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सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

कर कुछ उतारने की कोशिश तू भी कभी 'उलूक'

कोशिश
कर तो सही
उतारने की
सब कुछ कभी

फिर दौड़ने
की भी
उसके बाद
दिन की
रोशनी में ही
बिना झिझक

जो सब
कर रहे हैं
क्यों नहीं हो
पा रहा है तुझसे

सोचने का
विषय है तेरे लिये

उनके लिये नहीं
जिन्होने उतार
दिया है सब कुछ
कभी का
सब कुछ के लिये

हर उतारा हुआ
उतारे हुए के साथ
ही खड़ा होता है
तू बस देखता
ही रहता है

दोष
किसका है
उतार कर तो देख
बस एक बार
शीशे के सामने ही सही

अकेले में
समझ सकेगा
पहने हुऐ
होने के नुकसान

जाति उतारने
की बात नहीं है

क्षेत्र उतारने
की बात नहीं है

धर्म उतारने
की बात नहीं है

कपड़े उतारने
की बात भी नहीं है

बात उतरे हुए
को सामने से
देख कर ही
समझ में आती है

निरन्तरता
बनाये रखने
के लिये वैसे भी
बहुत जरूरी है
कुछ ना कुछ
करते चले जाना

समय के साथ
चलने के लिये
समय की तरह
समय पहने तो
पहन लेना

समय उतारे तो
उतार लेना अच्छा है

सब को सब की
सारी बातें समझ में
आसानी से नहीं आती हैं

वरना आदमी
के बनाये आदमी
के लिये नियमों
के अन्दर किसी को
आदमी कह देने
के जुर्म में कभी भी
अन्दर हो सकता है
कोई भी आदमी

आमने सामने
ही पीठ करके
एक दूसरे से
निपटने में
लगे हुऐ
सारे आदमी

अच्छी तरह
जानते हैं
उतारना पहनना
पहनना उतारना

तू भी लगा रह
समेटने में अपने
झड़ते हुए परों को
फिर से चिपकाने की
सोच लिये ‘उलूक’

जिसके पास
उतारने के लिये
कुछ ना हो
उसे पहले कुछ
पहनना ही पड़ता है

पंख ही सही
समय की मार
खा कर गिरे हुए ।

चित्र साभार:
www.clipartpanda.com

शनिवार, 24 सितंबर 2016

तू भी कुछ फोड़ना सीख ‘उलूक’ धमाके करने लगा है कुछ भी फोड़ कर हर मुँगेरीलाल महान देश का

कुछ फोड़
कुछ मतलब
कुछ भी
फोड़ने में
कुछ लगता
भी नहीं है
नफे नुकसान
का कुछ
फोड़ लेने
के बाद
किसी ने
कुछ सोचना
भी नहीं है
फोड़ना कहीं
जोड़ा और
घटाया हुआ
दिखता भी
नहीं है
बेहिसाब
फूट रहा
हो जहाँ
कुछ भी
कहीं भी
कैसे भी
और
फोड़ रहा
हो हर कोई
अपनी औकात
के आभास से
धमाका बनाया
जा रहा हो
खरीदने बेचने
के हिसाब से
आज जब
इतना
आजाद है
आजादी
और
कुछ ना कुछ
फोड़ने की
हर किसी
में है बहुत
ज्यादा बेताबी
तू भी नाप
तू भी तौल
अपनी औकात
और
निकल बाहर
परवरिश
में खुद के
अन्दर पनपे
फालतू मूल्यों
के बन्धन
सारे खोल
और
फिर फोड़
कुछ तो फोड़
फोड़ेगा नहीं
तो धमाका
कैसे उगायेगा
धमाका नहीं
अगर होगा
बाजार में
क्या बेचने
को जायेगा
फोड़
कुछ भी
फोड़
किसी ने
नहीं देखनी
है आग
किसी ने
नहीं देखना
है धुआँ
बाकी करता
रह सारे
काम अपने
अपनी दिनचर्या
चाहे नोंच माँस
चाहे नोंच हड्डियाँ
चाहे जमा कर
चाहे सुखा
बूँद बूँद
इन्सानी खून
पर फोड़
कुछ फोड़
नहीं फोड़ेगा
अपने संस्कारी
उसूलों में
दब दबा
जायेगा
सौ पचास
साल बाद
देश द्रोही
या
गाँधी
की पात में
खड़ा कर
तुझे एक
अपराधी
घोषित कर
दिया जायेगा
इसलिये
बहुत जरूरी है
कुछ फोड़।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 21 सितंबर 2016

‘उलूक’ वन्दे माता नमो जय ऊँ काफी है इससे ज्यादा कहाँ से चढ़ कर कूदना चाहता है

कहाँ कहाँ
और
कितना कितना
रफू करे
कोई बेशरम
और
करे भी
किसलिये
जब फैशन
गलती से
उधड़ गये को
छुपाने का नहीं
खुद बा खुद
जितना हो सके
उधाड़ कर
ज्यादा से ज्यादा
हो सके तो
सब कुछ
बेधड़क
दिखा ले
जाने का है

इसी बात पर
अर्ज किया है

कुछ ऐसा है कि
पुराने किसी दिन
लिखे कुछ को
आज दिखाने
का सही मौका है
उस समय मौका
अपने ही
मन्दिर का था
समय की
बलिहारी
होती है
जब वैसा ही
देश में
हो जाता है

दीमकें छोटी
दिखती हैं
पर फैलने में
वक्त नहीं लेती हैं

तो कद्रदानो सुनो

जिस दिन
एक बेशरम को
शरम के ऊपर
गद्दी डाल कर
बैठा ही
दिया जाता है
हर बेशरम को
उसकी आँखों से
उसका मसीहा
बहुत पास
नजर आता है
शरम के पेड़
होते हैं
या
नहीं होते हैं
किसे जानना
होता है
किसे चढ़ना
होता है
जर्रे जर्रे पर
उगे ठूँठों
पर ही जब
बैठा हुआ
एक बेशरम
नजर आता है

अब हिन्दू
 की बात हो
मुसलमान
की बात हो
कब्र की
बात हो
या
शमशान
की बात हो

अबे जमूरे
ये हिन्दू
मुसलमान
तक तो
सब ठीक था
ये कब्र और
शमशान
कहाँ से
आ गये
फकीरों की
बातों में


समझा करो
खिसक गया
हो कोई तो
फकीर याद
आना शुरु
हो जाता है

अब खालिस
मजाक हो
तो भी
ये सब हो
ही जाता है

अब क्या
कहे कोई
कैसे कहे
समझ
अपनी अपनी
सबकी
अपनी अपनी
औकात की

दीमक के
खोदे हुऐ के
ऊपर कूदे
पिस्सुओं से
अगर एक
बड़ा मकान
ढह जाता है

क्या सीन
होता है

सारा देश
जुमले फोड़ना
शुरु हो जाता है

‘उलूक’
तू खुजलाता रह
अपनी पूँछ

तुझे पता है
तेरी खुद की
औकात क्या है

ये क्या कम है
आता है
यहाँ की
दीवार पर
अपने भ्रम
जिसे सच
कहता है
चैप जाता है

छापता रह खबरें

कौन “होशियार”
 बेवकूफों के
अखबार में
छपी खबरों से
हिलाया जाता है ।

चित्र साभार: http://www.shutterstock.com/

सोमवार, 5 सितंबर 2016

अर्जुन को नहीं छाँट कर आये इस बार गुरु द्रोणाचार्य सुनो तो जरा सा फर्जी ‘उलूक’ की एक और फर्जी बात

जब
लगाये गये
गुरु कुछ
गुरु छाँटने
के काम पर
किसी गुरुकुल
के लिये
दो चार और
गुरुओं के साथ
एक ऐ श्रेणी के
गुरुकुल के
महागुरु
के द्वारा

पता चला
बाद में
अर्जुन पर नहीं
एकलव्य पर
रखकर
आ चुके हैं
गुरु अपना हाथ
विश्वास में लेकर
सारे गुरुओं की
समिति को
अपने साथ

अब जमाना
बदल रहा
हो जब
गुरु भी
बदल जाये
तो कौन सी
है इसमें
नयी बात

एक ही
अगर होता
तो कुछ
नहीं कहता
पर एक
अनार के
लिये सौ
बीमार हो
जाते हों जहाँ
वहाँ यही तो
है होना होता

समस्या बस
यही समझने
की बची
इस सब के बाद
एक लव्य ने
किसे दे दिया
होगा अँगूठा
अपना काट

फिर समझ
में आया
फर्जी गुरु
‘उलूक’ के
भी कुछ

कुछ कुछ
सब कुछ में
से देख कर
जब देख बैठा
एक सफेद
लिफाफा मोटा
भरा भरा
हर गुरु
के हाथ

वाह
एकलव्य
मान गये
तुझे भी
निभाया
तूने इतने
गुरुओं को
अँगूठा काटे
बिना अपना
किस तरह
एक साथ ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

'उलूक’ पहले अपना खुद का नामरद होना छिपाना सीख

सोच को सुला
फिर लिख ले
जितनी चाहे
लम्बी और
गहरी नींद

 सपने देख
मशालें देख
गाँव देख
लोग देख
गा सके
तो गा
नहीं गा सके
तो चिल्ला
क्राँति गीत

कहीं भी
किसी भी
गिरोह में
जा और देख
गिरोह में
शामिल करते
गिरोहबाजों
की कलाबाजियाँ
पैंतरेबाजियाँ
और कुछ
सीख

हरामखोरियों
की
हरामखोरियाँ
ही सही
सीख

देश राज्य
जिला शहर
मोहल्ले की
जगह अपनी
जगह पर
अपनी जमीन
खुद के नीचे
बचाने
की कला
सीख

कोशिश कर
उतारने की
सब कुछ
कोशिश कर
दौड़ने की
दिन की
रोशनी में
नंगा होकर
बिना झिझक
जिंदा रहने
के लिये
बहुत
जरूरी है
सीख

किसी
भी चोर
को गाँधी
बनाना
और
गाँधी को
चोर बनाना
सीख

इन्सान
की मौत
पर बहा
घड़ियाली
आँसू

कुछ
थोड़ा सा
आदमी का
खून पी
जाना भी
सीख

सब जानते हैं
सब को पता है
सब कुछ बहुत
साफ साफ
सारे ऐसे
मरदों को
रहने दे

‘उलूक’
ये सब
दुनियादारी है
रहेगी हमेशा
पहले अपना
खुद का
नामरद होना
छिपाना
सीख ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 11 मई 2016

किसे पड़ी है तेरे किसी दिन कुछ नहीं कहने की उलूक कुछ कहने के लिये एक चेहरा होना जरूरी होता है



लिखा हुआ हो 
कहीं पर भी हो कुछ भी हो 
देख कर उसे पढ़ना और समझना 
हमेशा जरूरी नहीं होता है 

कुछ कुछ खराब हो चुकी आँखों को 
खुली रख कर जोर लगा कर 
साफ साफ देखने की कोशिश करना 

कुछ दिखना कुछ नहीं दिखना 
फिर दिखा दिखा सब  दिख गया कहना 
कहने सुनने सुनाने तक ही ठीक होता है 

सुना गया सब कुछ कितना सही होता है 
सुनाई देने के बाद सोचना जरूरी नहीं होता है 

रोजाना कान की सफाई करना 

ज्यादातर लोगों 
की आदत में वैसे भी
शामिल नहीं होता है 

लिखने लिखाने से कुछ होना है 
या नहीं होना है 

लिखने वाले कौन है 
और लिखे को पढ़ कर 
लिखे पर सोचने 
लिखे पर कुछ कहने वाले कौन हैं 

या किसने लिखा है क्या लिखा है 

लिख दिया है बताने वाले लोगों को 
सारा लिखा पता होना जरूरी नहीं होता है 

लेखक लेखिका का पोस्टर लगा कर 
दुकान खोल लेने से 
किताबें बिकना शुरु होती भी हैं 
तब भी हर दुकान का रजिस्ट्रेशन 
लेखक के नाम से हर जगह होना होता है 
या नहीं होता है किसे पता होता है 

लिखने लिखाने वाला 
लिखने की दुकान के
शटर खोलने की आवाज के साथ उठता है 
शटर गिराने की आवाज के साथ सोता है 

कौन जानता है 
ऐसा भी होता है या नहीं होता है 

अपनी अपनी किताबें संभाले हुए लोगों को 
आदत पड़ चुकी होती है 
अपना लिखा अपने आप पढ़नें की 

खुद समझ कर खुद को खुद ही समझा ले जाना 
खुदा भी समझ पाया है या नहीं खुदा ही जानता है 
सब को पता हो ये भी जरूरी नहीं होता है 

किसी के कुछ लिखे को नकार देने की हिम्मत 
सभी में नहीं होती है 

पूछने वाले पढ़ते हैं या नहीं 
पता नहीं भी होता है 

प्रश्न करना इतना जरूरी नहीं होता है 

लिखना कुछ भी कहीं भी कभी भी 
इतना जरूरी होता है  

दुनियाँ चलती है चलती रहेगी 
हर आदमी खरीफ की फसल हो 

जरूरी कहीं थोड़ा सा होता है 
कहीं जरा सा भी नहीं होता है 

फारिग हो कर आया हर कोई कहे
जरूरी है जमाने के हिसाब से खेत में जाना 

इस जमाने में अब जरूरी नहीं 
थोड़ा नहीं बहुत ही खतरनाक होता है 

सफेद पन्ना दिखाने के लिये रख 

काफी है ‘उलूक’ 

लिखा 
लिखाया काला सब सफेद होता है । 

 चित्र साभार: www.pinterest.com

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

आदत है उलूक की मुँह के अंदर कुछ और रख बाहर कुछ और फैलाने की



चर्चा है कुछ है
कुछ लिखने की है
कुछ लिखाने की है
टूटे बिखरे पुराने
बेमतलब शब्दों
की जोड़ तोड़ से
खुले पन्नों की
किताबों की 
एक दुकान को
सजाने की है
शिकायत है
और बहुत है
कुछ में से भी
कुछ भी नहीं
समझा कर
बस बेवकूफ
बनाने की है
थोड़ा सा कुछ
समझ में आने
लायक जैसे को भी
घुमा फिरा कर
सारा कुछ लपेट
कर ले जाने की है
चर्चा है गरम है
असली खबर के
कहीं भी नहीं
आने की है
आदमी की बातें हैं
कुछ इधर की हैं
कुछ उधर की हैं
कम नहीं हैं
कम की नहीं हैं
बहुत हैं बहुत की हैं
मगर आदमी के लिये
उनको नहीं
बना पाने की है
कहानियाँ हैं लेकिन
बेफजूल की हैं
कुछ नहीं पर भी
कुछ भी कहीं पर भी
लिख लिख कर
रायता फैलाने की है
एक बेचारे सीधे साधे
उल्लू का फायदा
उठा कर हर तरफ
चारों ओर उलूकपना
फैला चुपचाप झाड़ियों
से निकल कर
साफ सुथरी सुनसान
चौड़ी सड़क पर आ कर
डेढ़ पसली फुला
सीना छत्तीस
इंची बनाने की है
चर्चा है अपने
आस पास के
लिये अंधा हो
पड़ोसी  के लिये
सी सी टी वी
कैमरा बन
रामायण गीता
महाभारत
लिख लिखा
कर मोहल्ला रत्न
पा लेने के जुगाड़ में
लग जाने की है
कुछ भी है सब के
बस की नहीं है
बात गधों के
अस्तबल में रह
दुलत्ती झेलते हुए
झंडा हाथ में
मजबूती से
थाम कर जयकारे
के साथ चुल्लू
भर में डूब
बिना तैरे तर
जाने की है
मत कहना नहीं
पड़ा कुछ
भी पल्ले में
पुरानी आदत
है
उलूक की
बात मुँह के अंदर
कुछ और रख
बाहर कुछ और
फैलाने की है ।

चित्र साभार:
www.mkgandhi.org

शनिवार, 5 सितंबर 2015

‘उलूक’ व्यस्त है आज बहुत एक सपने के अंदर एक सपना बना रहा है

                                                    

काला चश्मा लगा कर सपने में अपने
आज बहुत ज्यादा इतरा रहा है 
शिक्षक दिवस की छुट्टी है खुली मौज मना रहा है 

कुछ कुछ खुद समझ रहा है 
कुछ कुछ खुद को समझा रहा है 
समझने के लिये अपना गणित 
खुद अपना हिसाब किताब लगा रहा है 

सपने देख रहा है देखिये जरा क्या क्या देख पा रहा है 

सरकारी आदेशों की भाषाओं को तोड़ मरोड़ कर 
सरकार को ही आईना दिखा रहा है 

कुछ शिष्यों की इस दल में भर्ती 
कुछ को उस दल में भरती करा रहा है 
बाकी बचे खुचों को वामपंथी बन जाने का पाठ पढ़ा रहा है 

अपनी कुर्सी गद्दीदार बनवाने की 
सीड़ी नई बना रहा है 
ऊपर चढ़ने के लिये ऊपर देने के लिये 
गैर लेखा परीक्षा राशि ठिकाने लगा रहा है 

रोज इधर से उधर रोज उधर से इधर 
आने जाने के लिये चिट्ठियाँ लिखवा रहा है 
डाक टिकट बचा दिखा पूरी टैक्सी का टी ऐ डी ऐ बनवा रहा है 
सरकारी दुकान के अंदर अपनी प्राईवेट दुकान धड़ल्ले से चला रहा है 
किराया अपने मित्रों के साथ मिल बांट कर खुल्ले आम खा रहा है 

पढ़ने पढा‌ने का मौसम तो आ ही नहीं पा रहा है 
मौसम विभाग की खबर है कुछ ऐसा फैलाया जा रहा है 

कक्षा में जाकर खड़े होना शान के खिलाफ हो जा रहा है 
परीक्षा साल भर करवाने का काम ऊपर का काम हो जा रहा है 

इसी बहाने से 
तू इधर आ मैं उधर आऊँ गिरोह बना रहा है 
कापी जाँचने का कमप्यूटर जैसा होना चाह रहा है 

हजारों हजारों चुटकी में मिनटों में निपटा रहा है 
सूचना देने में कतई भी नहीं घबरा रहा है 

इस पर उसकी उस पर इसकी दे जा रहा है 
आर टी आई अपनी मखौल खुद उड़ा रहा है 

शोध करने करवाने का ईनाम मंगवा रहा है 
यू जी सी के ठेंगे से ठेंगा मिला रहा है 

सातवें वेतन आयोग के आने के दिन गिनता जा रहा है 
पैंसठ की सत्तर हो जाये अवकाश की उम्र 
गणेश जी को पाव लड्डू खिला रहा है 

किसे फुरसत है शिक्षक दिवस मनाने की 
पुराना राधाकृष्णन सोचने वाला घर पर मना रहा है 

‘उलूक’ व्यस्त है सपने में अपने 
उससे आज बाहर ही नहीं आ पा रहा है 

कृष्ण जी की कौन सोचे ऐसे में 
जन्माष्टमी मनाने के लिये 
शहर भर केकबूतरों से कह जा रहा है 

सपने में एक सपना देख देख खुद ही निहाल हुऐ जा रहा है 

'उलूक' उवाच है किसे मतलब है कहने में क्या जा रहा है । 

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

रविवार, 23 अगस्त 2015

कहते कहते ही कैसे होते हैं कभी थोड़ी देर से भी होते हैं



तुम तो पीछे ही पड़ गये दिनों के 
दिन तो दिन होते हैं 
अच्छे और बुरे नहीं होते हैं 

अच्छी और बुरी तो सोच होती है 
उसी में कुछ ना कुछ 
कहीं ना कहीं कोई लोच होती है 

सब की समझ में सब कुछ 
अच्छी तरह आ जाये 
ऐसा भी नहीं होता है 

आधी दुनियाँ में उधर रात 
उसके इधर होने से नहीं होती है 

इधर की दुनियाँ में दिन होने से 
रात की बात नहीं होती है 

किसी से 
नाँच ना जाने आँगन टेढ़ा 
कहना भी
बहुत अच्छी बात नहीं होती है 

पहले ही
पूछ लेने की आदत ही 
सबसे अच्छी एक आदत होती है 

जो हमेशा
भले लोगों की 
हर भली बात के साथ होती है 

लंगड़ा कर
यूँ ही शौक से 
नहीं चलना चाहता है कोई भी कभी भी 

सोच में
नहीं होती है 
दायें या बाँयें पाँव में से 
किसी एक में कहीं थोड़ी बहुत 
मोच पड़ी होती है 

अच्छा अगर
नहीं
दिख रहा होता है 
सामने से कहीं 

कहीं ना कहीं 
रास्ते में होती है
उस अच्छे की गाड़ी 
और
थोड़ा सा
लेट हो रही होती है 

दिन तो
दिन होते हैं 
अच्छे और बुरे नहीं होते हैं 

किस्मत
भी होती है 
भेंट नहीं हो पा रही होती है 

वैसे भी 
सबके
एक साथ नहीं होते हैं 
जिसके हो चुके होते है 
'उलूक' 

उसके
अगली बार 
तक
तो
होने भी नहीं होते हैं । 

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

‘उलूक’ की फटी म्यान और जंग खायी हुई तलवार


चाँद तारे आसमान 
सूरज पेड़ पौंधे भगवान
जानवर पालतू और आवारा
सब के अपने अपने काम

बस आदमी एक बेचारा 
अपने काम तो अपने काम
ऊपर से देखने की आदत
दूसरे की बहती नाक और जुखाम

कुछ के भाव कम कुछ के भाव ज्यादा
कुछ अकेले अकेले कुछ बाँट लेंगे आधा आधा 
कुछ मौज में खुद ही बने हुऐ मर्जी से प्यादा

कुछ बिसात से बाहर भी बिना काम
किस का फायदा किसका नुकसान

अपनी अपनी किस्मत अपना अपना भाग्य
किताबें पढ़ पढ़ कर भी चढ़े माथे पर दुर्भाग्य

इसकी बात उसकी समझ उसकी बात उलट पलट

‘उलूक’की आँखें ‘उलूक’की समझ
‘उलूक’की खबर ‘उलूक’का अखबार
रहने दे छोड़ भी दे पढ़ना भी अब यार
कुछ बेतार कुछ बेकार ।

चित्र साभार: openclipart.org

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

सारे पढे‌ लिखे लिखते हैं कविता और कवि भी होते हैं

टेढ़ा मेढ़ा
लिखा हुआ
हो कहीं पर
जिसका कोई
मतलब नहीं
निकल रहा हो


जरूरी नहीं
होता है
कि वो एक
कवि का
लिखा हुआ
लिखा हो

जिसे कविता
कहना शुरु
कर दिया
जाये और
तुरन्त ही
कुछ लोग
दूसरे लिखने
पढ़ने वाले
करने लगें
चीर फाड़

जैसे गलत
तरीके
से मर गये
या
मार दिये
गये जानवर
या
आदमी को
खोल कर
देखा जाता है
मरने के बाद

जिसे कहा
जाता है
हिंदी में
शव परीक्षा

इसलिये यहाँ
पोस्टमोर्टम
कहना उचित
प्रतीत होता है

चलन में है
और
पढ़ा लिखा
वैसे भी
हिंदी में
कहे गये को
कम ही
समझता है

अब ‘उलूक’
क्या जाने
ये भी कवि है
और
वो भी कवि है

सब कविता
लिखते हैं
अपनी अपनी
इसमें दोष
किसका है

उसका
जो कवि है
या उसका
जिसको
आदत है

वो मजबूरी
में किसी
रोज कुछ
ना कुछ
जो लिख
मारता है

कभी
कुत्ते पर
कभी
चूहे पर
और कभी
उसी तरह के
किसी
जानवर पर
जिसके
नसीब में
कुर्सी लिखी
होती है

लेकिन इन
सब में
एक बात
अटल सत्य है

टेढ़ा मेढ़ा
लिखने वाला
गलती से
लिखना पढ़ना
सीख भी
गया हो
कभी झूठ
नहीं बोलता है

उससे
कभी नहीं
कहा जाता
है कि
उसका
किसी कवि
से ही
ना ही किसी
कविता से ही

भगवान
कसम
कहीं कोई
रिश्ता
होता है

सब कवि
होते हैं
जो कविता
करते हैं

सबसे बड़े
बेवकूफ
तो वही
होते हैं  ।

चित्र साभार: www.stmatthiaschool.org

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

‘उलूक’ उवाच पर काहे अपना सर खपाता है

किसी को
कुछ 
समझाने के लिये कुछ नहीं लिखा जाता है

हर कोई 
समझदार होता है
जो आता है अपने हिसाब से ही आता है

लिखे हुऐ पर अगर 
बहुत थोड़ा सा ही
लिखा हुआ नजर आता है

आने वाला 
किसने कह दिया
कुछ लिखने लिखाने के लिये ही आता है

इतनी बेशर्मी होना 
भी तो अच्छी बात नहीं होती है
नहीं लिखने पर किसी के कुछ भी
नाराज नहीं हुआ जाता है

तहजीब का देश है
पैरों के निशान तो होते ही हैं
मिट्टी उठा कर थोड़ी सी सर से लगाया ही जाता है

कोयले का ही एक 
प्रकार होता है हीरा भी
कोयले से कम से कम नमस्कार तो किया जाता है

‘उलूक’ मत 
उठाया कर ऐसे अजीब से सवाल
जवाब देना चाहे कोई तो भी नहीं दिया जाता है

ठेकेदारी करने 
के भी उसूल होते हैं
समझ लेना चहिये
लिखने लिखाने के टेंडर कहा होते हैं
कहाँ खोले जाते हैं
हर बात बताने वाला
एक मास्टर ही हो ऐसा जरूरी भी नहीं है
और माना भी जाता है ।

चित्र साभार: www.mycutegraphics.com

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

‘उलूक’ क्या है? नहीं पढ़ने वाला भी अब जानने चला है

एक
ने नहीं
बहुतों ने
पूछना
शुरु कर
दिया है

बाकी सब
ठीक है

बहुत
सारे लोग
लिखते हैं
लिख रहे हैं
कुछ सार्थक
कुछ निर्रथक

तुम्हारे
बारे में
भी हो
रही है
चर्चा कई
जगहों पर

हमें भी
पता चला है

तुम्हारे
लिखने
लिखाने से
हमें कोई
मतलब नहीं है

कुछ ऐसा
वैसा ही
लिख रहे हो

आस पास
के किसी भी
जाने माने
स्थापित लेखकों
कवियों चर्चाकारों
की सूची में
तुम्हारा नाम
ढूँढ कर भी
नहीं मिला है

अच्छे
खासे तो थे
कुछ दिन पहले

कहीं
चुपचाप से
खड़े भी मिले थे

इधर ही
कुछ दिनों में
कौन सा
ऐसा आया
तूफानी
जलजला है

कुछ भी
कहीं नहीं
कहने वाला
कहीं भी
जा कर
कुछ भी
लिखने
लिखाने
को चला है

चलो
होता है
उम्र का
तकाजा भी है

कुछों को
छोड़ कर
सर और
दाड़ी का
लगभग
हर बाल भी
अब सफेद
हो चला है

वैसे
हमें कहना
कुछ नहीं है

बस
एक शंका
दूर करनी है

जानकारी
रहनी
भी चाहिये
अपने
परायों की
कितना
हौसला है

बस इतना
बता दो
तुम्हारे
लिखने
लिखाने
के साथ

हर जगह
जुड़ा ये
‘उलूक’
कौन सी
और
क्या बला है ?

चित्रसाभार: www.clipartpal.com

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

राजा हैं और बहुत हैं चैन से जीना है तो सीख राजाओं की सुनना और राजाओं का हुकुम बजाना



राजशाही राज्य और राजा
एक नहीं कई कई हुआ करते थे किसी जमाने में

जमाना बदला 
राज्य मिटे राजशाही मिटी सीमायें हटी
जमीने साथ मिली देश बना
बदल गया बदल गया का डंका बजा
थोड़ा नहीं बहुत जोर से बजा

हल्ला गुल्ला शोर शराबा होना शुरु हो गया
मोहल्ले की छोड़िये
गली गली में तमाशा हो गया

एक बार हुआ फिर कई बार हुआ
और अब होने लगा हर साल
कोई नहीं कहता इस बार नहीं हुआ

राजा पहले एक दो हुआ करते थे
बाकी होते थे भेड़ और बकरियाँ
कहा जाता था प्रजा हुआ करते थे

जमाने ने जमाना बदलने के साथ अपने को बदला
अंदाज नहीं आया
पर राजा ने राजशाही को भी बदला

पहले की तरह
कोई एक दो के होने से अच्छा
कोई भी कहीं भी हो ले का अलिखित
नियम चल निकला

सीमायें निर्धारित हुई
अपने अपने हिसाब से अपने चारों ओर

अपने मतलब का राज्य सोच
अपनी लाईन देख कोई भी राजा हो
अपने अपने बिलों से
बिना मुकुट धनुष तीर के मुस्कुराता
अपने मन ही मन
कोई एक किसी और का माँगा हुआ चोला डाल
सड़क पर नंगे पैर प्रजा होने का नाटक करने निकला

आज हर दूसरा राजा
और उसका अपने हिसाब का अपना राज्य
उसके अपने नियम
बाकी बचे का पैर जैसे कैले के छिलके में हो फिसला

‘उलूक’ सोच मत देखता चल
जिंदा रहना है तो पालन करना सीख
अपने आगे के राजा का हुकम बजाना सीख
पीछे के राजा को सलाम करने के लिये
अपने दोनो हाथों को अपने सिर पर ले जाना सीख

नहीं कर सकता है तो सीख ले
थोड़ा पागल और थोड़ा दीवाना हो जाना
आसमान को देख नोचना अपने ही बाल
और ठहाके साथ में लगाना ।

चित्र साभार: www.graphicsfactory.com

बुधवार, 28 जनवरी 2015

उसके आने और उसके जाने का फर्क नजर आ रहा है

सात समुंदर पार
से आकर
वो आईना
दिखा रहा है
धर्म के नाम पर
बंट रहे हो
बता रहा है
पता किसी
को भी नहीं था
वो बस इतना
और इतना ही
बताने के लिये
तो आ रहा है
धूम धड़ाम से
फट रहे हों
पठाके खुशी के
कोई खुशफहमी
की फूलझड़ी
जला रहा है
दिल खोल के
खड़े हैं राम भक्त
पढ़ रहे हैं साथ में
हनुमान चालिसा भी
हनुमान अपने को
बता कर कोई
मोमबत्तियाँ
बाँट कर
जा रहा है
एक अरब
से ज्यादा
के ऊपर थोपा
गया मेहमान
मुँह चिढ़ा कर
सामने सामने
धन्यवाद
हिंदी में
बोल कर
जा रहा है
अपनी अपनी
सोच और
अपनी अपनी
समझ है यारो
तुम लोगों का
अमेरिका होगा
’उलूक’ को
दूसरा पाकिस्तान
नजर आ रहा है
कुछ नहीं हो
सकता आजाद
होने के बाद
आजादी का
नाजायज फायदा
एक गुलाम और
उसका बाप
उठा रहा है
विवेकानंद भी
हंस रहा है
ऊपर कहीं
सुना है
मेरे भाई बंधुओ
जनता से
कहने का
नुकसान उसे
आज समझ मे
आ रहा है ।
चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com/

बुधवार, 5 नवंबर 2014

हद हो गई बेशर्मी की देखिये तो जरा ‘उलूक’ को रविवार के दिन भी बेवकूफ की तरह मुस्कुराता हुआ दुकान खोलने चला आयेगा

कुछ दिन के लिये
छुट्टी पर चला जा
इधर उधर घूम
घाम कर आ जा
कुछ देख दाख
कर आयेगा
शायद उसके बाद
तुझसे कुछ अच्छा सा
कुछ लिख लिया जायेगा
सब के लिखने को
नहीं देखता है
हर एक लिखने
वाले की एक
सोच होती है
जब भी कुछ
लिखना होता है
कुछ ना कुछ
सोच कर ही
लिखता है
किसी सोच पर
लिखता है
तेरे से लगता है
कुछ कभी नहीं
हो पायेगा
तेरा लिखना
इसी तरह
हर जगह
कूड़ा करेगा
फैलता ही
चला जायेगा
झाड़ू सारे
व्यस्त हैं
पूरे देश के
तू अपनी
आदत से बाज
नहीं आयेगा
बिना किसी सोच के
बिना सोचे समझे
इसी तरह लेखन को
दो मिनट की मैगी
बना ले जायेगा
एक दिन
खायेगा आदमी
दो दिन खायेगा
आखिर हो ही
जायेगी बदहजमी
एक ना एक दिन
तेरे लिखे लिखाये
को देख कर ही
कुछ इधर को और
कुछ उधर को
भाग निकलने
के लिये हर कोई
कसमसायेगा
किसी डाक्टर ने
नहीं कहा है
रोज ही कुछ
लिखना है
बहुत जरूरी
नहीं तो बीमार
सीमार पढ़ जायेगा
अपनी ही अपनी
सोचने की सोच से
थोड़ा बाहर
निकल कर देख
यहाँ आने जाने
वाला बहुत
मुस्कुरायेगा
अगर सफेद पन्ने
के ऊपर सफेदी ही सफेदी
कुछ दिनों के लिये तू
यूँ ही छोड़ जायेगा
बहुत ही अच्छा होगा
‘उलूक’ सच में अगर
तू कुछ दिनों के लिये
यहाँ आने के बजाय
कहीं और को चला जायेगा ।

चित्र साभार: http://www.bandhymns.com

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

आदमी आदमी का हो सके या ना हो सके एक गधा गधे का नजदीकी जरूर हो जाता है



“अंशुमाली रस्तोगी जी” का
आज 
दैनिक हिन्दुस्तान में छपा लेख 

“इतना सधा हूँ कि सचमुच गधा हूँ” 
पढ़ने के बाद । 

अकेले नहीं
होते हैं आप


महसूस 
करते हैं
और कुछ
नहीं कहते हैं

रिश्तेदारियाँ
घर में ही हों
जरूरी 
नहीं होता है

आपका 
हमशक्ल
हमख्याल 
कहीं और
भी होता है

आपका
बहुत
नजदीकी
रिश्तेदार
भी होता है

बस
आपको ही
पता नहीं
होता है

एक नहीं
कई बार

बहुत
सी बात

यूँ ही
कहने से
रह जाती हैं

सोच की
अंधेरी
कोठरी में

जैसे कहीं
खो जाती हैं

सुनने
समझने
वाला

कोई
कहीं नहीं
होता है

कहने
वाला कहे
भी किससे

कितना
अकेला
अकेला

कभी कभी
एक अकेला
होता है

और
ऐसे में
कभी

अंजाने में
कहीं से

किसी की
एक चिट्ठी
आ जाती है

जिसमें
लिखी
हुई बातें

दिल को
गदगद
कर जाती हैं

कहीं पर
कोई और
भी है

अपना जैसा
अपना
अपना सा

सुन कर
आखों में
कुछ नमी
छा जाती है

‘अंशुमाली’
कहता है

कोई उसे
गधा कहे तो

अब
सहजता
से लेता है

बहुत दिनों
के बाद
गधे की याद

‘उलूक’
को भी
आ जाती है

गधा
सच में
महान है

ये बात
एक बार
फिर से
समझाती है

खुद के
गधे से
होने से

कोई
अकेला नहीं
हो जाता है

और
भी कई
होते हैं गधे

इधर
उधर भी
कई कई
जगहों पर

सुनकर ही
दिल खुश
हो जाता है

बहुतों
के बीच

एक गधा
यहाँ देखा
जाता है

इसका
मतलब
ये नहीं
होता है

कि
दूसरा गधा
दूसरी जगह
कहीं नहीं
पाया जाता है ।

चित्र साभार: www.gograph.com

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

बिल्ली जब जाती है दिल्ली चूहा बना दिया जाता सरदार है



नदी है नावें है बारिश है बाढ़ है
नावें पुरानी हैं छेद है पानी है
पतवार हैं हजार हैं
पार जाने को हर कोई भी तैयार है

बैठने को पूछना नहीं है कुर्सियों की भरमार है

गंजे की कंघी है
सपने के बालों को रहा संवार है

लाईन है दिखानी है
पीछे के रास्ते पूजा करवानी है
बारी का करना नहीं इंतजार है

नियम हैं कोर्ट है
कचहरी है वकील हैं
दावे हैं वादे हैं वाद हैं परिवाद हैं
फैसला करने को न्यायाधीश तैयार है

भगवान है पूजा है मंत्र हैं पंडित है 
दक्षिणा माँगने का भी एक अधिकार है

पढ़ना है पढ़ाना है स्कूल जरुरी जाना है
सीखने सिखाने का बाजार गुलजार है

धोती है कुर्ता है झोला है लाठी है
बापू की फोटो है 
मास्साब तबादले के लिये
पीने पिलाने को खुशी खुशी तैयार है

‘उलूक’ के पास काम नहीं कुछ
अड़ोस पड़ोस की चुगली का
बना लिया व्यापार है ।

रविवार, 4 मई 2014

बहुत पक्की वाली है और पक्का आ रही है

आसमान से
उतरी आज
फिर एक चिड़िया
चिड़िया से उतरी
एक सुंदर सी गुड़िया
पता चला बौलीवुड से
सीधे आ रही है
चुनाव के काम
में लगी हुई है
शूटिंग करने के लिये
इन दिनों और जगहों
पर आजकल नहीं
जा पा रही है
सर पर टोपियाँ
लगाये हुऐ एक भीड़
ऐसे समय के लिये
अलग तरीके की
बनाई जा रही है
जयजयकार करने
के लिये कार में
बैठ कर कार के
पीछे से सरकारी
नारे लगा रही है
जनता जो कल
उस तरफ गई थी
आज इसको देखने
के लिये भी
चली जा रही है
कैसे करे कोई
वोटों की गिनती
एक ही वोट
तीन चार जगहों
पर बार बार
गिनी जा रही है
टोपियाँ बदल रही है
परसों लाल थी
कल हरी हुई
आज के दिन सफेद
नजर आ रही है
लाठी लिये हुऐ
बुड़िया तीन दिन से
शहर के चक्कर
लगा रही है
परसों जलेबी थी हाथ में
कल आईसक्रीम दिखी
आज आटे की थैली
उठा कर रखवा रही है
काम पर नहीं
जा रहा है मजदूर
कई कई दिन से
दिखाई दे रहा है
शाम को गाँव को
वापस जाता हुआ
रोज नजर आ रहा है
बीमार हो क्या पता
शाम छोड़िये दिन में
भी टाँगे लड़खड़ा रही हैं
‘उलूक’ तुझे क्यों
लगाना है अपना
खाली दिमाग
ऐसी बातों में जो
किसी अखबार में
नहीं आ रही हैं
मस्त रहा कर
दो चार दिन की
बात ही तो है
उसके बाद सुना है
बहुत पक्की वाली
सरकार आ रही है ।

शनिवार, 3 मई 2014

सब पी रहे हों जिसको उसी के लिये तुझको जहर के ख्वाब आते हैं

रेगिस्तान की रेत के
बीच का कैक्टस
फूलोंं के बीज बेच रहा है

कैक्टस 
बहुत कम लोग पसंद करते हैं

कम से कम
वास्तु शास्त्री की बातों को
मानने वाले तो कतई नहीं

कुछ रखते हैं गमलों में
क्योंकि फैशन है रखने का

पर किंवदंतियों के भूत से भी
पीछा नहीं छुड़ा पाते हैं
गमले 
घर के पिछवाड़े रख कर आते हैं

कैक्टस के कांटे निकलने
का मौसम अभी नहीं है
आजकल उनमें फूल आते हैं

फूल के बीज बिक रहे हैं बेतहाशा भीड़ है

और भीड़ की
बस दो ही आँखें होती हैं
उनको कैक्टस से कोई मतलब नहीं होता है
उनके सपने में फूल ही फूल तो आते हैं

काँटो से लहूलुहान ऐसे लोग
भूखी बिल्ली की तरह होते हैं

जो बस दूध की फोटो देख कर ही तृप्त हो जाते हैं

इसी भूख को बेचना सिखाने वाले कैक्टस
उस मौसम में 
जब उनके काँटे गिर चुके होते हैं

और कुछ फूल
जो उनके बस फोड़े होते हैं 
सामने वाले को फूल जैसे ही नजर आते हैं

सारे फूलों को फूलों के बीज बेचना सिखाते हैं

फूल कैक्टस को महसूस नहीं करते हैं
उसके फूलों पर फिदा हो जाते हैं

और बेचना शुरु कर देते हैं कैक्टस के बीज

‘उलूक’
बहुत दूर तक देखना अच्छा नहीं है
कांटे तेरे दिमाग में भी हैं
जिनपर फूल कभी भी नहीं आते हैं

कैक्टस
इसी बात को बहुत सफाई के साथ
भुना ले जाते हैं

और यूँ ही खेल ही खेल में
सारे के सारे बीज बिक जाते हैं

देखना भर रह गया है
कितने बीजों से 
रक्तबीज फिर से उग कर आते हैं ।