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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

आदमी और आदमी के घोड़े हो जाने का व्यापार

अनायास
अचानक

नजर
पड़ती है

आस पास

जगह जगह
फैली हुई
लीद पर

कुछ ताजी
कुछ बासी
कुछ अकड़ी

कुछ लकड़ी
हुई सी
चारों तरफ
अपने

माहौल
बनाये हुऐ
किसी बू की

बद कहें
या खुश

समझना
शुरु करने पर
दिखाई नहीं देते

किसी भी
जानवर के
खुरों के निशान

नजर
आते हैं
बस कुछ लोग

जो
होते ही हैं
हमेशा ही
इस तरह की
जगहों पर
आदतन

रास्ते से
भेजे गये
कुछ लोग

कब कहाँ
खो जाते हैं

कब घोड़े
हो जाते हैं

पता
चलता है
टी वी और
अखबार से

घोड़ों के
बिकने
खरीदने के
समाचार से

आदमी का
घोड़ा हो जाना

कहाँ पता
चलता है

कौन
आदमी है
कौन
घोड़ा है

कौन
लीद को
देखता है
किसी की

पर
आदमी कुछ
घोड़े हो
चुके होते हैं
ये सच होता है

घोड़ों का
ऐसा व्यापार

जिसमें
बिकने वाला
हर घोड़ा

घोड़ा कभी
नहीं रहा
होता है

गजब का
व्यापार
होता है

सोचिये

हर पाँच
साल में

पाँच साल भी
अब
किस्मत
की बात है

अगर आप
कुछ नहीं
को भेज रहे हैं
कहीं

उसके
अरबों के
घोड़े हो जाने
की खबर पर

खम्भा भी
खुद का ही
नोचते हैं

लगे रहिये
लीद के इस
व्यापार में

आनंद
जरूरी है

समझ
अपनी
अपनी है

घोड़ों को
कौन बेच
रहा है

कौन
घोड़ा है

लीद
किसके लिये
जरूरी है

लगे रहिये

‘उलूक’
को जुखाम
हुआ है

और
वो लीद
मल रहा है

सुना है
लीद से
ही मोक्ष
मिलता है ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

गुरुवार, 10 मार्च 2016

कुछ लोग लोगों को उनके बारे में सब कुछ बताते हैं

कुछ लोग
भगवान
नहीं होते हैं

बस उनका
होना ही
काफी होता है

किसी को भी
अपने बारे में
उतना पता
नहीं होता है
जितना
कुछ लोगों को
सारे लोगों
के बारे में
पता होता है

रात के देखे
सभी सपने
सुबह होने होने
तक बहुत ही
कम याद रहते हैं

बिना धुले
साबुन के
मटमैले कपड़े
जैसे ही धुँधले
हो चुके होते हैं

उन सारे
सपनों की
खबर को
लोगों को
सुनाने में
इन कुछ
लोगों को
महारत
हासिल होती है

अलसुबह
मुँह धोने
से पहले
आईने के
सामने खड़ा
जब तक
कोई खुद
को परख
रहा होता है

इन लोगों
की तीसरी
आँख से
देखा सब कुछ
बिस्तरे की
सिलवट की
गिनतियों के
साथ कहीं
किसी सुबह
के अखबार
के मुख्य
पृष्ठ पर
बड़े अक्षरों में
छप रहा होता है

ये लोग
अपने जैसे
सभी भगवानों
को बारीकी से
पहचानते हैं

बोलते
नहीं है
कुछ भी
कहीं भी
किसी से
किसी के लिये

लेकिन
हवा हवा में
हवा की
धूल मिट्टी को
भी छानते हैं

सारा सब कुछ
इन्हीं की
सदभावनाओं
पर टिका
और चल
रहा होता है

अपने बारे में
अच्छी  दो चार
गलफहमियाँ
पाला हुआ
कोई अपनी
अच्छाइयों के
जनाजों को
कहीं गिन
रहा होता है

उसकी गिनती
सही है और
गलत है
यही
कुछ लोग
बताते हैं

जानकारी
आदमी की
आदमी के
अंदर से
निकाल कर
आदमी को
बेच जाते हैं

आदमी
अपने बारे में
सोचता रहता है

होने ना
होने के
हिसाब से
कुछ लोग
उसका
कहीं भी
नहीं होना
हर जगह
जा जा
कर बताते हैं

भगवानों
में भगवान
धरती में
पैदा हुऐ
इन्सानों
से अलग

कुछ अलग
तरह के लोग
सब कुछ
हो जाते हैं

‘उलूक’
भगवान की पूजा
करने से नहीं
मिलता है मोक्ष

कुछ लोगों
की शरण में
जाना पड़ता है

आज के
जमाने में
भगवान भी
उन्ही लोगों
से पूछने
कुछ ना
कुछ आते हैं ।

चित्र साभार: fremdeng.ning.com

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

‘रोहित’

सारे के सारे
सब कुछ
कह चुके
गणित
लगा कर
जोड़ घटाना
गुणा भाग कर

अपने अपने
लिये
अपने अपने
हिसाब से
बना चुके
खाते खतौनी
तेरी मौत के

पर
दुख: है
गिनीज बुक
रिकॉर्डस
में नहीं
आ पायेगी
‘रोहित’

वो जो हुआ
तेरे साथ
कोई नई
चीज नहीं है

हर
विश्वविद्यालय
में हुई है
होनी होती है
सबसे
जरूरी होती है
यू जी सी को
भी पता होती है

कि
उपर चढ़ने
के लिये
जरूरी
हमेशा
जिंदा शरीर
से अच्छी एक
लाश ही होती है

हत्या
और आत्महत्या
तो बस एक
बात होती है

बाकी वो
राजनीति
क्या होती है
बस एक
बच्चा होती है
जो और
जगह होती है

खिचड़ी
पक रही
होती है
चावल
किसी का
दाल किसी
की होती है

सब को
पता होती है
कुत्तों के
नोचने के लिये
माँस चिपकी ह्ड्डी
ज्यादा अच्छी
चीज होती है

विश्वविद्यालय
बड़ी
क्या कहना
चाहिये
नहीं कही
जा रही है

जो देखकर
अपने घर
के पालतू
की शक्ल
जैसी ही एक
चीज की
मेल की
फीमेल
होती है

भड़वों
के लिये
वक्तव्य
देने सहेजने
की काँटेदार
झाड़ियों की
बीज होती है

जिस
गृह के
गृहपति
की बहुत बड़ी
कीमत होती है

उस घर
में हर एक
चीज बिकने
और
खरीदने की
चीज होती है

किसी
के हिस्से
में कटी टाँग
किसी
के हिस्से
में कटा हाथ
किसी
के हिस्से में
मौत की खबर
किसी
आत्माहीन
के हाथ में
मरे हुऐ की
आत्मा होती है

शोक सभा
होती है
जरूर होती है

शोक
संदेश भी
होता है
पढ़े लिखों
की भाषा
होती है

पर कहीं
नहीं होता है
आत्मा
को नोचने
वालों का
हिसाब किताब

उनके
हिसाब किताब
की किताब
उन लोगों
के खाते
देखने वालों
के पास होती है


विश्वविद्यालयों
जैसे 
एक
बड़े चीरफाड़ घर 

में लाशों के  
पहरेदारों की 
कमी नहीं होती है 

तेरी
मौत से
‘रोहित’
विश्वविद्यालयों
के अंदर
के पढ़े लिखे
कफन खोरों
कफन
बेचने वालों
और उनके
तीमारदारों
की आमदनी
में बढॉतरी
तेरे जैसे के
मरने के
बाद जरूर
होती है ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

अनदेखा ना हो भला मानुष कोई जमाने के हिसाब से जो आता जाता हो

पापों को
अगर अपने
किसी ने
कह
दिया हो
फिर सजा
देने की बात
सोचने की
सोच किसी
की ना हो

हो अगर कुछ
उसके बाद
थोड़ा कुछ
ईनाम
वीनाम हो 
थोड़ा बहुत
नाम वाम हो 

कुछ सम्मान
वम्मान हो
उसका भी हो
तुम्हारा भी हो
हमारा भी हो

झूठ
वैसे भी
बिक नहीं
सकता कभी
अगर
खरीदने वाला
खरीददार
ही ना हो

कुछ
बेचने की
कुछ
खरीदने की
और
कुछ
बाजार की
भी बात हो
चाहे कानो
कान हो

सोच लो
अभी भी
मर ना
पाओगे
मोक्ष पाने
के लिये
कीड़ा
बना कर
लौटा कर
फिर वापस
यहीं कहीं
भेज दिये
जाओगे

जमाने के
साथ चलना
इसलिये भी
सबके लिये
बराबर हो
और
जरूरी हो

सीखना
झूठ बेचना
भी सीखने
सिखाने में हो
बेचना नहीं
भी अगर
सीखना हो
कम से कम
कुछ खरीदना
ही थोड़ा बहुत
समझने
समझाने में हो

खुद भी
चैन से
रहना
और
रहने
देना हो

‘उलूक’
आदत हो
पता हो
आदमी के
अंदर से
आदमी को
निचोड़ कर
ले आना
समझ में
आता हो

अनदेखा
ना
होता हो
भला मानुष
कोई भी
कहीं इस
जमाने में
जो किताबों
से इतर
कुछ मंत्र
जमाने के
हिसाब के
नये
बताता हो
समझाता हो ।

चित्र साभार: sushkrsh.blogspot.com

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

उतनी ही श्रद्धांजलि जितनी मेरी कमजोर समझ में आती है तुम्हारी बातें वीरेन डंगवाल

बहुत ही कम
कम क्या
नहीं के बराबर
कुछ मकान
बिना जालियाँ
बिना अवरोध
के खुली मतलब
सच में खुली
खिड़कियों वाले
समय के हिसाब से
समय के साथ
समय की जरूरतें
सब कुछ आत्मसात
कर सकनें की क्षमता
किसी के लिये नहीं
कोई रोक टोक
कुछ अजीब
सी बात है पर
बैचेनी अपने
शिखर पर
जिसे लगता है
उसे कुछ समझ
में आती हैं कुछ
आती जाती बयारें
बेरंगी दीवारें
मुर्झाये हुई सी
प्रतीत होती
खिड़कियों के
बगल से
निकलती
चढ़ती बेलें
कभी मुलाकात
नहीं हुई बस
सुनी सुनाई
कुछ कुछ बातें
कुछ इस से
कुछ उस से
पर सच में
आज कुछ
उदास सा है मन
जब से सुना है
तुम जा चुके हो
विरेन डंगवाल
कहीं पर बहुत
मजबूती से
इतिहास के
पन्नों के लिये
गाड़ कर कुछ
मजबूत खूँटे
जो बहुत है
कमजोर समय के
कमजोर शब्दों पर
लटके हुऐ यथार्थ
को दिखाने के लिये
ढेर सारे आईने
विनम्र श्रद्धांजलि
विरेन डंगवाल
'उलूक' की अपनी
समझ के अनुसार।


चित्र साभार: http://currentaffairs.gktoday.in/renowned-hindi-poet-viren-dangwal-passes-09201526962.html

बुधवार, 3 जून 2015

आदमी तेरे बस के नहीं रहने दे चीटीं से ही कुछ कभी सीख कर आया कर

तेरे पेट में
होता है दर्द
होता होगा
कौन कह रहा है
नहीं होता है
अब सबके पेट
में दर्द हो
सब पेट के
दर्द की बात करें
ऐसा भी कैसे होता है
बहुत मजाकिया है
मजाक भी करता है
तो ऐसी करता है
जिसे मजाक है
सोचने सोचने तक
इस पर हँसना भी है
की सोच आते आते
कुछ देर तक ठहर कर
देख भाल कर
माहौल भाँप कर
वापस भी चली जाती है
और उसके बाद सच में
कोई मजाक भी करता है
तब भी गुस्से के मारे
आना चाह कर भी
नहीं आ पाती है
सबके होता है दर्द
किसी का कहीं होता है
किसी का कहीं होता है
सभी को अपने अपने
दर्द के साथ रहना होता है
दर्द की राजनीति मत कर
अच्छे दर्द के कभी आने
की बात मत कर
फालतू में लोगों का
समय बरबाद मत कर
दर्द होता है तो
दवा खाया कर
चुपचाप घर जा कर
सो जाया कर
बुद्धिजीवी होने का
मतलब परजीवी
हो जाना नहीं होता है
सबको चैन की
जरूरत होती है
अपना दिमाग किसी
तेरे जैसे को
खिलाना नहीं होता है
लीक को समझा कर
लीक पर चला कर
लीक से हटता भी है
अगर
तो कहीं किसी को
बताया मत कर
चीटिंया जिंदा चीटी को
नुकसान नहीं पहुँचाती हैं
चीटियाँ उसी चींटी को
चट करने जाती हैं
जो मर जाती है ।

चित्र साभार: sanbahia.blogspot.com

सोमवार, 25 मई 2015

‘दैनिक हिन्दुस्तान’ सबसे पुरानी दोस्ती की खोज कर के लाता है ऐसा जैसा ही उसपर कुछ लिखा जाता है

सुबह कुछ
लिखना चाहो
मजा नहीं
आता है
रात को वैसे
भी कुछ नहीं
होता है कहीं
सपना भी कभी कभी
कोई भूला भटका
सा आ जाता है
शाम होते होते
पूरा दिन ही
लिखने को
मिल जाता है
कुछ तो करता
ही है कोई कहीं
उसी पर खींच
तान कर कुछ
कह लिया जाता है
इस सब से इतर
अखबार कभी कुछ
मन माफिक
चीज ले आता है
संपादकीय पन्ने
पर अपना सब से
प्रिय विषय कुत्ता
सुबह सुबह नजर
जब आ जाता है
आदमी और कुत्ते
की दोस्ती पुरानी
से भी पुरानी होना
बताया जाता है
तीस से चालीस
हजार साल का
इतिहास है बताता है
आदमी ने क्या सीखा
कुत्ते से दिखता है
उस समय जब
आदमी ही आदमी
को काट खाता है
विशेषज्ञों का मानना
मानने में भलाई है
जिसमें किसी का
कुछ नहीं जाता है
आदमी के सीखने
के दिन बहुत हैं अभी
कई कई सालों तक
खुश होता है
बहुत ही ‘उलूक’
चलो आदमी नहीं
कुत्ता ही सही
जिसे कुछ सीखना
भी आता है
दिखता है घर से
लेकर शहर की
गलियों के कुत्तों
को भी देखकर
कुत्ता सच में
आदमी से बहुत कुछ
सीखा हुआ सच में
नजर आता है  ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

सपने बदलने से शायद मौसम बदल जायेगा

किसी दिन
नहीं दिखें
शायद
सपनों में
शहर के कुत्ते
लड़ते हुऐ
नोचते हुऐ
एक दूसरे को
बकरी के नुचे
माँस के एक
टुकड़े के लिये

ना ही दिखें
कुछ बिल्लियाँ
झपटती हुई
एक दूसरे पर
ना नजर आये
साथ में दूर
पड़ी हुई
नुची हुई
एक रोटी
जमीन पर

ना डरायें
बंदर खीसें
निपोरते हुऐ
हाथ में लिये
किसी
दुकान से
झपटे हुऐ
केलों की
खीँचातानी
करते हुऐ
कर्कश
आवाजों
के साथ

पर अगर
ये सब
नहीं दिखेगा
तो दिखेंगे
आदमी
आस पास के
शराफत
के साथ
और
अंदाज
लूटने
झपटने का
भी नहीं
आयेगा
ना आयेगी
कोई
डरावनी
आवाज ही
कहीं से

बस काम
होने का
समाचार
कहीं से
आ जायेगा

सुबह टूटते
ही नींद
उठेगा डर
अंदर का
बैठा हुआ
और
फैलना शुरु
हो जायेगा
दिन भर
रहेगा
दूसरे दिन
की रात
को फिर
से डरायेगा

इससे
अच्छा है
जानवर
ही आयें
सपने में रोज
की तरह ही

झगड़ा कुत्ते
बिल्ली बंदरों
का
रात में ही
निपट जायेगा
जो भी होगा
उसमें वही होगा
जो सामने से
दिख रहा होगा

 खून भी होगा
गिरा कहीं
खून ही होगा
मरने वाला
भी दिखेगा
मारने वाला भी
नजर आयेगा

‘उलूक’
जानवर
और आदमी
दोनो की
ईमानदारी
और सच्चाई
का फर्क तेरी
समझ में
ना जाने
कब आयेगा

जानवर
लड़ेगा
मरेगा
मारेगा
मिट जायेगा

आदमी
ईमानदारी
और
सच्चाई को
अपने लिये ही
एक छूत
की बीमारी
बस बना
ले जायेगा

कब
घेरा गया
कब
बहिष्कृत
हुआ
कब
मार
दिया गया

घाघों के
समाज में
तेरे
सपनों के
बदल जाने
पर भी
तुझे पता
कुछ भी
नहीं चल
पायेगा ।


चित्र साभार: http://www.clker.com/

शनिवार, 24 जनवरी 2015

आदमी होने से अच्छा आदमी दिखने के जमाने हो गये हैं

आदमी होने
का वहम हुऐ
एक या दो
दिन हुऐ हों
ऐसा भी नहीं है
ये बात हुऐ तो
एक दो नहीं
कई कई
जमाने
हो गये हैं
पता मुझको
ही है ऐसा
भी नहीं है
पता उसको
भी है वो बस
कहता नहीं है
आदमी होने के
अब फायदे
कुछ भी नहीं
रह गये हैं
आदमी दिखने
के बहुत ज्यादा
नंबर हो गये हैं
दिखने से आदमी
दिखने में ही
अब भलाई है
आदमी दिखने
वाले आदमी
अब ज्यादा ही
हो गये है
आम कौन है
और खास
कौन है आदमी
हर किसी के
सारे खास
आदमी आम
आदमी हो गये हैं
हर कोई आदमी
की बात करने
में डूबा हुआ है
आज बहुत
गहराई से
आदमी था
ही नहीं कहीं
बस वहम था
एक जमाने से
इस वहम को
पालते पालते
हुऐ ही कई
जमाने हो गये हैं ।

चित्र साभार: www.picthepix.com

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

पी के जा रहा है और पी के देख के आ रहा है

अरे ओ मेरे
भगवान जी
तुम्हारा मजाक
उड़ाया जा रहा है
आदमी पी के जैसी
फिलम बना रहा है
जनता देख रही है
मारा मारी के साथ
बाक्स आफिस का
झंडा उठाया
जा रहा है
ये बात हो रही थी
भगवान अल्ला
ईसा और भी
कई कई
कईयों के देवताओं
के सेमिनार में
कहीं स्वरग
या नरक या
कोई ऐसी ही जगह
जिसका टी वी
कहीं भी नहीं
दिखाया जा रहा है
एक देवता भाई
दूसरे देवता को
देख कर
मुस्कुरा रहा है
समझा रहा है
देख लो जैसे
आदमी के कुत्ते
लड़ा करते हैं
आपस में पूँछ
उठा उठा कर
बाल खड़े
कर कर के
कोई नहीं
कह पाता है
आदमी उनको
लड़ा रहा है
तुमने आदमी को
आदमी से
लड़वा दिया
कुत्तों की तरह
पूरे देश का
टी वी दिखा रहा है
भगवान जी
क्या मजा है
आप के इस खेल में
आपकी फोटो को
बचाने के लिये
आदमी आदमी
को खा रहा है
आप के खेल
आप जाने भगवान जी
हम अल्ला जी के साथ
ईसा जी को लेकर
कहीं और किसी देश में
कोई इसी तरह की
फिलम बनाने जा रहे हैं
बता कर जा रहे हैं
फिर ना कहना
भगवान जी का
कापी राईट है
और किसी और का
कोई और भगवान
उसकी नकल बना कर
मजा लेने जा रहा है ।

चित्र साभार: galleryhip.com

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

कभी लिख तो सही पेड़ जंगल मत लिख डालना लिखना बस एक या डेढ़ दो पेड़

पेड़ के इधर पेड़
पेड़ के उधर पेड़
बहुत सारे पेड़
एक दो नहीं
ढेर सारे पेड़
चीड़ के पेड़
देवदार के पेड़
नुकीली पत्तियों
वाले कुछ पेड़
चौड़ी पत्तियों
वाले कुछ पेड़
सदाबहार पेड़
पतझड़ में
पत्तियाँ झड़ाये खड़े
कई कई हजार पेड़
आदमी के आस
पास के पेड़
बहुत दूर
आदमी की पहुँच
से बाहर के पेड़
पेड़ के पास
के आदमी
आदमी और पेड़
पेड़ और आदमी
आदमी के
पास के आदमी
पेड़ के पास के
कुछ खुश
कुछ उदास पेड़
पेड़ से कुछ नहीं
कहते कभी
भी कुछ पेड़
आदमी से
कुछ नहीं लेते
कभी भी कुछ पेड़
आदमी से सभी कुछ
कह देते आदमी
जमीनों पर खुद ही
उग लेते
पनप लेते पेड़
जमीनों से कटते
उजड़ते पेड़
आदमी के
हाथ से कटते पेड़
आदमी के हाथ से
कटते आदमी
आदतन आदमी
के होते सभी पेड़
पेड़ को
जरूरत ही नहीं
पेड़ के होते
नहीं आदमी
पेड़ के होते
हुऐ सारे पेड़
पेड़ ने कभी
नहीं मारे पेड़
इंसानियत के
उदाहरण पेड़
इंसान के सहारे
एक ही नहीं
सारे के सारे पेड़
‘उलूक’ तेरी तो
तू ही जाने
किस ने तेरी सोच
में से आज
क्यों और
किसलिये
निकाले पेड़ ही पेड़ ।

चित्र साभार: imageenvision.com

शनिवार, 9 अगस्त 2014

बचपन से चलकर यहाँ तक गिनती करते या नहीं भी करते पर पहुँच ही जाते

दिन के आसमान
में उड़ते हुऐ चील
कौओं कबूतरों के झुंड
और रात में
आकाश गंगा के
चारों ओर बिखरे
मोती जैसे तारों की
गिनती करते करते
एक दो तीन से
अस्सी नब्बे होते जाते
कहीं थोड़ा सा भी
ध्यान भटकते
ही गड़बड़ा जाते
गिनती भूलते भूलते
उसी समय लौट आते
उतनी ही उर्जा और
जोश से फिर से
किसी एक जगह से
गिनती करना
शुरु हो जाते
ऐसा एक दो दिन
की बात हो
ऐसा भी नहीं
रोज के पसंदीदा
खेल हो जाते
कोई थकान नहीं
कोई शिकन नहीं
कोई गिला नहीं
किसी से शिकवा नहीं
सारे ही अपने होते
और इसी होते
होते के बीच
झुंड बदल जाते
कब गिनतियाँ
आदमी और
भीड़ हो जाते
ना दिखते कहीं
तारे और चाँद
ना ही चील के
विशाल डैने
ही नजर आते
थकान ही थकान
मकान ही मकान
पेड़ पौँधे दूर दूर
तक नजर नहीं आते
गिला शिकवा
किसी से करे या ना करें
समझना चाह कर
भी नहीं समझ पाते
समझ में आना शुरु
होने लगता यात्रा का
बहुत दूर तक आ जाना
कारवाँ में कारवाँओं
के समाते समाते
होता ही है होता ही है
कोई बड़ी बात फिर
भी नहीं होती इस सब में
कम से कम अपनापन
और अपने अगर
इन सब में कहीं
नहीं खो जाते ।
  

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

उसका आदमी कहता है तुझे कोई तो क्यों शरमाता है यार

एक पत्नी होना 
और उसका ही बस आदमी होना 
एक बहुत बड़ी बात है सरकार 

उसके बाद भी किसी और का आदमी होना ही होता है 
नहीं हो पाया है अगर कोई तो उसका जीना ही होता है बेकार 

अपने नाम से अपने काम से अगर जाना जा रहा है कोई 
समझ लेना अच्छी तरह किसी काम में कहीं नहीं लगाया जा रहा है
भटक रहा है जैसे होता है एक बेरोजगार 

कुछ भी नहीं हाथ में आयेगा इस जीवन में 
व्यर्थ में चला जायेगा इस पार से कभी किसी दिन उस पार 

एक आदमी कहीं ना कहीं होता ही है किसी ना किसी का आदमी 
ऊपर से नीचे तक अगर देखता चला जायेगा 
नीचे वाला किसका है साफ पता चल जायेगा 
सबसे ऊपर वाला किसका है आदमी 
बस यही बात बताने के लिये 
कोई भी नहीं मिल पायेगा 
समय रहते पानी का देखता हुआ बहाव 
तैरना सीख ही लेता है आज का एक समझदार 

निभाता क्यों नहीं ‘उलूक’ तू भी किसी 
एक इसी तरह के एक आदमी का किरदार 
कल जब उसकी आ जायेगी सरकार 
तुझे क्या लेना और देना वो वहाँ क्या करता है 
तुझे मालूम है तेरा यहाँ रहेगा अपना ही कारोबार 

खाली आदमी होने में 
और किसी आदमी के आदमी होने में 
अंतर है बहुत बड़ा समझाया जा चुका है एक नहीं कई कई बार 

बाकी रही तेरी और 
तेरे देश की किस्मत 
किसका आदमी कहाँ जा कर करता है  अपना वार इस बार ।

चित्र साभार: 
https://friendlystock.com/

मंगलवार, 18 मार्च 2014

देश अपना है शरम छोड़ "उलूक" कोई हर्ज नहीं हाथ आजमाने में

दिखने शुरु हो
गये हैं दलाल
हर शहर गाँव
की गलियों
सड़कों बाजार
की दुकानों में
टोह लेते हुऐ
आदमी की
सूंघते फिरने
लगे हैं पालतू
जानवर जैसे
ढूँढ रहे हो
आत्माऐं अपने
मालिकों के
मकानो की
मकान दर
मकानों में
महसूस कराने
में लग चुके
हैं नस्ल किस्म
और खानदान
की गुणवत्ता
लगा कर
नया कपड़ा
कब्र के पुराने
अपने अपने
शैतानों में
ध्यान हटवाने
में लगे है
लड़ते भिड़ते
खूँखार भेड़ियों की
खूनी जंग से
जैसे हो रहे
हो युद्ध देश
की सीमा पर
जान देने ही
जा रहे हों
सिपाहियों की तरह
नजर लगी हुई है
सब की देश के
सभी मालखानों में
जानता है हर कोई
बटने वाली है
मलाई दूध की
कुछ बिल्लियों को
कुछ दिनों के
मजमें के बाद
आँख मुँह कान
बँद कर तैयार
हो रहा है
घड़ा फोड़ने के
खेल में दिमाग
बंद कर अपना
फिर भी भाग
लगाने में
क्या बुरा है
“उलूक”
सोच भी लिया
कर कभी किसी
एक बिल्ली का
दलाल तेरे भी
हो जाने में ।

सोमवार, 10 मार्च 2014

आशा और निराशा के युद्ध का फिर एक दौर आ रहा है

जाति धर्म
और समप्रदाय
से ऊपर ही
नहीं उठ
पा रहा है
सोलहवीं लोकसभा
का आगाज
होने को है
आदमी के लिये
बस आदमी ही
एक मुद्दा अभी
तक भी नहीं
हो पा रहा है
कुर्सी है सामने
कुत्ते की हड्डी
की तरह पड़ी जैसे
छूटने के मोह
को ही नहीं
त्याग पा रहा है
टिकट के महा
घमासान में
मूल्यों की
धज्जियाँ भी
कुत्तों की तरह
ही झगडते हुऐ
हवा में उड़ा रहा है
साफ साफ सबको
नजर आ रहा है
वोटर भी कई
बार से यही
सब कुछ
देखता हुआ ही
तो आ रहा है
वोट दे रहा है
एक अंग़ूठा छाप
की तरह हमेशा
पर साक्षर ही
नहीं होना
चाह रहा है
पूँजीवादी समाजवादी
साम्यवादी जनवादी
होने में कोई
बुराई नहीं है
पर देश के लिये
कोई नहीं है ऐसा
जो देश वाद
फैला रहा है
फंसा हुआ है
हर कोई किसी
ना किसी के
जाल में इस तरह
थोड़े से अपने
फायदे के लिये
खुद ही उलझने
का बस एक
जुगाड़ लगा रहा है
देश के लिये सोचने
की सोच खुले में
निकल कर ही
होती है "उल्लूक"
पर कोई कहाँ
खुले आकश में
निकलना चाह रहा है
बर्तन में रखा हुआ
पानी सड़ जाता है
कुछ दिनों में हमेशा
किसी की इच्छा
ही नहीं है थोड़ी
ना ही कोई
आधी सदी के
पुराने पानी को
बदलना चाह रहा है
आदमी का मुद्दा
आदमी के द्वारा
आदमी के लिये
जहाँ अब तक
हो ही जाना चहिये
उसी जगह
हर आदमी
हैवानो के लिये
फिर से एक बार
रेड कार्पेट फूलों भरी
बिछाने जा रहा है ।

सोमवार, 3 मार्च 2014

आदमी खेलता है आदमी आदमी आदमी के साथ मिलकर

हाड़ माँस और
लाल रक्त
आदमी का जैसा
ही होता है आदमी
कोशिश करता है
घेरने की एक
आदमी को ही
मिलकर एक
आदमी के साथ
आखेट करने वाले
के निशाने पर
होता है उस
समय भी
एक आदमी
बहुत सी मौतें
स्वाभाविक
होती हैं जिनमें
आदमी की
मृत्यू होती है
मरने वाला भी
आदमी होता है
मारने वाला भी
आदमी होता है
मर जाना यानि
मुक्त हो जाना
मोक्ष पा जाना
छुटकारा मिल जाना
आदमी को एक
आदमी से ही
इतना आसान
नहीं होता है
जितना कहने
सुनने और लिखने
में लगता है
आदमी का सबसे
प्रिय खेल भी
यही होता है
जंगल के शेर
के शिकार में
वो नशा कभी
नहीं होता है
जैसा आदमी के
शिकार में आदमी
के साथ मिलकर
एक आदमी ही
आदमी को घेरेते
चले जाता है
आदमी को भी
पता होता है
घेरेने वाला भी
अपना ही होता है
धागे भी बहुत
पक्के होते हैं
जाल कसता
चला जाता है
आदमी बस
कसमसाता है
पकड़ मजबूत
होते चली जाती है
आदमी के पंजे में
एक आदमी
आ जाता है
मरता कहीं भी
कोई नहीं है
पकड़ने वाला
मारना ही
नहीं चाहता है
फाँसी देने से
बेहतर उम्र कैद
को माना जाता है
क्या क्या नहीं
करता है आदमी
आदमी के साथ
बस बचा हुआ
कुछ है तो
आदमी की नींद
का एक सपना
जो उसका अपना
कहलाता है
आदमी का मकसद
होता है जिसे
अपनी मुट्ठी
में करना
बस यहीं पर
आदमी आदमी
से मात
खा जाता है
आदमी आदमी
के साथ मिलकर
आदमी को
कभी मोक्ष
नहीं दे पाता है ।

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

होने होने तक ऐसा हुआ जैसा होता नहीं मौसम आम आदमी जैसा हो गया

मौसम का मिजाज था
कोई आदमी का नहीं
मनाये जाने तक
ये गया और वो गया
कहने कहने तक
थोड़ा कुछ नहीं
बहुत कुछ हो गया
उजाला हुआ फिर
अंधेरा अंधेरा
सा हो गया
कोहरा उठा
अपने पीछे छिपा
ले गया सारे दृश्य
खुद को ही खोज लेना
जैसे बहुत दूभर हो गया
कुछ देर के लिये
थम सा गया समय
जैसे घड़ी को एक
घड़ी में कोई चाभी देने
से हो रह गया
बूँदा बाँदी होना
शुरु होना था
पानी जैसे इतने में
ही बहुत हल्का होकर
रूई जैसा हो गया
धुँधला धुँधला हुआ
कुछ कुछ होते होते
सब जैसे सुर्ख सफेद
चादर जैसा हो गया
शांत हुआ इतना हुआ
जैसे बिना साज के
सँगीतमय वातावरण
सारा हो गया
कहीं गीत लिखा गया
मन ही मन में
किसी के मन से एक
काल जैसे कालजयी
किसी और के
लिये कहीं हो गया
कहीं उकेरा गया
किसी की नर्म
अंगुलियों से एक चित्र
सफेद बर्फ की चादर पर
जिसे देख देख कर
चित्रकार ही दीवाना
दीवाना सा हो गया
एक शाम से लेकर
बस एक ही रात में
जैसे एक छोटा सा
सफर बहुत ही
लम्बा हो गया
समाधिस्त होता हुआ
भी लगा कहीं
कोई पेड़ या पहाड़
सब कुछ कुछ पल
के लिये जैसे
साधू साधू हो गया
एक लम्बी रात के
गुजर जाने के बाद
का सूरज भी होते होते
जैसे कुछ पागल
पागल सा हो गया
नहाया हुआ सा दिखा
हर कण आस पास का
जैसा कुछ कुछ गुलाबी
गुलाबी हो गया
प्रकृति के एक खेल को
खेलता हुआ जैसे
एक मुसाफिर
देर से चल रही एक
गाड़ी पर फिर से
सवार होकर
रोज के आदी सफर पर
कुछ मीठी खुश्बुओं को
मन में बसाकर
रवाना हो गया
मौसम का मिजाज
जैसे फिर से
आम आदमी के
रोज के मिजाज
का जैसा हो गया ।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

समझ में कहाँ आता है जब मरने मरने में फर्क हो जाता है

एक आदमी के
मरने की खबर
और एक औरत
के मरने की खबर
अलग अलग खबरें
क्यों और कैसे
हो जाती होंगी
मौत तो बस
मौत होती है
कभी भी अच्छी
कहाँ होती है
चाहे पूरी उम्र
में होती है
या कभी थोड़ी
जल्दी में होती है
कभी कहीं एक
आदमी मर जाता है
मातम पसरा सा
नहीं दिख पाता है
कुछ कुछ सुकून
सा तक नजर
कहीं कहीं आता है
फुसफुसाते हुऐ एक
कह ही जाता है
ठीक ही हुआ
बीबी और बच्चों
के हक में हुआ
जो हुआ जैसा हुआ
अब ये क्या हुआ
उधर एक औरत
मर जाती है
बूढ़ी भी नहीं
हो पाती है
मातम चारों ओर
पसर जाता है
हर कोई कहता
नजर आता है
बहुत बुरा हो गया
बच्चों का आसरा
ही देखिये छिन गया
ऐसा हर जगह हो
जरूरी नहीं होता है
पर जहाँ होता है
कुछ कुछ इसी
तरह का होता है
“उलूक” के
दिमाग का बल्ब
जब कभी इस तरह
फ्यूज हो जाता है
घर का “गूगल”
सरल शब्दों में
उसे समझाता है
जो आदमी मरा
अपने कर्मो से मरा
बुरा हुआ पर
उसका दोष बस
उसको ही जाता है
और जो औरत
मरी वो भी
आदमी के ही
कर्मों से मरी
उसका दोष भी
आदमी को ही
दिया जाता है
आदमी के और
औरत के मरने में
बस यही फर्क
हो जाता है
अब मत कहना
बस यही तो
समझ में नहीं
आ पाता है ।

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

एक की हो रही पहचान है एक पी रहा कड़वा जाम है !

अगला
आदमी भी
कितना
परेशान है

अपनी
एक पहचान
बनाने की
कोशिश में
हो रहा
हलकान है

बगल वाला
है तो
उसका ही जैसा

कुछ भी
नहीं है
थोड़ा सा भी
कहीं कुछ
अलग अलग सा

दिखता भी
नहीं है
करता हुआ
कुछ
अजब गजब सा

समझ में
नहीं आता
हर गली
हर मौहल्ले में
हो रहा फिर भी
उसका ही नाम है

अखबार
रेडियो टी वी
वालों से बनाई
अगले ने
 पहचान है

हजार जतन
कर कराने
के बाद भी

कोई
क्यों नही देता
ऐसे शख्स की तरफ
थोड़ा सा भी ध्यान है

सभी तो
सब कुछ
करने में लगे हुऐ हैं

बस अपने
लिये ही तो
यहां या वहां
होना है

किसी और
के लिये
नहीं जब
कुछ इंतजाम है

इसे मिलता है
उसे मिलता है

अगले
को ही बस
क्यों नहीं मिलता
कुछ सम्मान है

किसी का
नाम होने से
किसी को हो रहा
बहुत नुकसान है

कोई करे
कुछ तो
उसके लिये कभी

इसकी
और उसकी
हो रही पहचान से
किसी की सांसत में
देखो फंस रही जान है ।

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

आदमी जानवर को लिखना क्यों नहीं सिखाता है



घोड़े बैल या गधे को
अपने आप कहां कुछ आ पाता है

बोझ उठाना वो ही उसको सिखाता है
जिसके हाथ मे‌ जा कर पड़ जाता है

क्या उठाना है कैसे उठाना है
किसका उठाना है
इस तरह की बात
कोई भी नहीं कहीं सिखा पाता है

एक मालिक का एक जानवर
जब
दूसरे मालिक का जानवर हो जाता है

कोशिश करता है नये माहौल में भी
उसी तरह से ढल जाता है

एक घर का एक 
दूसरे घर का दूसरा होने तक तो
सब 
सामान्य सा ही नजर आता है

एक मौहल्ले का एक होने के बाद से ही
बबाल शुरु हो जाता है

एक जान एक काम
बहुत अच्छी तरह से करना चाहता है

क्या करे अगर कोई लादना चाहता है
और
दूसरा उसी समय जोतना चाहता है

जानवर इतने के लिये जानवर ही होता है
आदमी ना जाने क्यों सोचता है
कि
उसके कहने से तो बैठ जाता है
और
मेरे कहने पर सलाम ठोकने को नहीं आता है

अब ऐसे में 
तीसरा आदमी भी कुछ नहीं कर पाता है

आदमी के बारे में सोचने की
फुर्सत नहीं 
हो जिसके पास
जानवर की समस्या में
टांग अड़ाने की हिम्मत नही‌ कर पाता है ।

चित्र साभार: https://www.clipartof.com/