उलूक टाइम्स

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

विश्व हिन्दी दिवस और शब्द क्रमंचय संचय प्रयोग सब करते हैं समझते एक दो हैं

क्रमंचय
संचय
कितने
लोग
जानते हैं
कितने
समझ
ले
जाते हैं


क्रमंचय
संचय
उच्च
गणित
में प्रयोग
किया
जाता है

गणित
विषय
पढ़ने
और
समझने
वाला भी
दिमाग में
जोर
लगाता है
जब
क्रमंचय
संचय के
सवालों को
हल करने
पर आता है

किताबों
को छोड़
दिया जाये
अपने
आसपास
के लोग
और
समाज को
देखा जाये

नहीं सुने
होते हैं
ना ही
पढ़े होते हैं
क्रमंचय
संचय
पर
कलाकारी
देखिये
आँखें बड़ी
कर ले
जाते हैं
काणे भी
देखना
शुरु हो
जाते हैं

सवाल हल
करने की
जरूरत ही
नहीं पड़ती है
जवाब हाथ में
लेकर खड़े
हो जाते हैं

काम
निकलवाना
ज्यादा
महत्वपूर्ण
होता है
सबको पता
होता है

निकालने
के तरीके
के लिये
सोचने
के लिये
कहाँ तक
जाना है
कौन कब
सोच पाते हैं
जात पात
अमीर गरीब
ऊँच नीच
मिलाकर
जो लोग
घोल बना कर
लोगों को
पिलाना शुरु
हो जाते हैं

नशा होता है
गजब का
होता है
पीने वाले
अपना पराया
भूल जाते हैं

चल पड़ते हैं
लामबन्द
होकर
किसी भी
सियार के लिये

शेर बना कर
उसे जंगल से
बाहर छोड़
कर भी आते हैं

क्रमंचय संचय
नहीं पढ़ते हैं
क्रमंचय संचय
नहीं समझते हैं

काम करते हैं
अवसरवादियों
 के लिये

क्रमंचय संचय
के एक सवाल
का असल हल
पेश करते हैं

अवसर वाद
सारे वादों के
ऊपर का
 वाद होता है
‘उलूक’

तेरे जैसे
कई होते हैं
अवसर
मिलता है
और
दूसरों को
देख हमेशा
आँख मलते हैं

क्रमंचय
संचय
करते हैं
देखते हैं
सारी दुनियाँ
को प्रयोग
करते हुए
क्रमंचय
संचय
वो लोग जो
कभी भी
गणित नहीं
पढ़ते हैं ।

चित्र साभार: Pinterest
 

रविवार, 8 जनवरी 2017

शुरु हो गया मौसम होने का भ्रम अन्धों के हाथों और बटेरों के फंसने की आदत को लेकर

कसमसाहट
नजर आना
शुरु हो गयी है

त्योहार नजदीक
जो आ गया है

अन्धों का ज्यादा
और बटेरों का कम

अपने अपने
अन्धों के लिये
लामबन्द होना
शुरु होना
लाजिमी है
बटेरों का

तू ना
अन्धा है
ना हो
पायेगा

बड़ी बड़ी
गोल आखें
और
उसपर
इस तरह
देखने की
आदत

जैसे बस
देखेगा
ही नहीं
मौका
मिले
तो घुस
भी पड़ेगा

बटेर होना
भी तेरी
किस्मत
में नहीं

होता तो
यहाँ लिखने
के बजाये
बैठा हुआ
किसी अन्धे
की गोद में
गुटर गुटर
कर रहा होता

अन्धों के
हाथ में बटेर
लग जाये या
बटेर खुद ही
चले जाये अन्धे
के हाथ में

मौज अन्धा
ही करेगा
बटेर त्यौहार
मना कर
इस मौसम का
अगले त्यौहार
के आने तक
अन्धों की
सही सलामती
के लिये बस
मालायें जपेगा

तू लगा रह
खेल देखने में
कौन सा अन्धा
इस बार की
अन्धी दौड़
को जीतेगा

कितनी बटेरों
की किस्मत
का फैसला
अभी करेगा

बटेरें हाथ में
जाने के लिये
बेकरार हैं
दिखना भी
शुरु हो गई हैं

अन्धों की आँखों
की परीक्षाएं
चल रही हैंं

जरा सा भनक
नहीं लगनी
चाहिये
थोड़ी सी भी
रोशनी के बचे
हुऐ होने की
एक भी आँख में
समझ लेना
अन्धो अच्छी
तरह से जरा

बटेर लपकने
के मौसम में
किसी दूसरे
अन्धे के लिये
बटेर पकड़
कर जमा
करने का
आदेश हाथ
में अन्धा
एक दे देगा

अन्धों का
त्योहार
बटेरों का
व्यवहार
कुछ नहीं
बदलने
वाला है

‘उलूक’

सब इसी
तरह से
ही चलेगा

तुझे मिला
तो है काम
दीवारें
पोतने
का यहाँ

तू भी
दो चार
लाईनेंं
काली
सफेद
खींचते हुए
पागलों
की तरह

अपने जैसे
दो चारों के
सिर
खुजलाने
के लिये
कुछ
ना कुछ
फालतू
रोज की
तरह का
कह देगा ।

चित्र साभार: The Blogger Times

बुधवार, 4 जनवरी 2017

कविता बकवास नहीं होती है बकवास को किसलिये कविता कहलवाना चाहता है

जैसे ही
सोचो
नये
किस्म
का कुछ
नया
करने की

कहीं
ना कहीं
कुछ ना
कुछ ऐसा
 हो जाता है
जो
ध्यान
भटकाता है
और
लिखना
लिखाना
शुरु करने
से पहले ही
कबाड़ हो
जाता है

बड़ी तमन्ना
होती है
कभी एक
कविता लिख
कर कवि
हो जाने की

लेकिन
बकवास
लिखने का
कोटा कभी
पूरा ही
नहीं हो
पाता है

हर साल
नये साल में
मन बनाया
जाता है

जिन्दे कवियों
की मरी हुई
कविताओं को
और
मरे हुऐ
कवियों की
जिंदा
कविताओं
को याद
किया जाता है

कविता
लिखना
और
कवि हो
जाना
इसका
उसका
फिर फिर
याद आना
शुरु हो
जाता है

कविता
पढ़
लेने वाले
कविता
समझ
लेने वाले
कविता
खरीद
और बेच
लेने वालों
से ज्यादा
कविता पर
टिप्प्णी कर
देने वालों के
चरण
पादुकाओं
की तरफ
ध्यान चला
जाता है

रहने दे
‘उलूक’
औकात में
रहना ही
ठीक
रहता है

औकात से
बाहर जा
कर के
फायदे उठा
ले जाना
सबको नहीं
आ पाता है

लिखता
चला चल
बकवास
अपने
हिसाब की

कितनी लिखी
क्या लिखी
गिनती करने
कोई कहीं से
नहीं आता है

मत
किया कर
कोशिश
मरी हुई
बकवास से
जीवित कविता
को निकाल
कर खड़ी
करने की

खड़ी लाशों
के अम्बार में
किस लिये
कुछ और
लाशें अपनी
खुद की
पैदा की हुई
जोड़ना
चाहता है ।

चित्र साभार: profilepicturepoems.com

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

आओ खेलें झूठ सच खेलना भी कोई खेलना है



प्रतियोगिता झूठ बोलने की ही हो रही है
हर तरफ आज के दिन पूरे देश में
किसी एक झूठे के बड़े झूठ ने ही जीतना है

झूठों में सबसे बड़े झूठे को मिलना है ईनाम
किसी नामी बेनामी झूठे ने ही
खुश हो कर अन्त में उछलना है कूदना है

झूठे ने ही देना है झूठे को सम्मान
सारे झूठे नियम बन चुके हैं
झूठे सब कुछ झूठ पर पारित कर चुके हैं
झूठों की सभा में
उस पर जो भी बोलना है जहाँ बोलना है
किसी झूठे को ही बोलना है

सामने से होता हुआ नजर आ रहा है
जो कुछ भी कहीं पर भी
वो सब बिल्कुल भी नहीं देखना है
उस पर कुछ भी नहीं कुछ बोलना है

झूठ देखने से नहीं दिखता है
इसलिये किसलिये
आँख को अपनी किसी ने क्यों खोलना है
झूठ के खेल को पूरा होने तक खेलना है

झूठ ने ही बस स्वतंत्र रहना है
झूठ पकड़ने वालों पर रखनी हैं निगाहें
हरकत करने से पहले उनको
पकड़ पकड़ उसी समय
झूठों ने साथ मिलकर पेलना है

जिसे खेलना है झूठ
उसे ही झूठ के खेल पर करनी है टीका टिप्पणी
झूठों के झूठ को झूठ ने ही झेलना है

‘उलूक’ तेरे पेट में होती ही रहती है मरोड़
कभी भरे होने से कभी खाली होने से
लगा क्यों नहीं लेता है दाँव
ईनाम लेने के लिये झूठ मूठ में ही
कह कर बस कि
पूरा कर दिया तूने भी कोटा झूठ बोलने का
हमेशा सच बोलना भी कोई बोलना है ।

चित्र साभार: www.clipartkid.com

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

पीटना हो किसी बड़ी सोच को आसानी से एक छोटी सोच वालों का एक बड़ा गिरोह बनाया जाता है

बड़ी सोच का
बड़ा कबीर
खुद को दिखा
दिखा कर ही
बड़ा फकीर
हुआ जाता है


छोटी सोच
बता कर
प्रतिद्वन्दी की
अपने जैसों
के गिरोह के
गिरोहबाजों
को समझाकर
आज किसी
की भी एक बड़ी
लकीर को
बेरहमी के साथ
खुले आम
पीटा जाता है

लकीर का
फकीर होना
खुद का
फकीर को
भी बहुत
अच्छी तरह
से समझ
में आता है

फकीर को
लकीर अगर
कोई समझा
पाता है तो
बस कबीर
ही समझा
पाता है

जरूरी नहीं
होता है तीखा
होना अँगुलियों
के नाखूँनो का
किसी की सोच
को खुरचने के लिये

खून भी आता है
लाल भी होता है
सोच समझ कर
योजना बना कर
अगर हाँका
लगाया जाता है

अकेले ज्यादा
सोचना ही
किसी का
कभी उसी
की सोच
को खा जाता है


बोलने के लिये
अकेले आता है
लेकिन
रोज का रोज
समझाया जाता है

इशारों में भी
बताया जाता है
किताबों खोल कर
पढ़ाया जाता है


एक आदमी
का बोलना
लिखने के लिये
एक दर्जन
दिमागों को
काम में
लगाया
जाता है

छोटी सोच
बताने को
इसी लिये
कोई ना कोई
फकीर कबीर
हो जाता है

बड़ी सोच में
लोच लिये ऐसे
ही फकीर को
बैचेनियाँ
खरीदना
खोदना और
बेचना आता है

आसान होता है
किसी की सोच
के ऊपर चढ़ जाना
उसे नेस्तनाबूत
करने के लिये

एक गिरोह
की सोच
का सहारा
लेकर
किसी भी
सोच का
दिवाला
निकाला
जाता है

जरूरी होता है
दबंगों की सोच
का दबंग होना
दबंगई
समझाने के लिये

अकेले
चने की
भाड़ नहीं
फोड़ सकने
की कहानी
का सार
समझ में
देर से
ही सही
मगर कभी
आता है

‘उलूक’
ठहर जाता है
आजकल
पढ़ते समझते
गोडसे सोचों
की गाँधीगिरी

लिखा लिखाया
खुद के लिये
उसका खुद
के पास ही
छूट जाता है

समझ जाता है
पीटना हो किसी
बड़ी सोच को
आसानी से

एक छोटी
सोच वालों
का एक
बड़ा गिरोह
बनाया जाता है ।

चित्र साभार: Clipart Panda

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

‘उलूक’ गुंडा भी सत्य है और सत्य है उसकी गुंडई भी भटक मत लिख

गुंडे की
गुंडई
होनी ही
चाहिये
अब गुंडा
गुंडई
नहीं
करेगा
तो क्या
भजन
करेगा

वैसे ऐसा
कहना भी
ठीक नहीं है

गुंडे भजन
भी किया
करते हैं

बहुत
से गुंडे
बहुत
अच्छा
गाते हैं

कुछ गुंडे
कवि भी
होते हैं

कविता
करना
और
कवि होना
दोनो
अलग
अलग
बात हैंं

गुंडई
कुछ
अलग
किस्म
की
कविता है

गुंडई
के गीतों
की
धुनें भी
होती हैं
महसूस
भी
होती हैं
कपकपाती
भी हैं

बातें
सब ही
करते हैं

गुंडई का
प्रतिकार
करना भी
जरूरी
नहीं है

क्यों किया
जाये
प्रतिकार भी

जब बात
करने से
काम
निपट
जाता है

गुंडे
पालना
भी एक
कला
होती है

गुंडा नहीं
होने का
प्रमाणपत्र
होना और
गुंडो का
सरदार
होना

एक
गजब
की कला
नहीं
है क्या ?

अखबार
के पन्नों
पर गुंडों
की खबरें
भरत नाट्यम
करती हैं

पता नहीं

पूजा
मंदिर
भगवान
और
गुंडे
कुछ कुछ
ऐसा
जैसे
औड मैन
आउट
करने
का
सवाल

किसे
निकालेंगे ?

सनक की
क्या करे
कोई
किसी की
उस पर
खाली
गोबर सना
गोबर भरा
‘उलूक’
हो अगर

भटक
जाता है
कई बार
कोई
शरमाकर

गुंडो
और
उनकी
गुंडई
पर नहीं
उनके
रामायण
बांंचने की
तारीफ करते
हुए लोगों के
उपदेशों पर

लिखना
इसलिये
भी
जरूरी है
क्योंकि
गुंडा
और
गुंडई
खतरनाक
नहीं
होते हैंं

खतरनाक
होते हैं
वो सारे
समाज के
लोग जो
मास्टर
नहीं होते हैं
पर शुरु
कर देते हैं
हेड मास्टरी
समझाने
और
पढ़ाने को
गुंडई
समाज को।

चित्र साभार: http://i.imgur.com/iWre2oh.jpg

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

आओ धमकायें नया उद्योग लगायें

नये
जमाने
के साथ
बदलना
सीखें

कुछ
उद्योग
धन्धे नये
धन्धों से
अलग
खींच कर

धन्धों के
खेत में
खींच
तान कर
अकलमंदी के
डंडे से सींचें
पनपायें

आओ
धमकायें

धमकाने के
धन्धे से
किसी की
किस्मत
चमकायें

आओ बुद्ध
बन जायें
ऊपर कहीं
बैठ कर
ऊँचाई
अपनी
लोगों को
समझायें

नये नये
उद्योगों
की
लम्बी
लम्बी
कतारें
लगायें

आओ
पीछे कहीं
खड़े खड़े
आगे
चल रहे
को
गलियाएं

आओ
लोगों का
बोलना
बन्द
करवायें

बोलती
बन्द करने
की मशीनें
ईजाद करें
देश आगे
ले जायें

अपना
मुँह खोलें
दांत दिखायें
ना देखना
चाहे कोई
काट खायें

आओ
कटखन्ने
हो जायें
काट खाने
के तरीके
समझें
समझायें

नये नये
काटखाने के
उपकरण
तैयार करें
कटखन्ने
उद्योग
उगायें

आओ
सीखें
सिखाने
वालों से
उनके
समझे
बूझे को

‘उलूक’
की तरह
बकवास
कर कर
लोगों को
ना पकायें

आओ
नये जमाने
के
नये लोगों
के नये
ज्ञान का
लाभ उठायेंं

आओ
खुद के
लिये नहीं
किसी
के लिये
लोगों को
धमकायें
धमकाने के
उद्योग
फलें फूलें
राग धमकी
में ढले
गीत गायें ।

चित्र साभार: WorldArtsMe

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

करने वालों को लात नहीं करने वालों के साथ बात सिद्धान्ततह ही हो रहा होता है

बेवकूफों
की
दिवाली

समझदारों
की
अमावस
काली

बाकी
लेना देना
अपनी
जगह पर

होना
ना होना
होने
ना होने
की
जगह पर
पहले
जैसा ही
होना
होता है
हो रहा
होता है

अवसरवाद
को
छोड़ कर
कोई भी वाद
वाद नहीं
होता है
किसे
इस बात
से मतलब
हो रहा
होता है

किसे
समझाये
आदमी
इस
बात को
जहाँ
आदमी ही
आदमी को
खुद
खुरचता
और
खुद ही
रो रहा
होता है

पानी नहीं
होता है
फिर भी
कोई भी
किसी
को भी
खुले आम
धो रहा
होता है

सारे
हम्माम
बुला रहे
होते हैं
सब कुछ
उतारे
हुओं
को ही
फिर
किस लिये
कोई
उतारा हुआ
कुछ
ओढ़ कर
उधर
घुसने
के लिये
रो रहा
होता है

पढ़ने
पढा‌ने में
किस लिये
लगे हुए हैं
नासमझ लोग

जब
समझदार
कभी भी
नहीं
पढ़ाने वाला
पढा‌ई लिखाई
कराने वालों
की लाईन
बनाने के
लिये लाईने
बो रहा होता है

केवल एक
दो हजार
के नोट
को
निकालने
में लग
रहे होते
हैं जहाँ
सारे
समझदार लोग

लाईन लगा
कर एक
बेवकूफ
ही होता
है जो
हजारों
दो हजार
के नोटों की
लाईन
पर लाईन
अपने घर पर
कहीं लगा कर
सो रहा होता है

समझने
में लगा है
देश
समझदारी
समझदार की
जो हो
रहा होता है
वो हो
रहा होता है

कोई
नया भी नहीं
हो रहा होता है
घर मोहल्ले में
हर दिन
हर समय
हो रहा होता है
चोर के
हाथ में
चाबियाँ
खजानों
की दिख
रही होती हैं

अंधा ‘उलूक’
अलीबाबा के
खुल जा
सिमसिम
मंत्र को
कागज में
लिख लिख
कर कहीं
बिना बताये
जमीन में
बो रहा
होता है

रोना बन्द
हो रहा
होता है
सभी रोने
वालों का
छातियाँ पीटने
वालों का
काला सोना
सफेद ‘सोना’
हो रहा होता है

क्रांतिकारियों
के चित्र और
कहानियों का
उजाला लिये
हाथ में
सर पीटता
अँधेरा कहीं
कोने में रो
रहा होता है ।

चित्र साभार: Dragon Alley Journals - WordPress.com

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

बेवकूफ हैं तो प्रश्न हैं उसी तरह जैसे गरीब है तो गरीबी है



जब भी कहीं कोई प्रश्न उठता है 
कोई ना कोई 
कुछ ना कुछ कहता है 

प्रश्न तभी उठता है 
जब उत्तर नहीं मिलता है 

एक ही विषय होता है 
सब के प्रश्न
अलग अलग होते हैंं 

होशियार के प्रश्न 
होशियार प्रश्न होते हैंं 
और 
बेवकूफ के प्रश्न 
बेवकूफ प्रश्न होते हैं 

होशियार 
वैसे प्रश्न नहीं करते हैं 
बस प्रश्नों के उत्तर देते हैं 

बेवकूफ 
प्रश्न करते हैं 
फिर उत्तर भी पूछते हैं 
मिले हुऐ उत्तर को 
जरा सा भी नहीं समझते है 

समझ गये हैं 
जैसे कुछ का 
अभिनय करते हैं 
बहस नहीं करते हैं 

मिले हुए उत्तर के चारों ओर 
बस सर पर हाथ रखे 
परिक्रमा करते हैं 

समय भी प्रश्न करता है समय से 
समय ही उत्तर देता है समय को 

समय होशियार और बेवकूफ नहीं होता है 
समय प्रश्नों को रेत पर बिखेर देता है 

बहुत सारे 
रेत पर बिखरे हुऐ प्रश्न 
इतिहास बना देते हैं 

रेत पानी में बह जाती है 
रेत हवा में उड़ जाती है 
रेत में बने महल ढह जाते हैं 
रेत में बिखरे रेतीले प्रश्न 
प्रश्नों से ही उलझ जाते हैं 

कुछ लोग 
प्रश्न करना पसन्द करते हैं 
कुछ लोग उत्तर के डिब्बे 
बन्द करा करते हैं 

बेवकूफ 
‘उलूक’ 
की आदत है जुगाली करना 
बैठ कर कहीं ठूंठ पर 
उजड़े चमन की 
जहाँ हर तरफ उत्तर देने वाले 
होशियार 
होशियारों की टीम बना कर 
होशियारों के लिये 
खेतों में हरे हरे 
उत्तर उगाते हैं 

दिमाग लगाने की ज्यादा जरूरत नहीं है 
देखते रहिये तमाशे 
होशियार बाजीगरों के
घर में बैठे बैठे 

बेवकूफों के खाली दिमाग में उठे प्रश्न 
होशियारों के उत्तरों का कभी भी 
मुकाबला नहीं करते हैं । 

चित्र साभार: Fools Rush In

शनिवार, 3 दिसंबर 2016

हर तरफ फकीर हैं फकीर ही फकीर

अचानक

सामने से
आ पड़ा

अभी आज

पता नहीं
कहाँ से

शब्द
फकीर

अब
आ ही
बैठा
फकीर

तो
आ बैठा

जब तक
फकीर से
बैठने की
गुजारिश
करता

चाय नाश्ते
पानी की
पेशकश
करता

अपने
आस पास
के सारे

फकीर
आ गये

घूमना
शुरु
हो गये

सामने से
पर्दे में

और

दिखा

सूट में
चमचमाता

फकीर

दिखा

हैलीकौप्टर
में आता जाता 


फकीर

दिखा

सीटी
बजाता 


फकीर

दिखा

भजन
गुनगुनाता

फकीर

दिखा

राकेट 
हो जाता 

फकीर

दिखा

गंगा 
धोने जाता 

फकीर

दिखा

चुनाव
जीत जाता

फकीर

दिखा

संसद में
बैठने आता

फकीर

दिखा

भाषण
फोड़ जाता

फकीर

दिखा

हर तरफ
हर आदमी
हो जाता 

फकीर

दिखा

घर में
मोहल्ले में
शहर में
जिले में
राज्य में

अपनी
जगह
बनाता

फकीर

दिखा

स्कूल में
कालेज में
पढ़ाता

फकीर

दिखा

परीक्षाएं
करवाता

फकीर

दिखा

विश्वविद्यालय
चलाता

फकीर

दिखा

नेता
बनाता

फकीर

दिखा

अस्पताल में
दवा दारू
दिलवाता 


फकीर

दिखा

न्याय
दिलवाता

फकीर

दिखा

इज्जत
बचवाता

फकीर

दिखा

चोर
पकड़वाता

फकीर

दिखा

सजा
दिलवाता

फकीर

दिखा

नोट
बदलवाता

फकीर

दिखा

हर तरफ

फकीर

और
फकीर

दिखा

फकीरी
सिखलाता

फकीर

बस कर

‘उलूक’
रुक भी जा
मत देख

फकीर
दर
फकीर

फकीरों
के देश में

खुश
रह कर
हमेशा
की तरह
बैठ कर
पीटता
चला चल

अपनी
लकीर
दर
लकीर ।

चित्र साभार : Kids Coloring Book

बुधवार, 30 नवंबर 2016

समीकरण

गणित
नहीं पढ़ी है
के बहाने
नही चलेंगे
समीकरण
फिर भी
पीछा नहीं
छोड़ेंगे

समीकरण
नंगे होते हैं

अजीब
बात है
समीकरण
तक तो
ठीक था
ये नंगे होना
समीकरण का
समझ में
नहीं आया

आयेगा
भी नहीं
गणित के
समीकरण में
क या अ
का मान
हल करके
आ जाता है
हल एक भी
हो सकता है
कई बार
एक से
अधिक भी
हो जाता है

आम
जिंदगी के
समीकरण
आदमी के
चाल चलन
के साथ
चलते हैं

नंगे आदमी
एक साथ
कई समीकरण
रोज सुबह
उठते समय
साबुन के साथ
अपने चेहरे
पर मलते हैं

समीकरण
को संतुष्ठ
करता आदमी
भौंक भी
सकता है
उसे कोई
कुत्ता कहने
की हिम्मत
नहीं कर
सकता है

समीकरण
से अलग
बैठा दूर
से तमाशा
देखता
क या अ
पागल बता
दिया जाता है

आदमी
क्या है
कैसा है
उसे खुद
भी समझ
में नहीं
आता है

सारे
समीकरणों
के कर्णधार
तय करते हैं
किस कुत्ते
को आदमी
बनाना है
और
कौन सा
आदमी खुद
ही कुत्ता
हो जाता है

जय हो
सच की
जो दिखाया
जाता है

‘उलूक’
तू कुछ भी
नहीं उखाड़
सकता
किसी का
कभी भी
तेरे
किसी भी
समीकरण
में नहीं होने
से ही तेरा
सपाट चेहरा
किसी के
मुँह देखने
के काम
का भी
नहीं रह
जाता है ।

चित्र साभार: Drumcondra IWB - Drumcondra Education Centre

रविवार, 27 नवंबर 2016

पूछने में लगा है जमाना वही सब जिसे अच्छी तरह से सबने समझ लिया है

अपना ही
शहर है
अपना ही
मोहल्ला है
अपने ही
लोग हैं 
अपनी ही
गलियाँ हैं

दिमाग
लगाने की
जरूरत
भी नहीं है
हर किसी
के पास
ऊपर
कहीं से
भेजी गई
कुछ जमा
प्रश्नावलियाँ हैंं

सब ही
देख
रहें हैं
सब कुछ
सब ही
समझ
रहे हैं
सब कुछ
सब ही
पूछ रहें
हैं सभी
से प्रश्न

समझने
के लिये
कहीं
सामने
वाले ने
भी
सब कुछ
अच्छी तरह
से तो
नहीं समझ
लिया है

किसी
के पास
खुद से
पूछे गये
सालों साल
जमा
की गई
सवालों की
लड़ियाँ हैं

कुछ
पहेलियों
को
समझने
सुलझाने
के लिये
जोड़ तोड़
कर
एकत्रित
की गई
कड़ियाँ हैं

खुद
का ही
खुद ही
लिये गये
इम्तिहान
में प्रयोग
की गई
सफेद
श्यामपट
की काली
खड़ियाँ हैं

किसलिये
कोशिश
करते हो
समझने
की समय
को इन
सब से
जिनके पास
समय से
पहले ही
चुक चुकी
घड़ियाँ हैं

उलूक के
लिखने
लिखाने को
पढ़ता भी है
कहता भी है
नहीं समझ
में आता है
जरा सा भी
इसमें से
पर
जो भी
लिखा है
भाई बहुत
ही बढ़िया है।

चित्र साभार:
Fotosearch

बुधवार, 23 नवंबर 2016

सब नहीं लिखते हैं ना ही सब ही पढ़ते हैं सब कुछ जरूरी भी नहीं है लिखना सब कुछ और पढ़ना कुछ भी


मन तो बहुत होता है 
खुदा झूठ ना बुलाये 

अब खुदा बोल गये 
भगवान नहीं बोले 
समझ लें 

मतलब वही है 
उसी से है जो कहीं है 
कहीं नहीं है 

सुबह 
हाँ तो बात 
मन के बहुत 
होने से शुरु हुई थी 

और 
सुबह सबके साथ होता है 
रोज होता है वही होता है 

जब दिन शुरु होता है 
प्रतिज्ञा लेने जैसा 
कुछ ऐसा 
कि 
राजा दशरथ का प्राण जाये 
पर बचन ना जाये जैसा 

जो कि 

कहा जाये तो सीधे सीधे 
नहीं सोचना है आज से 
बन्दर क्या उसके पूँछ 
के बाल के बारे में भी 
जरा सा

नहीं बहुत हो गया 
भीड़ से दूर खड़े 
कब तक खुरचता रहे कोई 
पैर के अँगूठे से
बंजर जमीन को 
सोच कर उगाने की 
गन्ने की फसल 
बिना खाद बिना जल 

बोलना बोलते रहना 
अपने को ही
महसूस कराने लगे अपने पूर्वाग्रह 

जब 

अपने आसपास अपने जैसा 
हर कोई अपने साथ बैठा 
कूड़े के ढेर के ऊपर 
नाचना शुरु करे गाते हुऐ भजन 
अपने भगवान का 
भगवान मतलब खुदा से भी है 
ईसा से भी है 
परेशान ना होवें 

नाचना कूड़े की दुर्गंध 
और 
सड़ाँध के साथ 
निर्विकार होकर

पूजते हुऐ जोड़े हाथ


समझते हुऐ 


गिरोहों से अलग होकर 
अकेले जीने के खामियाजे 


‘उलूक’ 
मंगलयान पहुँच चुका होगा 

मंगल पर 

उधर देखा कर 
अच्छा रहेगा तेरे लिये 


कूड़े पर बैठे बैठे 
कब तक सूँघता रहेगा दुर्गंध 


वो बात अलग है 
अगर नशा होना शुरु हो चुका हो 


और 


आदत हो गई हो 


सबसे अच्छा है 
सुबह सुबह फारिग होते समय 

देशभक्ति कर लेना 

सोच कर तिरंगा झंडा 
जिसकी किसी को याद 
नहीं आ रही है इस समय 
क्योंकि देश व्यस्त है 
कहना चाहिये कहना जरूरी है ।

चित्र साभार: All-free-download.com

रविवार, 20 नवंबर 2016

तालियाँ एक हाथ से बज रही होती हैं उसका शोर सब कुछ बोल रहा होता है

तालियों के
शोर के बीच
बोलने की
बेवकूफी
करता है

फिर ढूँढता
भी है अपनी
ही आवाज को

कान तक
बहुत कुछ
पहुँच रहा
होता है
उसमें खुद
का बोला
गया कुछ
नहीं होता है

प्रकृति
बहुत कुछ
सिखाती है
अपने ही
आसपास की

लेकिन
खुली आँख
का अँधा
नयनसुख
अपने ही
चश्मे का
आईना बना
अपनी ही
जुल्फों में
अपनी ही
बेखुदी से
खेल रहा
होता है

सोचता ही
नहीं है
जरा सा भी
कि सियारों
का हूँकना
अकेला कभी
नहीं होता है

आवाज से
आवाज
को मिलाता
दूसरा तीसरा
भी कहीं
आसपास
ही होता है

कुत्तों का
भौंकना
तक उस
माहौल में
अपने मूल
को भूल कर
सियारों के
ही अन्दाज
की उसी
आवाज में
अपने आप
ही अपनी
आवाज को
तोल रहा
होता है

हर तरफ
हुआँ हुआँ
का शोर ही
जो कुछ भी
जिसे भी
बोलना
होता है
बोल रहा
होता है

तालियाँ
ना सियारों
को आती
हैंं बजानी
ना कुत्तों
का ध्यान
तालियों के
शोर की
ओर हो
रहा होता है

‘उलूक’
कानों
में अपने
अपने ही
हाथ लगाये
अपना
ही कहा
अंधेरे में
ढूँढने की
खातिर
डोल रहा
होता है

कुछ नहीं
सुनाई देता
है कहीं से
भी उसे

सुनाई भी
कैसे दे

जब
हर समय
हर तरफ
एक हाथ से
बज रही
तालियों
का शोर
ही सब
कुछ बोल
रहा होता है ।

चित्र साभार: k--k.club

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

खुद की सोच ही एक वजूका हो जाये खेत के बीच खड़ा हुआ तो फिर किसी और को क्या समझ में आये एक वजूका सोच से बड़ा होता है


क्या बुराई है
हो जाने में 
सोच का खुद की 
एक वजूका 

और 
जा कर खड़े हो लेने में 
कहीं भी किसी जगह 

जरूरी नहीं
उस जगह का
एक खेत ही होना 

वजूके समझते हैं
वजूकों के तौर तरीके 

लगता है
पता नहीं 
गलत भी हो सकता है 

वजूके
सोचते हैं करते हैं चलते हैं 
वजूकों के इशारों इशारों पर 
कुछ वजूकी चालें 

वजूकों के पास
शतरंज नहीं होता है 
सब सामान्य होता है
वजूके के लिये
वजूके के द्वारा 
वजूके के हित में
जो भी होता है 
वजूकों में
सर्वमान्य होता है 

वजूके
पेड़ नहीं होते हैं 
वजूकों का जंगल होना भी
जरूरी नहीं होता है 

वजूका
खेत में खड़ा कहीं
कहीं दूर से दिखाई देता है 
जिस पर कोई भी ध्यान नहीं देता है 

चिड़िया कौए
वजूकों पर 
बैठ कर बीट करते हैं 
वजूका कुछ नहीं कहता है 

वजूका ही शायद
एक 
इन्सान होता है 

सब को
समझ में नहीं आती हैं
इंसानों की कही हुई बातें 
इंसानों के बीच में हमेशा

वजूके
कुछ नहीं कहते हैं 

वजूके
वजूकों को समझते हैं 
बहुत अच्छी तरह से 

लेकिन ये बात अलग है 
वजूकों की
भीड़ नहीं होती है कहीं 

वजूके के बाद 
मीलों की दूरी पर
कहीं किसी खेत में 
एक और वजूका
अकेला खड़ा होता है 

‘उलूक’ 
तेरे करतबों से
दुनियाँ को क्या लेना देना 

हर किसी का
अपना एक वजूका 
पूरे देश में एक ही होता है 
लेकिन वजूका होता है। 

चित्र साभार: Clipartix

बुधवार, 9 नवंबर 2016

जन्म दिन राज्य का मना भी या नहीं भी सोलह का फिर भी होते होते हो ही गया है

पन्द्रह
पच्चीसी
का राजकुवँर

आज
सौलहवीं
पादान पर
आ कर
खड़ा
हो गया है

पैदा
होने से
लेकर जवानी
की दहलीज पर
पहुँचते पहुँचते

क्या
हुआ है
क्या
नहीं हुआ है

बड़े
घर से
अलग होकर

छोटे
घर के
चूल्हे में
क्या क्या
पका है
क्या कच्चा
रह गया है

जंगल हरे
भस्म हुऐ हैं
ऊपर कहीं
ऊँचाइयों के

धुआँ
आकाश में
ही तो फैला
है दूर तक

खुद को
खुद ही
आइने में
इस धुंध के

ढूँढना
मुश्किल
भी हो गया है

तो क्या
हो गया है

बारिश
हुई भी है
एक मुद्दत के बाद

तकते तकते
बादलों को लेकिन

राख से
लिपट कर
पानी नदी
नालौं का
खारा हो गया है

तो
कौन सा
रोना हो गया है

विपदा
आपदा में
बचपन से
जवानी तक

खेलता कूदता
दबता निकलता

पहाड़ों
की मिट्टी
नदी नालों में

लाशों को
नीलाम
करता करता

बहुत ही
मजबूत
हो गया है


ये बहुत है

खाली
मुट्ठी में
किसी को

सब कुछ
होने का
अहसास
इतनी जल्दी
हो गया है

कपड़े
जन्मदिन के
उपहार में
मिले उससे

उतारे
भी उसने

किससे
क्या कुछ
कहने को
अब रह गया है

उसकी
छोड़ कर गुलामी
बदनसीबी की

अब
इसके
गुलाम हो लेने
का मौसम
भी हो गया है

जन्मदिन
होते ही हैं
हर साल
सालों साल

हर
किसी के
‘उलूक’

इस
बार भी
होना था
हुआ है

क्या गया
क्या मिला

पुराना
इक हिसाब
अगले साल
तक के लिये

पुराने
इस साल
के साथ
ही आज
फिर से
दफन
हो गया है ।

चित्र साभार: Revolutionary GIS - WordPress.com

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

मुठभेड़ प्रश्नों की जवाब हो जाये कोई कुछ पूछ भी ना पाये

छोटे छोटे
अपने आस
पास के
उलझे प्रश्नों
से उलझते
उलझते
हमेशा
उलझ जाने
वाले को
सुलझने
सुलझाने
के सपने
देख लेने
की आदत
डाल लेनी
ही चाहिये

बड़े देश
के बड़े
प्रश्नों को
उठाने
वालों को
थोड़ी सी
ही सही
शरम तो
आनी ही
चाहिये

अच्छा होता है
प्रेस काँफ्रेंस
के उत्तरों को
सुन कर
मनन कर
कंठस्थ
कर लेना
या
उठा लेना
जवाब
कहीं किसी
किताब
अखबार
या रद्दी की
टोकरी से
और
फिर शुरु
कर देना
खोलना
दुकान पर
दुकान
जवाबों की
इस गली
से लेकर
उस गली तक

प्रश्न उठे
कहीं से भी
उसके उठने
से पहले
दाग देना
ढेर सारे
जवाब

इतने जवाब
की दब दबा
कर मर ही
जायेंं सारे
प्रश्न घुट
घुट कर

मर जाने
के बाद भी
सुनिश्चित
कर लिया
जाये
ठोक कर
दो चार
और
जवाब
ऊपर से
ताकि
एन्काउंटर
पूरा हो जाये

फिर भी
बच जाये
जो बेशरम
प्रश्न इतना
सब होने
के बाद भी

उसे जवाबों
से घेर कर
इतना बेइज्जत
कर दिया जाये
कि कर ले जाये
कहीं भी जा
कर आत्महत्या
इस तरह कि
मरते मरते
खुद ही एक
जवाब हो जाये

प्रश्न की मौत
का मातम ही
जवाबों का
जश्न हो जाये

‘उलूक’
भूल से
भी ना
कह पाये
नहीं आया
समझ में
जवाब

जो सुने
जैसा सुने
जिधर से
सुने बस
ऊपर से
नीचे और
नीचे से
ऊपर की
तरफ हाँ
हाँ की
गरदन
हिलाये
बिना
पलकें
झपकाये ।

चित्र साभार: CartoonStock

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

डेमोक्रेसी को समझ इंदिरा सोच भी मत पटेल के होते हुए


मत करना श्राद्ध उसका
जिसकी सोच में भी दिखे
तुमको वो उनका

इनका ये दिख रहा है
तो तर्पण कर लेना दे देना जल

देशभक्ति मन में होने से कुछ नहीं होता है
दिखानी पड़ती है 
उसकी फोटो लगाकर सामने से
पूजा अर्चना का थाल सजाये हुऐ
अपने को साथ में दिखाकर

हटाना  जरूरी होता है
हर एक के दिमाग से इतिहास
खुद को स्थापित करने के लिये
येन केन प्रकारेण

चोरों और जेबकतरों का इतिहास
कोई नहीं लिखता है
इतिहास पढ़ने पढ़ाने वाले
चोर 
और उठाईगीर हों ये जरूरी नहीं
पर उनके साथ चलते हुऐ
इतिहास 
लिखने में कोई बुराई नहीं होती है

इतिहासकार जानते हैं

‘उलूक’
तुम जो भी पढ़ लिख कर यहाँ तक पहुँच गये हो
उस पर केरोसिन डाल कर आग लगा दो
जरूरी है अब किसी भी सरकार के आने के  बाद 
पुरानी सरकार की बात करना सोचना कहना
देशद्रोह माना जायेगा ।

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

अंगरेजी में अनुवाद कर समझ में आ जायें फितूर ‘उलूक’ के ऐसा भी नहीं होता है

महसूस
करना
मौसम की
नजाकत
और
समय
के साथ
बदलती
उसकी
नफासत
सबके लिये
एक ही
सिक्के
का एक
पहलू हो
जरूरी
नहीं है

मिजाज
की तासीर
गर्म
और ठंडी
जगह की
गहराई
और
ऊँचाई
से भी
नहीं नापी
जाती है

आदमी की
फितरत
कभी भी
अकेली
नहीं होती है
बहुत कुछ
होता है
सामंजस्य
बिठाने
के लिये

खाँचे सोच
में लिये
हुऐ लोग
बदलना
जानते है
लम्बाई
चौड़ाई
और
गोलाई
सोच की

लचीलापन
एक गुण
होता है जिसे
सकारात्मक
माना जाता है

एक
सकारात्मक
भीड़ के लिये
जरूरत भी
यही होती है
और
पैमाना भी

भीड़ हमेशा
खाँचों में
ढली होती है

खाँचे सोच
में होते हैं
सोच का
कोई खाँचा
नहीं होता है

‘उलूक’
नाकारा सा
लगा रहता है
सोच की
पूँछ पर
प्लास्टर
लगाने
और
उखाड़ने में

हर बार
खाँचा
कुत्ते की
पूँछ सा
मुड़ा हुआ
ही
होता है

दीवारों पर
कोयले से
खींची गई
लकीरों का
अंगरेजी में
अनुवाद भी
नहीं होता है ।

चित्र साभार: Shutterstock

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

NAAC ‘A’ की नाक के नीचे की नाव छात्रसंघ चुनाव

किसी
बेवकूफ
ने सभी
पदों पर
नोटा पर
निशान
लगाया था

तुरन्त
होशियार
के
होशियारों
ने उसपर
प्रश्नचिन्ह
लगाया था

सोये हुऐ
प्रशासन
की नींद
जारी
रही थी
काम
निपटाये
जा रहे थे

लिंगदोह
कुछ देर
के लिये
अखबार
में दिखा था
और
प्रशासन
की फूँक
भी खबर
के साथ
हवा में
उड़ती हुई
थोड़ी देर
के लिये
चेतावनियाँ
लिये
उड़ी थी

अखबार में
खबर किसने
चलाई थी
और क्यों ये
अलग प्रश्न था
अलग बात थी

गुण्डाराज
के गुण्डों
पर किसे
कुछ
कहना था
और
किस की
औकात थी

पर पिछले
दो महीने
के ताण्डवों
से परेशान
कुछ दूर
दराज के
गावों से
शहर में
आकर पढ़
रहे इन्सान
सुखाते
जा रहे
कुछ जान
कुछ बेजान
कुछ परेशान
किसी ने
नहीं देखे थे

दिखते
भी कैसे
नशे में
चूर भीड़
बौराई
हुई थी
और
प्रशासन
शाशन के
आशीर्वादों
से
लबालब
जैसे
मिट्टी नई
किसी
खेत की
भुरभुराई
हुई थी

जो
भी था
चुनाव
होना था
हुआ
मतपत्र
गिने
जाने थे
किसी ना
किसी ने
गिनना था

एक मत पत्र
बीच में
अकेला दिखा
जिसमें हर
पद पर नोटा
था दिया गया

किसी ना
किसी
ने कुछ
तो कहना
ही था

बेवकूफ
वोट देने
ही क्यों
आया था
सारे पदों
पर
नोटा पर
मुहर लगा
अपनी
बेवकूफी
बता कर
आखिर
उसने क्या
पाया था

‘उलूक’
मन ही मन
मुस्कुराया था
हजारों में
एक ही
सही पर
था कहीं
जो अपने
गुस्से का
इजहार
कर
पाया था
असली
मतदान
कर उस
अकेले
ने सारे
निकाय
को आईना
एक
दिखाया था ।

चित्र साभार: Canstockphoto.com

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

कैसे नहीं हुआ जा सकता है अर्जुन बिना धनुष तीर और निशाने के

जरूरी नहीं है
अर्जुन ही होना
ना ही जरूरी है
हाथ में धनुष
और
तीर का होना
 कोई जरूरी
नहीं है किसी
द्रोपदी के लिये
कहीं कोई स्व्यंवर
का होना
आगे बढ़ने के लिये
जरूरी है बस
मछली की आँख
का सोच में होना
खड़े खड़े रह गये
एक जगह पर
शेखचिल्ली की
समझ में समय
तब आता है जब
बगल से निकल
कर चला गया
कोई धीरे धीरे
अर्जुन हो गया है
का समाचार बन
कर अखबार में
छ्पा हुआ
नजर आना
शुरु हो जाता है
समझ में आता है
कुछ हो जाने
के लिये
आँखों को खुला
रख कर कुछ
नहीं देखा जाता है
कानों को खुला
रख कर
सुने सुनाये को
एक कान से
आने और दूसरे
कान से जाने
का रास्ता
दिया जाता है
कहने के लिये
अपना खुद का
कुछ अपने पास
नहीं रखा जाता है
इस का पकाया
उस को और
उस का पकाया
किसी को खिला
दिया जाता है
नीरो की तरह
बाँसुरी कोई
नहीं बजाता है
रोम को
खुद ही
अपने ही
किसी से
थोड़ा थोड़ा
रोज जलाये
जाने के तरीके
सिखला जाता है
एक दो तीन
दिन नहीं
महीने नहीं
साल हो जाते हैं
सुलगना
जारी रहता है
अर्जुन हो गये
होने का प्रमाण
पत्र लिये हुऐ
ऐसे ही कोई
दूसरी लंका के
सोने को उचेड़ने
की सोच लिये
राम बनने के लिये
अगली पारी की
तैयारी के साथ
सीटी बजाता हुआ
निकल जाता है
‘उलूक’
देखता रह
अपने
अगल बगल
कब मिलती है
खबर
दूसरा निकल
चुका है मछली
की आँख की
सोच लेकर
अर्जुन बनने
के लिये
अर्जुन के
पद चिन्हों
के पीछे
कुछ बनने
के लिये
फिर
एक बार
रोम को
सुलगता रहने
देने का
आदेश किस
अपने को
दे जाता है ।

चित्र साभार: Clipart Kid

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

हत्यारे की जाति का डी एन ए निकाल कर लाने का एक चम्मच कटोरा आज तक कोई वैज्ञानिक क्यों नहीं ले कर आया

शहर के एक
नाले में मिला
एक कंकाल
बेकार हो गया
एक छोटी
सी ही बस
खबर बन पाया
किस जाति
का था खुद
बता ही
नहीं पाया
खुद मरा
या मारा गया
निकल कर
अभी कुछ
भी नहीं आया
किस जाति
के हत्यारे
के हाथों
मुक्ति पाया
हादसा था
या किसी ने
कुछ करवाया
समझ में
समझदारों के
जरा भी नहीं
आ पाया
बड़ी खबर
हो सकती थी
जाति जैसी
एक जरूरी
चीज हाथ में
लग सकती थी
हो नहीं पाया
लाश की जाति
और
हत्यारे की जाति
कितनी जरूरी है
जो आदमी है
वो अभी तक
नहीं समझ पाया
विज्ञान और
वैज्ञानिकों को
कोई क्यों नहीं
इतनी सी बात
समझा पाया
डी एन ए
एक आदमी
का निकाल कर
उसने कितना
बड़ा और बेकार
का लफ़ड़ा
है फैलाया
जाति का
डी एन ए
निकाल कर
लाने वाला
वैज्ञानिक
अभी तक
किसी भी
जाति का
लफ़ड़े को
सुलझाने
के लिये
आगे निकल
कर नहीं आया
‘उलूक’
कर कुछ नया
नोबेल तो
नहीं मिलेगा
देश भक्त
देश प्रेमी
लोग दे देंगे
जरूर
कुछ ना कुछ
हाथ में तेरे
बाद में मत
कहना
किसी से
इतनी सी
छोटी सी
बात को भी
नहीं बताया
समझाया ।

चित्र साभार: Clipart Kid

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

आदमी एकम आदमी हो और आदमी दूना भगवान हो

गीत हों
गजल हों
कविताएं हों
चाँद हो
तारे हों
संगीत हो
प्यार हो
मनुहार हो
इश्क हो
मुहब्बत हो
अच्छा है

अच्छी हो
ज्यादा
ना हो
एक हो
कोई
सूरत हो
खूबसूरत हो
फेस बुक
में हो
तस्वीर हो
बहुत ही
अच्छा है

दो हों
लिखे हों
शब्द हों
सौ हों
टिप्पणिंयां हों
कहीं कुछ
नहीं हो
उस पर
कुछ नहीं
होना हो
बहुत
अच्छा है

तर्क हों
कुतर्क हों
काले हों
सफेद हों
सबूत हों
गवाह हों
अच्छी सुबह
अच्छा दिन
और
अच्छी रात हो
अच्छा है

भीड़ हो
तालियाँ हो
नाम हो
ईनाम हो
फोटो हो
फूल हों
मालाऐं हों
अखबार हो
समाचार हो
और भी
अच्छा है

झूठ हों
बीज हों
बोने वाले हों
गिरोह हो
हवा हो
पेड़ हों
पर्यावरण हो
गीत हों
गाने वाली
भेड़ हों
हाँका हो
झबरीले
शेर हों
अच्छा है

फर्क नहीं
पड़ना हो
दिखना
कोई
और हो
दिखाना
कोई
और हो
करना
कहीं
और हो
भरना
कहीं
और हो
बोलने वाला
भगवान हो
चुप रहने
वाला
शैतान हो
सबसे
अच्छा है

‘उलूक’ हो
पहाड़ा हो
याद हो
आदमी
एकम
आदमी हो
और
आदमी
दूना
भगवान हो
बाकी
सारा
हो तो
राम हो
नहीं तो
हनुमान हो
कितना
अच्छा है।

चित्र साभार: http://www.shutterstock.com/