उलूक टाइम्स

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

‘उलूक’ अच्छा किया कल के ही दिन कुछ नहीं लिखा था



रोज 
वैसे भी 
कौन लिखता है 
आज कल 

कल भी 
कुछ नहीं लिखा था 

कल ही 
बहुत कुछ लिखना था 

फिर भी नहीं लिखा था 

आसमान 
लिखने की इच्छा थी 

नीला साफ धुला हुआ ना भी सही 
कुछ धुँधलाया हुआ सा कहीं 

बस नहीं लिखा था 
तो नहीं ही लिखा था 

कतार में लगा था आसमान भी 
आँख थोड़ी सी उठाई तो थी 
थोड़ा सा किनारा कहीं दूर 
किसी के पीछे खड़ा सा दिखा था 

अजीब बात नहीं थी 
बातें अजीब होती भी नहीं है 
आदमी अजीब हो जाता है 

कतार में होने से क्या हो जाता है 
कतार जा कर कतार में मिल जाती है 
कैदी सौ गुनाह माँफ कर दिया जाता है 
कतारें जमीन में लोटना शुरु हो जाती हैं 
जमीन जमीन फैला हुआ आसमान हो जाता है 

अब आसमान का क्या कसूर फिर 

गलती देखने वाले की हो जाती है 
सीधे आसमान की ओर 
जब मन करे देखना शुरु हो जाता है 

आखिर 
औकात भी कोई चीज होती है 
जमीन से आसमान 
ऐसे ही थोड़ा सबको नजर आता है 

बेशरम 
जमीन से देखना शुरु करना क्यों नहीं सीखा था

बात कुछ लिखने की थी 
वो भी गुजरे कल के दिन की थी 

कल
सबने कुछ ना कुछ
कहीं ना कहीं 
थोड़ा सा या बहुत ज्यादा सा
कतार कतार लिखा था 

कतार में किसी के पीछे 
सिमट लिया था हर कोई 
किसी के नाम पर 
कुछ बनाने के जुनून का 
एक सिरा पकड़े हुऐ एक नाम 
आसमान होता दिखा था 

बहुत साफ साफ जर्रे जर्रे के जर्रे ने 
खुद ही लिखा था 

आसमान
इसलिये तो कतार में लगा था 

‘उलूक’
अच्छा किया 
कल के ही दिन 
कुछ नहीं लिखा था। 

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

शनिवार, 1 अगस्त 2020

कलाकारों पर क्यों नहीं छोड़ देता है वो बना लेंगे पेंटिंग हूबहू


तू लिख
लेकिन चेहरे मत लिख
मुखौटे लिखना तेरे बस में नहीं है

चित्र सब सोच सकते हैं
उकेरने का लाइसेंस होना चाहिये
है तेरे पास ?
 फिर किसलिये प्रयास करता है?

 हाथ लिख पैर लिख अंगुलियाँ लिख
पेट लिख माँस लिख  हड्डियाँ लिख
 कौन रोकता है?
 बस चेहरे मत लिख

हर चेहरे के साथ एक मुखौटा होता है
हर मुखौटे के साथ एक चेहरा होता है
मुखौटे होना  बहुत जरूरी है भी

चेहरा हर समय मुखौटे के साथ हो
या
मुखौटा हर समय चेहरे के साथ हो
जरूरी नहीं भी होता है

मुखौटे लिखने की महारत
हर किसी के पास होती है

चेहरा लिखना किसी के बस में
होता भी है या नहीं होता है
इस पर ना किसी ने कभी कुछ कहा होता है
ना कुछ कहीं लिखा होता है

मुखौटे
एक चेहरे के कई हो सकते हैं
कई चेहरों पर
एक मुखौटा कभी हो ही नहीं सकता है

सारा लिखा लिखाया
मुखौटा ओढ़ कर ही लिखा जाता है

कोई हो
तुलसी हो कबीर हो सूर हो
सबके मुखौटे की छाया
लिखा लिखाया साफ साफ दिखा जाता है

लिखने वाले ने लिखा होता है
मुखौटा ओढ़ कर जो कुछ भी
‘उलूक’

हर किसी को मुखौटा उतार कर
लिखे लिखाये का मुखौटा उतारना
बड़ी सफाई के साथ आता है

तू लिखता रह
मुखौटा लगाये आँखें छुपाये
अंधेरे की बातें

पढ़ने वाले को कौन सा पढ़ना होता है
मुखौटा लगा कर

लिखते समय याद रहता है

पढ़ते समय मुखौटा लगाना
भूला ही जाता है।

चित्र साभार:
https://www.newsgram.com/

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

बड़े काम की खबर ले कर आया है पैंसठ से ऊपर के बुड्ढे मास्टरों के लिये आज अखबार

 

गजब की खबर है बुड्ढे के लिये 
तेल पिला लाठी को
दौड़ लगाने को हो जा फिर से तैयार

सत्तर पर ही सही 
सूट भी नयी सिला कर रख ले
दो चार एक इस बार 

कोई बात नहीं
इसमें तेरे लिये
अगर एक जवान को
चालीस तक मिलती है 
या नहीं मिलती है नौकरी
आज के जमाने में
कुछ हजूर हजूर करके
कुछ खजूर पेश करके सरकार 

क्या होता है याद रखना पड़ेगा 
कि पचास पर कर दिया जायेगा
कार्यमुक्त देकर अवकाश
लगेगा अगर अपने आदमी की तरह
पेश नहीं आ पा रहा है कोई 
मान लिया जायेगा हो चुका है बेकार 

चिन्ता की बात केवल आम के लिये है
इसलिये खास होने के लिये 
बनाना शुरु किया जा सकता है
बेशर्मी की मिट्टी मिले 
मक्खन लगे सीमेंट के साथ
हवा में ही हवा हवा टाईप का कोई एक आधार 

कच्ची जमीन ढूँढ कर कहीं भी 
सस्ते दाम वाली दिखने में कामवाली 
ढक ढका कर हरी पीली चमकीली सोच से ऐसी 
जो धोखा दे सकें समय पर उड़ा कर हवा में 
चोरी किये कहीं से दो चार 
चलते फिरते जमाने के दौड़ लगाते सुविचार 

जिन्दगी भर पढ़ाई लिखाई को छोड़ 
बाकी कुछ भी कर लेने वाले मास्टरों का
होने वाला है सत्कार 

करेगी इसी उम्र को पार कर बन चुकी 
जवान पीढ़ी के द्वारा छाँट कर खुद के लिये 
बूढ़ी हो चुकी कोई एक सरकार 

‘उलूक’ 
इन्तजार कर आँखों के कुछ और 
कमजोर हो लेने का साल पाँच एक तक और 
तब तक डाल अच्छी बची खुची सोच का
तेल डाल कर अचार 

फिर देखना
लाठी लेकर आते हुऐ जवान कुलपति
सत्तर साल के 
लगाते नये जमाने की
 उच्च शिक्षा का बेड़ा पार । 

चित्र साभार: https://www.thegazelle.org/

सोमवार, 27 जुलाई 2020

खराब समय और फूटे कटोरे समय के थमाये सब को सब की सोच के हिसाब से रोना नहीं है कोई रो नहीं सकता है



समय खराब है बहुत खराब है 

इतना खराब है 
इससे खराब होगा 
कहे बिन कोई रह नहीं सकता है

 खासियत है 
इस खराब समय की
जैसा है ऐसा
कई दशकों तक फिर कभी होगा
पक्का
कोई कह नहीं सकता है

 कुछ हो ना हो
हर किसी के पास इस समय
समय का दिया
किसी ना किसी तरह का
एक फूटा कटोरा है
जो कभी
चोरी हो नहीं सकता है

 किसी कटोरे में भूख है
किसी कटोरे में प्यास है
किसी कटोरे में आस है
किसी कटोरे में विश्वास है

पर है
सबके पास है
एक कटोरा 
है 
जिसे कोई
किसी हाल में भी
खो नहीं सकता है

किसी छोटे का छोटा 
है तो
किसी बड़े का इतना बड़ा 
है कि
सारे कटोरे उस में समा जायें

कटोरों का
ऐसा दुर्लभ महासम्मेलन
फिर कब हो

ऐसा मौका कटोरे वाला खो नहीं सकता है

ज्ञानी समझा रहे हैं
ज्ञानियों की मजबूरी भी है
ज्ञान बाँटना

ना बाँटें
तो खुद उनका ज्ञान
छलकना शुरु हो जाये

सम्भालना ही
 मुश्किल हो जाये
उनको ही गजबजाये

यहाँ वहाँ
खेत खलिहान सड़क मैदान
ज्ञान से लबालब हो जायें

ज्ञान की बाढ़ में
ज्ञानी डूब कर मर खप जायें

मुश्किल ये है
कि
छलछलाता छलबलाता ज्ञान
किसी तरह
थोड़ा सा हर कटोरे में चला जाये

हर किसी के पास
कुछ हो जाये

और आते आते रह गया
अच्छा समय
हौले से धीरे से पास आकर

कटोरे लिये हुओं को खटखटाये

तैयार रहें फिर से आ रहा हूँ
 कटोरा ले कर
इस बार भी दें एक मौका और

याद करते हुऐ
कटोरे में कटोरा
बेटा बाप से भी गोरा

‘उलूक’
ठंड रख मान भी जा
तेरा कुछ नहीं हो सकता है

अपना कटोरा
सम्भाल के किसलिये रखता है
फूटा कटोरा है
चोरी हो नहीं सकता है ।

चित्र साभार: https://blair.holliefindlaymusic.com/

रविवार, 19 जुलाई 2020

हनुमान है कलियुग में है सिद्ध होने लगा है इसीलिये उसके किये पर खुद सोच कर लोग व्यवधान नहीं डालते


फिर से
दिखाई देने लगा है 
बिना सोये 
दिन के तारों के साथ 
आक्स्फोर्ड कैम्ब्रिज मैसाच्यूट्स बनता हुआ 
एक पुराना खण्डहर तीसरी बार 
मोतियाबिंद पड़ी सोच के उसी आदमी को 

जिसने
कई पर्दे चढ़ते उतरते देखें हैं 
कई दशक में 
दीमक लगी लकड़ियों वाली खिड़कियों
और दरवाजों को ढाँपते 

रसीदें दुगने तिगने
मूल्यों की सजाते 
फाइलों में ऑडिट कराते 
लाल नीले निशान लगे रजिस्टर सम्भालते निकालते 

धूल पोंछ फिर वापस सेफ में डालते 
अवकाश में चलते चले जाते 
अदेय प्रमाणों को माथे से लगा 
कृतज्ञता आँखों से निकालते 

आते जाते
चश्में चढ़ाते निकालते 
कितने निकल गये जहाँ से 
पैदा कर खुद के लिये कई जमीनों
कई मकानों के मालिकाना हक 

मुँह चिढ़ाते
खण्डहर की दीवार पर
एक निशान बना अपना 
समय को दिखा ठेंगा दिखाते पुण्य के 
जैसे कई पीढ़ियों के बना डालते 

मत देखा कर
झंडों के लिये बने निमित्त 
आँख नाक कान बन्द किये
नारे लगाते मिठाई बाटते 

खण्डहर की खाते 
घर की जब अपने खुद की दुकाने
नहीं सम्भालते 

समझाने लगे हैं
उसी तर्ज पर जब बनाया था मकान नया 
जो उजड़ गया तीन साल में 

वही बातें फिर 
अपने पुराने बटुऐ से फिर उसी फर्जीपने से निकालते 

‘उलूक’ 
खुश रहा कर कमाई पर अपनी 
बिना पैसे
बकवास को तेरी दे रहे हैंं कुछ तरजीह 
क्यों पता नहीं 

किसलिये
तेरे पन्ने को कुछ सिरफिरे 
रहते हैं आगे निकालते।
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चित्र साभार:
https://www.istockphoto.com/
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आभार: ऐलेक्सा।
ulooktimes.blogspot.com
Alexa Traffic Rank (World): 148,955
 Traffic Rank in (INDIA) : 15,134
 19/07/2020 का
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शनिवार, 18 जुलाई 2020

जमाने को पागल बनाओ


दूर कहीं आसमान में
 उड़ती चील दिखाओ 

कुछ हवा की बातें करो
कुछ बादलों की चाल बताओ

कुछ पुराने सिक्के घर के
मिट्टी के तेल से साफ कर चमकाओ

कुछ फूल कुछ पौंधे
कुछ पेंड़ के संग खींची गयी फोटो
जंगल  हैंं बतलाओ

तुम तब तक ही लोगों के
समझ में आओगे
जब तक तुम्हारी बातें
तुम्हें खुद ही समझ में नहीं आयेंगी
ये अब तो समझ जाओ 

जिस दिन करोगे बातें
किताब में लिखी
और
सामने दिख रहे पहाड़ की

समझ लो कोई कहने लगेगा
आप के ही घर का

क्या फालतू में लगे हो
जरा पन्ने तो पलटाओ

कुछ रंगीन सा दिखाओ
कुछ संगीत तो सुनाओ

नहीं कर पा रहे हो अगर

एक कनिस्तर खींच कर
पत्थर से ही बजा कर टनटनाओ

जरूरी नहीं है
बात समझ में ही आये समझने वाली भी
पढ़ने सुनने वाले को
जन गण मन साथ में जरूर गुनगुनाओ

जरूरी नहीं है
उत्तर मिलेंं नक्कारखाने की दीवारों से
जरूरी प्रश्नों के
कुछ उत्तर कभी
अपने भी बना कर भीड़ में फैलाओ

लिखना कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है
नजर रखा करो लिखे पर

कुछ नोट खर्च करो
किताब के कुछ पन्ने ही हो जाओ

‘उलूक’
चैन की बंसी बजानी है
अगर इस जमाने में

पागल हो गया है की खबर बनाओ
जमाने को पागल बनाओ।

चित्र साभार:
http://www.caipublishing.net/yeknod/introduction.html

सोमवार, 13 जुलाई 2020

लिखा कुछ भी नहीं जाता है बस एक दो कौए उड़ते हुऐ से नजर आते हैं


शब्द सारे
मछलियाँ हो जाते हैं
सोचने से पहले
फिसल 
जाते हैं

कुछ
पुराने ख्वाब हो कर
कहीं गहरे में खो जाते हैं

लिखने
रोज ही आते हैं
लिखा कुछ  जाता नहीं है
बस तारीख बदल 
जाते हैंं

मछलियाँ
तैरती दिखाई देती हैं
हवा के बुलबुले बनते हैं
फूटते चले जाते हैं

मन
नहीं होता है
तबीयत नासाज है
के बहाने
निकल आते हैं

पन्ने पलट लेते हैं
खुद ही डायरी के खुद को
वो भी आजकल
कुछ लिखवाना
कहाँ चाहते हैं 

बकवास
करने के बहाने
सब खत्म हो जाते हैं

पता ही नहीं चल पाता है
बकवास करते करते
बकवास
करने वाले

कब खुद
एक बकवास हो जाते हैं 

कलाकारी
कलाकारों की
दिखाई नहीं देती है

सब
दिखाना भी नहीं चाहते हैं

नींव
खोदते चूहे घर के नीचे के

घर के
गिरने के बाद
जीत का झंडा उठाये
हर तरफ
नजर आना शुरु हो जाते हैं 

‘उलूक’
छोड़ भी नहीं देता 
है लिखना 

कबूतर लिखने की सोच
आते आते
तोते में अटक जाती है

लिखा
कुछ भी नहीं जाता 
है
एक दो कौए
उड़ते हुऐ से नजर आते हैं ।

चित्र साभार:
https://timesofindia.indiatimes.com/

बुधवार, 1 जुलाई 2020

अविनाश वाचस्पति की याद आज चिट्ठे के दिन बहुत आती है श्रद्धाँजलि बस कुछ शब्दों से दी जाती है



चिट्ठों के जंगल में उसने एक चिट्ठा बोया है 
जिस दिन से बोया है चिट्ठा वो खोया खोया है 

चिट्ठे चिट्ठी लिखते हैं कोई सोया सोया है 
चिट्ठी लेकर घूम रहा कोई रोया रोया है 

चिट्ठे ढूँढ रहे होते हैं चिट्ठी चिट्ठी चिट्ठों में छुप जाती है 
पता सही होता है गलत लिखा है बस बतलाती है 

चिट्ठों की चिट्ठी चिट्ठों तक पहुँच नहीं पाती है 
चिट्ठे बतलाते हैं चिट्ठे हैं आवाज नहीं आ पाती है 

चिट्ठों ने देखा है सबकुछ कुछ चिट्ठे गुथे हुवे से रहते हैं 
चिट्ठों की भीड़ बना चिट्ठे चिट्ठी को कहते रहते हैं 

चिट्ठा चिट्ठी है चिट्ठी चिट्ठा है बात समझ में आती है 
चिट्ठे के मालिक की चिट्ठी कैसे कहाँ कहाँ तक जाती है

नीयत और प्रवृति किसी की कहाँ बदल पाती है 
शक्ल मुखौटों की अपनी असली याद  दिला जाती है 

अविनाश वाचस्पति की याद आज चिट्ठे के दिन 
उलूकको बहुत आती  है बहुत आती है ।



गुरुवार, 18 जून 2020

अन्दाज बकवास-ए-उलूक का कुछ बदलना चाहता है


वो जो सच में लिखना होता है 
खुद ही सहम कर पीछे चला जाता है 
कैसे लाये खयाल में किसी को कोई 
कोई और सामने से आ जाता है 
-----------
उस मदारी के लिये बहुत कुछ 
लिख रहें है लोग अपनी समझ से 
कुछ भी लिखे को उसपर लिखा समझ कर 
जमूरा उसका अपनी राय दे जाता है
---------
उसे भी कहाँ आती है शर्म किसी से 
हमाम में ही सबके साथ खिलखिलाता है 
लड़ता नहीं है किसी से कभी भी 
एक भूख से मरा बच्चा ला कर के दिखाता है
---------
शेर और शायरी अदब के लोगों के फसाने होते हैं 
सुना है यारों से 
किसी की आदत में बस 
बकवास में बातों को उलझाना ही रह जाता है
----------
मुद्दत से इंतजार रहता है 
शायद बदल जायेगी फितरत हौले हौले किसी की 
तमन्ना के साथ हौले हौले उसी फितरत को अपनी
धार दिये जाता है
‌‌‌‌‌-------
कुछ नहीं बदलेगा 
कहना ही ठीक नहीं है जमाने से इस समय
जमाना खुद अपने हिसाब से 
अब चलना ही कहाँ चाहता है
--------- 
किसी के चेहरे के समय के लिखे निशानों पर 
नजर रखता है 
अपने किये सारे खून जनहित के सवालों से 
दबाना चाहता है
--------- 

किसी के लिखने और किसी को पढ़ने के बीच में 
बहुत कुछ किसी का नहीं है 
कोई लिखता चलता है मीलों 
किसी को ठहर कर पढ़ने में मजा आता है
---------- 
किसी के लिखे पर कुछ कहना चाहे कोई 
सारे खाली छपने वालों को छोड़ कर 
किसलिये डरता है कोई इतना 
लिखे पर कह दिये को 
घर ले जा कर पढ़ना चाहता है
‌‌‌‌--------- 
कुछ भी लिख देने की आदत रोज रोज 
कभी भी ठीक नहीं होती है ‘उलूक’ 
किसलिये अपना लिख लिखा कर 
कहीं और जा कर 
फिर से दिखना चाहता है।
----- 

चित्र साभार: 

शुक्रवार, 12 जून 2020

गुलामी सुनी सुनाई बात है लगभग सत्तर साल की महसूस कर बेवकूफ स्वतंत्र तो तू अभी कुछ साल पहले ही से तो हो रहा था




देखा
नहीं था
बस
कुछ सुना था

कुछ
किताबों के
सफेद पन्नों
पर

काले से
किसी ने कुछ
आढ़ा तिरछा सा
गड़ा था

उसमें से थोड़ा
मतलब का कुछ कुछ
पढ़ा था

बहुत कुछ
यूँ ही
पन्नों के साथ चिपका कर
बस
पलट 
चला था 

पल्ले ही नहीं
 पड़ा था

ना गुलाम
देखे थे
ना गुलामी
महसूस की थी
कहीं कोई
बंदिश नहीं थी

सब कुछ
आकाश था
चाँद तारों
और
चमकदार सूरज से
लबालब
भरा था

ऐसा
भी नहीं था
कहीं कूड़ा नहीं था

जैविक था
अजैविक भी था
सोच में भी
अलग से रखा
कूड़ादान
भी वहीं था

वैसा ही जैसे
 आज का
अभी का हो
रखा चमका हुआ
नया था

खुल भी रहा था
बन्द
ढक्कन के साथ
हो
रहा था

एक था गाँधी
कर गया था
गुड़ का गोबर
तब कभी

अभी अभी
कहीं कोई कह
रहा था

गाय बकरी भैंस
के दिन
फिर रहे थे
अब
कहीं जाकर

गोबर का
बस और बस
सब गुड़
हो रहा था

लड़का 
लिये छाता  
एक छत से कूदता
दूसरी छत
चाकलेट फेंकता

धूप से बचाता 
नीचे कहीं
राह चलती

एक लड़की

सामाजिक
दूरी बना
खुश
हो रहा था

समय
घड़ी की टिक टिक
के साथ

अन्दर
कहीं घर के
तालाबन्द हो कर
जार जार
खुशी के आँसू
दो चार बस रोज

 दिखाने का
कुछ रो
रहा था

महामारी
दौड़ा रही थी
मीलों
आदमी नंगे पाँव
सड़क पर

नेता
घर बैठ
चुनावी रैलियाँ
बन्द सारे
दिमागों में
बो रहा था

‘उलूक’
गुलामी
सुनी सुनाई बात है
लगभग
सत्तर साल की

महसूस कर
बेवकूफ

स्वतंत्र तो
तू अभी
कुछ साल
पहले ही से
हो रहा था।

चित्र साभार: www.123rf.com

रविवार, 31 मई 2020

मदारी मान लिया हमने तू ही भगवान है बाकी कहानियों के किरदार हैं और हम तेरे बस तेरे ही जमूरे हैं


बहुत से हैं
पूरे हैं

दिख रहे हैं
साफ साफ
कि हैं

फिर
किसलिये
ढूँढ रहा है
जो
अधूरे हैं

क्षय होना
और
सड़ जाने में
धरती आसमान
का अन्तर है

उसे
क्या सोचना

जिसने
जमीन
खोद कर
ढूँढने ही बस

मिट चुकी
हवेलियों के
कँगूरे हैं 

समझ में
आता है
घरेलू
जानवर का
मिट्टी में लोटना
मालिक की रोटी
के लिये

उसके
दिल में भी हैं
कई सारे बुलबुले
बनते फूटते
चाहे आधे अधूरे हैं

 सम्मोहित होना
किसने कह दिया
बुरा होता है

अजब गजब है
नखलिस्तान है
टूट जाने के
बाद भी
सपने

उस्ताद
के लिये
तैयार
मर मिटने के लिये
जमूरे हैं

मर जायेंगे
मिट जायेंगे
हो सकेगा तो
कई कई को
साथ भी
ले कर के जायेंगे

जमीर
अपना
कुछ हो
क्या जरूरी है

जोकर पे
दिलो जाँ
निछावर
करने के बाद

किस ने देखना
और
सोचना है

मुखौटे के पीछे

किस बन्दर
और
किस लंगूर के

लाल काले
चेहरे
कुछ सुनहरे हैं

‘उलूक’
किसलिये
लिखना
लिखने वालों
के बीच
कुछ ऐसा

जब
पहनाने  वाले

उतारने 
वालों से
बहुत ही कम है

सब 

हमाम में हैं
भूल जाते हैं

उनके चेहरे
उनके नकाब
और
उनके
आईने तक

हर किसी के पास हैं

नये हैं
अभी खरीदें हैं

और
जानते हैं

कुछ छोले हैं
और
कुछ भटूरे हैं।

https://steemit.com/

मंगलवार, 26 मई 2020

कब तलक लिखे और कैसा लिखे कोई अगर लिखे कुछ भी का कुछ भी याद ही ना रहे




भड़ास
नदी नहीं होती है

इसलिये
बहती नहीं है

बहते हुऐ
के
चारों ओर
कोलाहल
होता है

लोग
इसीलिये
बकवास
नहीं करते हैं

ऐसा नहीं
कि
नहीं
कर सकते हैं

सकारात्मकता
ही
तो बस
एक
दिखाने की
चीज होती है

लिखे हुऐ की
परीक्षा की जाती है

उसके ऊपर से
आईना फिरा कर
प्रतिबिम्ब
दिखाने के लिये
बचा लिया जाता है

लिखा
फाड़ दिया जाता है
कहना
तो ठीक नहीं है

 मिटा दिया जाता है
होना चाहिये
समय के हिसाब से

प्रतिबिम्ब
छलावा
हो सकता है

सकारात्मक
सोच के हिसाब से

नकारात्मक सोच
उलझी रहती है
प्रतिबिम्बों से

कुछ नहीं
लिख पाना
या
कुछ नहीं
लिखना
एक लम्बे समय तक

या
रोज
कुछ ना कुछ
या
बहुत कुछ
लिख देने में

कोई खास
अन्तर नहीं होता है

अपना
चेहरा ही
जब देखना है
आईने में
तो
क्या फर्क पड़ता है

खूबसूरत
या
सुन्दर से

सब
सुन्दर है
जो रचा गया है

बाकी
भड़ास है
यानि
कि
बकवास

बकवास
के
पैर नहीं होते है
फिर भी
सबसे दूर तलक
वही जाती है

बकवास
करने वाले पर ही
चालिसा
गढ़ी जाती है

सफलता
समझ में आना
या
समझा ले जाना
से
कोसों दूर
चली जाती है

अंधेरी
रात में
शमशान में
कम हो चुके
लोगों की संख्या
से
 चिंतित

‘उलूक’
हमेशा की तरह

मुँह
ऊपर कर
आकाश में टिमटिमाते
तारों में

गिनती भूल जाने
के
वहम के साथ
खो जाने की
अवस्था का चित्र
सोचते हुऐ

चोंच
ऊपर किये हुऐ
पक्षी का योग
 कैसे
किया जा सकता है

सकारात्मकता
के
मुखौटों को
तीन सतह का मास्क
पहनाना
चाहता है।

चित्र साभार: : https://www.npr.org/



सोमवार, 11 मई 2020

उदास चेहरा भी कार्टून में जगह ले लेता है कुछ भी लिखे को व्यंग समझना जरूरी नहीं होता है: ताला बन्दी के बहाने बकवास




उबासी लेता
व्यंग
अवसादग्रस्त है
मगर
मानने को
तैयार नहीं है

उसके
खुद
अपने चेहरे को खींचते हुऐ
दाँत निपोरना
जोर लगा कर हैशा

कुछ
ऐसा अहसास
करा रहा है
जैसे

कलम का लिखा
नहीं
सामने से
कलम का
हाथ में लोटा लिये
दिशा जाना
समझा रहा है

कलम
वैसे भी
अब कहीं
होती भी कहाँ है

कलम
मोक्ष प्राप्त कर
आभासी
हो चुकी है

मुँह के सामने
स्क्रीन पर
बनते लटकते
सफेद पर काले

मशीन के
पूँछ लगे मूषक
के
इशारों पर
घसीटते घिसटते
शब्दों के प्रतिबिम्ब

आभासी
अहम ब्रह्मास्मिं का बोध कर

स्वयं को स्वयं में
आत्मसात कर

मोक्ष प्राप्त कर चुकी
परम आत्मा हो लेने के लिये
उकसा रहा है

बौरा जाने के
मौसमों
और
उसके प्रकार पर

निबन्ध
बाँधने के लिये
सीमाओं को खोल कर

लेखन के बैल
या गाय
को

गले में
उसकी रस्सी लपेट कर
आजाद कर देने के बाद

गोबर से बने
भित्तिचित्रों
जैसे अभिलेखों पर

आँखें गड़ाये
उलूकको भी
इन्तजार है

अच्छे दिनों का

वो
अच्छे दिन
जिनका
अच्छा
मतलब निकाल कर
अच्छा
महसूस कर सके

कुछ
वैसा ही

जैसा
अलसुबह
किसी रोज
गड़गड़ाहट के साथ

पेट के
साफ हो जाने के बाद
होता है।

चित्र साभार:
https://pixabay.com/

शनिवार, 2 मई 2020

सोच कर लिखा नहीं जाता है और बिना सोचे लिखा गया लिखा नहीं होता है साहित्य के बीच में बकवास लिख कर घुसने का भी कोई कायदा होता है




सालों 
गुजर गये 
सोचते हुऐ 

लिखने की 
कुछ

कुछ ऐसा 

जिसका 
कुछ 
मतलब निकले 

लिखना 
आने से 

मतलब 
निकलने वाला 
ही
लिखा जायेगा 

बेमतलब 
की
बात है 

बेमतलब
का 
कई लिख लेते हैं 

भरी पड़ी हैं 
किताबें कापियाँ 
लकीरों से
आड़ी तिरछी 

पर 
मुझ से 
नहीं लिखा गया 
कुछ भी
लिखे जैसा 

आज भी
कोशिश जारी है 

बस 
कुछ दिनों से 
लिखना 
थोड़ा
झिझकते हुऐ 
जैसे
ठिठक गया

समय 
के
ठिठक जाने 
के
कुछ 
एहसासों के साथ 

पढ़ते पढ़ते 
बेमतलब का 
लिखा हुआ 
हर तरफ 

मतलब
का 
मतलब
क्या होता है 
वही
समझना रह गया

अपनी अपनी
समझ 
अपना अपना
पढ़ना

इसकी बकवास 
उसके लिये
साहित्य

उसका
साहित्य 
इसके लिये
बकवास

रद्दी 
खरीदने वाले के लिये
बकवास
भी रद्दी
साहित्य
भी रद्दी 

ना गाने वाले के लिये
गर्दभ राग ही बस राग 

लिखना
क्या है 
लिखने
से क्या होता है 
पता होना
मगर
शुरु हो गया 

लिखना है 
लिखना समझना है 
जब तक शुरु होता 

दौड़ना 

दिखना
शुरु हो गया 

दौड़ना 

लिखे हुऐ
को 
हाथ में लेकर 

एक दो तीन 
होते होते 

भीड़ 
दिखनी
शुरु हो गयी 
लिखा लिखाया
पीछे रह गया 

हर कोई 
दौड़ रहा है 
दिखने लगा 

लिखा लिखाया है 
हर कोई कह रहा होता है 
बस वही
दिखाई
नहीं दे रहा होता है 

लिखने
का
मतलब 
बस
साहित्य होता है 

चिल्ला
रहा होता है 

थोड़ी 
देर के बाद 

एक झंडा 
साहित्य
लिखा 

कोई
सड़क से 
दूर बहुत दूर 
कहीं किसी बियाबान में 
बंजर खेत की ओर लहराता दौड़ता 

एक
लिखने वालों की भीड़ से ही
निकल गया होता है 

कुछ भी लिखा 
साहित्य नहीं होता है 

साहित्य
बताने का फार्मूला 
साहित्यकार
की मोहर 
हाथ की कलाई में 
लगे हुऐ के
पास ही होता है 

साहित्य 
नहीं लिख 
सकने वाले को 
लिखना
ही
नहीं होता है 

ठेका 
किसका 
किसके पास है 
पूछ
लेना होता है 

‘उलूक’ 
रात के अंधे को 
दिन की बात में 
दखल नहीं देना होता है 

कविता कहना 
गुस्ताखी होगी 

मगर 

लम्बी 
कविता का
फार्मेट 

और 
बकवास 
करने का फार्मेट 

लगभग
एक जैसा ही होता है ।
चित्र साभार: http://clipart-library.com/

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

पढ़ता कोई नहीं अपनी आँखों से सब पढ़ कर कोई और सुनाता है



बकवास करने में
कौन सा क्या कुछ चला जाता है 
फिर आजकल
कुछ कहने सुनने क्यों नहीं आता है 

सूरज रोज सुबह
और चाँद शाम को ही जब आता है 
अभी का अभी लिख दे
सोचने में दिन निकल जाता है 

खबरें बीमार हैं माना सभी
अखबार बीमार नजर आता है
नुस्खा बकवास भी नहीं होती
 बक देने में क्या जाता है 

ताला लगा है घर में
दिमाग बन्द हुआ जाता है 
खुले दिमाग वालों को
भाव कम दिया जाता है 

थाली में सब है
गिलास में भी कुछ नजर आता है 
भूख से नहीं मरता है कोई
मरने वालों में कब गिना जाता है 

सब कुछ लिखा होता है चेहरे पर
चेहरा किताब हो जाता है 
पढ़ना किस लिये अपनी आँखों से
सब पढ़ कर कोई और सुनाता है 

बकवास हो गया खुद एक ‘उलूक’
बकवास करना चाहता है 
खींचते ही लकीरों में चेहरा कविता का
मुँह चिढ़ाना शुरु हो जाता है।
चित्र साभार: https://favpng.com/

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

डरना मना है /जो डर गया सो मर गया/ डरना है/ डर के आगे जीत है


रोज के डरे हुऐ के लिये 
कोई नयी बात नहीं है एक नया डर
या फिर हमेशा के कुछ
पुराने कई छोटे छोटे अनेक डर 

या
भयानक बड़ा सा एक डर

घेर कर डराने की कला में माहिर
एक डरे हुऐ के पैदा किये हुऐ डरों से डरते
सारे डरे हुऐ घिर गये हैं
डरों के खण्डहरों के अन्दर की
चाहरदीवारों के बीच कहीं

घर घर खेलने बुनने के आदेश का पालन
करने की जुगत लगाते हुऐ
खिसियाये नहीं हैं हर्षित हैं
बाँट रहे हैं खुश्बूदार फूलों से
लबालब भरी टोकरियों के भड़कीले चित्र

जिनके नीचे से किसी कोने में दुबका हुआ है अंधा हो चुका
काला चश्मा लगाया हुआ डर

सब पर सब कुछ लागू नहीं होता है
निडर होना दिखाना निडर होना
अलग अलग पहलू हैं

मृत्यु शाश्वत है
समय निर्धारित है आस्तिकों के लिये
नास्तिक होना गुनाह नहीं है

डर पर निडर के मुखौटे चिपकाये
सकारात्मकता के लबादे ओढ़े
मौसमी संतों के प्रवचनों के संगीत से उछलती
टी आर पी से

पेट में भरे पानी में बनती उर्मियों का
साँख्यिकी में कोई उपयोग होता है अनसुना है

ऐसे ही एक एक कर डरे हुओं का जमा होना
इशारों इशारों में किसी डरे हुऐ के
डरे सिपाहियों की फौज से
टकराने निकल पड़ना
पकड़ कर अपने अपने खाली हवा भरे पेट
गलत कहाँ है

ऐसे में ही
एक भरे पेट को शिकायत होना
दूसरे भरे पेट से
कुछ करते क्यों नहीं
का
उलाहना देना 


आप ही बता दीजिये
पेट दर्द में मालिश से हवा निकालने की दवा
 
एक जम्हाई के साथ शट डाउन का बटन का दबना
और फिर नींद का आ जाना

अपने डर तू भी निकाल ले ‘उलूक’
माहौल बना बनाया है
फिर क्या पता कब शुरु हो अगली बार
निडरों की जमात का ये खेल
डरना मना है डर के आगे जीत है वाला।

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

बुधवार, 25 मार्च 2020

उड़ नहीं रहा होता है उड़ाया जा रहा होता है पंछी नहीं हो रहा होता है एक ड्रोन हो रहा होता है



पंख
निकले होते
हौले हौले

फैल कर
ढक लेते
सब कुछ

आँचल
की तरह

उड़ने
के लिये
अनन्त
आकाश में

दूर दूर तक
फैले होते

झुंड नहीं होते

उड़ना होता
हल्के होकर

हवा की लहरों से
 बनते संगीत के साथ

कल्पनाएं होती
अल्पनाओं सी

रंग भरे होते
असीम
सम्भावनाएं होती

ऊँचाइयों
के
ऊपर कहीं

और
ऊँचाइयाँ होती

होड़
नहीं होती
दौड़
नहीं होती

स्वच्छंद होती
सोच
भी उड़ती
 

पंछी होकर
कलरव करती 


पंख लगाये
उड़ते तो हैं

ऊपर
भी होते हैं

पर
ज्यादा
दूर 

नहीं होते हैं

बस
घूम 

रहे होते हैं

धुरी
कहीं होती है

जैसे
जंजीर
बंधी होती है

आँखे
होती तो हैं

देख मगर
कोई और
रहा होता है
उनकी आँखों से

दूरबीन
हो गयी होती हैं

शोर
हो चुकी होती हैंं
 संगीत
नहीं होती हैं

बस
आवाजें
हो लेती हैं

 उड़ना
होता तो है

लेकिन
उड़ा
कोई और
रहा होता है

कहना
भी होता है

मुँह
बड़ा सा
एक मगर

दूर कहीं
से

कुछ कह
रहा होता है

देखता
सा लगता है

पर
देख

कोई और
रहा होता है

  समझा कर 

‘उलूक’ 

विज्ञान
के युग का

एक अनमोल
प्रयोग

हो
रहा होता है

उड़
एक भीड़
रही होती है

चिड़िया
होकर उड़ती
अच्छा होता

पर
हर कोई

किसी एक
का एक

ड्रोन
हो
रहा होता है

उड़ नहीं
रहा होता है

बस

उड़ाया
जा
रहा होता है । 

चित्र साभार: https://www.gograph.com/

मंगलवार, 24 मार्च 2020

गले गले तक भर गये नहीं कहे जा रहे को रोक कर रखने से कौन सा उसका अचार हो लेना है


मन 
पक्का करना है बस
सोच को
संक्रमित नहीं होने देना है

भीड़ घेरती ही है
उसे कौन सा 
अपनी सोच से कुछ लेना देना है

शरीर नश्वर है
आज नहीं तो कल मिट्टी होना है

तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा
की 
याद आ रही हो सभी को
जब नौ दिशाओं से

ऐसे माहौल में
कुछ कहना जैसे ना कहना है

सिक्का उछालने वाला बदलने वाला नहीं है

चित भी उसकी पट भी उसकी
सिक्का भी उसी की तरह का

जिसे हर हाल में
रेत नहीं होने के बावजूद
सन्तुलन दिखाते मुँह चिढ़ाते
सीधा बिना इधर उधर गिरे खड़ा होना है

सकारात्मकता का ज्ञान दे रही
खचाखच हो गयी भीड़ की
चिल्ल पौं के सामने
कुछ कह देना

अपनी इसकी और उसकी 
की
ऐसी की तैसी करवा लेने का लाईसेंस
खुद अपने हस्ताक्षर कर के दे देना है

छोड़ क्यों नहीं देता है 
पता नहीं
‘उलूक’
बकवास करने के नशे को किसी तरह

गले गले तक भरे कबाड़ शब्दों को 

कौन सा
किसी सभ्य समाज के 
सभ्य ठेकेदार की 
खड़ी मूँछों को तीखी करने वाले 
तेल की धार हो लेना है ?

चित्र साभार: