
क्या कर लेगा
गांंधी जी भी
एक मुद्दा हो चुका है
झाड़ू की तरह
उसे भी प्रयोग
किया जा रहा है
बहुत कुछ छिपा है
इस पावन धरती पर
धरती पकड़ भी हैं
बहुत सारे
हर कोई एक नया
मुद्दा खोद के
ले आ रहा है
सूचना क्रांंति का
कमाल ही है ये भी
मुद्दे के सुलझने
से पहले दूसरा मुद्दा
पहले मुद्दे का
घोड़ा बना रहा है
घोड़े से नजर
हटा कर सवार
को देखने देखने तक
एक नया मुद्दा
तलवार का
सवार मुद्दे के हाथ में
थमाया जा रहा है
चिंता हो रही है तो
बस इस बात की
आज के दिन गांंधी के
लौटने की खबर का
मुद्दा गरमा रहा है
कहीं सच में ही
आ गये लौट
के गांंधी जी उस
पवित्र जमीन पर
जहाँ आज हर कोई
अपने आप को
गाँधी बता रहा है
क्या फर्क पड़ना है
उन गांंधियों को
जिनका धंधा आज
ऊँचाईयों पर छा रहा है
दूर आसमान से
देखने से वैसे भी
दिखता है जमीन पर
गांंधी हो या हाथी हो
कोई चींटी जैसा कुछ
इधर से उधर को
और उधर से इधर को
आ जा रहा है
नौ जनवरी को
पिछले साल तक
‘उलूक’ तक भी
नहीं जानता था
इस साल वो भी
गांंधी जी के
इंतजार में
बैठ कर
वैष्णव जन
तो तैने कहिये
गा रहा है ।

चित्र साभार: printablecolouringpages.co.uk

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

ये सब चंद्रमा सुना है कराता है एक ही चीज को दिखा कर एक को कवि एक को पागल बनाता है




आदरणीय देवेंद्र पाण्डेय जी ने कहा,

“आप के लेखन की निरंतरता प्रभावित करती है” 

और
ठीक उसी समय 
कहीं लिखा देखा 

आदरणीय ज्योतिष सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी जी कह रहे हैं :-

“एक होता है साहित्‍यकार और एक होती है साहित्‍य की दुकान। अब चूंकि मैं ज्‍योतिषी हूं तो ज्‍योतिष की बात भी कर लेते हैं। साहित्‍यकारों में एक होते हैं कवि, मैंने आमतौर पर कवियों का चंद्रमा खराब ही देखा है। बारहवें भाव में चंद्रमा हो तो जातक एक कॉपी छिपाकर रखता है, जिसमें कविताएं भी लिखता है”। 

मुझे भी महसूस हुआ 
कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है ? 
आप का चंद्रमा कहाँ है 
आपने कभी देखा है ? 
*******************

कोशिश
बहुत होती है 
हाथ रोकने की 
कि
ना लिखा जाये 

इस तरह 
रोज का रोज 

सब कुछ 
और
कुछ भी 
पर

चंद्रमा का 
मुझको कुछ 
पता नहीं था 

किसी ने
समझाया 
भी
नहीं था कभी 

ना ही मेरे 
चंद्रमा को ही 

वो तो अच्छा रहा 
जब देख बैठा 
मैं भी
भाव उसका 
बारहवें भाव पर 
तो नहीं था 

ना ही नजर थी 
उसकी उस भाव पर 
जहाँ होने से ही 
कोई कवि हो 
बैठता था 

वैसे
होता भी कैसे 
मेरे खानदान 
में तक जब कोई 
कवि कभी भी 
पैदा नहीं हुआ था 

छिपा कर रखी हो 
कहीं कोई कापी 
किसी ने कभी भी 
ऐसा भी नहीं था 

हाँ दुकान एक 
जरूर
पता नहीं 
कब और कैसे 
किस जुनून में 
खोल बैठा था 

वैसे
किसी ने 
बेचने के लिये भी 
कभी कुछ 
नहीं कहा था 

बेच भी नहीं पाया 
कुछ भी किसी को 

ग्राहक
कोई भी 
कहीं भी कभी भी 
मिला ही नहीं था 

अच्छा हुआ 
चंद्रमा बाराहवाँ 
जो नहीं था 

उसे भी पता था 
मुझे कभी भी 
कवि होना नहीं था 

पागल
होने ना होने 
का पता नहीं था 

ज्योतिष ने 
सब कुछ
भी तो 
कह देना नहीं था । 

चित्र साभार: http://www.picturesof.net

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

'मोतिया’ तू जा चुका था देर से पता चला था कल नहीं लिख सका था आज लिख रहा हूँ क्योंकि तुझ पर लिखना तो बहुत ही जरूरी है


ख्वाब देखने में कोई हर्ज भी नहीं है 
ना ही ख्वाब अपना किसी को बताने में 
कोई लिहाज है 

बहुत पुराना है 

आज तेरे जाने के बाद चूँकि 
आ रहा कुछ याद है 

मैंने जब जब तुझे देखा था 
मुझे कुछ हमेशा ही लगा था 
कि जैसे कोई ख्वाब देखना चाहिये 
और जो बहुत ही जरूरी भी होना चाहिये 

जरूरी जैसे तू और तेरा आना शहर को 
और शहर से वापस अपने गाँव को रोज का रोज
चला जाना बिना नागा 

हमेशा महसूस होता था जैसे 
तुझे यहाँ नहीं कहीं और होना चाहिये था 

जैसे कई लोग पहुँच जाते है 
कई ऐसी जगहों पर 
जहाँ उन्हें कतई नहीं होना चाहिये 

तू भी तो इंटर पास था 
मंत्री वो भी उच्च शिक्षा का 
सोचने में क्या जाता है 

और सच में 

मैंने सच में कई बार 
जब तू सड़क पर बैठा 
अखबार पढ़ रहा होता था 
बहुत गहराई से इस पर सोचा था 

जो लोग तुझे जानते थे या जानने का दावा करते थे
उनकी बात नहीं कर रहा हूँ 

मैं अपनी बात कर रहा हूँ 

तू भी तो मेरा जैसा ही था 
जैसा मैं रोज कुछ नहीं करता हूँ 

तेरी दिनचर्या मेरी जैसी ही तो होती थी हमेशा से 

रोज तेरा कहीं ना कहीं शहर की किसी गली में मिलना 

तेरी हंसी तेरा चलने का अंदाज 
सब में कुछ ना कुछ अनोखा 
तू बुद्धिजीवी था 
ये मुझे सौ आना पता था 

अफसोस 
मैं सोच सोच कर भी नहीं हो पाया कभी भी 
और अभी भी मैं वहीं रह गया 

तू उठा उठा 
और उठते उठते 
कहाँ से कहाँ पहुँच गया 

तेरे चले जाने की खबर देर से मिली 

जनाजे में शामिल नहीं हुआ 
अच्छा जैसा नहीं लगा 

कोई नहीं 
तू जैसा था सालों पहले वैसा ही रहा 
और वैसा ही उसी तरह से 
इस शहर से चला गया 
हमेशा के लिये 

तेरी कमी खलेगी 
जब रोज कहीं भी किसी गली में 
तू नहीं मिलेगा 

पर याद रहेगा 

कुछ लोग सच में बहुत दिनों तक याद रह जाते हैं 

हम उनकी श्रद्धाँजलि सभा नहीं भी कराते हैं 
शहर के संभ्रांत लोगों की भीड़ में 
तब भी । 

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

बापू आजा झाड़ू लगाने जन्मदिन के दिन बहुत सा कूड़ा कूड़ा हो गया

बापू तेरा भी था
आज जन्मदिन
और मेरा भी
हर साल होता था
इस साल भी हो गया

पिछले सालों में
कभी भी नहीं
हो पाया वैसा

जैसा आज
कुछ कुछ ही नहीं
बहुत कुछ होना
जैसा हो गया

बापू तेरा हुआ
होगा कभी
या नहीं भी
हुआ होगा

पर मेरा दिल तो
आज क्या बताऊँ तुझे
झिझक रहा हूँ बताने में
झाड़ू झाड़ू होते होते
पूरा का पूरा बस
झाड़ूमय हो गया

झाडू‌ लगाती थी
कामवाली घर पर
रोज ही लगाती थी
मेरे घर का कूड़ा
बगल के घर की  

गली में सँभाल कर

भी जरूर आती थी

झाड़ू देने वाली
नगरपालिका की
दिहाड़ी मजदूर
अपने वेतन से बस
झाड़ू ही तो एक
खरीद पाती थी

झाड़ू क्राँति के
आ जाने से उसका
भी लगता है कुछ
जीने का मकसद
कम से कम आज
तो हो ही गया

झाड़ू उसके हाथ का
तेरे नाम पर आज
लगता है जैसे एक
स्वतंत्रता की जंग
करता हुआ यहाँ
तक पहुँच कर
शहीद हो गया

केजरीवाल नहीं
भुना पाया झाड़ू को
झाड़ू सोच सोचकर
भी कई सालों तक

गलती कहाँ हुई थी
उससे आज बहुत
बारीकी से देखने से
उसे भी लगता है
कुछ ना कुछ
महसूस हो गया

छाती पीट रहा होगा
आज नोचते हुऐ
अपने सिर के बालों को

झाड़ू नीचे करने के
बदले हाथ में लेकर
ऊपर को करके
क्यों खड़ा हो गया

चिंतन करना ये तो
अब वाकई बहुत ही
जरूरी जैसा हो गया

बहुत सी चीजें काम
की हैं कुछ ही के लिये
और बेकाम की
हैं सबके लिये

ये सोचना अब
सही बिल्कुल भी
नहीं रह गया

इस साल दायें
हाथ में झाड़ू ने
दिखाया है कमाल

अगले साल देख लेना
बापू तेरा लोटा भी
लोगों के शौचालय
से निकल कर

बेपेंदी लुढ़कना छोड़
बायें हाथ में आकर
आदमी के
झाड़ू की तरह
झाड़ू के साथ
कंधे से कंधा मिला
कर आदमी का
एक नेता हो गया

जो भी हुआ है
अच्छा हुआ है
बाहर की सफाई
धुलाई के लिये

‘उलूक’ तेरे लिये
अपने अंदर की
गंदगी को सफाई से
अपने अंदर ही
छुपा के रख लेने का
एक और अच्छा
जुगाड़ जरूर हो गया

बापू तू अपने चश्में
और लाठी का रखना
सावधानी से
अब खयाल
और मत कह बैठना
अगले ही साल
चुरा लिया किसी
बहुत बड़े ने
बड़ी होशियार से

और तू चोर चोर
चिल्लाने के लायक
भी नहीं रह गया ।

चित्र साभार: http://vedvyazz.blogspot.in/2011/01/of-service-and-servitude_17.html

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

कुर्सियों में बैठ लेने का मतलब बातें करना ही नहीं होता है हमेशा

एक तरफ
रोज ही
आकर
बैठ जाना
कुछ लोगों का
एक दूसरे के
अगल बगल
की कुर्सियों में


और सेंकना
दोपहर की
तेज धूप में
सीमेंट के खम्बों
की छाँव को

वो इसलिये नहीं
कि कुर्सियाँ
खाली हैं
और कहीं
बैठने की जगह
भी नहीं है 
उनके लिये 

या फिर वो
सब मित्र हैं
एक दूसरे के

उनकी
मजबूरी है
एक दूसरे के
साथ बैठना

और करना
देश और
देशभक्ति
की बातें

या बताना
अपनी अपनी
ईमानदारी की
परी कथाऐं
एक दूसरे को

कोई नहीं
सुनता है
किसी की

सबको
कुछ ना कुछ
कहना होता है
कहते रहना होता है

और
सबके कान
लगे होते हैं
एक दूसरे के
मुँह से निकलती
हुई बातों में

जैसे पता नहीं
किसी एक क्षण
किसी की जबान
फिसल जाये

और
उसके अपने
मतलब का
कुछ
निकल कर
हाथ में आ जाये

और दूसरी ओर
कुछ लोग
और होते हैं

जिनको
कहीं बैठना
नहीं होता है

बस
देखना होता है
कुर्सियों को

पहले खाली
फिर कुछ बैठे
हुऐ लोगों के साथ
रोज ही

जैसे उनके
भविष्य की चिंता
का बोझ लिये हुऐ
कुर्सियाँ लगी होती हैं

बहुत सी खाली
जगहों पर
या इसी तरह
कई और दूसरी
जगहों पर भी

जो रोज रख
दी जाती हैं
सुबह सुबह बाहर

और संभाल
दी जाती है
शाम को
आने वाले कल
के दिन के लिये
फिर से बाहर
निकाल कर
रखने के लिये ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com/

शनिवार, 13 सितंबर 2014

मित्र “अविनाश विद्रोही” आपके आदेश पर इतना ही कुछ मुझ से आज कहा जायेगा

मित्र आपने
आदेश दिया है

उस पर
और उसके
चित्र के पाँव
सड़क पर
दिखा दिखा कर
धो कर पीने
वालों पर
कुछ लिखने
को कहा है

आपके
आदेश का
पालन करने
जा रहा हूँ

मैं आपके
उस सबसे
बड़े महान
के ऊपर
आज कुछ
लिखने ही
जा रहा हूँ

नाम
इसलिये नहीं
ले पा रहा हूँ

कहीं
इस बदनामी
का फायदा भी वो
उठा ले जायेगा

बहुत दिन
पोस्टरों में
रहा है गली गली
इस देश की

आने वाले
समय के
मंदिरों की
मूर्ति हो जायेगा

आज
साईं बाबा
को बाहर
फेंका जा रहा है

कल
हर उस
खाली जगह
पर वो
खुद ही जाकर
अपना बैठ जायेगा

उसके
चमचों की
बात कर के क्यों
अपना दिमाग
खराब करते हो

अभी
बहुत सालों तक
हर गली हर पेड़ पर
वो ही लटका हुआ
नजर आयेगा

इस देश
की किस्मत
अच्छी कही जाये
या बुरी

तेरी मेरी
किस्मत में
फुल स्टोप
उसके चमचे
का कोई चमचा
ही लगायेगा

सोच कर
आया था
‘उलूक’

पाँच साल
पूरे हो चुके
ब्लाग पर

अब शायद
गली की
बातों को छोड़
घर की रोशनी पर
कुछ लिखा जायेगा

किसे
मालूम था
फेस बुक के
संदेश बक्से में

तेरा संदेश
उस पर
और
उसके चमचों पर
कुछ ना कुछ
लिख ले जाने
को उकसायेगा

उसके
पाँच सालों पर है
तेरी काली नजर

पर
अगले पाँच साल भी
उसका कोई ना कोई

चमचा
तुझे जरूर
कहीं ना कहीं रुलायेगा

क्या पता

उसकी
हजार फीट
की प्रतिमा
बनाने के
नाम पर
कुछ लोहा
माँगने ही
तेरे घर ही
आ जायेगा ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com/

रविवार, 20 जुलाई 2014

सब इनका किया कराया है फोटो लगा रहा हूँ इनको ढूँढ लो भाई

एक मित्र
जब दूर देश
से आकर
मेरे घर पहुँचे

अपनी
जिज्ञासा
को शांत
करने के
लिये पूछ बैठे

भाई
ये रोज रोज
लिखने लिखाने
की बात

आपके
दिमाग में
कब से और
कैसे है आई

कुछ
काम धन्धा
नहीं है क्या
आपके पास

जो इस
फालतू के
काम में भी
आपने अपनी
एक टाँग है अढ़ाई

अब
क्या बतायें
कैसे बतायें तुझे
मेरे भाई

कि एक
करीबी मित्र
श्री श्री 1008
अविनाश वाचस्पति जी
की है ये सारी लगी लगाई

कभी
हो जाते हैं
अन्नाभाई

बहुत मन मौजी हैं

कभी
बन जाते हैं
मुन्नाभाई

पता नहीं
यहीं कहीं
कभी किसी दिन

चार पाँच
साल पहले
कमप्यूटर ने ही
हमारी और उनकी
टक्कर थी करवाई

लिखने
लिखाने के
खुद मरीज हैं पुराने

हमारे
कुछ लिखे को
देख कर
उनके दिमाग में
शायद कोई
खुराफत थी
उस समय चढ़ आई

चढ़ा गये
‘उलूक’ को
झाड़ के पेड़ पर
लिखने लिखाने का

वाईरस
कर गये थे सप्लाई

और
तब से खुद तो
गायब हो गये
नहीं दिये कहीं दिखाई

‘उलूक’
चालू हुआ
तब से रुका नहीं

गाड़ी
की थी उन्होने
लिखने की उसे
बिना ब्रेक के सप्लाई

बहुत
देर हो चुकी
बात बहुत देर से
समझ में है आई

उसके बाद
लिखना
बंद कर दो

जनता
बोर हो चुकी है
लिखी उनकी चिट्ठी
पोस्ट आफिस तक
सुना है पहुँची भी है

पोस्टमैन ने
पता नहीं क्यों
घर तक अभी तक
भी नहीं है पहुँचाई ।

बुधवार, 2 जुलाई 2014

श्रद्धांजलि मौन होती है जाने वाला सुकून से चल देता है (सुशील, रायपुर, के निधन पर)

मृत्यू तो रोज 
ही होती है
रोज मरता है
एक आदमी
कहीं अंदर से
या बाहर से
आभास होता है
परवाह नहीं
करता है
सूखी हुई
आँखों से कुछ
टपकता भी है
ना नमकीन
होता है ना
मीठा होता है
बस कुछ होने
भर का एक
अहसास होता है
चिर निद्रा में
उसे भी सोना
ही होता है जो
उम्र भर सोने
की कोशिश में
लगा रहता है
ऐसी एक नहीं
ढेर सारी मौतों
का कोई भी
प्रायश्चित कहीं
भी नहीं होता है
इन सभी मृत्युओं
के बीच अपने किसी
बहुत नजदीकी
की मृत्यू से
आहत जब
कोई होता है
कोई शब्द
नहीं होता है
बस एक
मौन रोता है ।

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

सार्वभौमिक है प्रश्न वाचक चिन्ह भाषा कुछ और होने से क्या हो जाता है

बहुत सारे प्रश्न 
ऐसे ही रोज
बेकार के समय
में उठते हैं
साबुन के
बुलबुलों की तरह
और फूट जाते हैं
काले सफेद
रंग बिरंगे
सुंदर कुरूप
लुभावने डरावने
और पता नहीं
कैसे कैसे
हर बुलबुला
छोड़ जाता है
एक प्रश्न चिन्ह
और वही
प्रश्न चिन्ह कहीं
किसी और प्रश्न के
बुलबुले में जा कर
लटक जाता है
ऐसे प्रश्नों के
उत्तर भी
होते हैं या नहीं
पता नहीं चल पाता है
आज तक किसी को
लिखते हुऐ नहीं देखा
कहीं भी अपने
ऐसे ही प्रश्नो को
सब के पास
सबके अपने अपने
प्रश्न होते हैं
पूछ्ना तो बहुत
दूर की बात
कोई दिखाना तक
नहीं चाहता है
शायद छपे कभी
कोई ऐसे ही प्रश्नों
की कोई किताब कहीं
और पता चले
अलग अलग तरह के
लोगों के अपने अपने
अलग अलग प्रश्न
क्योंकि आपस में
मिलजुल कर किये
काम से बहुत कुछ
बहुत बार निकल
कर आता है
‘उलूक’ के लिये तो
प्रश्न हमेशा ही
ब्रह्म हो जाता है
बस दूसरों में से
प्रश्न खोदने वाले
लोगों के लिये
एक प्रश्न जैसे
किसी का आखेट
करना हो जाता है
प्रश्न ही बुझाता है
उनकी रक्त पिपासा
प्रश्न पूछते ही
ऐसे लोगों के चेहरे पर
रक्त दौड़ जाता है
ऐसा रक्तिम चेहरा
और संतोष भाव ही
उनको ईश्वर
तुल्य बनाता है
वो बात अलग है
उनके ईश्वर बनते ही
सामने वाला डरना
शुरु हो जाता है
पर किसी का
विद्वान होना भी
यहीं पर उसके
प्रश्नो के कुदाल
से ही नजर आता है
क्योंकि उनके पास
तो बस उत्तर
ही होते हैं
किसी को इस
बात से क्या करना
अगर वो खुद को
प्रश्न वाचक चिन्ह
के साथ लटका
हुआ हमेशा पाता है ।

शनिवार, 21 जून 2014

कहानी का सच सुना ना या सच की कहानी बता ना

बहुत से बहुत सारे
खूबसूरत लोग
बहुत कायदे से
शराफत से
रहने वाले लोग
बहुत ही अच्छे लोग
जिनके चमकते जूते में
ही नजर आ जाता हो
अपना चेहरा भी
बहुत दूर से
कपड़ों में ना कोई
सिलवट ना कोई
दाग धूल और धब्बा
चेहरे में बस
मुस्कुराना और
केवल मुस्कुराना
कुछ नहीं कहना
बस सिर हिलाना
किसी को भी
इस दृश्य को
देखने से ही
अच्छा महसूस होना
शुरु हो जाना
एक नहीं एक
के साथ दूसरा
दूसरे के साथ तीसरा
तीसरे के साथ चौथे
का जुड़ते चले जाना
बहुत होता है
उसके आसपास
जिसको इन सब
सलीकों को
सीखने का कभी भी
ना मिला हो
कोई बहाना
लेकिन किसी को
नहीं नजर आ पाता है
खूबसूरती के साथ
 इन सब का
फाँसी की गाँठ
लगी हुई एक रस्सी
को कोट की ऊपर की
जेब में छिपाना
बस एक सिरा जिसका
बाहर की तरफ
थोड़ा सा दिखाना
रोज कहीं किसी का
तिल तिल
कर मर जाना
किसी भी जनाजे का
सड़क से निकल
कर नहीं जाना
मौत की कोई खबर
अखबार में ना आना
ना कोई आहट
ना कोई शोर
ना कोई अफसाना
मुस्कुराहटें
अपनी जगह पर
रस्सियाँ
अपनी जगह पर
कितनी बारहवीं
कितनी तेरहवीं का
यूँ ही हो जाना
जूते की चमक से
चेहरे की दमक का
बढ़ता चले जाना
‘उलूक’ तेरे बस का
कुछ नहीं था कभी भी
तू फिर किसी दिन
पूछ्ने के लिये
यहां चले आना
अभी मस्त है जमाना
बिना आवाज की
चीखों का बहुत जगह
बज रहा है गाना
सोच जरा सा
फाँसी की गाँठ
वाली रस्सी को
दिखाने से
किसी को कभी
जेल पड़ा है जाना ।

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

‘माफ करना हे पिता’ लेखक ‘शँभू राणा’ प्रकाशक ‘नैनीताल मुद्र्ण एवं प्रकाशन सहकारी समिति’ वितरक ‘अल्मोड़ा किताब घर, अल्मोड़ा’ मूल्य 175 रु मात्र

बहुत शोर
होता है 
रोज ही
उसका
जिसमें
कहीं भी
कुछ नहीं
होता है

मेरे कस्बेपन
से गुजरते हुए
बिना बात के
बात ही बात में
शहर हो गये
जैसे शहर में

जिसकी किसी
एक गली में
कोई ऐसा भी
कहीं रहता है

जो ना अपना
पता देता है
किसी को
ना किसी के
पास उसके
होने का ही
कोई पता
होता है

शर्मीला
या खुद्दार
कहने से
भी कुछ
नहीं होता है

दुबला पतला
साधारण
सा पहनावा
और
आठवीं
तक चलने
की बात
बताता
और
सुनाता चला
होता है

कलम के
बादशाह
होने वाले
के पास
वैसे भी
खूबसूरती
कुछ
नाज नखरे
बिंदास
अंदाज और
तख्तो ताज
जैसा कुछ भी
नहीं होता है

ज्यादा
कुछ नहीं
कहना होता है

जब
शँभू राणा
जैसा बेबाक लेखक
कलम का जादूगर
सामने से होता है

शहर है गली है
गाँव है आदमी है
या होने को है कुछ
कहीं बस जिसको
पता होता है

हर चीज की नब्ज
टटोलने का आला
जिसकी कलम में
ही कहीं होता है

कुछ लोग होते हैं
बहुत कुछ होते हैं
जिनको पढ़ लेना
सबके बस में ही
नहीं होता है

कई तमगों
के लिये बने
ऐसे लोगों
के पास ही
इस देश में
कोई तमगा
नहीं होता है । 

रविवार, 30 मार्च 2014

‘स्व. श्रीमति मंजू तिवारी स्मृति व्याख्यान' ‘हृदय रोग–समस्या एवं निदान’ वक्ता- डा ओ. पी. यादव

उसने कही  
दिल वालों
ने समझी
आज थोड़ा सा
दिल की बात
हुई मेरे
शहर में

कुछ दिल वाले
दिल अपना अपना
लिये हुऐ पहुँच गये
आज के निमंत्रण में
दिल की हालत
और हालात पर
हुई कुछ बातें
कुछ बहस
सुनी सभी ने
पूछे प्रश्न भी
थोड़े बहुत पर
बात पूरी होने
के बाद अंत में
दिल की चीर फाड़
और सिलाई में
दक्ष विशेषज्ञ
बातों बातों में
पूरा ही दिल
खोल कर दिखा गया
कहाँ कहाँ है
खतरा दिल के
फेल हो जाने का
तस्वीर पर तस्वीर
दिखा दिखा कर
सब कुछ समझा गया
सिगरेट तम्बाकू
खान पान
लाईफ स्टाईल के
स्टाईल पर
सब कान लगा कर
सुनते हुऐ नजर आये
वाईन व्हिस्की बियर
थोड़ी थोड़ी पी लेने
की बात पर
सहमत होते डाक्टर
के सुझाव पर
बहुत से चेहरे
गुलाबी लाल होते
हुऐ खिल आये
शरीर दिमाग और
आत्मा का दिल से
किस तरह
का है वास्ता
फलसफा आध्यात्म
से भी कहीँ ना कहीं
जोड़ने वाले जोड़ते
से भी नजर आये
घर समाज देश के
दिलों की धमनियों में
भरते हुऐ वसा और
तेल भरने वाली
महान आत्माओं
के चिंतन से
चिंतन की टक्करों
के चक्करों में
पड़ने की बातों को
क्यों फालतू में
यहाँ जोड़ा जाये
इसी बात पर
जोर देता हुआ
धड़कते हुऐ दिल
की धड़कन को
“उलूक” ने सोचा
और काहे को
बढ़ाया जाये
घर शहर मौहल्ले
के दिलों को
टटोलने से कुछ
नहीं होने वाला है
देश के दिल पर
होने वाले अटैक पर
क्यों ना आजकल
विशेष ध्यान देने की
बात को कान में
अब हर किसी के
फूँका जाये ।

गुरुवार, 27 मार्च 2014

आर आई पी डा. जे सी पंत

बहुत बार समझाया
दिखा कर उदाहरण
कई बार बातों बातों
में सब कुछ बताया
अभी समय है
बना ले किसी
सोशियल नेट्वर्किंग
साईट पर अपना
एक प्रोफाईल
नहीं समझ में आया
बिना बनाये कुछ भी
दुनियाँ से ही चल दिया
हाय कितनी बड़ी गलती
तुझे पता नहीं तू कर गया
वर्किंग साईट पर क्या
होना था कुछ अनोखा
वही हुआ जिसके होने का
अब एक फैशन
सा  है हो गया
पता चलते ही
शोक सभा करने का
फैसला लिया गया
किसी को बिना बताये
एक कागज में कुछ
टाईप कर लिया गया
सैकडॉं कामगारों में से
किसी को तंग किये बगैर
इधर उधर जाते कुछ
लोगों को बस एक
इशारा सा किया गया
दस बारह होते ही
कागज से शोक संदेश
पढ़ दिया गया
तेरा तो किसी को
कुछ भी पता नहीं चला
कहाँ से कब किधर के
रास्ते ऊपर को चला गया
समय किसी के पास
कहाँ है अब रह गया
रोज का रोज कभी
एक जाता है कभी
पता चलता है
दो चार दिन बाद भी
ये भी गया और
वो भी गया
अर्थी उठाने और
कंधा लगाने की बात
बहुत पुरानी हो
गई है अब तो
राम नाम सत्य है
कह कर जाता हुआ
एक हुजूम देखना तक
दूभर सा हो गया
यहाँ कहीं लगा होता
तेरा फोटो कहीं भी अगर
नहीं रह जाता कहने
को इतना सा भर
कोई नहीं आया और
नहीं कुछ भी
किसे से कह गया
तुझे पता नहीं चलता
ये तो हमें भी पता
अब चल ही गया
पर कुछ देखने वाले
देख लेते तेरी
फोटो के नीचे से
दो चार ने कम से कम
उसे लाईक कर दिया
कुछ लिख लेते हैं
कुछ कुछ कभी कभी
श्रद्धांजलि या आर आई पी
फोटो के नीचे लिखना
बहुत कामन सा
अब हो ही गया
क्यों नहीं बना गया
फेसबुक में अपना
प्रोफाईल कम से कम
बुरा लग रहा है
ऐसे कैसे तू
इस दुनियाँ से
ही चल दिया । 

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

समझदार लोग़ मील के पत्थरों को हटाते हुऐ ही आगे जाते हैं

छोटी छोटी
दूरियों तक
साथ चले
कुछ लोग

कभी एक
लम्बे समय
के बाद
फिर कभी
दुबारा भी
नजर आ
जाते हैं

बहुत कुछ
बदल चुका
होता है

उनका
अन्दाज
उनकी चाल
गजब की
एक तेजी
के साथ

कहीं बहुत
दूर निकले
हुऐ खुद
अपने से ही
अजनबी
जैसे एक
हो जाते हैं

समय
सभी को
मौका देता है

लेकिन
सबके
बस में नहीं
होता है
उसे भुनाना
अपने लिये
अकेले
साथ लेकर
किसी ना
किसी का
सहारा
कूदते फाँदते
हवा हवा में
हवा जैसे ही
हो जाते हैं

सहारे
नहीं रखे
जाते हैं
हमेशा के
लिये
साथ में
कभी भी

मील के
पत्थर
बना बना
कर रास्ते
में ही कहीं
टिका दिये
जाते हैं

लौटते हैं
बहुत कम
लोग उसी
रास्ते से
जिस
रास्ते से
किसी दिन
बहुत पहले
चले जाते हैं

समझना
हर किसी
का आना
और
चले जाना
नहीं इतना
आसान
होता है

जहाँ
बहुत से
लोग
अपने साथ
नये रास्ते
हर बार
ही ले कर
चले आते हैं

कुछ नहीं
कर सकता
है “उलूक”
देख कर
किसी का
करना या
नहीं करना

जमाना जब
बदल चुका है
अपने रास्ते
खुद ही कई

उस जगह
जहाँ
कफन भी
सिले सिलाये
मिलने लगे हैं
और
जेब भी
दिखती हैं
उसमें
कई सारी
यहां तक
बटन तक
जिनमें अब
कई सारे
लगाये जाते हैं ।

बुधवार, 22 जनवरी 2014

"बहुत खूब ... बहते हुए शब्द कहीं दूर निकल गए पर अंत में फिर मुकाम पे ले आए आप उन्हें" दिगम्बर नसवा जी ने कहा "उलूक उवाच पर" क्या खूब कहा

'उलूक' की 20/01/2014 की पोस्ट

पर दिगम्बर नसवा जी की
टिप्पणी
"बहुत खूब ...
बहते हुए शब्द कहीं दूर निकल गए पर अंत में फिर मुकाम पे ले आए आप उन्हें ..."
पर निकले उदगार

भोगना और भोगे हुऐ को
शब्दों में  जैसे का तैसा उतार देना
हो ही नहीं पाता है

लाख कोशिश करने के बाद भी
कहीं ना कहीं
थोड़ा सा ही सही भटका ही जाता है

मनस्थिति
समय के साथ समय के अनुसार
रूप बदलने में बहुत माहिर होती है
सच कहें तो बहुत ही शातिर होती है

अपनी ही होने से भी कुछ नहीं होता है

पता होता है हर एक को अपने बारे में
बहुत कुछ साफ साफ
अपना देखा अपना लिखा
अपना जैसा ही होता है

बात तो तब होती है
जब किसी और की समझ में
थोड़ा थोड़ा सा उसमें से
निथर कर आ जाता है

लिखने और पढ़ने की आदत
हर कोई तो डाल नहीं पाता है
 
बहुत सुखी होता है
जो ना लिखता है ना पढ़ता है
बस कुछ का कुछ करता चला जाता है

एक ही शब्द घूमता हुआ एक आईना हो जाता है
एक ही के लिये हर चक्कर के बाद
एक नया अर्थ ले आता है

बिरले होते हैं जिनके लिये 
हर रास्ता एक पहचान हो जाता है

चलते चलते
कौन खो रहा है कहाँ
और कहाँ पहुँच कर
फिर से अपने को पा जाता है

सागर की गहराई को नाप लेना किसी चीज से

एक बड़ी बात हो जाने में नहीं आता है

बात तो तब होती है
जब पानी के रंग को देख कर कोई
पानी की कहानी घर बैठे बैठे सुना जाता है

पढ़ना फिर समझना किसी और के मन को
उसके लिखे शब्दों से
हर ऐसे वैसे को कहाँ आ पाता है

पर जो सीख लेता है करते करते लिखते पढ़ते
बिना काटे और चखे
कितना मीठा है एक फल
वही और वही बता पाता है

भटकना भी सँभलने का एक तरीका हो जाता है
अगर कोई प्यार से समझा ले जाता है ।

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

किसी दिन तो कह मुझे कुछ नहीं है बताना

वही
रोज रोज 
का रोना 
वही
संकरी 
सी गली 
उसी गली का अंधेरा कोना 

एक
दूसरे को 
टक्कर मार कर निकलते हुऐ लोग 

कुछ कुत्ते 
कुछ गायें कुछ बैल 

उसी से 
सुबह शाम गुजरना 
गोबर में जूते का फिसलना 

मुंह बनाकर 
थूकते हुऐ 
पैंट उठा कर संभलते हुऐ 
उचक उचक कर चलना 

कुछ सीधे
कुछ 
आड़े तिरछे लोगों का
उसी 
समय मिलना 

इसी सब का 
दस के सरल से पहाड़े की तरह
याद 
हो जाना 

इसी
खिचड़ी 
को
बिना 
नमक तेल मसाले के 
रोज का रोज 
बिना पूछे 
किसी के सामने परोस आना 

एक दो बार 
देखने के बाद 
सब समझ में आ जाना 

खिचड़ी 
खाना तो दूर 
उसे देखने भी नहीं आना 

पता ही नहीं 
चल पाना 
गली का रोम रोम में घुस जाना

एक
चौड़ी 
साफ सुथरी 
सड़क की कल्पना का सिरा
गली 
में ही खो जाना 

गली के
एक 
कोने से दूसरी ओर 
उजाले में निकलने से पहले ही अंधेरा हो जाना 

समझ में 
आने तक बहुत देर हो जाना
गली का 
व्यक्तित्व में ही शामिल हो जाना 

गली का 
गली में जम जाना 

उस दिन 
का इंतजार 
कयामत का इंतजार हो जाना 
पता चले जिस दिन 

छोड़ दिया 
है
तूने भी 'उलूक'
अब 
उस गली से  आना जाना ।

चित्र साभार: https://www.alamy.com/