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बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

आदमी सोचते रहने से आदमी नहीं हुआ जाता है ‘उलूक’

एकदम
अचानक
अनायास
परिपक्व
हो जाते हैं
कुछ मासूम
चेहरे अपने
आस पास के

फूलों के
पौंधों को
गुलाब के
पेड़ में
बदलता
देखना

कुछ देर
के लिये
अचम्भित
जरूर
करता है

जिंदगी
रोज ही
सिखाती
है कुछ
ना कुछ

इतना कुछ
जितना याद
रह ही नहीं
सकता है

फिर कहीं
किसी एक
मोड़ पर
चुभता है
एक और
काँटा

निकाल कर
दूर करना
ही पड़ता है

खून की
एक लाल
बून्द डराती
नहीं है

पीड़ा काँटा
चुभने की
नहीं होती है

आभास
होता है
लगातार
सीखना
जरूरी
होता है

भेदना
शरीर को
हौले हौले
आदत डाल
लेने के लिये

रूह में
कभी करे
कोई घाव
भीतर से
पता चले
कोई रूह
बन कर
बैठ जाये
अन्दर
दीमक
हो जाये

उथले पानी
के शीशों
की
मरीचिकायें
धोखा देती 

ही हैं

आदमी
आदमी
ही है
अपनी
औकात
समझना
जरूरी है
'उलूक'

कल फिर
ठहरेगा
कुछ देर
के लिये
पानी

तालाब में
मिट्टी
बैठ लेगी
दिखने
लगेगें
चाँद तारे
सूरज
सभी
बारिश
होने तक ।

चित्र साभार: Free Clip art

गुरुवार, 10 नवंबर 2016

खुद की सोच ही एक वजूका हो जाये खेत के बीच खड़ा हुआ तो फिर किसी और को क्या समझ में आये एक वजूका सोच से बड़ा होता है


क्या बुराई है
हो जाने में 
सोच का खुद की 
एक वजूका 

और 
जा कर खड़े हो लेने में 
कहीं भी किसी जगह 

जरूरी नहीं
उस जगह का
एक खेत ही होना 

वजूके समझते हैं
वजूकों के तौर तरीके 

लगता है
पता नहीं 
गलत भी हो सकता है 

वजूके
सोचते हैं करते हैं चलते हैं 
वजूकों के इशारों इशारों पर 
कुछ वजूकी चालें 

वजूकों के पास
शतरंज नहीं होता है 
सब सामान्य होता है
वजूके के लिये
वजूके के द्वारा 
वजूके के हित में
जो भी होता है 
वजूकों में
सर्वमान्य होता है 

वजूके
पेड़ नहीं होते हैं 
वजूकों का जंगल होना भी
जरूरी नहीं होता है 

वजूका
खेत में खड़ा कहीं
कहीं दूर से दिखाई देता है 
जिस पर कोई भी ध्यान नहीं देता है 

चिड़िया कौए
वजूकों पर 
बैठ कर बीट करते हैं 
वजूका कुछ नहीं कहता है 

वजूका ही शायद
एक 
इन्सान होता है 

सब को
समझ में नहीं आती हैं
इंसानों की कही हुई बातें 
इंसानों के बीच में हमेशा

वजूके
कुछ नहीं कहते हैं 

वजूके
वजूकों को समझते हैं 
बहुत अच्छी तरह से 

लेकिन ये बात अलग है 
वजूकों की
भीड़ नहीं होती है कहीं 

वजूके के बाद 
मीलों की दूरी पर
कहीं किसी खेत में 
एक और वजूका
अकेला खड़ा होता है 

‘उलूक’ 
तेरे करतबों से
दुनियाँ को क्या लेना देना 

हर किसी का
अपना एक वजूका 
पूरे देश में एक ही होता है 
लेकिन वजूका होता है। 

चित्र साभार: Clipartix

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

अंगरेजी में अनुवाद कर समझ में आ जायें फितूर ‘उलूक’ के ऐसा भी नहीं होता है

महसूस
करना
मौसम की
नजाकत
और
समय
के साथ
बदलती
उसकी
नफासत
सबके लिये
एक ही
सिक्के
का एक
पहलू हो
जरूरी
नहीं है

मिजाज
की तासीर
गर्म
और ठंडी
जगह की
गहराई
और
ऊँचाई
से भी
नहीं नापी
जाती है

आदमी की
फितरत
कभी भी
अकेली
नहीं होती है
बहुत कुछ
होता है
सामंजस्य
बिठाने
के लिये

खाँचे सोच
में लिये
हुऐ लोग
बदलना
जानते है
लम्बाई
चौड़ाई
और
गोलाई
सोच की

लचीलापन
एक गुण
होता है जिसे
सकारात्मक
माना जाता है

एक
सकारात्मक
भीड़ के लिये
जरूरत भी
यही होती है
और
पैमाना भी

भीड़ हमेशा
खाँचों में
ढली होती है

खाँचे सोच
में होते हैं
सोच का
कोई खाँचा
नहीं होता है

‘उलूक’
नाकारा सा
लगा रहता है
सोच की
पूँछ पर
प्लास्टर
लगाने
और
उखाड़ने में

हर बार
खाँचा
कुत्ते की
पूँछ सा
मुड़ा हुआ
ही
होता है

दीवारों पर
कोयले से
खींची गई
लकीरों का
अंगरेजी में
अनुवाद भी
नहीं होता है ।

चित्र साभार: Shutterstock

रविवार, 14 अगस्त 2016

एक खयाल आजाद एक खयाल गुलाम एक गुलाम आजाद एक आजाद गुलाम

गुलामों के
गुलामों की

किसी एक
श्रृंखला के
गुलाम

तेरे आजाद
होने के
खयाल को

एक गुलाम
का सलाम

सोच ले
कर ले मनन
लगा ले ध्यान

लिखना चाहे
तो लिख
भी ले
एक कलाम

कल के दिन
आने वाली

एक दिन
की आजादी
के जश्न का
आज की शाम

देख कर
दिनदर्शिका में

अवकाश के
दिनों में
दिखाये गये

लाल रंग में रंगे
पन्द्रह अगस्त
का लेकर नाम

कल
निकल जायेगा
हाथ से

एक साल तक
नहीं मिलेगा
फिर मौका

हो जायेंगे
तेरे सारे
अरमान धड़ाम

करले करले
बिना शरमाये

किसी बड़े
गुलाम के
छोटे गुलाम को

झंडा तानते समय
जोर से जूता
ठोक कर सलाम

आजाद खयाल
आजाद रूहें
करें अपने
हिसाब किताब

लिये अपने
जारी और रुके
हुए जरूरी
देश के सारे काम

एक गुलाम
‘उलूक’ का

अपने जैसे
गुलामों के लिये

है बस ये

गुलाम खयाल

आजाद पैगाम ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

'उलूक’ पहले अपना खुद का नामरद होना छिपाना सीख

सोच को सुला
फिर लिख ले
जितनी चाहे
लम्बी और
गहरी नींद

 सपने देख
मशालें देख
गाँव देख
लोग देख
गा सके
तो गा
नहीं गा सके
तो चिल्ला
क्राँति गीत

कहीं भी
किसी भी
गिरोह में
जा और देख
गिरोह में
शामिल करते
गिरोहबाजों
की कलाबाजियाँ
पैंतरेबाजियाँ
और कुछ
सीख

हरामखोरियों
की
हरामखोरियाँ
ही सही
सीख

देश राज्य
जिला शहर
मोहल्ले की
जगह अपनी
जगह पर
अपनी जमीन
खुद के नीचे
बचाने
की कला
सीख

कोशिश कर
उतारने की
सब कुछ
कोशिश कर
दौड़ने की
दिन की
रोशनी में
नंगा होकर
बिना झिझक
जिंदा रहने
के लिये
बहुत
जरूरी है
सीख

किसी
भी चोर
को गाँधी
बनाना
और
गाँधी को
चोर बनाना
सीख

इन्सान
की मौत
पर बहा
घड़ियाली
आँसू

कुछ
थोड़ा सा
आदमी का
खून पी
जाना भी
सीख

सब जानते हैं
सब को पता है
सब कुछ बहुत
साफ साफ
सारे ऐसे
मरदों को
रहने दे

‘उलूक’
ये सब
दुनियादारी है
रहेगी हमेशा
पहले अपना
खुद का
नामरद होना
छिपाना
सीख ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

शुतुरमुर्ग और शुतुरमुर्ग

कम नहीं हैं
बहुत हैं

चारों तरफ हैं
 फिर भी
मानते नहीं हैं
कि हैं

हो सकता है
नहीं भी होते हों
उनकी सोच में वो

बस सोच की
ही तो बात है
देखने की
बात है ही नहीं

हो भी नहीं
सकती है

जब गर्दन
किसी भी
शुतुरमुर्ग की
रेत के अन्दर
घुसी हुई हो

कितनी अजीब
बात है
है ना

आँख वाले
के पास देखने
का काम
जरा सा भी
ना हो

और सारे
शुतुरमुर्गों
के हाथ में
हो सारे देखने
दिखाने के
काम सारे

सभी कुछ
गर्दन भी हो
चेहरा भी हो
जो भी हो
घुसा हुआ हो

और
चारों तरफ
रेत हो
बस रेत
ही रेत हो

शुतुरमुर्ग
होने मे
कोई
बुराई नहीं है

शुतुरमुर्ग होने
के लिये
कहीं
मनाही नहीं है

कुछ
होते ही हैं
शुतुरमुर्ग

मानते भी हैं
कि हैं
मना भी
नहीं करते हैं

शुतुरमुर्ग की
तरह रहते भी हैं
मौज करते हैं 


बेशरम
शुतुरमुर्ग
नहीं कह
सकते हैं

अपनी मर्जी से
रेत में गर्दन भी
घुसा सकते हैं

ईमानदार होते हैं
देखने दिखाने
और बताने का
कोई भी ठेका
नहीं लेते हैं

‘उलूक’
बकवास करना
बंद कर

गर्दन खींच
और घुसेड़ ले
जमीन के अन्दर

और देख
बहुत कुछ
दिखाई देगा

शुतुरमुर्गो
नाराज मत होना
बात शुतुरमुर्गों
की नहीं हो रही है

बात हो रही है
देखने दिखाने
और
बताने की
गर्दन घुसेड़ कर
रेत के अन्दर ।

चित्र साभार: www.patheos.com

बुधवार, 25 मई 2016

नोच ले जितना भी है जो कुछ भी है तुझे नोचना तुझे पता है अपना ही है तुझे सब कुछ हमेशा नोचना

कहाँ तक
और
कब तक

नंगों के
बीच में
बच कर
रहेगा

आज नहीं
कल नहीं
तो कभी
किसी दिन

मौका
मिलते ही
कोई ना
कोई

धोती
उतारने
के लिये
खींच लेगा

कुछ अजीब
सा कोई
रहे बीच
में उनके

इतने दिनों
तक आखिर
कब तक
इतनी
शराफत से

बदतमीजी
कौन ऐसी
यूँ सहेगा

शतरंज
खेलने में
यहाँ हर
कोई है
माहिर

सोचने
वाले प्यादे
को कब
तक कौन
यूँ ही
झेलता
ही रहेगा

कुत्ता खुद
आये पट्टा
डाल कर
गले में
अपने

एक जंजीर
से जुड़ा
कर देने
मालिक के
हाथ में

ऐसा कुत्ता
ऐसा मालिक
आज गली
गली में
इफरात
से मिलेगा

फर्जीपने
की दवाई
बारकोड

ले कर
आ रहे
हैं फर्जी
जमाने के
उस्ताद लोग

फर्जी आदमी
की सोच में
बारकोड
लगा कर
दिखाने को
कौन क्या और
किससे कहेगा

‘उलूक’
आज फिर
नोच ले
जितना भी
नोचना है
अपनी
सोच को

उसे भी
पता है
तू जो भी
नोचेगा

अपना ही
अपने आप
खुद ही
नोचेगा ।


चित्र साभार: worldartsme.com

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

ऊपर वाले के जैसे ही कुछ अपने अपने नीचे भी बना कर वंदना कर के आते हैं

आइये साथ
मिलकर
अपनी अपनी
समझ कुछ
और बढ़ाते हैं
दूर बज रहे
ढोल नगाड़ों
में अपने अपने
राग ढूँढ कर
अपनी सोच के
टेढ़े मेढ़े पेंच
अपनी अपनी
पसंद के झोल में
कहीं फँसाते हैं
अपने घर में
सड़ रहे फलों
पर इत्र डाल कर
चाँदी का वर्क लगा कर
अगली पीढ़ी के लिये
आइये साथ
साथ सजाते हैं
शोर नहीं है
नहीं है शोर
कविताएं हैं गीत हैं
झूमते हैं नाचते हैं गाते हैं
आइये सब मिल जुल कर
अपने अपने घर की
खिड़कियाँ दरवाजे के
साथ में अपनी
आँख बंद कर
दूर कहीं चल रहे
नाटक के लिये
जोर शोर से
तालियाँ बजाते हैं
कलाकारी कलाकार
की काबिले तारीफ है
आखिरकार उम्दा
कलाकारों में से
छाँटे गये कलाकार
के द्वारा सहेज कर
मुंडेर पर सजाया गया
एक खूबसूरत कलाकार है
आइये लच्छेदार बातों के
गुच्छों के फूलों को
मरी हुई सोचों के ऊपर
से जीवित कर सजाते हैं
बहुत कुछ है
दफनाने के लिये
लाशों को कब्र से
निकाल निकाल
कर जलाते हैं
कहीं कोई रोक कहाँ है
अपने अपने घर को
अपनी अपनी दियासलाई
दिखा कर आग लगाते हैं
रोशनी होनी है
चकाचौंध खुद कर के
चारों तरफ झूठ के
पुलिंदों पर सच के
चश्में लगा लगा कर
होशियार लोगों को
बेवकूफ बनाते हैं
नाराज नहीं होना है
‘उलूक’
आधे पके हुऐ को
मसाले डाल डाल कर
अपने अपने हिसाब से
अपनी सोच में पकाते हैं
स्वागत है आइये चिराग
ले कर अपने अपने
रोशनी ही क्यों करें
पूरी ही आग लगाते हैं ।

चित्र साभार: www.womanthology.co.uk

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अंदर कुछ और और लिखा हुआ कुछ और ही होता है


सोच कर 
लिखना 
और 
लिख कर 
लिखे पर 
सोचना 

कुछ 
एक 
जैसा ही 
तो 
होता है 

पढ़ने वाले 
को तो बस 
अपने 
लिखे का 
ही 
कुछ 
पता होता है 

एक 
बार नहीं 
कई 
बार होता है 
बार बार होता है 

कुछ 
आता है
यूूँ ही खयालों में 

खाली दिमाग 
के 
खाली पन्ने 
पर 
लिखा हुआ 
भी तो 
कुछ 
लिखा होता है 

कुछ 
देर के लिये 
कुछ 
तो कहीं 
पर 
जरूर होता है 

पढ़ते पढ़ते ही 
पता नहीं 
कहाँ 
जा कर 
थोड़ी सी 
देर में ही 

कहाँ जा कर 
सब कुछ 
कहीं खोता है 

सबके 
लिखने में 
होते हैं गुणा भाग 

उसकी 
गणित 
के 
हिसाब से 
अपना 
गणित खुद पढ़ना 
खुद सीखना 
होता है 

देश में लगी 
आग 
दिखाने के लिये 
हर जगह होती है 

अपनी 
आँखों का 
लहू 
दूसरे की 
आँख में 
उतारना होता है 

अपनी बेशरमी
सबसे बड़ी 
शरम होती है 

अपने लिये 
किसी 
की 
शरम का 
चश्मा 
उतारना 
किसी 
की 
आँखों से 


कर सके कोई 
तो 
लाजवाब होता है 

वो 
कभी लिखेंगे 
जो लिखना है वाकई में 

सारे 
लिखते हैं 
उनका खुद का 
लिखना 
वही होता है 


जो कहीं भी 
कुछ भी 
लिखना ही नहीं होता है 

कपड़े ही कपड़े 
दिखा रहा होता है 
हर तरफ ‘उलूक’ 
बहुत फैले हुऐ 
ना पहनता है जो 
ना पहनाता है 

जिसका 
पेशा ही 
कपड़े उतारना होता है 

खुश दिखाना 
खुद को 
उसके पहलू में खड़े हो कर 
दाँत निकाल कर 
बहुत ही 
जरूरी होता है 

बहुत बड़ी 
बात होती है 
जिसका लहू चूस कर 
शाकाहारी कोई 

लहू से अखबार में 
तौबा तौबा 
एक नहीं 
कई किये होता है 

दोस्ती 
वो भी 
फेसबुक 
की करना 
सबके 
बस में कहाँ होता है 

इन सब को 
छोड़िये 
सब से 
कुछ अलग 
जो होता है 

एक 
फेस बुक का 
एक अलग
पेज हो जाना
होता है । 

चित्र साभार: www.galena.k12.mo.us

सोमवार, 11 जनवरी 2016

अब आत्माऐं होती ही नंगी हैं बस कुछ ढकने की कुछ सोची जाये

 
कई दिन के सन्नाटे में रहने के बाद 
डाली पर उल्टे लटके बेताल की बैचेनी बढ़ी
पेड़ से उतर कर जमीन पर आ बैठा

हाथ की अंगुलियों के बढ़े हुऐ नाखूनों से
जमीन की मिट्टी को कुरेदते हुऐ 
लग गया करने कुछ ऐसा
जो कभी नहीं किया

उस तरह का कुछ
मतलब कोशिश सोचने की
कुछ सोचना
सोचना बेताल का पहली अजब बात

दूसरा सोचा भी कुछ गजब का 
क्या
एक आत्मा
और वो भी पहने हुऐ सूट टाई

बेताल खुद चाहे नहीं पहन पाया कभी कुछ भी

उधर नये जमाने के साथ बदलता
विक्रमादित्य
जैसे थाली में लुढ़कता सा एक गोल बैगन

जबसे बीच बीच में बेताल को टामा दे दे कर 
गायब होना शुरु हुआ है
बेताल तब तब इसी तरह से बेचैन हुआ है

होता ही है
बेरोजगारी बड़ी ही जान लेवा होती है

सधा हुआ सालों साल का काम बदल दिया जाये
यही सब होता है

सोचने के साथ लिखना हमेशा नहीं होता है
सोच के कुछ लिखा हो
लिखा जैसा हो जरूरी नहीं होता है

कलम आरी भी नहीं होती है
तलवार की तरह की मानी गई है
पर उतनी भारी भी नहीं होती है

लिखना छोड़ दिया जाये
लम्बे अर्से के बाद
कलम उठाने की कोशिश की जाये

समझ में नहीं आ पाती है 
सीधे पन्ने के ऊपर
उसकी इतनी टेढ़ी चाल
आखिर क्यों होती है जानते सब हैं 
इतनी अनाड़ी भी नहीं होती है

रहने दे ‘उलूक’ छोड़ ये सब लफ्फाजी
और कुछ कर चलकर मदद कर

दूर कर बेताल की उलझन मिले उसे भी कुछ काम

कपड़े पहने शरीफों की नंगी आत्माओं को
कपड़े से ढकने का ही सही
लाजवाब काम

जो भी है जैसा भी है काम तो एक काम है
मार्के का सोचा है शुरु करने की देर है

दुकान खुलने की खबर आये ना आये

होना पर पक्का है कुछ ऐसा
जैसा बिकने से पहले ही
सारा का सारा माल साफ हो जाये

विक्रमादित्य करते रहे 
अपने जुगाड़ अपने हिसाब से

बेताल पेड़ पर जा कर 
हमेशा की तरह लटकने की
आदत ना छोड़ पाये

आत्माऐं हों नंगी रहें भी नंगी
कुछ कपड़ों की बात करके ही सही
नंगेपने को पूरा ना भी सही
थोड़ा सा ही कहीं

पर
ढक लिया जाये ।

चित्र साभार: www.wikiwand.com

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

आती ठंड के साथ सिकुड़ती सोच ने सिकुड़न को दूर तक फैलाया पता नहीं चल पाया

दिसम्बर
शुरु हो चुका
ठंड के
बढ़ते पैरों ने
शुरु कर दिया
घेरना
अंदर की
थोड़ी बहुत
बची हुई
गरमी को

नरमी भी
जरूर हुआ
करती होगी
साथ में
उसके कभी
निश्चित
तौर पर
सौ आने
उसका
बहक जाना
गायब
हो जाना
भी हुआ
होगा कभी
पता नहीं
चल पाया

जिंदगी की
सिकुड़ती
फटती
चादर
कभी
ऊपर से
खिसक कर
सिर से
उतरती रही

कभी
आँखों के
ऊपर अंधेरा
करते हुऐ
नीचे से
नंगा
करती रही

पता
चला भी
तब भी
कुछ नहीं
हो पाया

जो
समझाया गया
उसके भी
समझ में
आते आते
 ये भी
मालूम नहीं
चल पाया
दिमाग
कब अपनी
जगह को
छोड़ कर
कहीं किसी
और जगह
ठौर ठिकाना
ढूँढने को
निकल गया
फिर लौट
कर भी
नहीं आ पाया

अपनापन
अपनों का
दिखने
में आता
अच्छी
तरह से
जब तक

साफ सुथरे
पानी के
नीचे तली
पर कहीं
पास में
ही बहती
हुई नदी में
तालाब में
बहुत सारी
आटे की
गोलियों
के पीछे
भागती
मछलियों
के झुंड
की तरह

पत्थर
मार कर
पानी में
लहरेंं
उठाता
हुआ
एक बच्चा
बगल से
खिलखिलाता
हुआ
निकल भागा
धुँधलाता हुआ
सब कुछ
उतरता
चढ़ता
पानी जैसा
ही कुछ
हो आया

चिढ़ना चाह
कर भी
चिढ़
नहीं पाया

हमेशा
की तरह
कुछ झल्लाया
कुछ खिसियाया

जिंदगी
ने समझा
कुछ
‘उलूक’ के
उल्लूपन को
कुछ
उल्लूपने ने
जिंदगी के
बनते
बिगड़ते
सूत्रों का राज
जिंदगी को
बेवकूफी
से ही सही
बहुत अच्छी
तरह से
समझाया

जो है सो है
कुछ उसने
उसमें
इसका
जोड़ कर
उसे
ऊपर किया
कुछ इसने
इसमें से
उसका
घटा कर
कुछ
नीचे गिराया

ठंड का
बढ़ना
जारी रहा
बहुत कुछ
सिकुड़ा
सिकुड़ता रहा

सिकुड़ती
सोच ने
सिकुड़ते हुऐ
सब कुछ को
कुछ
भारी शब्दों
से बेशरमी
से दबाया

बहुत
कुछ दिखा
नजर आया
महसूस हुआ

सिकुड़न ने
पूरी फैल कर
हर कोने
हर जर्रे
पर जा
अपना जाल
फैलाया

जरा
सा भी
पता नहीं
चल पाया
अंदाज
आया भी
अंदाज नहीं
भी आ पाया ।

चित्र साभार: www.toonvectors.com

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

औरों के जैसे देख कर आँख बंद करना नहीं सीखेगा किसी दिन जरूर पछतायेगा

थोड़ा
कुछ सोच कर
थोड़ा
कुछ विचार कर

लिखेगा तो

शायद
कुछ अच्छा
कभी लिख
लिया जायेगा

गद्य हो
या पद्य हो
पढ़ने वाले
के शायद

कुछ कभी
समझ में
आ ही जायेगा

लेखक
या कवि
ना भी कहा गया

कुछ
लिखता है
तो कम से कम
कह ही दिया जायेगा

देखे गये
तमाशे को
लिखने पर

कैसे
सोच लेता है

कोई
तमाशबीन
आ कर
अपने ही
तमाशे पर
ताली जोर से
बजायेगा

जितना
समझने की
कोशिश करेगा
किसी सीधी चीज को

उतना
उसका उल्टा
सीधा नजर आयेगा

अपने
हिसाब से
दिखता है
अपने सामने
का तमाशा
हर किसी को

तेरे
चोर चोर
चिल्लाने से
कोई थानेदार
दौड़ कर
नहीं चला आयेगा

आ भी गया
गलती से
किसी दिन
कोई भूला भटका

चोरों के
साथ बैठ
चाय पी जायेगा

बहुत ज्यादा
उछल कूद
करेगा ‘उलूक’
इस तरह से हमेशा

लिखना
लिखाना
सारा का सारा
धरा का धरा
रह जायेगा

किसी दिन
चोरों की रपट
और गवाही पर
अंदर भी कर
दिया जायेगा

सोच
कर लिखेगा

समझ
कर लिखेगा

वाह वाह
भी होगी

कभी
चोरों का
सरदार

इनामी
टोपी भी
पहनायेगा । 


चित्र साभार: keratoconusgb.com

शनिवार, 11 जुलाई 2015

जो है वो कौन कहता है जो नहीं है कहते सभी हैं

शर्म लिख
रहा हो कोई
जरूरत पड़
जाती है
सोचने की
बेशर्मी लिखना
शुरु कर ही
जाये कोई
कहाँ कमी है
आज क्या लिखें
क्या ना लिखें
लिखें भी कि
कुछ नहीं
ही लिखें
उन्हें सोचना है
जिन्हें कहना
कुछ नहीं है
कहने वाले
को पता है
जानता है वो
बिना कुछ कहे
रहना ही नहीं है
कविता कहानी
लेख आलेख
दस्तावेज और
भी बहुत
कुछ है
हथियार है
शौक है
आदत है
लत है
सहने की
सीमा से
बाहर बहना
कुछ नहीं है
लिखने लिखाने
की बातें
हाथों से कागज
तक का सफर
सबके बस का
भी नहीं है
उतार लेना
दिल और
दिमाग लाकर
दिखे दूसरे को
सामने से
कटा हुआ
जैसे एक सर
बहते हुऐ
कुछ खून
के साथ कुछ
कहीं सोच में
आने तक ही
होना ऐसा
कुछ भी
कभी भी
कहीं भी
नहीं है ।

चित्र साभार:
www.cliparthut.com

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

इधर उधर का इधर उधर रहने दे इधर ला ला कर रोज रोज ना चिपका

कई बार आता है
खुद की सोच के
किसी कोने में
खुद से ही कहने
रहने दे छोड़
भी दे अब
उस सब पर लिखना
जो सुनाई दे रहा है
जो दिखाई दे रहा है
बहुत हो गया
कुछ अपनी खुद
की सोच का कुछ
ताजा नया लिख
दिमाग भी तो
सोच जरा
बहुत बड़ा भी
नहीं होता है
जितना कुछ भी
आस पास खुद ही
के हो रहा होता है
उसका लेखा जोखा
सँभालते सँभालते
खुद के अंदर का ही
सब अपना ही तो कूड़ा
कूड़ा हो रहा होता है
कुछ देर के लिये
ही सही मान भी जा
सोच में अपनी ही
कृष्ण हो जा
मोर ना सही
कौऐ के पंख की
कलगी सिर पर लगा
पाँचजन्य नहीं भी
बजा सके तो एक
कनिस्तर ही बजा
इससे पहले बंद
कर दे कोई मुँह
और
बाँध दे हाथों को
कर ले कुछ उछल कूद
मुहल्ले की किसी
खाली गली में जाकर
देर रात ही सही
जोर जोर से चिल्ला
दूसरों के बेसुरे गीतों
पर नाचना बंद कर
कुछ अपना खुद का
उट पटाँग सुर
में ही सही
अपने ही सुर से
मिला कर अपना
खुद का कुछ गा
सोच में आने दे
अपनी सोच
इधर उधर की
खोदना छोड़
कुछ तो
ओरीजिनल सोच
ओरीजिनल लिख
ओरीजिनल सुना
इसकी उसकी
इसको उसको
ही करने दे
सब पका ही
रहे हैं ‘उलूक’
तू भी मत पका
सोच में आ रहे
ओरीजिनल को
निकल आने दे
उसके बारे में
थोड़ा ही सही
कुछ तो बता
इधर उधर का
इधर उधर रहने दे
इधर ला ला कर
रोज रोज ना चिपका ।

चित्र साभार: abkldesigns.com

गुरुवार, 11 जून 2015

कीचड़ करना जरूरी है कमल के लिये ये नहीं सोच रहा होता है

जब सोच ही
अंधी हो जाती है
सारी दुनियाँ
अपनी जैसी ही
नजर आती है

अफसोस भी
होता है
कोई कैसे किसी
के लिये कुछ
भी सोच देता है

किसी के काम
करने का कोई
ना कोई मकसद
जरूर होता है

उसकी नजर होती है
उसकी सोच होती है

बुरा कोई भी
नहीं होता है
जो कुछ भी होता है
अच्छे के लिये होता है

कुछ भी किसी
के लिये भी
किसी समय भी
कहने से पहले
कोई क्यों नहीं
थोड़ा सोच लेता है

एक उल्टा
लटका हुआ
चमगादड़ भी
उल्टा ही
नहीं होता है

वो भी
सामने वाले सीधे को
उल्टा हो कर ही
देख रहा होता है

‘उलूक’
तेरे लिये
तेरे आस पास
हर कोई गंदगी
बिखेर रहा होता है

सब के चेहरे पे
मुस्कान होती है
देखने वाला भी
खुश हो रहा होता है

बस यहीं पर पता
चल रहा होता है
एक अंधी सोच वाला
अंधेरे को बेकार ही में
कोस रहा होता है

जबकि गंदगी
और कीचड़
बटोरने वाला
हर कोई
आने वाले
समय में कमल
खिलाने की
सोच रहा होता है ।

चित्र साभार: www.cliparthut.com

शनिवार, 2 मई 2015

सोच बदलेगी वहाँ से यहाँ आकर होती ही हैं ऐसी भी बहुत सारी गलतफहमियाँ

अब क्या
करे कोई
जिसकी कुछ
इस तरह की
ही होती हो
रोज की ही
आराधना
पूजा अर्चना
दिया बाती
फूल बताशे
छोड़ कर
करता हो
जो बस
मन ही मन में
कुछ कुछ
बुद्बुदा कर
कोशिश बनाने
की एक अनकही
कहानी और
करता हो उसी
अनहोनी
अकल्पनीय
कल्पना की
साधना
बिना किसी
हनुमान की
हनुमान चालीसा
के साथ होती हो
कुछ चैन कुछ
बैचेनी की कामना
छपने छपाने की
बात पर कर देता
हो मोहल्ले का
अखबार तक मना
कागज किताबें
डायरियां बिक
गई हों कबाड़ में
कबाड़ी को भी
रहता हो कुछ
ना कुछ कबाड़
मिलने की
आशा हर महीने
देखते ही लिखने
लिखाने वालों को
देता हो दुआ
जब भी होता
हो सामना
'उलूक' दिन में
उड़े आँख बंद कर
और रात में
कुछ खोलकर
नया कुछ ऐसा
या वैसा नहीं है
कहीं भी होना
एक ही बात है
मोहल्ले में हो
शहर में हो शोर
या फिर कुछ
चुपचाप लिख
लेना हो कुछ
कुछ यहाँ
कुछ वहाँ
किस लिये
होना है
अनमना ।


चित्र साभार: www.disneyclips.com

     

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

उसपर या उसके काम पर कोई कुछ कहने की सोचने की सोचे उससे पहले ही किसी को खुजली हो रही थी

‘कभी तो
खुल के बरस
अब्र इ मेहरबान
की तरह’

जगजीत सिंह
की गजल
से जुबाँ पर
थिरकन सी
हो रही थी

कैसे
बरसना
करे शुरु

कोई
उस जगह

जहाँ
बादलों को भी
बैचेनी हो रही थी

खुद की
आवाज

गुनगुनाने
तक ही
रहे अच्छा है

आवाज
जरा सा
उँची करने की

सोच
कर भी
सिहरन
हो रही थी

कहाँ
बरसें खुल के
और
किसलिये बरसें

थोड़ी
सी बारिश
की जरूरत भी
किसे हो रही थी

टपकना
बूँद का
देख कर

बादल से
पूछ लिया
है उसने
पहले भी
कई बार

क्या
छोटी सी चीज
खुद की
सँभालनी

इतनी ही भारी
खुद को हो रही थी

किसे
समझाये कोई
अपने खेत की
फसल का मिजाज

उसकी
तबीयत तो

किसी को
देख सुन कर ही
हरी हो रही थी

उसकी
सोच में
किसी की
सफेदपोशी
का कब्जा
हो चुका है

कुछ
नहीं किया
जा सकता है
‘उलूक’

‘मेरा
बजूद है
जलते हुऐ
मकाँ की तरह’

से यहाँ

मगर
गजल
फिर भी
पूरी हो रही थी ।

चित्र साभार: www.clipartpanda.com

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

पुराने एक मकान की टूटी दीवारों के अच्छे दिन आने के लिये उसकी कब्र को दुबारा से खोदा जा रहा था

सड़कों पर सन्नाटा
और सहमी हुई सड़के
आदमी कम और
वर्दियों के ढेर
बिल्कुल साफ
नजर आ रहा था
पहुँचने वाला है
जल्दी ही मेरे शहर में
कोई ओढ़ कर एक शेर
शहर के शेर भी
अपने बालों को
उठाये नजर आ रहे थे
मेरे घर के शेर भी
कुछ नये अंदाज में
अपने नाखूनों को
घिसते नजर आ रहे थे
घोषणा बहुत पहले ही
की जा चुकी थी
एक पुराने खंडहर
की दीवारें बाँटी
जा चुकी थी
अलग अलग
दीवार से
अलग अलग
घर उगाने का
आह्वान किया
जा रहा था
एक हड्डी थी बेचारी
और बहुत सारे बेचारे
कुत्तों के बीच नोचा
घसीटा जा रहा था
बुद्धिजीवी दूरदृष्टा
योजना सुना रहा था
हर कुत्ते के लिये
एक हड्डी नोचने
का इंतजाम
किया जा रहा था
बहुत साल पहले
मकान धोने सुखाने
का काम शुरु
किया गया था
अब चूँकि खंडहर
हो चुका था
टेंडर को दुबारा
फ्लोट किया
जा रहा था
हर टूटी फूटी
दीवार के लिये
एक अलग
ठेकेदार बन सके
इसके जुगाड़
करने पर
विमर्श किया
जा रहा था
दलगत राजनीति
को हर कोई
ठुकरा रहा था
इधर का
भी था शेर
और उधर का
भी था शेर
अपनी अपनी
खालों के अंदर
मलाई के सपने
देख देख कर
मुस्कुरा रहा था
‘उलूक’ नोच रहा था
अपने सिर के बाल
उसके हाथ में
बाल भी नहीं
आ रहा था
बुद्धिजीवी शहर के
बुद्धिजीवी शेरों की
बुद्धिजीवी सोच का
जलजला जो
आ रहा था ।


चित्र साभार: imgkid.com

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

जो जैसा था वैसा ही निकला था गलती सोचने वाले की थी उसकी सोच का पैर अपने आप ही फिसला था


भीड़ वही थी 
चेहरे वही थे कुछ खास नहीं बदला था

एक दिन
इसी भीड़ के बीच से निकल कर
उसने उसको 
सरे आम एक चोर बोला था
सबने
उसे कहते हुऐ देखा और सुना था

उसके लिये
उसे इस तरह से 
ऐसा कहना सुन कर बहुत बुरा लगा था

कुछ
किया विया तो नहीं था
बस
उस कहने वाले से किनारा कर लिया था

पता ही नहीं था
हर घटना की तरह इस घटना से भी
जिंदगी का एक नया सबक नासमझी का
एक बार फिर से सीखना था

सूरज को हमेशा
उसी तरह सुबह पूरब से ही निकलना था
चाँद को भी हमेशा पश्चिम में जा कर ही डूबना था

भीड़ के बनाये
उसके अपने नियमों का
हमेशा की तरह कुछ नहीं होना था
काम निकलवाने के क्रमसंचय और संयोजन को
समझ लेना इतना आसान भी नहीं था

मसला
मगर बहुत छोटा सा 
एक रोज के होने वाले
मसलों के बीच का ही एक मसला था

आज उन दोनों का जोड़ा
सामने से ही
हाथ में हाथ डाल कर जब निकला था

कुछ हुआ था या नहीं हुआ था
पता ही नहीं चल सका था

भीड़ वही थी चेहरे वही थे
कहीं कुछ हुआ भी है
का कोई भी निशान
किसी चेहरे पर बदलता हुआ
कहीं भी नहीं दिखा था

‘उलूक’ ने
खिसियाते हुऐ हमेशा की तरह
एक बार फिर अपनी होशियारी का सबक
उगलते उगलते
अपने ही थूक के साथ
कड़वी सच्चाई की तरह ही निगला था ।

चित्र साभार: davidharbinson.com

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

खुले खेतों में शौच विज्ञापनों की सोच दूरदर्शन रेडियो और समाचार दोनो जगह दोनो की भरमार अपनी अपनी समझ अपने अपने व्यापार

रेल की
पटरी पर
दौड़ती हुई
एक रेलगाड़ी
एक दिशा में

और
दूर जाते
उल्टी 

दिशा में
भागते हुऐ
पेड़ पौँधें
मैदान खेत
पहाड़
सब कुछ
और
बहुत कुछ

अपना देश
अपने दृष्य
अपनी सोच भी
दौड़ती हुई
साथ में
रुकती हुई कुछ
अटकते हुऐ
मजबूर करते हुऐ

सोचने के लिये
कुछ शौच पर भी

सामने दिखते हुऐ
खुले आकाश के नीचे
शौच पर बैठे हुऐ
एक के बाद एक
थोड़े से नहीं
बहुत से लोगों को

सूरज
और उसकी
रोशनी का भी
कोहरे से छुपने
का एक
असफल प्रयास
हो रहा हो जैसे

थरथराती
निकलती
दौड़ती
रेलगाड़ी
बेखबर
जैसे
दिखते हुऐ पर
कुछ कहने की
उसे जरूरत नहीं

और
शौच पर
क्या कुछ
कहा जाये

हर चीज पर
कुछ लिख
लिया जाये
इसकी भी
मजबूरी नहीं

फिर गर्व
होता हुआ
सा कुछ कुछ
घर पर बने
शौचालयों पर

और कुछ
कुछ इतना
पढ़े लिखे
भी होने पर

सोच सके जो
शौच की सोच
शौच और
शौचालय पर
दिखाये जा रहे
विज्ञापनों को

अंतर उनमें
और मुझ में
बस इतना
वो विज्ञापन
देखते हैं
और
चले आते हैं
खुले आकाश
के नीचे

और मैं
अपनी
बंद सोच
के साथ
शौच के बाद
दूरदर्शन
पर बैठा
देख रहा
होता हूँ
एक विज्ञापन
शौच की
सोच का

अब शौच
भी कोई
विषय है
सोच कर
कुछ लिख
लेने के लिये
कौन समझाये
किस को ?

चित्र साभार: www.michellehenry.fr