उलूक टाइम्स

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

कितने आसमान किसके आसमान


मेरे अपने खुद के कुछ खुले आसमान
खो गये पता नहीं कहाँ

याद आया अचानक आज
शाम के समय
डूबते सूरज और नीड़ की ओर
लौटते 
पक्षियों की चहचहाट के बीच

सीमाओं से बंधे हुऐ नहीं
लम्बे काले गेसुओं के बीच
चमचमाते हुऐ चाँद को
उलझा 
के रखे हुऐ हो कोई छाया सी

जैसे माँ रखती हो अपने बच्चे को
छुपा कर अपने आँचल की छाँव में

किसे याद नहीं आयेगी ऐसे अद्भुत आसमानों की

बहुत उदास हो उठी एक शाम के समय
किसी दिन अचानक

जब कई दिन से महसूस करता हुआ
गुजरता 
आसमान के नीचे से एक राही

जिसे नजर आ रहा हो
हर किसी का नोचना आसमान को
अपने पैने नाखूँनो से
खीचने के लिये उसे बस अपने और अपने लिये
आसमान के दर्द और चीख
उसके विस्तार में विलीन हो जाने के लिये हों जैसे

पता नहीं कैसे कैसे भ्रम जन्म लेते हैं
हर सुबह और हर शाम
और कितने आसमानों का हो जाता है कत्ल

दर्द ना तारे दिखाते हैं ना चाँद ना ही सूरज
उनका आना जाना बदस्तूर जारी रहता है

बेबस आसमान बेचारा
एक ऐसी चादर भी तो नहीं हो सकता
टुकड़ा टुकड़ा फटने के लिये 

ना चाहते हुऐ भी 
बट जाना
हर किसी की सोच के अनुसार उसके लिये ।

चित्र साभार: vector-magz.com

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

रंग देखना रंग पढ़ना रंग लिखना रंग समझना या बस रंग से रंग देना कुछ तो कह दे ना

रंग दिखाये
माँ बाप ने
चलना शुरु
किया जब
पावों पर अपने
लड़खड़ाते हुऐ
सहारे से
उँगलियों के
उनकी ही
हाथों की

रंग कम
समझ में आये
उस समय पर
आई समझ में
तितलियाँ
उड़ती उड़ती
पेड़ पौंधे फूल
एक नहीं
बहुत सारे
कौआ काला
कबूतर सफेद

अच्छाई और बुराई
खुशी और दुख:
प्यार और दुलार
रंगीन तोते मोर
और होली में
उड़ते अबीर
और गुलाल

रंग बने इंद्र के
धनुष भी पर
युद्ध कभी भी नहीं
हमेशा उमड़े
भाव रंगीन

रंगों के साथ
रंगों को देखकर
छूकर या
आत्मसात कर
बिना भीगे भी
रंगों से रंगों के
रंगो का देवत्व
कृष्ण का हरा
या राम का हरा

कभी नहीं हरा सका
रंगो को रंगों
के साथ खेलते हुऐ
जैसे अठखेलियाँ
रंगों के ही
धनुष तीर और
तलवार होने
के बावजूद
लाल रंग देख
कर कभी
याद नहीं आया
खून का रंग तक

सालों गुजर गये
ना माँ रही
ना बाप रहे
पूछें किससे
सब बताते बताते
क्यों छिपा गये
रंगों के उस रंग को

जिसे देख कर
निकलने लगें
आँसू उठे दिल
में दर्द और
महसूस होने लगे
रंग का रंग से
अलग होना
समझ में आने लगे
काले का काला
और सफेद का
बस और बस
सफेद होना
रंग का टोपी
झंडा मफलर
और कपड़ा होना

एक नटखट
परी सोच का
बेकाबू बदरंग
जवान होना
रंग जीवन
के लिये
या जीवन
रंग के लिये
हो सके तो
तुम्हीं पूछ लेना
समझ में आ जाये
कभी कुछ इसी तरह
‘उलूक’

रंग को समझना
अगर कुछ भी
तो कुछ रंगों को
मुझे भी एक बार
फिर से समझा देना ।

चित्र साभार:
background-pictures.picphotos.net

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

किसी के दिल को कैसे टटोला जाता है कहीं भी तो नहीं बताया जाता है


बहुत कोशिश 
और
बहुत मेहनत 
करनी पड़ती है 
सामने वाले के दिल को 
टटोलने के लिये 

पहले तो
दिल 
कहाँ पर है 
यही अँदाज नहीं हो पाता है 

दूसरा 
अपना 
नहीं किसी और का 
दिल टटोलना होता है 
इसलिये 
उससे पूछा भी नहीं जाता है 

डाक्टर दिल का 
साथ लेकर 
खोजना शुरु करने का भी 
एक रास्ता नजर आता है 

लेकिन
डाक्टर 
तो उस दिल की 
बात समझ ही नहीं पाता है 
जिसे पान के पत्ते की शक्लों में 
ज्यादातर फिल्मों के पोस्टरों में 

या फिर
किसी 
स्कूल के पास 
के पेड़ो की छालों में 

ज्यादातर 
कीलों से खोद कर उकेरा जाता है 

इस सब के बीच में 
कई कई जमाने गुजर जाते हैं 
और बेचारा अपना खुद का दिल 
खुद से ही भूला जाता है 

अच्छा नहीं होता है 
बहुत ज्यादा उधेड़बुन में उलझ कर रहना 

और फिर
क्यों 
टटोलना किसी और का दिल 
होते हुऐ अपने खुद के पास भी 

अच्छा होता है 
अपने ही दिल से पूछ लेना 
अपने ही दिल का हाल भी 
कभी कभी 

वो बात अलग है 
खाली दिल को टटोलने में 
मजा उतना नहीं आता है 

ना ही कुछ 
मिलता है 
खुद के दिल को टटोलने के बाद 

वैसे भी
खाली 
जगहों को आखिर 
कितनी बार किसी से खाली खाली में 
बस एक खालीपन को ढूँढने के लिये 
टटोला जाता है । 

चित्र साभार: www.freelargeimages.com

रविवार, 7 दिसंबर 2014

लिखे हुऐ को लिखे हुऐ से मिलाने से कुछ नहीं होता है

अंगूठे के
निशान
की तरह

किसी
की भी
एक दिन
की कहानी

किसी
दूसरे की
उसी दिन
की कहानी


जैसी
नहीं हो पाती है

सब तो
सब कुछ
बताते नहीं है

कुछ की
आदत होती है

आदतन
लिख दी जाती है

अब
अपने रोज
की कथा
रोज लिखकर

रामायण
बनाने की
कोशिश
सभी करते हैं

किसी
को राम
नहीं मिलते हैं

किसी
की सीता
खो जाती है

रोज
लिखता हूँ
रोज पढ़ता हूँ

कभी
अपने लिखे
को उसके लिखे के
ऊपर भी रखता हूँ

कभी
अपना
लिखा लिखाया

उसके
लिखे लिखाये से
बहुत लम्बा हो जाता है

कभी उसका
लिखा लिखाया
मेरे लिखे लिखाये की
मजाक उड़ाता है

जैसे
छिपाते छिपाते भी
एक छोटी चादर से

बिवाईयाँ
पड़ा पैर
बाहर
निकल आता है

फिर भी
सबको
लिखना
पड़ता ही है

किसी को
दीवार पर
कोयले से

किसी को
रेत पर
हथेलियों से

किसी को
धुऐं और
धूल के ऊपर
उगलियों से

किसी को
कागज पर
कलम से

कोई
अपने
मन में ही
मन ही मन
लिख लेता है

रोज का
लेखा जोखा
सबका
सबके पास
जरूर
कुछ ना कुछ
होता है

बस
इसका लिखा
उसके लिखे
जैसा ही हो
ये जरूरी
नहीं होता है

फिर भी
लिखे को लिखे
से मिलाना भी
कभी कभी
जरूरी होता है

निशान से
कुछ ना भी
पता चले

पर उस पर
अंगूठे का पता
जरूर होता है ।

चित्र साभार: raemegoneinsane.wordpress.com

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

कुछ भी यूँ ही

शब्द बीजों
से उपजी
शब्दों की
लहलहाती
फसल हो

या सूखे
शब्दों से
सूख चुके
खेत में
पढ़े हुऐ
कुछ
सूखे शब्द

बस
देखते रहिये

काटने की
जरूरत
ना होती है

ना ही
कोशिश
करनी चाहिये
काटने की

दोनों ही
स्थितियों में
हाथ में कुछ
नहीं आता है

खुशी हो
या दुख:
शब्द बोना
बहुत आसान
होता है

खाद
पानी हवा
के बारे में
नहीं सोचना
होता है

अंकुर
फूटने
का भी
किसी को
इंतजार नहीं
होता है

ना ही
जरूरत
होती है

सोच
लेने में
कोई हर्ज
नहीं है

रात के देखे
सुबह होने तक
याद से
उतर जाते
सपनों की तरह

पौंधे
उगते ही हैं

सभी
नहीं तो
कुछ कुछ
उगने
भी चाहिये

अगर
बीज बीज
होते हैं
अंकुरित
होते जैसे
तो हमेशा
ही महसूस
किये जाते हैं

पर
अंकुरण होने
से लेकर
पनपने तक
के सफर में

खोते भी हैं
और
सही एक
रास्ते पर
होते होते
मंजिल तक
पहुँच भी
जाते हैं

कुछ भी हो
खेत बंजर
होने से
अच्छा है
बीज हों भी
और
पड़े भी रहें

जमीन
की ऊपरी
सतह पर
ही सही

दिखते भी रहें
उगें नहीं भी

चाहे किसी को
भूख ना भी लगे

और भरे पेट कोई

देखना भी ना चाहे
ना खेतों की ओर

या
बीजों को
कहीं भी
खेत में

या
कहीं किसी
बीज की
दुकान पर
धूल पड़े कुछ
थैलों के अंदर

शब्दों
के बीच
दबे हुऐ शब्द

कुचलते हुऐ
कुछ शब्दों
को यूँ ही ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

लेखक पाठक गिनता है पाठक लेखक की गिनती को गिनता है

लिखते लिखते

कभी
अचानक
महसूस होता है

लिखा ही
नहीं जा रहा है

अब
लिखा नहीं
जा रहा है

तो
किया क्या
जा रहा है

अपने
ही ऊपर
अपना ही शक

गजब
की बात
नहीं है क्या

लेकिन
कुछ सच
वाकई में
सच होते हैं

क्यों होते हैं
ये तो
पता नहीं
पर होते है

लिखते लिखते

कब
लेखक
और पाठक

दोनो शुरु
हो चुके होते हैं
कुछ गिनना

क्या
गिन रहे होते हैं
ये तो नहीं मालूम

पर
दिखता
कुछ नहीं है

गिनने
की आवाज
भी नहीं होती है

बस
कुछ लगता है
एक दो तीन चार
सतरह अठारह
नवासी नब्बे सौ

अब
लेखक
कौन सी
गिनती कर
रहा होता है

गिनतियाँ

लिख
लिख कर
क्या गिन
रहा होता है

पाठक
क्या पढ़
रहा होता है

लेखक
का सौ
पाठक का नब्बे
हो रहा होता है

लेकिन हो
रहा होता है

ये
लेखक भी
जानता है

और
लेखक
की गिनतियों को

पाठक भी
पहचानता है

बस
मानता नहीं है
दोनों में से एक भी

गिनतियों
की बात को

बहस जारी
रहती है

गिनतियों में
ही होती है

गिनतियाँ
गड़बड़ाती है

सौ
पूरा होने
के बावजूद
अठहत्तर पर
वापिस
लौट आती है

लेखक
और पाठक
दोनो झल्लाते है

मगर
क्या करें
मजबूर होते हैं

अपनी अपनी
आदतों से
बाज नहीं आते हैं

फिर से
गिनना
शुरु हो जाते हैं

स्वीकार
फिर भी
दोनों ही
नहीं करते हैं

कि गिनती
करने के लिये

गिनते गिनते
इधर उधर
होते होते

बार बार
एक ही
जगह पर
गिनती करने
पहुँच जाते हैं ।

चित्र साभार: vecto.rs

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

बिना नोक की कील जैसा लिखा नहीं ठोका जा सकता सोच में कितना भी बड़ा हो हथौड़ा

हो गये
होते होते
आठ पूरे और
एक आधा सैकड़ा

कुछ
नहीं किया
जा सका

केकड़े में
नहीं दिखा
चुल्लू भर
का भी परिवर्तन

दुनियाँ
बदल गई
यहाँ से वहाँ
पहुँच गई

उसे
कहाँ बदलना
क्यों बदलना

किसके
लिये बदलना

वो नहीं बदलेगा

जिसको
रहना अच्छा
लगता रहा हो

हमेशा से ही
एक 
केकड़ा

खुद भी
टेढ़ा मेढ़ा
सोच भी
टेढ़ी मेढ़ी

लिखा
लिखाया
कभी नहीं
हो पाया
एक सवार

खड़ा रहा
पूँछ हिलाता हुआ

सामने से
हमेशा
तैयार एक
उसकी
खुद की
लेखनी का
लंगड़ा घोड़ा
रहा लकीर
का फकीर

उस
लोटे की माँनिंद
पैंदी उड़ गई हो जिसकी

किसी ने
मार कर कोड़ा
उसे बहुत
बेदर्दी से हो तोड़ा

बेपेंदी की सोच
कुछ लोटों की लोट पोट

मवाद बनता रहा
बड़ा होता चला गया
जैसे बिना हवा भरे ही
एक पुराना छोटा सा फोड़ा

सजा कर लपेट कर
एक शनील के कपड़े में
बना कर गुलाब
छिड़क कर इत्र

हवा में
हवाई फायर कर
धमाके के साथ
एक नयी सोच की
नयी कविता ने

ठुमके लगा

ध्यान
अपनी ओर
इस तरह से मोड़ा

उधर का
उधर रह गया
इधर का
इधर रह गया

जमाने ने
मुँह काले
किये हुऐ को ही
ताजो तख्त
नवाज कर छोड़ा

शुक्रिया जनाब

यहाँ तक पहुँचने का

‘उलूक’
जानता है
पर्दे के
पीछे से झाँकना

जो शुरु किया था
किसी जमाने में
किसी ने आज तक

उस सीखे सिखाये को
सिखाने के धंधे का
अभी भी बाँधा हुआ है

अपने
दीवान खाने पर
अकबर के गधे को
उसकी पीठ पर
लिखकर घोड़ा ।

चित्र साभार: http://www.fotosearch.com/

मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

जय हो आप की मालिक

ओये
क्या है?

कोई मजमा
है क्या ?

नहीं है
तो बता

है तो
वही बता

कुछ कह
तो सही

मत कह
क्या फर्क
पढ़ना है

ये सरकस
उसके लिये
नहीं है
जो बंदर है

उसके लिये है
जो सिकंदर है

आम और खास
यहाँ और वहाँ
रामपाल और
यादव सिंह
वहाँ भी और
यहाँ भी

सब जगह
एक सा

इनाम चाहिये ?

नहीं चाहिये
तो यहाँ क्यों है ?

हूँ
मेरी मरजी

मेरी मरजी

ब्लागर हूँ
मालिक

क्यों है ?

पता नहीं
मालिक

ऐलैक्सा रैंक
क्या है ?

पता कर लो
मालिक

कितने हिट
होते हैं पेज में ?

ये हिट
क्या होते हैं
मालिक?

कितने इनाम
मिले हैं ?

अभी तक तो
नहीं मिले
हैं मालिक

कितने लोग
पढ़ते हैं ?

दो मालिक

अबे मालिक
कौन है

आप हो मालिक

तू कौन है

आप बताओ
ना मालिक ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

शनिवार, 29 नवंबर 2014

अंधेरा बाहर का कभी भी अंदर का नहीं होता है

अचानक
किसी क्षण
आभास
होता है
और याद
आना शुरु
होता
है अंधेरा
जिसे बहुत
आसान है
देखना और
टटोलना
अपने ही अंदर
बस आँखें
बंद करिये
और शुरु
हो जाईये
बाहर उजाले
में फैले हुऐ
अंधेरे के
आक्टोपस की
भुजाओं से
घिरे घिरे
आखिर कब
तक इंतजार
किया जा
सकता है
घुटन होने
के लिये
जरूरी नहीं
है एक
बंद कमरा
धूल और धुऐं
से भरा हुआ
साँस बंद
होती हुई
सी महसूस
होना शुरु
होने लगती है
कभी किसी
साफ सुथरे
माहौल में भी
ऐसे ही समय
पर बहुत
काम आता है
अपने अंदर
का अंधेरा
जो दे सकता
है सुकून
बस जरूरत
होती है उसे
टटोलने की
हाथों की
उँगलियों से नहीं
आखों की बंद
पुतलियों से ही
बस शर्त है
आँख बंद होते ही
देखना शुरु
नहीं करना है
कोई एक सपना
अंधेरे में फैले हुऐ
सपने कभी
किसी के
अपने नहीं होते हैं
अपने ही अंदर
का अंधेरा जितना
अपना होता है
उतना बाहर
का उजाला
नहीं होता है
बस टटोलना
आना जरूरी
होता है
जिसे सीख
लेने के लिये
जरूरी होता है
कभी कुछ
देर आँखे
बंद करना
और इस
बंद करने
का मतलब
बंद करना
ही होता है ।

चित्र साभार: tessbalexander.wordpress.com

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

बलात्कार चीत्कार व्यभिचार पर स्मारक बनें खूब बने बनाने बनवाने में किसलिये करना है और क्यों करना है कुछ भी विचार


क्या किया जाये बहुत बार होता है
लिखा जाये या नहीं लिखा जाये

होता है होता है
एक पूरा आदमी हो जाने से ही
सब कहाँ होता है

जैसे कि एक कच्ची रह गई सोच में हो
वही सब कुछ
जो किसी और की सोच से बाहर
आता हुआ तो दिखता है
पर अपनी ऊपर की मंजिल में ही बस
उसका पता नहीं मिलता है

होता है होता है
जैसे कि बहुत सी चीज अजीब लगती होती हैं
होती हुई अपने ही आस पास
पर बनती हैं इतिहास
बैचेनी होने लगती है देख देख कर कभी
और कुछ कुछ होता है

इतिहास हो जाती हैं आदत हो जाती है
फिर कुछ नहीं होता है
आदत हो गई होती है सब कर रहे होते हैं
कुछ नहीं कह रहे होते हैं

एक सामान्य सी ही बात हो जाती है
समझ में नहीं भी आती है तब भी
बहुत अच्छी तरह आ रही है
देखी और दिखाई जाती है
दिखाना पड़ता है

जैसे अपनी और अपनों की ही बात हो जा रही है
कहा नहीं भी जाता है पर जमाना मान जाता है

शहीदों की चिताओं पर लगने वाले मेलों की बात
एक इतिहास हो जाता है

जमाना बदलता है 
बलात्कार व्यभिचार अत्याचार और
ना जाने क्या क्या
सब पर ही बनाया जाता है

स्मारक दर स्मारक
स्मारक के ऊपर स्मारक चढ़ाया जाता है
कुछ समझ में आता भी है
कुछ समझ में नहीं भी आता है ।

चित्र साभार: www.clipartlogo.com

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

इंसानियत तो बस एक मुद्दा हो जाता सरे आम दिन दोपहर की रोशनी में उसे नंगा किया जाता है अंधा ‘उलूक’ देखने चला आता है

एक नहीं 
कई बार 
कहा है
तुझसे 

दिन में मत 
निकला कर 
निकल भी 
जाता है अगर 
तो जो दिखता है 
मत देखा कर 

ऐसा देख
कर आना 
फिर यहाँ आ 
कर बताना 

क्यों करता है 
रात का
निशाचर है 
दिन वालों की 
खबर रखता है 

हर प्रहर के 
अपने नियम कानून 
बनाये जाते हैं 

दिन के दिन में 
रात के रात में 
चलाये जाते हैं 

उल्लुओं की दुनियाँ 
के कब्रिस्तान 
दिन की फिल्मों में 
ही दिखाये जाते हैं 

इंसान इंसान होता है 
इंसान ही उसे 
समझ पाते हैं 

बलात्कार होना 
लाश हो जाना 
कीड़े पड़ जाना 
लाश घर में रख कर 
आँदोलित हो जाना 

वाजिब है 
समझ में भी आता है
आक्रोश होना
अलग बात होती है
आक्रोश दिखाया जाता है

स्कूल बंद कराये जाते हैं
बाजार बंद कराये जाते हैं
बंद कराने वाले
अपने अपने रंग बिरंगे
झंडे जरूर साथ
ले कर आते हैं

अखबार वाले
समाचार
बनाने आते हैं
टी वी वाले
वीडियो
बनाने आते हैं

अगला चुनाव
दिमाग में होता है
राजनीतिज्ञ
वक्तव्य दे जाते हैं

सब कुछ साफ साफ
देख लेता है ‘उलूक’

दिन के उजाले में भी
घटना दुर्घटना
महज मुद्दे हो जाते हैं

सबके लिये
काम होता है
मुद्दे भुनाने का

बस भोगने वाले
अपने आँसू खुद
ही पी जाते हैं

इंसान का हुआ होता
है बलात्कार और
बस इंसान ही खो जाते हैं
कहीं भी नजर नहीं आते हैं

सोच में आती है
कुछ देर के लिये
एक बात
सभी अपने रंगीन
झंडों को भूलकर

किसी एक घड़ी के लिये
काले झंडे एक साथ
एक सुर में
क्यों नहीं उठा पाते हैं ।

चित्र साभर: gladlylistening.wordpress.com

बुधवार, 26 नवंबर 2014

हैवानियत है कि इंसानियत का दीमक हुई जा रही है

शर्म आती है

कहने में भी
शर्म आ रही है

सात साल की
मासूम ‘कशिश’

जिस दरिंदगी
का हुई है शिकार

किसकी
रही गलती
कहाँ हो गई कमी


इंसानियत
क्यों हैवानियत
होती जा रही है

दानवों की सी
नोच खसोट जारी है

कितनी द्रोपदी

पता नहीं
कहाँ कहाँ

दुशासन की
पकड़ में
बस कसमसा रही हैं

भगवान
कृष्ण भी
कहाँ कहाँ पहुँचें

सारी घटनायें
सामने कहाँ
आ रही हैं

देवताओ
कुछ तो कहो

देव भूमि
पीड़ा से
छ्टपटा रही है

माँ की ममता
कितनी
हो चुकी है बेबस

गिद्धों की
नोची हुई
लाश को
देख देख कर
बेहोश हुई
जा रही है

इंसान
कलियुग़ में
इंसानियत का
कितना करेगा
और कत्ल

सजा
पता नहीं
कब और किसे
दी जा रही है

आँखें हैं नमी है
सिले हुऐ मुँह हैं

मोमबत्तियाँ
हाथों में ही
पिघलती
जा रही हैं

शर्म आ रही है

कहने में भी
शर्म आ रही है ।

चित्र साभार: imgarcade.com

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

हाथ की लकीरें माथे की लकीरें फकीरों को बता दें कि अब मिटा ली जायें

कुछ लगे
हल्की
ही सही

हवा संभाली जाये

थोड़ा
अपनी ओर से
फूँक मार कर

उछाली जाये

किस
हाथ में हैं
लकीरें कुछ
तूफान उठाने वाली

उस हाथ
वाले की
पूरी कुण्डली
बना कर

खंगाली जाये

फकीरों
की भी
आदतें हो रही हैं
कुछ अमीरों सी

गरीबों
की गलियों में
ऐशो आराम की
सवारी एक

निकाली जाये

कर ले
शौक से
अपने गली के

घोड़ों गधों 

और कुत्तों की
आदतों की बातें

अपनी आदतें
खुद तुझसे

कहाँ संभाली जायें

अच्छा नहीं है
बीच शहर में
बड़बड़ाना
शरीफों का

निकल
कर गाँवों
की तरफ
कुछ फुसफुसा के

पेड़ों से बातें
करने की आदतें

अब डाली जायें

करने
धरने में
कुछ रखा नहीं
इस जमाने में

किस्मत को
किस्मत से
लड़ाने की

तरकीब
सिखाने की

दुकानें
हर कोने में
घर घर में

बना ली जायें

लिख ही दे
‘उलूक’ तू भी
दीवाने उलूक

खींच खाँच कर
छोटी बातों को
कुछ इसी तरह

रोज का रोज
बात बात में
बात की
टाँगे तोड़
देने की

नई नई
तरकीबें

कुछ
निकाली जायें ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

सोमवार, 24 नवंबर 2014

कुछ करने वाले खुद नहीं लिखते हैं अपने किये कराये पर किसी से लिखाते हैं

कुछ मत
कह ना
लिखने
दे ना

लिख ही तो
रहें हैं
कुछ
कर तो
नहीं रहे हैं

वैसे भी
जो करते हैं
वो
ना लिखते हैं
ना लिखे हुऐ
को पढ़ते हैं

गीता पर
दिये गये
कृष्ण भगवान
के कर्म
के संदेश
को अपने
दिल में
रखते है

बीच बीच
में लिखने
वाले को
याद दिलाते हैं
अपना खुद
काम पर
लग जाते हैं

करने के
साथ साथ
लिख लेने
वाले भी
कुछ हुआ
करते हैं

लिख लेने
के बाद
कर लेने
वाले कुछ
हुआ करते हैं

अब
अपवाद
तो हर
जगह ही
हुआ
करते हैं

करने वाले
को हम
कौन सा
रोक पाते हैं

करते हुऐ
देखते हैं
और
लिखने के
लिये आ
जाते हैं

लिख
लेने से
करने वालों
पर कोई
प्रभाव नहीं
पढ़ता है

उनके करने
कराने
पर कहानी
बनाने वाले
कुछ अलग
तरह के लोग
अलग जगह
पर पाये
जाते हैं

वो ही
करने वालों
के करने
पर लिखते
चले जाते हैं

जिसे
सारे लोग
पढ़ते भी हैं
और
पढ़ाते भी हैं
जिसे
सारे लोग
समझते भी हैं
और
साथ में
समझाते भी हैं

‘उलूक’ के
लिखे को
ना ये
पढ़ते हैं
ना वो
पढ़ते है

करने वालों
के करने
का लिखना
तू जा कर
पढ़ ना

कुछ नहीं
करने वाले से
तुझे क्या
लेना देना
उसे लिखने
ही दे ना ।

चित्र साभार: becuo.com

रविवार, 23 नवंबर 2014

कुछ नहीं किया जा सकता है उस बेवकूफ के लिये जो आधी सदी गुजार कर भी कुछ नहीं सीख पाता है

रोज की बात है
रोज चौंकता है
अखबार पर
छपी खबर
पढ़ कर के
फिर यहाँ आ आ
कर भौंकता है
बिना आवाज के
कुत्ते की तरह
ऐसा चौंकना
भी क्या और
ऐसा भौंकना
भी क्या
अरे क्या हुआ
अगर एक चोर
कहीं सम्मानित
किया जाता है
ये भी तो देखा कर
एक चोर ही
उसके गले में
माला पहनाता है
अब चोर चोर के
बीच की बात में
तू काहे अपनी
गोबर भरे
दिमाग की
बुद्धी लगाता है
क्या होता है
अगर किसी
बंदरिया को
अदरख़ बेचने
खरीदने का
ठेका दे भी
दिया जाता है
और क्या होता है
अगर किसी
जुगाड़ी का जुगाड़
किसी की भी
हो सरकार
सबसे बड़ा जुगाड़
माना जाता है
बहुत हो चुका
तेरा भौंकना
तेरा गला भी
लगता है
कुछ विशेष है
खराब भी
नहीं होता है
थोड़ा बहुत
कुछ भी
कहीं भी
होता है
खरखराना
शुरु हो
जाता है
समय के
साथ साथ
बदलना
क्यों नहीं
सीखना
चाहता है
खुद का समय
तो निकल गया
के भ्रम से भ्रमित
हो भी चुका है
तो भी अपनी
अगली पीढ़ी को
ये कलाबाजियाँ
क्यों नहीं
सिखाता है
जी नहीं पायेगी
मर जायेगी
तेरी ही आत्मा
गालियाँ खायेगी
तेरी समझ में
इतना भी
नहीं आता है
कौन कह रहा है
करने के लिये
सिखाना है
समझा कर
समझने के लिये
ही उकसाना है
समझने के लिये
ही बताना है
चोरी चकारी
बे‌ईमानी भ्रष्टाचारी
किसी जमाने में
गलत मानी
जाती होंगी
अब तो बस
ये सब नहीं
सीख पाया तो
गंवारों में
गिना जाता है
वैसे सच तो ये है
कि करने वालों
का ही कुछ
नहीं जाता है
नहीं करने वाला
कहीं ना कहीं
कभी ना कभी
स्टिंग आपरेशन
के कैमरे में
फंसा दिया जाता है
इसी लिये ही तो
कह रहा है ‘उलूक’
गाँठ बाँध ले
बच्चों को अपने ही
मूल्यों में ये सब
बताना जरूरी
हो जाता है
करना सीख
लेता है जो
वो तो वैसे भी
बच जाता है
नहीं सीख पाता है
लेकिन जानता है
कम से कम
अपने आप को
बचाने का रास्ता तो
खोज ही ले जाता है ।

चित्र साभार: poetsareangels.com

शनिवार, 22 नवंबर 2014

लिखता लिखता ही पढ़ना भी सीख लेगा

जिस दिन
सीख लेगा
लिखना
बता उस दिन
क्या लिखेगा
अभी बताने
में भी कोई
हर्ज नहीं है
कविता
लिखेगा
या फिर कोई
गजल
लिखेगा
तब तक
ऐसा वैसा
भी लिखेगा
वो भी चलेगा
लिखना सीखने
के लिये जो
भी लिखेगा
वही तो
एक दिन
लिखना
सिखाने
के लिये
भी लिखेगा
लिखना एक
अलग बात है
लिखने वाला
बस लिखेगा
पढ़ना एक
अलग बात है
पढ़ने वाला
बस पढ़ेगा
लिखना पढ़ना
साथ करने
की कोशिश
जो भी करेगा
ना लिख
पायेगा कुछ
ना ही पढ़ेगा
लिखना सीख
ले कुछ
लिख लिखा
कर कुछ
दिनों तक
लिखना
सीख लेगा
जब ‘उलूक’
पूरा का पूरा
आधा
कम से कम
पढ़ना भी
सीख लेगा ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

बस चिंगारी से आग और आग से राख बनाने की बात करनी है


चिंगारियाँ उठने की बात आग़ लगने की बात बातों बातों में ही करनी है
इससे भी पूछना है उससे भी पूछना है
आग से भी पूछ कर कुछ सुलगने सुलगाने की बात करनी है

जलाना कितना भी है जलाना कुछ भी है बस जलाने की बात करनी है
आग लगनी है ना लगानी है बस आग दिखने और दिखाने की बात करनी है

धुँआ दिखना नहीं है राख बचनी नहीं है दिल को जलना नहीं है
तूफान आने की बात करनी है

कत्ल होना नहीं है खून बहना नहीं है क्राँतिकारियों की बात करनी है 
बहुत हो चुकी इंसानों की बातें पामेरियन ऐप्सो एल्शेशियन की बात करनी है

बहुत बेच दिये आदमी ने आदमी
अब लाशें दफनानी हैं  मूर्तियाँ लगवानी हैं कमीशन बनाने की बात करनी है

आग होती भी है आग लगती भी है मत करो जुल्म उसपर बड़ा
उसे भी कभी थोड़ा सा कुछ सोने जाने की बात करनी है 

सालों हो गये तुझको बातें बनाते ‘उलूक’ सबको पता है
तुझे तो बस दिया सलाई की बात करनी है


चित्र साभार: www.dreamstime.com

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

जानवर पढ़ के इस लिखे लिखाये को कपड़ा माँगने शायद चला आयेगा


नंगों के लिये कपड़े लिख देने से
ढका कुछ भी नहीं जायेगा
कुछ नहीं किया जा सकता है
कुछ बेशर्मियों के लिये
जिन्हें ढकने के लिये
पता होता है कपड़ा ही छोटा पड़ जायेगा

आँखों को ढकना सीखना सिखाना
चल रहा होता है सब जगह जहाँ
मालूम होता है अच्छी तरह
एक छोटे से कपड़े के टुकड़े से भी काम चल जायेगा

दिखता है सबको सब कुछ
दिख गया लेकिन किसी से नहीं कहा जायेगा
ऐसे देखने वालों की आँखों का देखना
देखने का चश्मा कहाँ मिल पायेगा

दिखने को लिखना बहुत ही आसान है
मगर यहीं पर हर कोई
गंवार और अनपढ़ बन जायेगा

लिखता रहेगा रात भर अंधेरे को ‘उलूक’
हमेशा ही सवेरे के आने तक 
सवेरा निकलेगा उजाले के साथ
आँखों में धूप का चश्मा बहुत काला मगर लगायेगा

जल्दी नहीं आयेगा समझ में कुछ
कुछ समय खुद ही समय के साथ सिखायेगा

नंगेपन को ढकना नहीं है
लिखना सीखना है ज्यादा जरूरी
लिखते लिखते नंगापन ही एक फैशन भी हो जायेगा

कपड़ा सोचना कपड़ा लिखना
कपड़े का इतिहास बने या ना बने
बंद कुछ पढ़ने से खुला सब पढ़ना
हमेशा ही अच्छा कहा जायेगा ।

चित्र साभार: www.picsgag.com

बहुत कुछ हो रहा होता है पर क्या ? यही बस पता नहीं चल रहा होता है

बहते हुऐ पानी
को देखती हुई
दो आँखें इधर से
गिन रही होती हैं
पानी के अंदर
तैरती मछलियाँ
और उधर से
दो और आँखें
बहते हुऐ पानी
को गिन रही होती हैं
मछलियाँ
गिनना कहना
तो समझ में
आ रहा होता है
उसे भी जो पानी में
देख रहा होता है
और उसे भी जो
गिनती नहीं
जानता है पर
मछलियाँ
मछलियाँ होती हैं
अच्छी तरह
पहचानता है
पानी को गिनने
की बात करना
पानी को कोई
गिन रहा है जैसा
किसी को कहते
हुऐ सुनना और
पानी गिनने की
बात पर कुछ सोचना
किसी को भी
अजीब लग सकता है
लेकिन ऐसी ही
अजीब सी बातें
एक नहीं कई कई
रोज की जिंदगी
में आने लगी हैं
सामने से
इस तरह की बातों को
कोई किस से कहे
कौन सिद्ध करे
अपने दिमाग का
दिवालियापन
बहुत से लोग अब
यही सब करते हैं
समझते हैं और
बहुत आसान होता है
ऐसा महसूस होता है
क्योंकि ऐसा एक नहीं
कर रहा होता है
बल्कि एक दो को
छोड़ कर हर कोई
इसी चीज को लेकर
एक दूसरे को समझ
और समझा रहा होता है
‘उलूक’ परेशान होकर
पानी के सामने
अपने कैल्कुलेटर की
पुरानी बैटरी को
नई बैटरी से
बदल रहा होता है
सारा का सारा पानी
बह कर उसके ही
सामने से निकल
रहा होता है
क्या किया
जा सकता है
कुछ लोगों की
फितरत ऐसी
ही होती है
वो कुछ नहीं
कर सकते हैं
और उनसे
कभी भी
कुछ भी
नहीं होता है ।

चित्र साभार: cwanews.com

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

कहने को कुछ नहीं है ऐसे हालातों में कैसे कोई कुछ कहेगा

दिख तो रहा है
अब मत कह देना
नहीं दिख रहा है
क्यों दिख रहा है
दिखना तो
नहीं चाहिये था
क्या हुआ ऐसा
दिखाई दे गया
और जो दिखा
वही सच है
ऐसे कई सच
हर जगह
सीँच रहे हैं
खून से
जिंदा लाशों को
और बेशरम लाशें
खुश हैं व्यस्त हैं
बंद आँखों से
मरोड़ते हुऐ
सपने अपने भी
और सपनों के भी
ये दिखना दिखेगा
कोई कुछ कहेगा
कोई कुछ कहेगा
मकान चार खंभों पे
टिका ही रहेगा
खंभा खंभे
को नोचेगा
एक गिरेगा
तीन पर हिलेगा
दो गिरेंगे
दो पर चलेगा
लंगड़ायेगा
कोई नहीं देखेगा
लंगड़ा होकर भी
गिरा हुआ खंभा
मरेगा नहीं
खड़ा हो जायेगा
फिर से मकान
की खातिर नहीं
खंभे की खातिरदारी
के लिये
ऐसे ही चलेगा
कल मकान में
जलसा मिलेगा
दावत होगी
लाशें होंगी
मरी हुई नहीं
जिंदा होंगी
तालियाँ बजेंगी
एक लाल गुलाब
कहीं खिलेगा
आँसू रंगहीन
नहीं होंगे
हर जगह रंग
लाल ही होगा
पर लाली नहीं होगी
खून पीला हो चुकेगा
कोई नहीं कुछ कहेगा
कुछ दिन चलेगा
फिर कहीं कोई
किसी और रंग का
झंडा लिये खड़ा
झंडे की जगह ले लेगा
खंबा हिलेगा
हिलते खंबे को देख
खंबा हिलेगा
मकान में जलसा
फिर भी चलेगा।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

सोमवार, 17 नवंबर 2014

खुद का आईना है खुद ही देख रहा हूँ

अपने आईने
को अपने
हाथ में लेकर
घूम रहा हूँ

परेशान होने
की जरूरत
नहीं है
खुद अपना
ही चेहरा
ढूँढ रहा हूँ

तुम्हारे
पास होगा
तुम्हारा आईना
तुमसे अपने
आईने में कुछ
ढूँढने के लिये
नहीं बोल रहा हूँ

कौन क्या
देखता है जब
अपने आईने में
अपने को देखता है

मैंने कब कहा
मैं भी झूठ
नहीं बोल रहा हूँ

खयाल में नहीं
आ रहा है
अक्स अपना ही
जब से बैठा हूँ
लिखने की
सोचकर

उसके आईने में
खुद को देखकर
उसके बारे में
ही सोच रहा हूँ

सब अपने
आईने में
अपने को
देखते हैं

मैं अपने आईने
को देख रहा हूँ

उसने देखा हो
शायद मेरे
आईने में कुछ

मैं
उसपर पड़ी
हुई धूल में
जब से
देख रहा हूँ

कुछ ऐसा
और
कुछ वैसा
जैसा ही
देख रहा हूँ ।

चित्र साभार: vgmirrors.blogspot.com

जरूरी है याद कर लेना कभी कभी रहीम तुलसी या कबीर को भी



बहुत सारी तालियाँ
बजती हैं हमेशा ही
अच्छे पर अच्छा
बोलने के लिये
इधर भी और
उधर भी
 नीचे नजर
आ जाती हैं
दिखती हैं
दूरदर्शन में
सुनाई देती हैं
रेडियो में
छपती हैं
अखबार में
या जीवित
प्रसारण में भी
सामने से खुद
के अपने ही
शायद बजती
भी हों क्या पता
उसी समय
कहीं ऊपर भी
अच्छा बोलने
के लिये अच्छा
होना नहीं होता
बहुत ही जरूरी भी
बुरे को अच्छा
बोलने पर नहीं
कहीं कोई पाबंदी भी
अच्छे होते हैं
अच्छा ही देखते हैं
अच्छा ही बोलते हैं
ज्यादातर होते ही हैं
खुद अपने आप में
लोग अच्छे भी
बुरी कुछ बातें
देखने की उस पर
फिर कुछ कह देने की
उसी पर कुछ कुछ
लिख देने की
होती है कुछ बुरे
लोगों की आदत भी
अच्छा अच्छा होता है
अच्छे के लिये
कह लेना भी
और जरूरी भी है
बुरे को देखते
बुरा कुछ कहते
रहना भी
करते हुऐ याद
दोहा कबीर का
बुरा जो देखन मैं चला
हर सुबह उठने
के बाद और
रात में सोने से
पहले भी ।

 चित्र साभार:
funny-pictures.picphotos.net

शनिवार, 15 नवंबर 2014

कोई नई बात नहीं है बात बात में उठती ही है बात

बड़ी असमंजस है
मुँह से निकली
नहीं बात
बात उठना
शुरु हो जाती है
मायने निकलने की
और मायने
निकालने की
बात की तह में
पहुँचने की
बात को बात की
जगह पर पहुँचाने
की छिड़ ही
जाती है बहस भी
खुद की खुद से ही
नहीं तो सामने
आने वाले किसी
भी शख्स से
अब ढपली
जब सबकी अपनी
अपनी अपनी
जगह पर ही
होती है बजनी
तो राग किसी का
कौन काहे लेना
चाहेगा उधार
नकद में
बिना सूद का
जब पड़ा हुआ हो
सबके पास अपना
अपना कारोबार
कल मित्र के
समझने समझाने
पर कह बैठा
घर पर जब
यूँ ही एक बात
चढ़ बैठे
समझाने वाले
बातों का हंटर
उठाये अपने
अपने हाथ
काहे समझाना
चाहते हो
सब कुछ सब को
जितना ना आये
समझ में उतना
रहता है चैन
क्यों सब को
बनाना चाहते हो
अपना जैसा
समझदार और बैचेन
बात को उठा देने
के बाद बात को
उठने क्यों नहीं देते
जन धन योजना
की तरह
बिना पैसे के खाते
और उसपर मिलने
वाले एक लाख
रुपिये के
दुर्घटना बीमा से
अपनी और अपनी
सात पुश्तों का
भविष्य सुरक्षित
क्यों नहीं कर लेते
अब बात उठी है
समझी किसने है
सब खुश है
और हैं खुशहाल
और आप लगे हुऐ हैं
समझाने में
क्यों करना चाहते है
सबको बस एक बात
के लिये बेहाल
खुश रहने का मंत्र
गाँठ बांध लीजिये
जनाब
बात सुनिये
बात करिये
बात लिख
भी लिजिये
कोई नहीं
रोक रहा है
बात समझने
समझाने की
बात मत करिये
बस इसी बात
से ही होना शुरु
होता है बबाल ।

चित्र साभार: teacherzilla.wordpress.com

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

मित्रों का वार्तालाप


भाई
आपका लिखा
पढ़ता हूँ पर
समझ में ही
नहीं आता है
समझ में नहीं
आने के बावजूद
भी रोज पढ़ने
चला आता हूँ
सोचता हूँ शायद
किसी दिन कुछ
समझ में
आ ही जाये
लेकिन कुछ भी
अपने हाथ में
आया हुआ
नहीं पाता हूँ
जब यहाँ से
पढ़ पढ़ा कर
हमेशा कि तरह
खाली हाथ
खाली दिमाग
लौट जाता हूँ
ऐसा कुछ लिखना
जरूरी है क्या
जो पचाना तो दूर
खाया भी
नहीं जाता है ?

जरूरी नहीं है
भाई जी
मजबूरी है
समझ में मेरे भी
बहुत कुछ
नहीं आता है
कोशिश करता हूँ
समझने की बहुत
जितना कुछ है
सोचने समझने का
जुगाड़ पूरा ही
लगाता हूँ
जब क्यों हो रहा है
होता हुआ
अपने सामने से
होते हुऐ को
देखता चला जाता हूँ
जो नहीं होना चाहिये
उस होने के लिये
हर किसी को
उस ओर खड़ा
नहीं होने के
साथ पाता हूँ
तो अंत में
थक हार कर
नहीं समझे हुऐ को
लिख लिखा कर
जमा करने
यहाँ चला आता हूँ
सोचता हूँ
आज नहीं समझ में
आने वाली कच्ची बात
किसी दिन शायद
पक कर पूरी आ जायेगी
हो जायेगी खाने लायक
और होगी अपने ही हाथ
सोच सोच कर
बस इसी तरह का
एक खाता यहाँ
बनाये चला जाता हूँ
पर ये ही समझ
नहीं पाता हूँ
समझ में ना आने
के बाद भी कुछ भी
तुमको रोज
यहाँ आकर
लिखे को पढ़ चुके
लोगों की सूची में
क्यों और
किसलिये पाता हूँ ?


अरे कुछ नहीं
ऐसे ही मित्र ‘उलूक’
मैं भी कौन सा
तुम को उलझाना
चाहता हूँ
कुछ हो गया होता है
जब पता चलता है
तुमने कुछ लिखा होगा
उसपर जरूर
सोच कर बस यही
पता करने को
चला आता हूँ
पर तुम्हारे लिखने
में कुछ भी नहीं मिलता
क्यों लिखते हो
इस तरह का जो
ना आये किसी की
समझ में कभी भी
यहाँ से जाने के बाद
बस सोचता और
सोचता ही
रह जाता हूँ
जब नहीं सुलझती
है उलझन तो
पूछने चला आता हूँ ।

चित्र साभार: www.gograph.com