उलूक टाइम्स

शनिवार, 1 जून 2013

स्वायत्तता

हमेशा की तरह
आज भी आया हूँ
फिर से एक
बेवकूफी भरा
सवाल लाया हूँ
स्वायत्तता और
स्वायत्तशाशी
संस्थान में मौज
मारता रहा हूँ
पर होती क्या है
अभी तक खुद भी
नहीं समझ पाया हूँ
सरकार
सी बी आई को
स्वायत्तता
देने जा रही है
सुनकर अपनी
आँख थोड़ा सा
खोल पाया हूँ
विकीपीडिया
स्वायत्तता
का मतलब
समझाती है
अपने नियम
खुद बनाना
और उससे
किसी सिस्टम
को चलाना
होता है
ऎसा कुछ
समझाती है
इसलिये
स्वायत्तशाशी
संस्थानों में
कोई बाहर
का नियम नहीं
चल पाता है
क्योंकि हर कोई
अपनी सुविधा से
अपना एक नियम
अपने लिये बनाता है
आजादी अगर
देखनी हो
तो किसी भी
स्वायत्तशाशी
संस्थान में
चले जाईये
वहाँ हाजिरी
लगना लगाना
बेवकूफी
समझा जाता है
जब मन
आये आइये
जब मन ना हो
कहीं भी घूमने
चले जाइये
छुट्टी की अर्जी
भेजने की
जहमत भी
मत उठाइये
नौकरी पा
जाने के बाद
काम करने
को किसी से
भूल में भी ना
कह ले जाइये
स्वायत्तता
में रहकर जो
काम कर
रहा होता है
वो एक
गधा होता है
उस गधे
को छोड़ कर
बाकी हर कोई
स्वायत्त होता है
देश की सरकार
और सरकारी
दफ्तरों में सरकार
स्वायत्तता क्यों
नहीं बाट
ले जा रही है
सब जगह
अपने नियम
खुद बनाने
वाले पेड़
क्यों नहीं
उगा रही है
सारे झगडे़
स्वायत्तता
मिलते ही
निपटते
चले जायेंगे
सब लोग जब
अपने अपने
नियम खुद
बनाते चले जायेंगे
कोई किसी
से कुछ भी
नहीं कहीं
कह पायेगा
जो कहेगा
वो अपनी मौत
खुद ही अपने
लिये बुलायेगा
स्वायत्तता वैसे
तो समझ में
नहीं भी कभी
आ पाती है
देश को तो
एक सरकार
ही मगर
चलाये जाती है
उसे स्वायत्त
नहीं सरकारी
ही हमेशा से
कहा जाता है
ज्यादातर
सरकार सबको
सरकारी ही रहने
देना चाहती है
बस जिसे बर्बाद
करना होता है
उसे ही स्वायत्तता
देना चाहती है ।

मंगलवार, 28 मई 2013

सरकार होती है किसकी होती है से क्या ?


अब भाई होती है 
हर जगह एक सरकार बहुत जरूरी होती है 

चाहे बनाई गयी हो 
किसी भी प्रकार 
घर की सरकार दफ्तर की सरकार
शहर की सरकार जिला प्रदेश होते हुऎ
पूरे देश की सरकार 

कुछ ही लोग बने होते हैं 
सरकार बनाने के लिये 
उनको ही बुलाया जाता है हमेशा हर जगह 
सरकार को चलाने के लिये 

कुछ नाकारा भी होते हैं 
बस सरकार के काम करने के तरीके पर 
बात की बात बनाने वाले 

काम करने वाले
काम 
करते ही चले जाते हैं 
बातें ना खुद बनाते हैं 
ना बाते बनाने वालों की बातों से
परेशान 
हो गये हैं कहीं दिखाते हैं 

छोटी छोटी सरकारें 
बहुत काम की सरकारें होती हैं 

सभी दल के लोग
उसमें 
शामिल हुऎ देखे जाते हैं 
दलगत भावनाऎं
कुछ 
समय के लिये अपने अंदर दबा ले जाते हैं 

बडे़ बडे़ काम 
हो भी जाते हैं पता ही नहीं चलता है 
काम करने वाले काम के बीच में
बातों को 
कहीं भी नहीं लाते हैं 

छोटी सरकारों से 
गलतियाँ भी नहीं कहीं हो पाती है 
सफाई से हुऎ होते हैं 
सारे कामों के साथ साथ 
गलतियाँ भी आसानी से सुधार ली जाती हैं 

तैयारी होती है तो 
मदद भी हमेशा 
मिल ही जाती है 
गलती खिसकती भी है तो
अखबार तक पहुँचने 
से पहले ही पोंछ दी जाती है 

ज्यादा परेशानी होने पर 
छोटी सरकार के हिस्से 
आत्मसम्मान अपना जगाते हैं 
अपनी अपनी पार्टी के झंडे निकाल कर ले आते हैं 

मिलकर काम करने को 
कुछ दिन के लिये टाल कर
देश बचाने के 
काम में लग जाते हैं 
बड़ी सरकार की बड़ी गलतियों से
छोटी सरकारों की छत्रियां बनाते हैं 

बडी सरकार में भी 
तो
इनके पिताजी 
लोग ही तो होते हैं 
वो भी तुरंत कौल का गेट बंद कर कुछ दिन 
आई पी एल की फिक्सिंग का ड्रामा 
करना शुरु हो जाते हैं । 

चित्र साभार: https://www.gograph.com/

शनिवार, 25 मई 2013

कमल बनना है तो कीचड़ पहले बना !

पढे़ लिखे लोग
यूं ही बुद्धिजीवी
नहीं कहलाते हैं
कभी देखा
कुछ हो भी जाये
उनके आस पास
बहुत सारे होते हैं
उसपर भी
कहने को कोई
कुछ नहीं आते हैं
कहते भी हैं तो
कान में कहते हैं
अखबार में नहीं
वो जो भी
छपवाते हैं
आई एस बी एन
होने पर ही
छपवाते हैं
माना कि तू भी
गलती से कुछ
पढ़ लिख ले गया
पर किस ने
कह दिया तुझसे
कि तू भी उसी
कैटेगरी का हो गया
हर बात पर
कुछ ना कुछ
कहने को चला
यहां आता है
गन्दी बातें बस
दिमाग में रखता है
गन्दगी यहाँ फैलाता है
देखा कभी कोई
पौसिटिव सोच वाला
तेरे से बात भी करना
कुछ चाहता है
निगेटिव देखता है
निगेटिव सोचता है
निगेटिव ही
बस फैलाता है
अब किसी कीचड़
फैलाने वाले को
यूँ ही फालतू में नहीं
गलियाना चाहिये
ये भी देखना चाहिये
अखबार में वो
कमल की तरह
दिख रहा है
इतना तो समझ
ही जाना चाहिये
कीचड़ अगर
नहीं फैलाया जायेगा
तो कमल कैसे
एक उगाया जायेगा
समझा कर
ये बात शायद
तेरे पिताजी ने तुझे
नहीं बतायी होगी
कमल बनाने के लिये
कीचड़ बनाने की विधि
तुझे नहीं समझाई होगी
देखता नहीं
तेरे आसपास के
सारे सफेदपोश
पैजामा उठा
कर चलते हैं
कीचड़ के छीटे
उछलते हैं तो
बस उछलते हैं
किसी को
उस कीचड़ से
कोई परेशानी
नहीं होती है
सरकार को
पता होता है
वो तो कमल की
दीवानी होती है
इसलिये
अब भी समय है
कुछ तो सुधर जा
पब्लिक को बेवकूफ
मत समझा कर
अपना भी समय
ऎसे वैसे में ना गंवा
कुछ काम धाम
करने की सोच बना
समान सोच के लोग
जो फैला रहे हैं कीचड़
उनकी शरण में जा
कमल ना भी बन पाया
तो कोई बात नहीं
कमल बनाने की
तकनीक सीख कर
वैज्ञानिक सोच ही
पैदा कर ले जा
कुछ प्रोजेक्ट ही ले आ
कुछ कर रहा है
वो ही चल दे दिखा ।

मंगलवार, 21 मई 2013

बधाई रजिया ने दौड़ है लगाई

अफसोस हुआ बहुत
अभी अभी जब किसी
ने खबर मुझे सुनाई
होने वाला है ये जल्दी
कह रही थी मुझसे
कब से फेसबुकी ताई
पर इतनी जल्दी ये सब
हो ऎसे ही जायेगा
क्यों हुआ कैसे हुआ
अब कौन मुझे बतायेगा
रजिया जब से गुंडों को
सुधारने मेरे घर में आई
पच नहीं रही थी मुझे
उसकी ये बात
बिल्कुल भी भाई
बस लग रही थी जैसे
इतनी हिम्मत उसमें
किसने है जाकर जगाई
रजिया सुना सब कुछ
छोड़ कर जा रही है
मेरे घर का राज
फिर से मेरे घर के
गुण्डों को फिर से
थमा रही है
मेरे घर की किस्मत
फिर से फूटने को
सुना है जा रही है
चलो कोई बात नहीं
फिर से मिलकर अब
जुट जाना चाहिये
किसी और एक रजिया
को यहाँ आ कर
फंसने के लिये
फंसाना चाहिये
वैसे चिंता करने
की बात नहीं
होनी चाहिये
जो कर रही है
देश को बर्बाद
उसको मेरे घर को
गिराने के लिये
कोई बड़ा बहाना
कहाँ होना चाहिये
जल्दी ही सरकार
किसी रजिया को
फिर ढूँढ लायेगी
मेरे घर के गुंडो
का फिर भी वो
क्या कुछ कर पायेगी
ये बात ना मेरे को
ना मेरे पड़ोसियों
के समझ में आयेगी
जो शक्ति इतने बडे़
देश का कर रही है
बेड़ा गर्क रोज रोज
वो ही मेरे घर के बेडे़
का गड्ढा भी बनायेगी ।

शनिवार, 18 मई 2013

कुछ अच्छा लिख ना

आज कुछ तो
अच्छा लिखना
रोज करता है
यहाँ बक बक
कभी तो एक
कोशिश करना
एक सुन्दर सी
कविता लिखना
तेरी आदत में
हो गया है शुमार
होना बस हैरान
और परेशान
कभी उनकी तरह
से कुछ करना
जिन्दगी को रोंदते
हुऎ जूते से
काला चश्मा
पहने हुऎ हंसना
गेरुआ रंगा
कर कुछ कपडे़
तिरंगे का
पहरा करना
अपने घर मे
क्या अटल
क्या सोनिया
कहना
दिल्ली में
करेंगे लड़ाई
घर में साथ
साथ रहना
ले लेना कुछ
कुछ दे देना
इस देश में
कुछ नहीं
है होना
देश प्रेम
भगत सिंह का
दिखा देना
बस दिखा देना
बता देना वो
सब जो हुआ
था तब बस
बता देना
लेना देना
कर लेना
कोई कुछ
नहीं कहेगा
गाना इक
सुना देना
वन्दे मातरम
से शुरु करना
जन गण मन
पर जाकर
रुका देना
कर लेना जो
भी करना हो
ना हो सके तो
पाकिस्तान
के ऊपर ले जा
कर ढहा देना
सब को सब
कुछ पता होता है
तू अपनी किताब
को खुला रखना
आज कुछ तो
अच्छा लिखना
रोज करता है
यहाँ बक बक
कभी तो एक
कोशिश करना
एक सुन्दर सी
कविता लिखना ।

शुक्रवार, 17 मई 2013

मुखौटे हम लगाते हैं !

उसे पता होता है
मुझे पता होता है

उसके पास होता है
मेरे पास होता है

 हम दोनो लगाते हैं
बस यूँ मुस्कुराते हैं

खुश बहुत हो जाते हैं
जैसे कुछ पा जाते हैं

बस ये भूल जाते हैं
समझ सब सब पाते हैं

वो जब हमें बनाते हैं
साँचे एक ही लगाते हैं

पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं
किताबें साथ लाते हैं

स्कूल साथ जाते हैं

घर को साथ आते हैं

समझते हैं समझाते हैं

फोटो सुंदर लगाते हैं

हंसते हैं मुस्कुराते हैं

बातें खूब बनाते हैं

इसको ये दिखाते हैं

उसको वो दिखाते हैं

 बिना पहने ही आते हैं

आते ही बनाते हैं


बिना पहने ही जाते हैं
जाते हुऎ छोड़ जाते हैं

ना आते में दिखाते हैं

ना जाते में दिखाते हैं

सब के पास पाते हैं

मिलते ही लगाते हैं

दिल खोल के दिखाते हैं

खुली किताब है बताते हैं

विश्वास में ले आते हैं

विश्वास फिर दिलाते हैं

कुछ कुछ भूल जाते हैं

कुछ कुछ याद लाते हैं

कितना कुछ
कर ले जाते हैं

कितना कुछ ले आते हैं
कितना कुछ दे जाते हैं

ना जाने क्यों फिर भी

हम जब भी मिलते हैं
मिलते ही लगाते हैं

ना जाने क्यों लगाते हैं

ना जाने क्यों बनाते हैं
ना जाने क्यों छिपाते हैं

मुखौटे मेरे और उसके

कब किस समय आके
चेहरे पर हमारे बस
यूँ ही लग जाते हैं

ना वो बताते हैं

ना हम बताते हैं

उनको पता होता है

हमको पता होता है
उनके पास होता है
मेरे पास होता है

हम दोनो लगाते हैं

मुखौटे सब लगाते हैं

सब कुछ बताते हैं

बस मुखौटे छिपाते हैं ।

मंगलवार, 14 मई 2013

कुछ तो सीख बेचना सपने ही सही

उसे देखते ही
मुझे कुछ हो
ही जाता है
अपनी करतूतों
का बिम्ब बस
सामने से ही
नजर आता है
सपने बेचने
में कितना
माहिर हो
चुका है
मेरा कुनबा
जैसे खुले
अखबार की
मुख्य खबर
कोई पढ़
कर सामने
से सुनाता है
कभी किसी
जमाने में
नयी पीढी़ के
सपनों को
आलम्ब देने
वाले लोग
आज अपने
सपनों को
किस शातिराना
अंदाज में
सोने से
मढ़ते चले
जा रहे हैं
इसके सपने
उसके सपने
का एक
अपने अपने
लिये ही बस
आधार बना
रहे हैं
सपने जिसे
देखने हैं
अभी कुछ
वो बस
कुछ सपने
अपने अपने
खरीदते ही
जा रहे हैं
सच हो रहे
सपने भी
पर उसके
और इसके
जो बेच
रहे हैं
खरीदने वाले
बस खरीद
रहे हैं
उन्हे भी
शायद पता
हो गया है
कि वो
सपने सच
होने नहीं
जा रहे हैं
वो तो बस
इस बहाने
हमसे सपने
बेचने की
कला में
पारंगत होना
चाह रहे हैं ।

रविवार, 12 मई 2013

अच्छी सोच छुट्टी के दिन की सोच

अखबार आज
नहीं पढ़ पाया


हौकर शायद
पड़ौसी को
दे आया


टी वी भी
नहीं चल पाया
बिजली का
तार बंदर ने
तोड़ गिराया


सबसे अच्छा
ये हुआ कि
मै काम पर
नहीं जा पाया


आज
रविवार है
बड़ी देर में
जाकर
याद आया


तभी कहूँ
आज सुबह
से अच्छी बातें
क्यों सोची
जा रही हैं


थोड़ा सा
रूमानी
हो जाना
चाहिये
दिल की
धड़कन
बता रही है


बहुत कुछ
अच्छा सा
लिखते हैं
कुछ लोग


कैसे
लिखते होंगे
बात अब
समझ में
आ रही है


लेखन
इसीलिये
शायद
कूड़ा कूड़ा
हुआ
जा रहा है


अखबार हो
टी वी हो
या समाज हो
जो कुछ
दिखा रहा है


देखने
सुनने वाला
वैसा ही होता
जा रहा है


कुछ
अच्छी सोच
से अगर अच्छा
कोई लिखना
चाह रहा है


अखबार
पढ़ना छोड़
टी वी बेच कर
जंगल को क्यों
नहीं चले
जा रहा है ?

शनिवार, 11 मई 2013

फिर देख फिर समझ लोकतंत्र



रोज एक
लोकतंत्र समझ में आता है
तू फिर भी लोकतंत्र समझना चाहता है 

क्यों तू
इतना बेशरम हो जाता है 
बहुमत को
समझने में सारी जिंदगी यूँ ही गंवाता है

बहुमत
इस देश की सरकार है
क्या तेरे भेजे मेंये नहीं घुस पाता है 

देखता नहीं
सबसे ज्यादा 
मूल्यों की बात उठाने वाला ही तो 
मौका आने पर
अपना बहुमत अखबार में छपवाता है 
मौसम मौसम दिल्ली सरकार 
और उसके लोगों को
कोसने वालों की भीड़ का झंडा उठाता है 

अपनी गली में
उसी सरकार के झंडे के परदे का
घूँघट बनाने से बाज नहीं आता है 

मेरे देश की हर गली कूँचे में 
एक ऎसा शख्स जरूर पाया जाता है 
जो अपना उल्लू
सीधा करने के लिये
लोकतंत्र की धोती को
सफेद से गेरुआँ रंगवाता है 
तिरंगे के रंगो की टोपियाँ बेचता हुआ 
कई बार पकड़ा जाता है

ऎसा ही शख्स
कामयाबी की बुलंदी छूने की मुहिम में
इस समाज के बहुमत से
दोनो हाथों में उठाया जाता है

और एक तू बेशरम है
सब कुछ देखते सुनते हुऎ 
अभी तक दलाली के पाठ को नहीं सीख पाता है
तेरे सामने सामने कोई तेरा घर नीलाम कर ले जाता है

'उलूक'
जब तू अपना घर ही नहीं बेच पाता है 
तो कैसे तू
पूरे देश को नीलाम करने की तमन्ना के
सपने पाल कर 
अपने को भरमाता है । 

चित्र साभार: https://www.pravakta.com/what-the-poor-in-democracy/

गुरुवार, 9 मई 2013

मजदूर का हितैषी ठेकेदार


ठेकेदार लोग
बहुत ही ज्यादा
ईमानदार लोग
अपने अपने ठेके
का पूरा पेमेंट
ले के आते हैं
इसलिये वो
मलाई भी
थोड़ा खाते हैं
इतनी सी बात
आप क्यों नहीं
समझ पाते हैं
सब एक जैसे
थोडे़ होते हैं
कुछ मजदूरों का
ध्यान रखने
वाले भी
तो होते हैं
ये बात
दिहाडी़ करने
वाले जानते हैं
हर ठेकेदार की
नब्ज पहचानते हैं
ठेकेदार का हर
काम इसलिये
वो चुटकी में
कर ले जाते हैं
उसके लिये
भीड़ भी
बनाते हैं
समाचार बने
या ना बने
वो बेचारे
अपनी फोटो
जरूर खींच
कर दे जाते हैं
ठेकेदार उनकी
मदद करने
में अपनी
जान न्योछावर
कर ले जाते हैं
रोटी अगर
दिलवा भी
ना सके उनको
डबलरोटी
दिलवाने के
लिये तुरंत
धरने में
बैठ जाते हैं
अपना पैमेंट
पहले ही
ले आते हैं
गरीब मजदूर
को फिर
एक बार
इक्ट्ठा करके
समझाते हैं
वो तो बस
उनके हित के
लिये ही
बस ठेकेदारी
करने के लिये
आते हैं
वरना तो
देश के लिये
जान देने के
लिये दिल्ली
से लोग बडे़ बडे़
उन्हे बहुत
बार बुलाते हैं ।

मंगलवार, 7 मई 2013

जरूरत नहीं है ये बस ऎसे ही है



कल मिला वो

मुस्कुराया 
फिर हाथ मिलाया

बोला

लिखते हो
बहुत लिखते हो
रोज लिखते हो

मैं भी पढ़ता हूँ  रोज पढ़ता हूँ

कोशिश करता हूँ बहुत करता हूँ
एक छोर पकड़ता हूँ दूसरा खो जाता है
दूसरे तक पहुँचने का मौका ही नहीं आता है

क्यों लिखते हो क्या लिखते हो
क्या कोई और भी इस बात को समझ ले जाता है
मेरी समझ में ये भी  कभी नहीं आ पाता है

शरम आती है बहुत आती है

उसकी
मासूमियत पर
मुझे भी थोड़ी सी हंसी आयी

मैने भी उसे ये बात यूँ बतायी

भाई 
ज्यादा दिमाग मैं लिखने में नहीं लगाता हूँ
बस वो ही बात बताता हूँ
जो घर में सड़क में शहर में और सबसे ज्यादा 
अपने बहुत  बडे़ से स्कूल में देख सुन कर आता हूँ

ज्यादातर बातों में
गांधी जी का एक बंदर बन जाता हूँ
कभी आँख कभी कान कभी मुँह पर ताला लगाता हूँ

जब बहुत चिढ़ लग जाती है
तो कूड़े के डब्बे को यहाँ लाकर उल्टा कर ले जाता हूँ
कितनो के समझ में आयी ये बात
उस पर ज्यादा दिमाग नहीं लगाता हूँ

लोग वैसे ही चटे चटाये लगते हैं आजकल व्यवस्था की बात करने पर

मैं अपनी धुन में
जिस बात को कोई वहाँ नहीं सुनता यहाँ आकर पकाता हूँ

यहाँ
बहुत बडे़ बडे़ शेर हैं मैदान में
जो दहाड़ते हैं मेरी तरह आ कर रोज

मैं गधा भी 
कुछ ऎसे ही तीसमारखाँओं के बीच में रेंकते रेंकते
थोड़ी कुछ आवाज कर ही ले जाता हूँ

परेशान मत हुआ करिये जनाब मत पढ़ा करिये
इस कूडे़ के ढेर में
मैं भी आकर
रोज कुछ कूड़ा अपने घर का भी फेंक जाता हूँ ।

चित्र सभार: http://clipart-library.com/

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मेरी संस्था मेरा घर मेरा शहर या मेरा देश कहानी एक सी

उसे लग रहा है
मेरा घर शायद
कुछ बीमार है
पता लेकिन नहीं
कर पा रहा है
कौन जिम्मेदार है
वास्तविकता कोई
जानना नहीं चाहता है
बाहर से आने वाले
मेहमान पर तोहमत
हर कोई लगाता है
बाहर से दिखता है
बहुत बीमार है
शायद किसी जादूगर
ने किया जैसे वार है
पर घाव में पडे़ कीडे़
किसी को नजर
कहाँ आते हैं
हमारे द्वारा ही तो
छुपाये जाते हैं
वो ही तो घाव के
मवाद को खाते हैं
अंदर की बात
यहाँ नहीं बताउंगा
घर का भेदी
जो कहलाउंगा
खाली कुछ सच
कह बैठा अगर
हमाम के बाहर भी
नंगा हो जाउंगा
असली जिम्मेदार
तो मैं खुद हूँ
किसी और के
बारे में क्या
कुछ कह पाउंगा
लूट मची हो जहाँ
अपने हिस्से के लिये
जरूर जोर लगाउंगा ।

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

बस चले मेरा तो अपने घर को भी केन्द्रीय बनवा दूँ !

जैसे ही मैने सुना
वो एक बीमार के लिये
नये कपडे़ कुछ
बनाने जा रहा है
बीमारी उसकी
दिख ना जाये
किसी को गलती
से भी कहीं
उसके लिये एक महल
बना कर उसे उसमें
सुलाने जा रहा है
खाने पीने का इंतजाम
बहुत अच्छा हो जायेगा
केंद्र से मिलने वाली
ग्रांट ढेर सारी
दिलवा रहा है
मुझे याद आ गयी
उसकी पुरानी साख की
जब उसकी छत्र छाया
में बहुत से कोयले
हीरे हो जाया करते थे
तब उसके पास कुछ
नहीं हुआ करता था
वो बहुतों को बहुत
कुछ दिया करता था
इन्ही लोगों ने
उस समय उसकी
बीमारियों को बढ़ाया
वो गेहूँ खाता था
उसे डबलरोटी और
केक का लालच दिलवाया
पैबंद पर पैबंद लगा कर
नया हो गया है
हम सब को समझाया
अब वो फिर वही
कारनामा दुहराने
जा रहा है
पैबंद लगे पर
पैबंद एक नया
फिर लगवा रहा है
हम आदी हो चुके
पुराने कभाड़ को
यूँ ही सजाने के
नया बने कुछ
नयी जमीन पर कहीं
नहीं सोचेंगे हम कभी
किसके पास है
फुरसत अपने
को छोड़ के सोचने की
और कौन दे रहा है
कुछ पैसे हमें
ऎसी बातों को
पचाने के ।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

फिर आया घोडे़ गिराने का मौसम



किसने बताया कहाँ सुन के आया

कि
लिखने वाले 
ने जो लिखा होता है
उसमें उसकी तस्वीर और उसका पता होता है

किसने बताया कहाँ सुन के आया

कि
बोलने वाले ने 
जो बोला होता है
उससे उसकी सोच और उसके कर्मो का लेखा जोखा होता है

बहुत बडे़ बडे़ लोगों 
के
आसपास मडराने 
वालों के
भरमाने 
पर मत आया कर

थोड़ा गणित ना 
सही
सामाजिक 
साँख्यिकी को ध्यान में ले आया कर

इस जमाने में
चाँद में पहुँचने की तमन्ना रखने वाले लोग ही
सबको घोडे़ दिलवाते हैं
जल्दी पहुँच जायेगा मंजिल किस तरह से
ये भी साथ में समझाते हैं

घोडे़ के आगे 
निकलते ही
घोडे़ की पूँछ में पलीता लगाते हैं
चाँद में पहुँचाने वाले दलाल को
ये सब घोडे़ की दौड़ है कह कर भटकाते हैं
घोडे़ ऎसे पता नहीं कितने
एक के बाद एक गिरते चले जाते हैं

समय मिटा देता है
जल्दी ही लोगों की यादाश्त को
घोडे़ गिराने वाले फिर कहीं और
लोगों को घोड़ों में बिठाते हुऎ नजर फिर से आते है

बैठने वाले ये भी 
नहीं समझ पाते हैं
बैठाने वाले खुद कभी भी कहीं भी
घोडे़ पर बैठे हुऎ नजर क्यों नहीं आते हैं ?

चित्र साभार: https://www.freepik.com/

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

टीम

कल एक मकसद
फिर सामने से
नजर आ रहा है
दल बना इसके
लिये समझा
बुझा रहा है
बहुत से दल
बनते हुऎ भी
नजर आ रहे हैं
इस बार लेकिन
इधर के कुछ
पक्के खिलाडी़
उधर जा रहे हैं
कर्णधार हैं
सब गजब के
कंधा एक ढूँढने
में समय लगा रहे हैं
मकसद भी दूर
बैठे हुऎ दूर से
दूरबीन लगा रहे हैं
मकसद बना
अपना एक
किसी को नहीं
बता रहे हैं
चुनकर दूसरे
मकसद को
निपटाने की
रणनीति
बना रहे हैं
शतरंज के
मोहरे एक
दूसरे को जैसे
हटा रहे हैं
टी ऎ डी ऎ
के फार्म इस
बार कोई भी
भरने नहीं
कहीं जा रहे हैं
मकसद खुद ही
दल के नेता के
द्वारा वाहन
का इंतजाम
करवा रहे हैं
एक दल
एक गाडी़
नाश्ता पानी
फ्री दिलवा
रहे हैं
कर्णधार कल
कुछ अर्जुन
युद्ध के लिये
चुनने जा रहे हैं
आने वाले समय
के सारे कौरव
मुझे अभी से
आराम फरमाते
नजर आ रहे हैं
पुराने पाँडव
अपने अपने
रोल एक दूसरे
को देने जा रहे हैं
नाटक करने को
फिर से एक बार
हम मिलकर
दल बना रहे हैं
पिछली बार
के सदस्य इस
बार मेरे साथ
नहीं आ रहे हैं
लगता है वो खुद
एक बड़ी मछली
की आँख फोड़ने
जा रहे हैं
इसलिये अपना
निशाना खुद
लगा रहे हैं ।

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

मत परेशां हुआ कर

मत परेशां हुआ कर
क्या कुछ हुआ है कहीं
कुछ भी तो नहीं
कहीं भी तो नहीं
देख क्या ये परेशां है
देख क्या वो परेशां है
जब नहीं कोई परेशां है
तो तू क्यों परेशां है
सबके चेहरे खिले जाते हैं
तेरे माथे पे क्यों
रेशे नजर आते हैं
तेरी इस आदत से
तो सब परेशां है
वाकई परेशां है
तुझे देख कर ही तो
सबके चेहरे इसी
लिये उतर जाते हैं
कुछ कहीं कहाँ होता है
जो होता है सब की
सहमति से होता है
सही होता होगा
इसी लिये होता है
एक तू परेशां है
क्यों परेशां है
अपनी आदत को बदल
जैसे सब चलते हैं
तू भी कभी तो चल
कविता देखना तेरी
तब जायेगी कुछ बदल
सब फूल देखते हैं
सुंदरता के गीत
गाते हैं सुनाते हैं
तेरी तरह हर बात पर
रोते हैं ना रुलाते हैं
उम्रदराज भी हों अगर
लड़कियों की
तरफ देख कर
कुछ तो मुस्कुराते हैं
मत परेशां हुआ कर
परेशां होने वाले
कभी भी लोगों
में नहीं गिने जाते हैं
जो परेशांनियों
को अन्देखा कर
काम कर ले जाते हैं
कामयाब कहलाते हैं
परेशानी को अन्देखा कर
जो हो रहा है
होने दिया कर
देख कर आता है
कविता मत लिखा कर
ना तू परेशां होगा
ना वो परेशां होगा
होने दिया कर
जो कर रहे हैं कुछ
करने दिया कर
मत परेशां हुआ कर ।