उलूक टाइम्स

बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

कलाबाजी कलाकारी लफ्फाजों की लफ्फाजी जय जय बेवकूफों की उछलकूद और मारामारी

कब किस को
देख कर क्या
और
कैसी पल्टी
खाना शुरु कर दे
दिमाग के अन्दर
भरा हुआ भूसा

भरे दिमाग वालों
से पूछने की हिम्मत
ही नहीं पड़ी कभी
बस
इसलिये पूछना
चाह कर भी
नहीं पूछा

उलझता रहा
उलटते पलटते
आक्टोपस से
यूँ ही खयालों में
बेखयाली से

यहाँ से वहाँ
इधर से उधर
कहीं भी
किधर भी
घुसे हुऐ को
देखकर

फिर कुछ भी
कहने लिखने
के लिये नहीं सूझा

बेवकूफ
आक्टोपस
आठ हाथ पैरों
को लेकर तैरता
रहा जिंदगी
भर अपनी

क्या फायदा
जब बिना
कुछ लपेटे
इधर से उधर
और
उधर से इधर
कूदता रहा

कौन पूछे
कहाँ कूदा
किसलिये
और
क्यों कूदा

गधे से लेकर
स्वान तक
कबूतर से
लेकर
कौए तक

मिलाता चल
आदमी की
कलाबाजियों
को देखकर
‘उलूक’
आठ जगह
एक साथ
घुस लेने की
कारीगरी
छोड़ कर
हर जगह
एक हाथ
या एक पैर
छोड़ कर
आना सीख

और
कुछ मत कर
कहीं भी

कहीं और
बैठ कर
कर बस
मौज कर

आक्टोपस बन
मगर मत चल
आठों लेकर
एक साथ हाथ

बस रख
आया कर
हर जगह कुछ
बताने के लिये
अपने आने
का निशान

किस ने
देखना है
कौन
कह रहा है
आ बता
अपनी
पहचान

आक्टोपस
होते हैं
कोई बात
है क्या
आक्टोपस
हो जाना
सीख ना
आदमी से।

चित्र साभार: cz.depositphotos.com

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

रात का गंजा दिन का अंधा ‘उलूक’ बस रायता फैला रखा है

बहुत कुछ
कहना है
कैसे
कहा जाये
नहीं कहा
जा सकता है

लिखना
सोच के
हिसाब से
किसने
कह दिया
सब कुछ
साफ साफ
सफेद लिखा
जा सकता है

सब दावा
करते हैं
सफेद झूठ
लिखते हैं

सच
लिखने वाले
शहीद हो
चुके हैं
कई जमाने
पहले
ये जरूर
कहा जा
सकता है

लिखने
लिखाने
के कोर्ट
पढ़े लिखे
वकील
परिपक्व
जज
होते होंगे
बस इतना
कहा जा
सकता है

सबको पता
होता है
सब ही
जानते है
सबकुछ
कुछ
कहते हैं
कुछ कुछ
पढ़ते हैं
कुछ
ज्यादा
टिप्पणी
नहीं देते हैं
कुछ
दे देते हैं
यूँ ही
देना है
करके कुछ
कुछ
अपने अपने
का रिश्ता
अपने अपने
का धंधा
लिखने
लिखाने
ने भी
बना रखा है

‘उलूक’
खींच
अपने बाल
किसी ने
रोका
कहाँ है
बस मगर
थोड़ा सा
हौले हौले

जोर से
खींचना
ठीक नहीं
गालियाँ
खायेंगे
गालियाँ
खाने वाले
कह कर
दिन की
अंधी एक
रात की
चिड़िया को
सरे आम
गंजा बना
रखा है।

चित्र साभार: Dreamstime.com

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

बुखार कैसा भी हो निकलता ही है कुछ बाहर बुदबुदाने में

बस चार
दिन की है
बची बैचेनी

फिर बजा
लेना बाँसुरी
लगा कर आग
रोम को पूरे

सब कुछ
बदल
जायेगा जब
बनेगी राख
देख लेना
मिचमिचाती
सी अगर
बन्द भी होगी
तब भी आँख

धुआँ खाँसेगा
खुद बूढ़ा
होकर जले
जंगल का
बहेगी नाक
आपदा के
पानी की
बहुत जोरों से

सारा हरा भूरा
और सारा भूरा
हरा हो लेगा
यूँ ही बातों
बातों के बीच

घुस लेंगे सारे
दीमक छोड़
कर कुतरना
जीते हुऐ और
मरे हुऐ को
जैसे थे जहाँ थे
की स्थिति में

उगना शुरु
होंगे जंगल
के जंगल
लदने लगेंगे
फल फूल
पौंधों में पेड़
बनने से
ही पहले

दौड़ेंगे उल्टे
पाँव बंदर
सुअर
और बाघ
घर वापसी
के लिये
खुशी से

दीवाली
के दीये
खनखनायेंगे
पुराने पीतल
के बने घर के
भरे लबलबा
तेल ही तेल से

उधरते घरों
के आंगन
में रम्भायेंगी
भैसें गायें और
बकरियाँ

सूखे खुरदरे
उधरते पहाड़ों
के हाड़ों से
निकलते
सारे के सारे
नदी धारे
दिखेंगे
छलछलाते

सपने बेचने
निकले हैं अपने
खुद के
लोग कुछ
थोड़े से
खरीददार
सारे सब
लगे हैं
साथ में
अपने

अपने
हिसाब से
अपनी
किताबें
पढ़ कर
समझ कर
गणित
दो में दो
जोड़ कर
करने पाँच
सात या
और
ज्यादा
जितना
हो सके
जहाँ तक

चल तैयार
हो ले तू भी
‘उलूक’
लगाने
स्याही
कहीं
थोड़ी सी
अपने भी
गवाही देगें
सुना हैं
रंग नाखूनों के
आने वाले
दिनो में
उत्सवों में
जीत के
पहाड़ों की।

चित्र साभार: Freepik

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

खुजली ‘उलूक’ की

युद्ध
हो रहा है

बिगुल
बज रहा है

सारे सिपाही
हो रहे हैं

अपने अपने
हथियारों
के साथ

सीमा पर
जा रहे हैं

देश के
अन्दर
की बात
हो रही है

कुछ ही
देश प्रेमी हैं
बता रहे हैं

बाकी सब
देश द्रोही हैं
देश द्रोहियों
से आह्वान
कर रहे है

देश प्रेमियों
को चुनने
को क्यों
नहीं आगे
आ रहे हैं

देश को
किसलिये
थोड़ा सा
भी नहीं
बचा रहे हैं

देश
द्रोहियों से
कह रहे है
थोड़ा सा
कुछ तो
शरमायें

कुछ
देश भक्त
गिड़गिड़ा
रहे हैं

फालतू में
कुछ
देश द्रोहियों
के चरण
पकड़े थे
पिछली बार

आज खुल
कर बता
रहे हैं

प्रायश्चित
कर रहे हैं

इस बार
वो भी
देशभक्तों
के साथ
आ रहे हैं
समझा रहे हैं

समझिये
देश भक्त
देशभक्ति
चुनाव और
लोगों की
सक्रियता

सभी कर
रहे हैं
कुछ
ना कुछ

देश के
लिये
शहीद
होने
जा रहे हैं

‘उलूक’
तेरे दिमाग
में भरे
हुऐ गोबर
के कीड़े

बहुत
ज्यादा
कुलबुला
रहे हैं


मत खोला
कर अपना
मुँह इस
तरह से

तेरे बारे में
बहुत से
लोग लगे हैं
समझाने में
बहुत से
लोगों को
बहुत कुछ

पता नहीं
इतना एक
उल्लू से
किसलिये
लोग
घबरा रहे हैं

कल किसे
पता है
कौन रहेगा
देश भक्तों
के साथ

किसे
मालूम है
कौन रहेगा
देश द्रोहियों
के साथ

कौन से
देश भक्त
अभी जा
रहे हैं
या
कुछ देर
के बाद
आ रहे हैं

जो अभी हैं
वो रहेंगे
जो नहीं हैं
वो क्या करेंगे

किसे पता है
किसे पड़ी है
अपनी अपनी
खुजली लोग
अपने आप
खुजला रहे हैं ?

चित्र साभार: ClipartFest

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

आदमी सोचते रहने से आदमी नहीं हुआ जाता है ‘उलूक’

एकदम
अचानक
अनायास
परिपक्व
हो जाते हैं
कुछ मासूम
चेहरे अपने
आस पास के

फूलों के
पौंधों को
गुलाब के
पेड़ में
बदलता
देखना

कुछ देर
के लिये
अचम्भित
जरूर
करता है

जिंदगी
रोज ही
सिखाती
है कुछ
ना कुछ

इतना कुछ
जितना याद
रह ही नहीं
सकता है

फिर कहीं
किसी एक
मोड़ पर
चुभता है
एक और
काँटा

निकाल कर
दूर करना
ही पड़ता है

खून की
एक लाल
बून्द डराती
नहीं है

पीड़ा काँटा
चुभने की
नहीं होती है

आभास
होता है
लगातार
सीखना
जरूरी
होता है

भेदना
शरीर को
हौले हौले
आदत डाल
लेने के लिये

रूह में
कभी करे
कोई घाव
भीतर से
पता चले
कोई रूह
बन कर
बैठ जाये
अन्दर
दीमक
हो जाये

उथले पानी
के शीशों
की
मरीचिकायें
धोखा देती 

ही हैं

आदमी
आदमी
ही है
अपनी
औकात
समझना
जरूरी है
'उलूक'

कल फिर
ठहरेगा
कुछ देर
के लिये
पानी

तालाब में
मिट्टी
बैठ लेगी
दिखने
लगेगें
चाँद तारे
सूरज
सभी
बारिश
होने तक ।

चित्र साभार: Free Clip art

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

आज कुछ टुकड़े पुराने जो पूरे नहीं हो पाये टुकड़े रह गये

(कृपया बकवास को
कवि, कविता और
हिंदी की किसी
विधा से ना जोड़ेंं
और
टुकड़ों को ना जोड़ें,
अभिव्यक्ति कविता से हो
और कवि ही करे
जरूरी नहीं होता है ) 


सोच खोलना
बंद करना भी
आना चाहिये
सरकारी
दायरे में
ज्यादा नहीं भी
कम से कम
कुछ घंटे ही सही
>>>>>>>>>>>>

बेहिसाब
रेत में
बिखरे हुऐ
सवालों को
रौंदते हुऐ
दौड़ने में
कोई बुराई
नहीं है
गलती
सवालों
की है
किसने
कहा था
उनसे उठने
के लिये
बेवजह
बिना सोचे
बिना समझे
बिना जाने
बिना बूझे
और
बिना पूछे
उससे
जिसपर
उठना शुरु
हो चले
>>>>>>

मालूम है
बात को
लम्बा
खींच
देने से
ज्यादा
समझ
में नहीं
आता है

खींचने की
आदत पड़
गई होती
है जिसे
उससे
फिर भी
आदतन
खींचा ही
जाता है
जानता है
ज्ञानी
बहुत अच्छी
तरह से
अपने घर में
बैठे बैठे भी
अपने
आस पास
दूसरों के
घरों के
कटोरों की
मलाई की
फोटो देख
देख कर
अपने फटे
दूध को
नहीं सिला
जाता है
>>>>>>>

कोई नहीं
खोलता है
अपनी खुद
की किताबें
दूसरों
के सामने

खोलनी
भी क्यों हैं
पढ़ाने की
कोशिश
जरूर
करते
हैं लोग
समझाने
के लिये
किताबें
लोगों को

 बहुत सी
किताबें
रखी हुई
दिखती
भी हैं
किताबचियों
के आस पास
कहीं करीने
से लगी हुई
कहीं बिखरी
हुई सी
कहीं धूल
में लिपटी
कहीं साफ
धूप
दिखाई गई
सूखी हुई सी ।

>>>>>>>>>

चित्र साभार: ClipartFest

सोमवार, 30 जनवरी 2017

दो मिनट का मौन सायरन का तीस जनवरी के ग्यारह बजे

रोज के नौ
और
पाँच बजे के
सायरन
के अलावा

आज ग्यारह
और
ग्यारह
बज कर
दो मिनट
पर दो
बार बजे
सायरन के
बीच के
दो मिनट

सायरन
मौन रहा
श्रद्धांजलि
देता रहा
हर वर्ष
की तरह

सड़क पर
दौड़ती
गाड़ियाँ
करती रही
चुनाव प्रचार

बजाती
रही भोंपू
चीखता रहा
भाड़े का
उद्घोषक

श्रद्धा के साथ
अपने गांंधी
का चित्र
लगाये
अपने कोट
के बटन
के बगल में

गांंधी
कभी एक
हुआ होगा
आज कई
हो गये हैं

जीवित
गांंधी का
श्रद्धांजलि
देना
गाँधी को
गाँधियों की
सभा में
ध्वनिमत से
हाथ खड़े
कर पारित
भी नहीं

समय रहते
श्रद्धा के साथ
कर ही लेना
चाहिये अपना
श्राद्ध खुद ही
गया जाकर

शास्त्र
सम्मत है
‘उलूक’
हिचक मत

सायरन
ग्यारह
बजे का
कब तक
इसी
तरह बजेगा

दो मिनट
का मौन
रखते हुऐ
किस गांंधी
के लिये
कौन
जानता है ?

चित्र साभार: www.thehindubusinessline.com

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

बिना झंडे के लोग लावारिस हो रहे हैं

चेहरे
दिखा
करते
थे कभी
आज झंडे
हो रहे हैं

उग रहे
हैं झंडे
बेमौसम
बिना पानी
झंडे ही झंडे
हो रहे हैं

चल रहे हैं
लिये हाथ में
डंडे ही डंडे
कपड़े रंगीले
हरे पीले
गेरुए
हो रहे हैं

धनुष है
ना तीर है
निशाने
सपनों
में लिये
अपने अपने
जगह जगह
गली कोने
अर्जुन
ही अर्जुन
हो रहे हैं

शक्ल
अपनी
आईने में
देखने से
सब के ही
आजकल
परहेज
हो रहे हैं

सच्चाई
सामने
देख कर
क्योंकि
कई क्लेश
हो रहे हैं

उग रहे हैं
रोज झंडे
चेहरों के
ऊपर कई
बस चेहरे
हैं कि
बेनूर हो
रहे हैं

खेत अपने
लिये साथ
में वो हैं
किसान
हो रहे हैं

झंडे लिये
हाथ में
किसी के
खेत में
कोई झंडे
बो रहे हैं

बिना डंडे
बिना झंडे
के बेवकूफ
सो रहे हैं

गली मोहल्ले
में तमाशे
करने वाले
अपनी किस्मत
पे रो रहे हैं

देश के लिये
इक्ट्ठा कर
रहे हैं झंडे
झंडों को
इधर भी
उधर भी

झंडे के
ऊपर भी
झंडे और
नीचे भी
झंडे हो
रहे हैं

इन्सान
की बात
इन्सानियत
की बात
फजूल की
बात है
इन दिनों
‘उलूक’

औकात की
बात कर
बिना झंडे
के लोग
लावारिस
हो रहे हैं ।

चित्र साभार: Canstockphoto.com

बुधवार, 25 जनवरी 2017

बधाई है बधाई है बधाई है बधाई है



गण हैं तंत्र है सिपाही हैं
झंडा है एक है तिरंगा है

आजाद हैं आजादी है
शहनाई हैं देश है जज्बा है सेवा है
मिठाई है मलाई है मेवा है

चुनाव हैं जरूरी हैं लड़ना है मजबूरी है

दल है बल है
कोयला है कोठरी हैं
काजल है धुलाई है
निरमा है सफेद है जल है सफाई है

दावेदारी है दावेदार हैं
कई हैं प्रबल हैं
इधर हैं उधर हैं
इधर से उधर हैं उधर से इधर हैं

खुश हैं खुशी है
शोर है आवाजाही है

चश्मा है लाठी है धोती है
काली है सूची है
नाम लेने की भी मनाही है

सिल्क है अंगूठी है
कलफ है कोठी है
वाह है वाहवाही है

छब्बीस है जनवरी है
सालों से आई है

आती है जाती है
आज फिर से चली आई है

शरम की बात नहीं
बेशर्मी नहीं बेहयाई नहीं
‘उलूक’ की चमड़ी
खुजली वाली है खुजलाई है

कबूतरों की बारात है
देखी कहीं एसी कभी
कौओं की अगुआई है
कौओं ने सजाई है

गण हैं तंत्र है सिपाही हैं
झंडा है बधाई है
बधाई है बधाई है बधाई है ।


चित्र साभार: www.fotosearch.com

गुरुवार, 12 जनवरी 2017

ताजी खबर है देश के एन जी ओ ऑडिट नहीं करवाते हैं

चोर सिपाही
खेल
खेलते खेलते
समझ में
आना शुरु
हो जाते हैं

चोर भी
सिपाही भी
थाना और
कोतवाल भी

समझ में
आ जाना
और
समझ में
आ जाने
का भ्रम
हो जाना
ये अलग
अलग
पहलू हैं

इस पर
अभी चलो
नहीं जाते हैं

मान लेते हैं
सरल बातें
सरल
होती हैं

सब ही
सारी बातें
खास कर
खेल
की बातें
खेलते
खेलते ही
बहुत अच्छी
तरह से
सीख ले
जाते हैं

खेलते
खेलते
सब ही
बड़े होते हैं
होते चले
जाते हैं

चोर
चोर ही
हो पाते हैं
सिपाही
थाने में ही
पाये जाते हैं

कोतवाल
कोतवाल
ही होता है

सैंया भये
कोतवाल
जैसे मुहावरे
भी चलते हैं
चलने भी
चाहिये

कोतवाल
लोगों के भी
घर होते हैं
बीबियाँ
होती हैं
जोरू का
गुलाम भी
बहुत से लोग
खुशी खुशी
होना चाहते हैं

पता नहीं
कहाँ से
कहाँ पहुँच
जाता है
‘उलूक’ भी
लिखते लिखते

सुनकर
एक
छोटी सी
सरकारी
खबर
कि
देश के
लाखों
एन जी ओ
सरकार का
पैसा लेकर
रफू चक्कर
हो जाते हैं

पता नहीं
लोग
परिपक्व
क्यों
नहीं हो
पाते हैं

समझ में
आना
चाहिये

बड़े
होते होते
खेल खेल में
चोर भी चोर
पकड़ना
सीख जाते हैं

ना थाने
जाते हैं
ना कोतवाल
को बुलाते हैं
सरकार से
शुरु होकर
सरकार के
हाथों
से लेकर
सरकार के
काम
करते करते
सरकारी
हो जाते हैं ।

चित्र साभार: Emaze

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

विश्व हिन्दी दिवस और शब्द क्रमंचय संचय प्रयोग सब करते हैं समझते एक दो हैं

क्रमंचय
संचय
कितने
लोग
जानते हैं
कितने
समझ
ले
जाते हैं


क्रमंचय
संचय
उच्च
गणित
में प्रयोग
किया
जाता है

गणित
विषय
पढ़ने
और
समझने
वाला भी
दिमाग में
जोर
लगाता है
जब
क्रमंचय
संचय के
सवालों को
हल करने
पर आता है

किताबों
को छोड़
दिया जाये
अपने
आसपास
के लोग
और
समाज को
देखा जाये

नहीं सुने
होते हैं
ना ही
पढ़े होते हैं
क्रमंचय
संचय
पर
कलाकारी
देखिये
आँखें बड़ी
कर ले
जाते हैं
काणे भी
देखना
शुरु हो
जाते हैं

सवाल हल
करने की
जरूरत ही
नहीं पड़ती है
जवाब हाथ में
लेकर खड़े
हो जाते हैं

काम
निकलवाना
ज्यादा
महत्वपूर्ण
होता है
सबको पता
होता है

निकालने
के तरीके
के लिये
सोचने
के लिये
कहाँ तक
जाना है
कौन कब
सोच पाते हैं
जात पात
अमीर गरीब
ऊँच नीच
मिलाकर
जो लोग
घोल बना कर
लोगों को
पिलाना शुरु
हो जाते हैं

नशा होता है
गजब का
होता है
पीने वाले
अपना पराया
भूल जाते हैं

चल पड़ते हैं
लामबन्द
होकर
किसी भी
सियार के लिये

शेर बना कर
उसे जंगल से
बाहर छोड़
कर भी आते हैं

क्रमंचय संचय
नहीं पढ़ते हैं
क्रमंचय संचय
नहीं समझते हैं

काम करते हैं
अवसरवादियों
 के लिये

क्रमंचय संचय
के एक सवाल
का असल हल
पेश करते हैं

अवसर वाद
सारे वादों के
ऊपर का
 वाद होता है
‘उलूक’

तेरे जैसे
कई होते हैं
अवसर
मिलता है
और
दूसरों को
देख हमेशा
आँख मलते हैं

क्रमंचय
संचय
करते हैं
देखते हैं
सारी दुनियाँ
को प्रयोग
करते हुए
क्रमंचय
संचय
वो लोग जो
कभी भी
गणित नहीं
पढ़ते हैं ।

चित्र साभार: Pinterest
 

रविवार, 8 जनवरी 2017

शुरु हो गया मौसम होने का भ्रम अन्धों के हाथों और बटेरों के फंसने की आदत को लेकर

कसमसाहट
नजर आना
शुरु हो गयी है

त्योहार नजदीक
जो आ गया है

अन्धों का ज्यादा
और बटेरों का कम

अपने अपने
अन्धों के लिये
लामबन्द होना
शुरु होना
लाजिमी है
बटेरों का

तू ना
अन्धा है
ना हो
पायेगा

बड़ी बड़ी
गोल आखें
और
उसपर
इस तरह
देखने की
आदत

जैसे बस
देखेगा
ही नहीं
मौका
मिले
तो घुस
भी पड़ेगा

बटेर होना
भी तेरी
किस्मत
में नहीं

होता तो
यहाँ लिखने
के बजाये
बैठा हुआ
किसी अन्धे
की गोद में
गुटर गुटर
कर रहा होता

अन्धों के
हाथ में बटेर
लग जाये या
बटेर खुद ही
चले जाये अन्धे
के हाथ में

मौज अन्धा
ही करेगा
बटेर त्यौहार
मना कर
इस मौसम का
अगले त्यौहार
के आने तक
अन्धों की
सही सलामती
के लिये बस
मालायें जपेगा

तू लगा रह
खेल देखने में
कौन सा अन्धा
इस बार की
अन्धी दौड़
को जीतेगा

कितनी बटेरों
की किस्मत
का फैसला
अभी करेगा

बटेरें हाथ में
जाने के लिये
बेकरार हैं
दिखना भी
शुरु हो गई हैं

अन्धों की आँखों
की परीक्षाएं
चल रही हैंं

जरा सा भनक
नहीं लगनी
चाहिये
थोड़ी सी भी
रोशनी के बचे
हुऐ होने की
एक भी आँख में
समझ लेना
अन्धो अच्छी
तरह से जरा

बटेर लपकने
के मौसम में
किसी दूसरे
अन्धे के लिये
बटेर पकड़
कर जमा
करने का
आदेश हाथ
में अन्धा
एक दे देगा

अन्धों का
त्योहार
बटेरों का
व्यवहार
कुछ नहीं
बदलने
वाला है

‘उलूक’

सब इसी
तरह से
ही चलेगा

तुझे मिला
तो है काम
दीवारें
पोतने
का यहाँ

तू भी
दो चार
लाईनेंं
काली
सफेद
खींचते हुए
पागलों
की तरह

अपने जैसे
दो चारों के
सिर
खुजलाने
के लिये
कुछ
ना कुछ
फालतू
रोज की
तरह का
कह देगा ।

चित्र साभार: The Blogger Times

बुधवार, 4 जनवरी 2017

कविता बकवास नहीं होती है बकवास को किसलिये कविता कहलवाना चाहता है

जैसे ही
सोचो
नये
किस्म
का कुछ
नया
करने की

कहीं
ना कहीं
कुछ ना
कुछ ऐसा
 हो जाता है
जो
ध्यान
भटकाता है
और
लिखना
लिखाना
शुरु करने
से पहले ही
कबाड़ हो
जाता है

बड़ी तमन्ना
होती है
कभी एक
कविता लिख
कर कवि
हो जाने की

लेकिन
बकवास
लिखने का
कोटा कभी
पूरा ही
नहीं हो
पाता है

हर साल
नये साल में
मन बनाया
जाता है

जिन्दे कवियों
की मरी हुई
कविताओं को
और
मरे हुऐ
कवियों की
जिंदा
कविताओं
को याद
किया जाता है

कविता
लिखना
और
कवि हो
जाना
इसका
उसका
फिर फिर
याद आना
शुरु हो
जाता है

कविता
पढ़
लेने वाले
कविता
समझ
लेने वाले
कविता
खरीद
और बेच
लेने वालों
से ज्यादा
कविता पर
टिप्प्णी कर
देने वालों के
चरण
पादुकाओं
की तरफ
ध्यान चला
जाता है

रहने दे
‘उलूक’
औकात में
रहना ही
ठीक
रहता है

औकात से
बाहर जा
कर के
फायदे उठा
ले जाना
सबको नहीं
आ पाता है

लिखता
चला चल
बकवास
अपने
हिसाब की

कितनी लिखी
क्या लिखी
गिनती करने
कोई कहीं से
नहीं आता है

मत
किया कर
कोशिश
मरी हुई
बकवास से
जीवित कविता
को निकाल
कर खड़ी
करने की

खड़ी लाशों
के अम्बार में
किस लिये
कुछ और
लाशें अपनी
खुद की
पैदा की हुई
जोड़ना
चाहता है ।

चित्र साभार: profilepicturepoems.com

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

आओ खेलें झूठ सच खेलना भी कोई खेलना है



प्रतियोगिता झूठ बोलने की ही हो रही है
हर तरफ आज के दिन पूरे देश में
किसी एक झूठे के बड़े झूठ ने ही जीतना है

झूठों में सबसे बड़े झूठे को मिलना है ईनाम
किसी नामी बेनामी झूठे ने ही
खुश हो कर अन्त में उछलना है कूदना है

झूठे ने ही देना है झूठे को सम्मान
सारे झूठे नियम बन चुके हैं
झूठे सब कुछ झूठ पर पारित कर चुके हैं
झूठों की सभा में
उस पर जो भी बोलना है जहाँ बोलना है
किसी झूठे को ही बोलना है

सामने से होता हुआ नजर आ रहा है
जो कुछ भी कहीं पर भी
वो सब बिल्कुल भी नहीं देखना है
उस पर कुछ भी नहीं कुछ बोलना है

झूठ देखने से नहीं दिखता है
इसलिये किसलिये
आँख को अपनी किसी ने क्यों खोलना है
झूठ के खेल को पूरा होने तक खेलना है

झूठ ने ही बस स्वतंत्र रहना है
झूठ पकड़ने वालों पर रखनी हैं निगाहें
हरकत करने से पहले उनको
पकड़ पकड़ उसी समय
झूठों ने साथ मिलकर पेलना है

जिसे खेलना है झूठ
उसे ही झूठ के खेल पर करनी है टीका टिप्पणी
झूठों के झूठ को झूठ ने ही झेलना है

‘उलूक’ तेरे पेट में होती ही रहती है मरोड़
कभी भरे होने से कभी खाली होने से
लगा क्यों नहीं लेता है दाँव
ईनाम लेने के लिये झूठ मूठ में ही
कह कर बस कि
पूरा कर दिया तूने भी कोटा झूठ बोलने का
हमेशा सच बोलना भी कोई बोलना है ।

चित्र साभार: www.clipartkid.com

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

पीटना हो किसी बड़ी सोच को आसानी से एक छोटी सोच वालों का एक बड़ा गिरोह बनाया जाता है

बड़ी सोच का
बड़ा कबीर
खुद को दिखा
दिखा कर ही
बड़ा फकीर
हुआ जाता है


छोटी सोच
बता कर
प्रतिद्वन्दी की
अपने जैसों
के गिरोह के
गिरोहबाजों
को समझाकर
आज किसी
की भी एक बड़ी
लकीर को
बेरहमी के साथ
खुले आम
पीटा जाता है

लकीर का
फकीर होना
खुद का
फकीर को
भी बहुत
अच्छी तरह
से समझ
में आता है

फकीर को
लकीर अगर
कोई समझा
पाता है तो
बस कबीर
ही समझा
पाता है

जरूरी नहीं
होता है तीखा
होना अँगुलियों
के नाखूँनो का
किसी की सोच
को खुरचने के लिये

खून भी आता है
लाल भी होता है
सोच समझ कर
योजना बना कर
अगर हाँका
लगाया जाता है

अकेले ज्यादा
सोचना ही
किसी का
कभी उसी
की सोच
को खा जाता है


बोलने के लिये
अकेले आता है
लेकिन
रोज का रोज
समझाया जाता है

इशारों में भी
बताया जाता है
किताबों खोल कर
पढ़ाया जाता है


एक आदमी
का बोलना
लिखने के लिये
एक दर्जन
दिमागों को
काम में
लगाया
जाता है

छोटी सोच
बताने को
इसी लिये
कोई ना कोई
फकीर कबीर
हो जाता है

बड़ी सोच में
लोच लिये ऐसे
ही फकीर को
बैचेनियाँ
खरीदना
खोदना और
बेचना आता है

आसान होता है
किसी की सोच
के ऊपर चढ़ जाना
उसे नेस्तनाबूत
करने के लिये

एक गिरोह
की सोच
का सहारा
लेकर
किसी भी
सोच का
दिवाला
निकाला
जाता है

जरूरी होता है
दबंगों की सोच
का दबंग होना
दबंगई
समझाने के लिये

अकेले
चने की
भाड़ नहीं
फोड़ सकने
की कहानी
का सार
समझ में
देर से
ही सही
मगर कभी
आता है

‘उलूक’
ठहर जाता है
आजकल
पढ़ते समझते
गोडसे सोचों
की गाँधीगिरी

लिखा लिखाया
खुद के लिये
उसका खुद
के पास ही
छूट जाता है

समझ जाता है
पीटना हो किसी
बड़ी सोच को
आसानी से

एक छोटी
सोच वालों
का एक
बड़ा गिरोह
बनाया जाता है ।

चित्र साभार: Clipart Panda

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

‘उलूक’ गुंडा भी सत्य है और सत्य है उसकी गुंडई भी भटक मत लिख

गुंडे की
गुंडई
होनी ही
चाहिये
अब गुंडा
गुंडई
नहीं
करेगा
तो क्या
भजन
करेगा

वैसे ऐसा
कहना भी
ठीक नहीं है

गुंडे भजन
भी किया
करते हैं

बहुत
से गुंडे
बहुत
अच्छा
गाते हैं

कुछ गुंडे
कवि भी
होते हैं

कविता
करना
और
कवि होना
दोनो
अलग
अलग
बात हैंं

गुंडई
कुछ
अलग
किस्म
की
कविता है

गुंडई
के गीतों
की
धुनें भी
होती हैं
महसूस
भी
होती हैं
कपकपाती
भी हैं

बातें
सब ही
करते हैं

गुंडई का
प्रतिकार
करना भी
जरूरी
नहीं है

क्यों किया
जाये
प्रतिकार भी

जब बात
करने से
काम
निपट
जाता है

गुंडे
पालना
भी एक
कला
होती है

गुंडा नहीं
होने का
प्रमाणपत्र
होना और
गुंडो का
सरदार
होना

एक
गजब
की कला
नहीं
है क्या ?

अखबार
के पन्नों
पर गुंडों
की खबरें
भरत नाट्यम
करती हैं

पता नहीं

पूजा
मंदिर
भगवान
और
गुंडे
कुछ कुछ
ऐसा
जैसे
औड मैन
आउट
करने
का
सवाल

किसे
निकालेंगे ?

सनक की
क्या करे
कोई
किसी की
उस पर
खाली
गोबर सना
गोबर भरा
‘उलूक’
हो अगर

भटक
जाता है
कई बार
कोई
शरमाकर

गुंडो
और
उनकी
गुंडई
पर नहीं
उनके
रामायण
बांंचने की
तारीफ करते
हुए लोगों के
उपदेशों पर

लिखना
इसलिये
भी
जरूरी है
क्योंकि
गुंडा
और
गुंडई
खतरनाक
नहीं
होते हैंं

खतरनाक
होते हैं
वो सारे
समाज के
लोग जो
मास्टर
नहीं होते हैं
पर शुरु
कर देते हैं
हेड मास्टरी
समझाने
और
पढ़ाने को
गुंडई
समाज को।

चित्र साभार: http://i.imgur.com/iWre2oh.jpg

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

आओ धमकायें नया उद्योग लगायें

नये
जमाने
के साथ
बदलना
सीखें

कुछ
उद्योग
धन्धे नये
धन्धों से
अलग
खींच कर

धन्धों के
खेत में
खींच
तान कर
अकलमंदी के
डंडे से सींचें
पनपायें

आओ
धमकायें

धमकाने के
धन्धे से
किसी की
किस्मत
चमकायें

आओ बुद्ध
बन जायें
ऊपर कहीं
बैठ कर
ऊँचाई
अपनी
लोगों को
समझायें

नये नये
उद्योगों
की
लम्बी
लम्बी
कतारें
लगायें

आओ
पीछे कहीं
खड़े खड़े
आगे
चल रहे
को
गलियाएं

आओ
लोगों का
बोलना
बन्द
करवायें

बोलती
बन्द करने
की मशीनें
ईजाद करें
देश आगे
ले जायें

अपना
मुँह खोलें
दांत दिखायें
ना देखना
चाहे कोई
काट खायें

आओ
कटखन्ने
हो जायें
काट खाने
के तरीके
समझें
समझायें

नये नये
काटखाने के
उपकरण
तैयार करें
कटखन्ने
उद्योग
उगायें

आओ
सीखें
सिखाने
वालों से
उनके
समझे
बूझे को

‘उलूक’
की तरह
बकवास
कर कर
लोगों को
ना पकायें

आओ
नये जमाने
के
नये लोगों
के नये
ज्ञान का
लाभ उठायेंं

आओ
खुद के
लिये नहीं
किसी
के लिये
लोगों को
धमकायें
धमकाने के
उद्योग
फलें फूलें
राग धमकी
में ढले
गीत गायें ।

चित्र साभार: WorldArtsMe

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

करने वालों को लात नहीं करने वालों के साथ बात सिद्धान्ततह ही हो रहा होता है

बेवकूफों
की
दिवाली

समझदारों
की
अमावस
काली

बाकी
लेना देना
अपनी
जगह पर

होना
ना होना
होने
ना होने
की
जगह पर
पहले
जैसा ही
होना
होता है
हो रहा
होता है

अवसरवाद
को
छोड़ कर
कोई भी वाद
वाद नहीं
होता है
किसे
इस बात
से मतलब
हो रहा
होता है

किसे
समझाये
आदमी
इस
बात को
जहाँ
आदमी ही
आदमी को
खुद
खुरचता
और
खुद ही
रो रहा
होता है

पानी नहीं
होता है
फिर भी
कोई भी
किसी
को भी
खुले आम
धो रहा
होता है

सारे
हम्माम
बुला रहे
होते हैं
सब कुछ
उतारे
हुओं
को ही
फिर
किस लिये
कोई
उतारा हुआ
कुछ
ओढ़ कर
उधर
घुसने
के लिये
रो रहा
होता है

पढ़ने
पढा‌ने में
किस लिये
लगे हुए हैं
नासमझ लोग

जब
समझदार
कभी भी
नहीं
पढ़ाने वाला
पढा‌ई लिखाई
कराने वालों
की लाईन
बनाने के
लिये लाईने
बो रहा होता है

केवल एक
दो हजार
के नोट
को
निकालने
में लग
रहे होते
हैं जहाँ
सारे
समझदार लोग

लाईन लगा
कर एक
बेवकूफ
ही होता
है जो
हजारों
दो हजार
के नोटों की
लाईन
पर लाईन
अपने घर पर
कहीं लगा कर
सो रहा होता है

समझने
में लगा है
देश
समझदारी
समझदार की
जो हो
रहा होता है
वो हो
रहा होता है

कोई
नया भी नहीं
हो रहा होता है
घर मोहल्ले में
हर दिन
हर समय
हो रहा होता है
चोर के
हाथ में
चाबियाँ
खजानों
की दिख
रही होती हैं

अंधा ‘उलूक’
अलीबाबा के
खुल जा
सिमसिम
मंत्र को
कागज में
लिख लिख
कर कहीं
बिना बताये
जमीन में
बो रहा
होता है

रोना बन्द
हो रहा
होता है
सभी रोने
वालों का
छातियाँ पीटने
वालों का
काला सोना
सफेद ‘सोना’
हो रहा होता है

क्रांतिकारियों
के चित्र और
कहानियों का
उजाला लिये
हाथ में
सर पीटता
अँधेरा कहीं
कोने में रो
रहा होता है ।

चित्र साभार: Dragon Alley Journals - WordPress.com

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

बेवकूफ हैं तो प्रश्न हैं उसी तरह जैसे गरीब है तो गरीबी है



जब भी कहीं कोई प्रश्न उठता है 
कोई ना कोई 
कुछ ना कुछ कहता है 

प्रश्न तभी उठता है 
जब उत्तर नहीं मिलता है 

एक ही विषय होता है 
सब के प्रश्न
अलग अलग होते हैंं 

होशियार के प्रश्न 
होशियार प्रश्न होते हैंं 
और 
बेवकूफ के प्रश्न 
बेवकूफ प्रश्न होते हैं 

होशियार 
वैसे प्रश्न नहीं करते हैं 
बस प्रश्नों के उत्तर देते हैं 

बेवकूफ 
प्रश्न करते हैं 
फिर उत्तर भी पूछते हैं 
मिले हुऐ उत्तर को 
जरा सा भी नहीं समझते है 

समझ गये हैं 
जैसे कुछ का 
अभिनय करते हैं 
बहस नहीं करते हैं 

मिले हुए उत्तर के चारों ओर 
बस सर पर हाथ रखे 
परिक्रमा करते हैं 

समय भी प्रश्न करता है समय से 
समय ही उत्तर देता है समय को 

समय होशियार और बेवकूफ नहीं होता है 
समय प्रश्नों को रेत पर बिखेर देता है 

बहुत सारे 
रेत पर बिखरे हुऐ प्रश्न 
इतिहास बना देते हैं 

रेत पानी में बह जाती है 
रेत हवा में उड़ जाती है 
रेत में बने महल ढह जाते हैं 
रेत में बिखरे रेतीले प्रश्न 
प्रश्नों से ही उलझ जाते हैं 

कुछ लोग 
प्रश्न करना पसन्द करते हैं 
कुछ लोग उत्तर के डिब्बे 
बन्द करा करते हैं 

बेवकूफ 
‘उलूक’ 
की आदत है जुगाली करना 
बैठ कर कहीं ठूंठ पर 
उजड़े चमन की 
जहाँ हर तरफ उत्तर देने वाले 
होशियार 
होशियारों की टीम बना कर 
होशियारों के लिये 
खेतों में हरे हरे 
उत्तर उगाते हैं 

दिमाग लगाने की ज्यादा जरूरत नहीं है 
देखते रहिये तमाशे 
होशियार बाजीगरों के
घर में बैठे बैठे 

बेवकूफों के खाली दिमाग में उठे प्रश्न 
होशियारों के उत्तरों का कभी भी 
मुकाबला नहीं करते हैं । 

चित्र साभार: Fools Rush In