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सोमवार, 22 जून 2015

वाशिंगटन से चली है खबर ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ ने की है कवर

झूठ
बोलने वाले
होते हैं
दिमाग के तेज

‘दैनिक हिन्दुस्तान’
का सबसे
पीछे का है पेज

बच्चों पर
शोघ कर
खबर
बनाई गई है

दूर की
एक कौड़ी
जैसे मुट्ठी
खोल के
बहुत पास से
दिखाई गई है

शोध
करने वाले
बेवकूफ
नजर आते हैं

बच्चे
भी कभी
कोई बात
सच बताते हैं

यही शोध
कुछ बड़ों
पर भी
होना चाहिये

बिना पढ़े
और
पढ़े लिखों
पर होना चाहिये

सारा सच
खुल कर
सामने
आ जायेगा

पढ़ा लिखा
पक्का
बाजी मार
ले जायेगा

वाशिंगटन
महंगी जगह है

डालर
बेकार में रुलायेगा

दिल्ली में
रुपिया सस्ता है

सस्ते में
काम हो जायेगा

शोघ
करने की
जरूरत
नहीं पड़ेगी

निष्कर्ष
पहले
मिल जायेगा

सबको पता है
सब जानते है

झूठ
जहाँ सच
कहलाता है
सच को झूठा
कहा जायेगा

झूठ
बड़े अक्षर में
पहले पन्ने में

सच
छोटे शब्दों में
पीछे के पन्ने में

मुँह अपना
छुपायेगा

संविधान है
और
विधान है

मुहर लगा
सच की माथे पर

अपने जैसों
के कांधे पर
सच की
अर्थी उठायेगा

कंधा देने
उमड़ पड़ेगा
एक एक सच्चा
बच्चा बच्चा

सच्चे
दिमाग का
कच्चे झूठ का

परचम
चारों दिशा
में फहरायेगा

जय
जय होगी
बस
जय होगी

‘उलूक’
बिना दिमाग

झूठ देख कर

सच है
सच है
यही सच है
यही सच है

गली
में जाकर
अपने घर की

जोर
जोर से
चिल्लायेगा

सच बोलने
वालों के
दिमाग में
नहीं होते
हैं पेंच

अपने आप
बिना शोध
सिद्ध
हो जायेगा ।

चित्र साभार: wallpaper.mohoboroto.com

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

हैरान क्यों होना है अगर शेर बकरियों के बीच मिमियाने लगा है


पत्थर
होता होगा
कभी किसी जमाने में 
इस जमाने में
भगवान कहलाने लगा है 

कैसे
हुआ होगा ये सब 
धीरे धीरे
कुछ कुछ अब
समझ में आने लगा है 

एक साफ
सफेद झूठ को
सच बनाने के लिये 
जब से कोई
भीड़
अपने आस पास बनाने लगा है 

झूठ के
पर नहीं होते हैं
उसे उड़ना भी कौन सा है 
किसी
सच को दबाने के लिये 
झूठा
जब से जोर से चिल्लाने लगा है 

शक
होने लगा है
अपनी आँखों के
ठीक होने पर भी कभी 
सामने से
दिख रहे खंडहर को
हर कोई
ताजमहल बताने लगा है 

रस्में
बदल रही हैं
बहुत तेजी से इस जमाने की
‘उलूक’
शर्म को बेचकर
बेशर्म होने में 
तुझे भी अब
बहुत मजा आने लगा है 

तेरा कसूर
है या नहीं इस सब में
फैसला कौन करे 
सच भी
भीड़ के साथ जब से
आने जाने लगा है ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

जोकर बनने का मौका सच बोलने लिखने से ही आ पायेगा

व्यंग करना है
व्यंगकार
बनना है
सच बोलना
शुरु कर दे
जो सामने से
होता हुआ दिखे
उसे खुले
आम कर दे
सरे आम कर दे
कल परसों में ही
मशहूर कर
दिया जायेगा
इसकी समझ में
आने लगा है कुछ
करने कराने वाला
भी समझ जायेगा
पोस्टर झंडे लगवाने
को नहीं उकसायेगा
नारे नहीं बनवायेगा
काम करने के
बोझ से भी बचेगा
और नाम भी
कुछ कमा खायेगा
 बातों में बोलना
अच्छा नहीं
लगता हो
तो सच को
सबके सामने
अपने आप करना
शुरु कर दे
खुद भी कर और
दूसरों को करने
की नसीहत भी
देना शुरु कर दे
एक दो दिन भी
नहीं लगेंगे
तेरे करने
करने तक
जोकर तुझे
कह दिया जायेगा
किसी ना किसी
अखबार में
छप छपा जायेगा
अपने आस पास
के सच को देख कर
आँख में दूरबीन
लगा कर चाँद को
देखने वालों को
चाँद का दाग
फिर से नजर आयेगा
बनेगी कोई गजल
कोई गीत देश प्रेम
का सुनायेगा
 प्रेम और उसके दिन
की बात भूलकर
रामनामी दुप्ट्टा
ओढ़ कर
कोई ना कोई
संत बाबा जेल
भी चला जायेगा
बचेगी संस्कृति
बचेगा देश
कुछ नहीं भी बचा
तब भी तेरे खुद का
थोड़ा बहुत किसी
छोटे मोटे अखबार
या पत्रिका में
बिकने बिकाने
का जुगाड़ हो जायेगा ।

चित्र साभार: www.picturesof.net

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

लिख कोई भी किताब बिना इनाम बिना सम्मान की कभी भी जिसमें सभी पाठ हों बस तेरे सामने के हो रहे झूठों के


किसी दिन
शायद दिखे
बाजार में
गिनी चुनी
किताबों की
कुछ दुकानों में
एक ऐसी
किताब

जिसमें
दिये गये हों
वो सारे पाठ
जो होते तो हैं
 पर हम
पढ़ाते नहीं हैं
कहीं भी
कभी भी

प्रयोगशाला
में किये
जाने वाले
प्रयोग नहीं
हों जिसमें

होंं झूठ के साथ
किये गये प्रयोग
जो हम
सब करते हैं
रोज अपने लिये
या
अपनो के लिये
ग़ाँधी के सत्य के
साथ किये गये
प्रयोगों की तरह
रोज

किताबों
का होना
और
उसमें लिखी
इबारत का
एक
इबारत होना
देखता
आ रहा है
सदियों से
हर पढ़ने
और नहीं
पढ़ने वाला

लिखने
वाले की
कमजोर
कलम
उठती तो
है लिखने
के लिये
अपनी
बात को
जो उठती
है शूल
की तरह
कहीं उसके
ही अंदर से

पर लिखना
शुरु करने
करने तक
चुन लेती
है एक
अलग रास्ता
जिसमें
कहीं कोई
मोड़
नहीं होता

चल देता
है लेखक
कलम के
साथ स्याही
छोड़ते हुऐ
रास्ते रास्ते
अपनी
बात को
हमेशा
की तरह
ढक कर
पीछे छोड़
जाते हुऐ

जिसे देखने
का मौका
मुड़कर
एक जिंदगी
में तो नहीं
मिलता

फिर भी
हर कोई
लिखता है
एक किताब
जिसमें होते
हैं कुछ
जिंदगी के पाठ

जो बस
लिखे होते
हैं पन्नों में
उतारे जाते हैं
सुनाये जाते हैं
उसी पर प्रश्न
पूछे जाते हैं
उत्तर दिये
जाते हैं
और
जो हो रहा
होता है
सामने से
वो पाठ
कहीं किसी
किताब में
कभी
नहीं होता

क्या पता
किसी दिन
कोई
हिम्मत करे
नहीं हो
एक कायर

’उलूक’
की तरह का
और
लिख डाले
एक किताब
उन सारे
झूठों के
प्रयोगों की
जो हम
तुम और वो
कर रहे हैं रोज
सच को
चिढ़ाने
के लिये
गाँधी जी
की फोटो
चिपका कर
दीवार से
अपनी पीठ
के पीछे ।

चित्र साभार: galleryhip.com

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

आशा का एक दिया जलाना है जरूरी सोच में ही जलायेंगे

एक ही सच
से हट कर
कभी सोचें
कुछ देर के
लिये ही सही
जरूरी है
सोचना
एक दिया
और उससे
बिखरती रोशनी
अपने ही
अंदर कहीं
पालना और
बचाना भी
सोच की ही
हवा के थपेड़ों से
बहुत सारे हों
बहुत रोशनी हो
जरूरी नहीं है
एक ही हो
छोटा सा ही हो
मिट्टी से बना
ना भी हो
तेल भी नहीं
और बाती
भी नहीं हो
बस जलता
हुआ हो
सोच की
ही लौ से
सोच की ही
रोशनी हो
जरूरी है
झूठ से भरे
बाहर के दिये
बेचते हुऐ
रोशनी हर जगह
दीपावली आयेगी
दीपावली जायेगी
बाजार दीपों
के जलेंगे
रोशनी के लिये
रोशनी में ही
रोशनी से बिकेंगे
समेट कर रोशनी
के धन को कुछ
रोशनी से
चमक उठेंगे
रोशनी सिमट जायेगी
रोशनी में ही कहीं
कुछ देर में ही
दिये भी समेटे जायेंगे
बहुत जरूरी है
दिया अंतर्मन का
जला रहना
अगले साल की
दीपावली में
नहीं तो शायद
दिये जलाना भी
क्या पता
भूल जायेंगे
दिया एक
सोच का
सोच में जला
रहना जरूरी है बहुत
जलायेंगे तो ही
समझ पायेंगे ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शनिवार, 5 जुलाई 2014

रस्म है एक लिखना लिखाना जो लिखना होता है वो कभी नहीं लिखना होता है



रोज लिखना जरूरी है क्या
क्यों लिखते हो रोज
ऐसा कुछ जिसका कोई मतलब नहीं होता है

कभी देखा है
लिखते लिखते लेखक खुद के लिखे हुऐ का
सबसे पुराना सिरा
बहुत पीछे कहीं खो देता है

क्या किया जा सकता है

वैसे तो एक लिखने वाले ने
कुछ कहने के लिये ही
लिखना शुरु किया होता है

लिखते लिखते कलम
बहुत दूर तक चली आती है
कहने वाली बात
कहने से ही रह जाती है

सच कहना कहाँ इतना आसान होता है
कायर होता है बहुत कहने वाला
कुछ कहने के लिये बहुत हिम्मत
और एक पक्का जिगर चाहिये होता है

लगता नहीं है
खुद को इस नजर से देखने में
उसे कहीं कोई संकोच होता है
उसे बहुत अच्छी तरह से पता होता है
सच को सच सच लिख देने का क्या हश्र होता है

किसी का उसी के अपने ही पाले पौसे
उसके ही चारों ओर रोज मडराने वाले
चील कौओं गिद्धों के नोच खाये जाने की
खबर आने में कोई संदेह नहीं होता है

बाकी जोड़ घटाना गुणा भाग जो कुछ भी होता है
इस आभासी दुनियाँ में
सब कुछ आभासी लिखने तक ही अच्छा होता है

सच को देखने सच को समझने
और सच को सच कहने की इच्छा
रखने वाला ‘उलूक’
तेरे जैसे की ही बस सोच तक ही में कहीं होता है

उसके अलावा अगर
ऐसा ही कोई दूसरा कहीं ओर होता है
तो उसके होने से कौन सा कहीं कुछ गजब होता है

लिखना लिखाना तो चलता रहता है
जो कहना होता है
वो कौन कहाँ किसी से
सच में कह रहा होता है ।

गुरुवार, 20 मार्च 2014

आवारा होगा तभी तो उसने कह दिया होगा

शायद सच कहा होगा 
या गफलत में ही 
कह गया होगा 
उसने कहा और 
मैंने सुना मेरे बारे में 
मुझ से कुछ इस तरह 
आवारा हो जाना सबके 
बस में नहीं होता 
जो हो लेता है बहुत 
बड़ी शख्सियत होता है 
तू अंदर से आवारा 
आवारा हो गया है 
सुनी सुनाई गजल 
तक जैसे दिल 
धीरे से चल दिया 
"ये दिल ये पागल 
दिल मेरा क्यों 
बुझ गया आवारगी"
फिर लगा आवारा का 
मतलब उसका कहीं 
उठाईगीर से तो नहीं होगा 
या कामचोर या आलसी 
या फिर इधर उधर 
घूमने वाला जैसा ही
उसे कहीं कुछ दिखा होगा
वाह क्या उसने 
मुझ में मेरे अंदर 
का ढूँढ निकाला होगा 
सब कुछ सही बस 
सही बता डाला होगा
पहले लगा था बहुत 
मासूमियत में उसने 
कुछ कह दिया होगा 
हुआ थोड़ा सा 
आश्चर्य फिर अपने में 
नहीं पहुँच पाया 
जिस जगह तक 
आज तक भी कभी 
वो कैसे इतनी 
आसानी से 
पहुँच गया होगा 
कुछ भी कभी भी
लिख लेने का 
मतलब शायद
आवारगी हो गया होगा
तुझे नहीं पता होगा
उसे पता हो गया होगा ।

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

जो सच है उसको उल्टा कर उस की पीठ पर कुछ काम करते हैं



चलिये देश पर चर्चा करते हैं 
देश के नेता पर चर्चा करते हैं 
चर्चा करने में क्या जाता है 
किसे पता है हम अपने घर अपने शहर अपने कार्यालय 
अपने विश्वविद्यालय में क्या करते हैं

देश का नेता जो बनेगा
वो कौन सा हमारी सोच हमारे कामों को
देखने के लिये हमारे घर पर आ रहा है 
घर पर चलो पड़ोसी का जीना कुछ हराम करते हैं

आफिस में किसी पर कोई ऐक्ट को लगा कर 
चलो किसी को बदनाम करते हैं 
जातिवाद होता ही है फैलाने के लिये हमेशा 
उसके लिये कुछ पढ़े लिखे लोग भी कुछ काम करते हैं

स्कूल की कक्षाओं का नाश करते हैं
कौन सा मोदी राहुल या केजरीवाल देखने आ रहा है हो रही हैं कि नहीं
परीक्षाओं का भी इंतकाल करते हैं

एक टोपी या झंडा उठा कर जोर शोर से
कुछ लोगों का जीना हराम करते हैं 

कुछ बहस करते हैं देश के बारे में काम करने की 
किसको पड़ी है काम करने वाले को बेकाम करते हैं
किसी दल का सदस्य बन कर अपने दुश्मन का जीना हराम करते हैं

चलो भी देश का पाठ पढ़ते हैं  कुछ लोगों को पढ़ाते हैं  
अखबार में अपने लोगों के साथ मिलकर कुछ खबर बनाते हैं 
बातें किताब की सारी फैलाते हैं 
काम अपने हिसाब से अपने अपने परिवार के नाम करते हैं 

किसे फुरसत है सोचने की क्या हो रहा है उसके आस पास 
चलो चाँद और सूरज की कुछ बात करते हैं । 

चित्र साभार: http://clipart-library.com/

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

सच सामने लाने में बबाल क्यों हो जाता है

सच कड़वा
होता है
निगला
नहीं जाता है

गांंधी के
मर जाने से
क्या हो जाता है
गांंधीवाद क्या
उसके साथ में
चला जाता है

उसका
सिखाया गया
सत्य का प्रयोग
जब किया जाता है
तो बबाल हो गया
करके क्यों बताया
और
दिखाया जाता है

बहुत बहुत
शाबाशी
का काम
किया जाता है
जब जैसा मन में
होता है वैसा कर
लेने की हिम्मत
कोई कर ले जाता है

उस के लिये
एक उदाहरण
हो जाता है
जो सोचता
वहीं पर है
पर करने
को कहीं
पीछे गली में
चला जाता है

सारे देश में
जब हर जगह
कुछ माहौल
एक जैसा
हो जाता है
ऐसे में  कहीं
किसी जगह से
निकल कर
कुछ बाहर
आ ही जाता है

सच बहुत
दिनों तक
छिपाया
नहीं जाता है

मिर्चा पाउडर का
प्रयोग तो आँसू
लाने के लिये
किया जाता है

देश का दर्द
बाहर ला
कर दिखाने
के लिये कुछ
तो करना ही
पड़ जाता है

संविधान में ही
इस सब
की व्यवस्था
कर लेने में
किसकी
जेब से
पता नहीं
क्या चला
जाता है

जैसा माहौल
सारे देश में
अंदर ही अंदर
छुपा छुपा के
हर दिल में
पाला जाता है

उसे किसी
के बाहर
ला कर
सच्चाई से
दिखा देने
पर क्यों
इतना बबाल
हो जाता है

भारत रत्न
ऐसे ही
लोगों को
देकर
कलयुगी
गांंधी का
अवतार
क्यों नहीं
कह दिया
जाता है

अगर
नहीं हो पा
रहा होता है
इस तरह का
किसी से कहीं

कुछ
सीखने सिखाने
के लिये मास्टर के
पास क्यों नहीं
भेज दिया जाता है

हाथ पैर
चलाये बिना
जिसको बहुत कुछ
करवा देने का
अनुभव होता है
जब ऐसा माना
ही जाता है ।

शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

कभी होता है पर ऐसा भी होता है

मुश्किल
हो जाता है
कुछ
कह पाना
उस
अवस्था में
जब सोच
बगावत
पर उतरना
शुरु हो
जाती है
सोच के
ही किसी
एक मोड़ पर

भड़कती
हुई सोच
निकल
पड़ती है
खुले
आकाश
में कहीं
अपनी मर्जी
की मालिक
जैसे एक
बेलगाम घोड़ी
समय को
अपनी
पीठ पर
बैठाये हुऐ
चरना शुरु
हो जाती है
समय के
मैदान में
समय को ही

बस
यहीं
पर जैसे
सब कुछ
फिसल
जाता है
हाथ से

उस समय
जब लिखना
शुरु हो
जाता है
समय
खुले
आकाश में
वही सब
जो सोच
की सीमा
से कहीं
बहुत बाहर
होता है

हमेशा
ही नहीं
पर
कभी कभी
कुछ देर के
लिये ही सही
लेकिन सच
में होता है

मेरे तेरे
उसके साथ

इसी बेबसी
के क्षण में
बहुत चाहने
के बाद भी
जो कुछ
लिखा
जाता है
उसमें
बस
वही सब
नहीं होता है
जो वास्तव में
कहीं जरूर
होता है

और जिसे
बस समय
लिख रहा
होता है
समय पढ़
रहा होता है
समय ही
खुद सब कुछ
समझ रहा
होता है ।

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

सबूत होना जरूरी है ताबूत होने से पहले

छोटी हो या बड़ी आफत
कभी बता कर नहीं आती है 
और समझदार लोग 
हर चीज के लिये तैयार नजर आते है 

आफत बाद में आती है 
उससे पहले निपटने के हथियार लिये 
हजूर दिख जाते हैं 

जिनके लिये पूरी जिंदगी प्रायिकता का एक खेल हो 
उनको किस चीज का डर 

पासा फेंकते ही छ: हवा में ही ले आते है 

जैसे सब कुछ बहुत आसान होता है 

एक लूडो साँप सीढ़ी 
या 
शतरंज का कोई खेल 

ऐसे में ही कभी कभी 
खुद के अंदर एक डर सा बैठने लगता है 

जैसे कोई 
उससे उसके होने का सबूत मांगने लगता है 

पता होता है
सबूत सच का कभी भी नहीं होता है 
सबूतों से तो सच बनाया जाता है 
कब कौन कहाँ किस हालत में 
क्या करता हुआ
अखबार के मुख्य पृष्ठ पर दिख जाये 
बहुत से ज्योतिष हैं यहाँ 
जिनको इस सबकी गणना करना 
बहुत ही सफाई के साथ आता है 

बस एक बात सब जगह 
उभयनिष्ठ नजर आती है 
जो किसी भी हालत में 
एक रक्षा कवच 
फंसे हुऐ के लिये बन जाती है 

कहीं ना कहीं किसी ना किसी गिरोह से 
जुड़ा होना हर मर्ज की एक दवा होता है

नहीं तो क्या जरूरत है 
किसी सी सी टी वी के फुटेज की 
जब कोई स्वीकार कर रहा हो अपना अपराध 
बिना शर्म बिना किसी लिहाज 

ऐसे में ही महसूस होता है 
किसी गिरोह से ना जुड़ा होना 
कितना दुख:दायी होता है 

कभी भी कोई पूछ सकता है 
तेरे होने या ना होने का सबूत 
उससे पहले कि बने 
तेरे लिये भी कहीं कोई ताबूत 

सोच ले 'उलूक' अभी भी
है कोई सबूत कहीं 
कि तू है और सच में है 
बेकार ही सही पर है यहीं कहीं
ताबूत में जाने के लिये भी
एक सबूत जरूरी होता है।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/



उपरोक्त बकवास पर भाई रविकर जी की टिप्पणी: 


छोटा है ताबूत यह, पर सबूत मजबूत |
धन सम्पदा अकूत पर, द्वार खड़ा यमदूत |
द्वार खड़ा यमदूत, नहीं बच पाये काया |
कुल जीवन के पाप, आज दुर्दिन ले आया |
होजा तू तैयार, कर्म कर के अति खोटा |
पापी किन्तु करोड़, बिचारा रविकर छोटा ||

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

सबसे बड़ा सच तो झूठ होता है

सच को बस छोड़कर
सब कुछ चलता हुआ दिखाई देता है

सच सबके पास होता है 
जेब में कमीज और पेंट की
हाथ में कापी और किताब में

एक के सच से दूसरे को
कोई मतलब नहीं होता है

अपने अपने सच होते हैं
सब का आकार अलग होता है
सच किसी के पैर की चप्पल या जूता होता है

एक का सच 
दूसरे के काम का नहीं होता है 
कोई किसी के सच के बारे में
किसी से कुछ नहीं कहता है

हाँ झूठ बहुत ही मजेदार होता है
सब बात करते हैं झूठ की
झूठ का आकार नहीं होता है
एक का झूठ दूसरे के भी
बहुत काम का होता है

पर किसी को पता नहीं होता है
झूठ कहाँ होता है

सूचना का अधिकार
झूठ को ढूंढने का ही हथियार होता है 
सबसे ज्यादा चलता हुआ
वही दिख रहा होता है

सच
बेवकूफ
मैं सच हूं सोच सोच कर
एक जगह ही बैठा होता है

जहाँ पहुचने की कोई सोच भी नहीं सकता है
झूठ वहाँ जरूर पहले से ही पहुंचा होता है
झूठ के पैर नहीं होते है
'उलूक'
बहकाने के लिये ही
शायद यूँ ही कह दिया होता है । 

चित्र साभार: https://www.megapixl.com/

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

मान लीजिये नया है दुबारा नहीं चिपकाया है

हर दिन का
लिखा हुआ
कुछ अलग
हो जाता है
दिन के ही
दूसरे पहर
में लिखे हुऐ
का तक मतलब
बदल जाता है
सुबह की कलम
जहां उठाती सी
लगती है सोच को
शाम होते होते
जैसे कलम के
साथ कागज
भी सो जाता है
लिखने पढ़ने और
बोलने चालने को
हर कोई एक सुंदर
चुनरी ओढ़ाता है
अंदर घुमड़
रहे होते हैं
घनघोर बादल
बाहर सूखा पड़ता
हुआ दिखाता है
झूठ के साथ
जीने की इतनी
आदत हो जाती है
सच की बात
करते ही खुद
सच ही
बिफर जाता है
कैसे कह देता है
कोई ऐसे में
बेबाक अपने आप
आज की लिखी
एक नई चिट्ठी
का मौजू उतारा
हुआ कहीं से
नजर आता है
जीवन के शीशे
में जब साफ
नजर आता है
एक पहर से
दूसरे पहर
तक पहुंचने
से पहले ही
आदमी का
आदमी ही
जब एक
आदमी तक
नहीं रह पाता है
हो सकता है
मान भी लिया
वही लिखा
गया हो दुबारा
लेकिन बदलते
मौसम के साथ
पढ़ने वाले के लिये
मतलब भी तो
बदल जाता है ।

रविवार, 8 सितंबर 2013

शब्द हमेशा सच नहीं बोल रहा होता है

ऎसे ही
बैठे बैठे
कोई
कुछ नहीं
कह देता है

ऎसे ही
बिना सोचे
कोई
कुछ भी
कहीं भी
लिख नहीं
देता है

बांंधने
पढ़ते हैं
अंदर
उबलते हुवे
लावों से
भरे हुऎ
ज्वालामुखी

बहुत कुछ
ऎसा भी
होता है जो
सबके सामने
कहने जैसा ही
नहीं होता है

कहीं नहीं
मिलते हैं
खोजने
पड़ते हैं
मिलते जुलते
कुछ
ऎसे शब्द

खींच सकें
जो उन गन्दी
लकीरों को
शराफत से
पहना कर
कुछ
ऎसे कपडे़
जिस के
आर पार
सब कुछ
साफ साफ
दिख रहा
होता है

पर ये सब
कर ले जाना
इतना
आसान भी
नहीं होता है

शब्द खुद
ही उतारते
चले जाते हैं
शब्दों के कपडे़

शब्द
मौन होकर
ऎसे में कुछ नहीं
कह रहा होता है

चित्र
जीवित होता है

वर्णन करना
उस जीवंतता का
लिखने वाले को ही
जैसे नंगा
कर रहा होता है

क्या किया जाये

लिखने वाले
की मजबूरी को
कोई कहाँ
समझ रहा होता है

अंदर ही अंदर
दम तोड़ते
शब्दों पर
शब्द ही जब
तलवार खींच
रहा होता है

शब्दों के
फटने की
आहट से ही
लिखने वाला
बार बार चौंक
रहा होता है

इसी अंतरद्वंद से
जब रचना का जन्म
हो रहा होता है

सच
किसी कोने में
बैठ कर
रो रहा होता है

जो निकल के
आ जाता है
एक पन्ने में
वो कुछ कुछ
जरूर होता है

पर एक पूरा
सच होने से
मुकर रहा
होता है ।

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मेरी संस्था मेरा घर मेरा शहर या मेरा देश कहानी एक सी

उसे लग रहा है
मेरा घर शायद
कुछ बीमार है
पता लेकिन नहीं
कर पा रहा है
कौन जिम्मेदार है
वास्तविकता कोई
जानना नहीं चाहता है
बाहर से आने वाले
मेहमान पर तोहमत
हर कोई लगाता है
बाहर से दिखता है
बहुत बीमार है
शायद किसी जादूगर
ने किया जैसे वार है
पर घाव में पडे़ कीडे़
किसी को नजर
कहाँ आते हैं
हमारे द्वारा ही तो
छुपाये जाते हैं
वो ही तो घाव के
मवाद को खाते हैं
अंदर की बात
यहाँ नहीं बताउंगा
घर का भेदी
जो कहलाउंगा
खाली कुछ सच
कह बैठा अगर
हमाम के बाहर भी
नंगा हो जाउंगा
असली जिम्मेदार
तो मैं खुद हूँ
किसी और के
बारे में क्या
कुछ कह पाउंगा
लूट मची हो जहाँ
अपने हिस्से के लिये
जरूर जोर लगाउंगा ।

रविवार, 12 अगस्त 2012

सच सुन आ पर पहले बीमा करा

सच को कहने से पहले
मीठा बनाना चाहिये
सीधे सीधे नहीं कुछ
घुमा फिरा के
लाना चाहिये
सच को कहना ही
काफी नहीं होता
उसको सच की तरह
समझाना भी तो
आना चाहिये
सच कहो तो
बहुत कम पचा
पाते हैं लोग
कहने वाले को
इतना तो समझ में
आना ही चाहिये
सच को पहले तो
किसी से कहना
ही नहीं चाहिये
कहना ही पढ़ जाये
किसी मजबूरी से अगर
तो पानी मिला के पतला
कर ही लेना चाहिये
साथ में हाजमोला
टाईप की कोई गोली
को भी देना चाहिये
खुले में ना कहकर
बंद कमरे में ले जाकर
कह देना चाहिये
सब से महत्वपूर्ण
बात सुन लीजिये
कहने से पहले एक
वैधानिक चेतावनी को
सुनने वाले को जरूर
ही दे देना चाहिये
इसमें सच है सच कहा है
सच को सुनने से अगर
आपको दुख होता है
तो आपको इसको नहीं
ही सुनना चाहिये
सुनना ही चाहते हो
फिर भी अगर तो
सच सुनने से होने वाले
नुकसान का बीमा
करा लेना चाहिये ।

रविवार, 18 मार्च 2012

सच

सच तो
सच
होता है
फिर कहने
सुनने में
क्यों चुभने
लगता है

लोग अपने
घर के
छेद देख
कर आँख
बंद कर
ही लेते हैं
देश के
छेद को
दिखा
कर झंडे
बुलंद कर
लेते हैं

दूसरा
कोई
देश की
बात
कैसे करेगा
करेगा
अगर तो
पहले
अपने घर
का छेद
भरेगा

घर
का छेद
बंद नहीं
किया
जाता है
ब्लैकमेल
अगर
सामने वाले
को करना
हो तो
उसी समय
खोल दिया
जाता है

लोग
घर के
चोरों को
हमेशा
माफ कर
दिया
करते हैं
देश में
हो रही
चोरियों का
हिसाब किया
करते हैं

जब
सम्भलती
नहीं पैंट
कभी
उनसे
अपनी ही
तुरंत
सामने
वाले
की बैल्ट
पर वार
किया
करते हैं

अरे घरवालो
उन घरवालों
को तो ना
डराया करो
जो घर से
बात शुरू
किया करते हैं
और
मौका
लगता
है तो
कोशिश
करते हैं
प्रदेश की
बात करें
और देश
की भी

लेकिन इन
सब बातो
से पहले
ये तो
जान जाईये

ठेका अगर
घर देश
प्रदेश का
आप ले
 रहे हैं
तो
हिम्मत करें
अपना फोटो
जरूर अपने
प्रोफाइल
पर लगाइये।

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

दोस्त

आईना क्यों
नहीं दिखाता
मेरा सच मुझे
उसे देखने
के लिये
कहां से लाऊं
मैं तुम्हारी
पैनी नजर
आईना मेरा
दोस्त तो कभी
नहीं रहा
फिर भी
उसने कभी
नहीं दिखाया
मुझे मेरे अंदर
का हैवान
मैने सोचा
आईना दिखाता
है हमेशा सच
तुम्हारी पैनी
नजर बड़ी
कमाल की
है मेरे दोस्त
जो मेरा
आईना कभी
नहीं देख
पाया मेरे
अंदर छुपा
तुमने देख
ही डाला
अपनी इस
बाजीगरी को
देश के नाम
कर डालो
और दिखा,
दो दुनिया को
सारे वो सच
जो सामने
नहीं आते
किसी के
कभी भी
तुम्हें देख
कर छुप
नहीं पाते
आओ कुछ
करो देश
के लिये
मेरे तो झूट
बहुत छोटे हैं
इस देश
के सामने।