उलूक टाइम्स

रविवार, 19 जुलाई 2020

हनुमान है कलियुग में है सिद्ध होने लगा है इसीलिये उसके किये पर खुद सोच कर लोग व्यवधान नहीं डालते


फिर से
दिखाई देने लगा है 
बिना सोये 
दिन के तारों के साथ 
आक्स्फोर्ड कैम्ब्रिज मैसाच्यूट्स बनता हुआ 
एक पुराना खण्डहर तीसरी बार 
मोतियाबिंद पड़ी सोच के उसी आदमी को 

जिसने
कई पर्दे चढ़ते उतरते देखें हैं 
कई दशक में 
दीमक लगी लकड़ियों वाली खिड़कियों
और दरवाजों को ढाँपते 

रसीदें दुगने तिगने
मूल्यों की सजाते 
फाइलों में ऑडिट कराते 
लाल नीले निशान लगे रजिस्टर सम्भालते निकालते 

धूल पोंछ फिर वापस सेफ में डालते 
अवकाश में चलते चले जाते 
अदेय प्रमाणों को माथे से लगा 
कृतज्ञता आँखों से निकालते 

आते जाते
चश्में चढ़ाते निकालते 
कितने निकल गये जहाँ से 
पैदा कर खुद के लिये कई जमीनों
कई मकानों के मालिकाना हक 

मुँह चिढ़ाते
खण्डहर की दीवार पर
एक निशान बना अपना 
समय को दिखा ठेंगा दिखाते पुण्य के 
जैसे कई पीढ़ियों के बना डालते 

मत देखा कर
झंडों के लिये बने निमित्त 
आँख नाक कान बन्द किये
नारे लगाते मिठाई बाटते 

खण्डहर की खाते 
घर की जब अपने खुद की दुकाने
नहीं सम्भालते 

समझाने लगे हैं
उसी तर्ज पर जब बनाया था मकान नया 
जो उजड़ गया तीन साल में 

वही बातें फिर 
अपने पुराने बटुऐ से फिर उसी फर्जीपने से निकालते 

‘उलूक’ 
खुश रहा कर कमाई पर अपनी 
बिना पैसे
बकवास को तेरी दे रहे हैंं कुछ तरजीह 
क्यों पता नहीं 

किसलिये
तेरे पन्ने को कुछ सिरफिरे 
रहते हैं आगे निकालते।
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चित्र साभार:
https://www.istockphoto.com/
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आभार: ऐलेक्सा।
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 19/07/2020 का
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शनिवार, 18 जुलाई 2020

जमाने को पागल बनाओ


दूर कहीं आसमान में
 उड़ती चील दिखाओ 

कुछ हवा की बातें करो
कुछ बादलों की चाल बताओ

कुछ पुराने सिक्के घर के
मिट्टी के तेल से साफ कर चमकाओ

कुछ फूल कुछ पौंधे
कुछ पेंड़ के संग खींची गयी फोटो
जंगल  हैंं बतलाओ

तुम तब तक ही लोगों के
समझ में आओगे
जब तक तुम्हारी बातें
तुम्हें खुद ही समझ में नहीं आयेंगी
ये अब तो समझ जाओ 

जिस दिन करोगे बातें
किताब में लिखी
और
सामने दिख रहे पहाड़ की

समझ लो कोई कहने लगेगा
आप के ही घर का

क्या फालतू में लगे हो
जरा पन्ने तो पलटाओ

कुछ रंगीन सा दिखाओ
कुछ संगीत तो सुनाओ

नहीं कर पा रहे हो अगर

एक कनिस्तर खींच कर
पत्थर से ही बजा कर टनटनाओ

जरूरी नहीं है
बात समझ में ही आये समझने वाली भी
पढ़ने सुनने वाले को
जन गण मन साथ में जरूर गुनगुनाओ

जरूरी नहीं है
उत्तर मिलेंं नक्कारखाने की दीवारों से
जरूरी प्रश्नों के
कुछ उत्तर कभी
अपने भी बना कर भीड़ में फैलाओ

लिखना कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है
नजर रखा करो लिखे पर

कुछ नोट खर्च करो
किताब के कुछ पन्ने ही हो जाओ

‘उलूक’
चैन की बंसी बजानी है
अगर इस जमाने में

पागल हो गया है की खबर बनाओ
जमाने को पागल बनाओ।

चित्र साभार:
http://www.caipublishing.net/yeknod/introduction.html

सोमवार, 13 जुलाई 2020

लिखा कुछ भी नहीं जाता है बस एक दो कौए उड़ते हुऐ से नजर आते हैं


शब्द सारे
मछलियाँ हो जाते हैं
सोचने से पहले
फिसल 
जाते हैं

कुछ
पुराने ख्वाब हो कर
कहीं गहरे में खो जाते हैं

लिखने
रोज ही आते हैं
लिखा कुछ  जाता नहीं है
बस तारीख बदल 
जाते हैंं

मछलियाँ
तैरती दिखाई देती हैं
हवा के बुलबुले बनते हैं
फूटते चले जाते हैं

मन
नहीं होता है
तबीयत नासाज है
के बहाने
निकल आते हैं

पन्ने पलट लेते हैं
खुद ही डायरी के खुद को
वो भी आजकल
कुछ लिखवाना
कहाँ चाहते हैं 

बकवास
करने के बहाने
सब खत्म हो जाते हैं

पता ही नहीं चल पाता है
बकवास करते करते
बकवास
करने वाले

कब खुद
एक बकवास हो जाते हैं 

कलाकारी
कलाकारों की
दिखाई नहीं देती है

सब
दिखाना भी नहीं चाहते हैं

नींव
खोदते चूहे घर के नीचे के

घर के
गिरने के बाद
जीत का झंडा उठाये
हर तरफ
नजर आना शुरु हो जाते हैं 

‘उलूक’
छोड़ भी नहीं देता 
है लिखना 

कबूतर लिखने की सोच
आते आते
तोते में अटक जाती है

लिखा
कुछ भी नहीं जाता 
है
एक दो कौए
उड़ते हुऐ से नजर आते हैं ।

चित्र साभार:
https://timesofindia.indiatimes.com/

बुधवार, 1 जुलाई 2020

अविनाश वाचस्पति की याद आज चिट्ठे के दिन बहुत आती है श्रद्धाँजलि बस कुछ शब्दों से दी जाती है



चिट्ठों के जंगल में उसने एक चिट्ठा बोया है 
जिस दिन से बोया है चिट्ठा वो खोया खोया है 

चिट्ठे चिट्ठी लिखते हैं कोई सोया सोया है 
चिट्ठी लेकर घूम रहा कोई रोया रोया है 

चिट्ठे ढूँढ रहे होते हैं चिट्ठी चिट्ठी चिट्ठों में छुप जाती है 
पता सही होता है गलत लिखा है बस बतलाती है 

चिट्ठों की चिट्ठी चिट्ठों तक पहुँच नहीं पाती है 
चिट्ठे बतलाते हैं चिट्ठे हैं आवाज नहीं आ पाती है 

चिट्ठों ने देखा है सबकुछ कुछ चिट्ठे गुथे हुवे से रहते हैं 
चिट्ठों की भीड़ बना चिट्ठे चिट्ठी को कहते रहते हैं 

चिट्ठा चिट्ठी है चिट्ठी चिट्ठा है बात समझ में आती है 
चिट्ठे के मालिक की चिट्ठी कैसे कहाँ कहाँ तक जाती है

नीयत और प्रवृति किसी की कहाँ बदल पाती है 
शक्ल मुखौटों की अपनी असली याद  दिला जाती है 

अविनाश वाचस्पति की याद आज चिट्ठे के दिन 
उलूकको बहुत आती  है बहुत आती है ।



गुरुवार, 18 जून 2020

अन्दाज बकवास-ए-उलूक का कुछ बदलना चाहता है


वो जो सच में लिखना होता है 
खुद ही सहम कर पीछे चला जाता है 
कैसे लाये खयाल में किसी को कोई 
कोई और सामने से आ जाता है 
-----------
उस मदारी के लिये बहुत कुछ 
लिख रहें है लोग अपनी समझ से 
कुछ भी लिखे को उसपर लिखा समझ कर 
जमूरा उसका अपनी राय दे जाता है
---------
उसे भी कहाँ आती है शर्म किसी से 
हमाम में ही सबके साथ खिलखिलाता है 
लड़ता नहीं है किसी से कभी भी 
एक भूख से मरा बच्चा ला कर के दिखाता है
---------
शेर और शायरी अदब के लोगों के फसाने होते हैं 
सुना है यारों से 
किसी की आदत में बस 
बकवास में बातों को उलझाना ही रह जाता है
----------
मुद्दत से इंतजार रहता है 
शायद बदल जायेगी फितरत हौले हौले किसी की 
तमन्ना के साथ हौले हौले उसी फितरत को अपनी
धार दिये जाता है
‌‌‌‌‌-------
कुछ नहीं बदलेगा 
कहना ही ठीक नहीं है जमाने से इस समय
जमाना खुद अपने हिसाब से 
अब चलना ही कहाँ चाहता है
--------- 
किसी के चेहरे के समय के लिखे निशानों पर 
नजर रखता है 
अपने किये सारे खून जनहित के सवालों से 
दबाना चाहता है
--------- 

किसी के लिखने और किसी को पढ़ने के बीच में 
बहुत कुछ किसी का नहीं है 
कोई लिखता चलता है मीलों 
किसी को ठहर कर पढ़ने में मजा आता है
---------- 
किसी के लिखे पर कुछ कहना चाहे कोई 
सारे खाली छपने वालों को छोड़ कर 
किसलिये डरता है कोई इतना 
लिखे पर कह दिये को 
घर ले जा कर पढ़ना चाहता है
‌‌‌‌--------- 
कुछ भी लिख देने की आदत रोज रोज 
कभी भी ठीक नहीं होती है ‘उलूक’ 
किसलिये अपना लिख लिखा कर 
कहीं और जा कर 
फिर से दिखना चाहता है।
----- 

चित्र साभार: 

शुक्रवार, 12 जून 2020

गुलामी सुनी सुनाई बात है लगभग सत्तर साल की महसूस कर बेवकूफ स्वतंत्र तो तू अभी कुछ साल पहले ही से तो हो रहा था




देखा
नहीं था
बस
कुछ सुना था

कुछ
किताबों के
सफेद पन्नों
पर

काले से
किसी ने कुछ
आढ़ा तिरछा सा
गड़ा था

उसमें से थोड़ा
मतलब का कुछ कुछ
पढ़ा था

बहुत कुछ
यूँ ही
पन्नों के साथ चिपका कर
बस
पलट 
चला था 

पल्ले ही नहीं
 पड़ा था

ना गुलाम
देखे थे
ना गुलामी
महसूस की थी
कहीं कोई
बंदिश नहीं थी

सब कुछ
आकाश था
चाँद तारों
और
चमकदार सूरज से
लबालब
भरा था

ऐसा
भी नहीं था
कहीं कूड़ा नहीं था

जैविक था
अजैविक भी था
सोच में भी
अलग से रखा
कूड़ादान
भी वहीं था

वैसा ही जैसे
 आज का
अभी का हो
रखा चमका हुआ
नया था

खुल भी रहा था
बन्द
ढक्कन के साथ
हो
रहा था

एक था गाँधी
कर गया था
गुड़ का गोबर
तब कभी

अभी अभी
कहीं कोई कह
रहा था

गाय बकरी भैंस
के दिन
फिर रहे थे
अब
कहीं जाकर

गोबर का
बस और बस
सब गुड़
हो रहा था

लड़का 
लिये छाता  
एक छत से कूदता
दूसरी छत
चाकलेट फेंकता

धूप से बचाता 
नीचे कहीं
राह चलती

एक लड़की

सामाजिक
दूरी बना
खुश
हो रहा था

समय
घड़ी की टिक टिक
के साथ

अन्दर
कहीं घर के
तालाबन्द हो कर
जार जार
खुशी के आँसू
दो चार बस रोज

 दिखाने का
कुछ रो
रहा था

महामारी
दौड़ा रही थी
मीलों
आदमी नंगे पाँव
सड़क पर

नेता
घर बैठ
चुनावी रैलियाँ
बन्द सारे
दिमागों में
बो रहा था

‘उलूक’
गुलामी
सुनी सुनाई बात है
लगभग
सत्तर साल की

महसूस कर
बेवकूफ

स्वतंत्र तो
तू अभी
कुछ साल
पहले ही से
हो रहा था।

चित्र साभार: www.123rf.com

रविवार, 31 मई 2020

मदारी मान लिया हमने तू ही भगवान है बाकी कहानियों के किरदार हैं और हम तेरे बस तेरे ही जमूरे हैं


बहुत से हैं
पूरे हैं

दिख रहे हैं
साफ साफ
कि हैं

फिर
किसलिये
ढूँढ रहा है
जो
अधूरे हैं

क्षय होना
और
सड़ जाने में
धरती आसमान
का अन्तर है

उसे
क्या सोचना

जिसने
जमीन
खोद कर
ढूँढने ही बस

मिट चुकी
हवेलियों के
कँगूरे हैं 

समझ में
आता है
घरेलू
जानवर का
मिट्टी में लोटना
मालिक की रोटी
के लिये

उसके
दिल में भी हैं
कई सारे बुलबुले
बनते फूटते
चाहे आधे अधूरे हैं

 सम्मोहित होना
किसने कह दिया
बुरा होता है

अजब गजब है
नखलिस्तान है
टूट जाने के
बाद भी
सपने

उस्ताद
के लिये
तैयार
मर मिटने के लिये
जमूरे हैं

मर जायेंगे
मिट जायेंगे
हो सकेगा तो
कई कई को
साथ भी
ले कर के जायेंगे

जमीर
अपना
कुछ हो
क्या जरूरी है

जोकर पे
दिलो जाँ
निछावर
करने के बाद

किस ने देखना
और
सोचना है

मुखौटे के पीछे

किस बन्दर
और
किस लंगूर के

लाल काले
चेहरे
कुछ सुनहरे हैं

‘उलूक’
किसलिये
लिखना
लिखने वालों
के बीच
कुछ ऐसा

जब
पहनाने  वाले

उतारने 
वालों से
बहुत ही कम है

सब 

हमाम में हैं
भूल जाते हैं

उनके चेहरे
उनके नकाब
और
उनके
आईने तक

हर किसी के पास हैं

नये हैं
अभी खरीदें हैं

और
जानते हैं

कुछ छोले हैं
और
कुछ भटूरे हैं।

https://steemit.com/

मंगलवार, 26 मई 2020

कब तलक लिखे और कैसा लिखे कोई अगर लिखे कुछ भी का कुछ भी याद ही ना रहे




भड़ास
नदी नहीं होती है

इसलिये
बहती नहीं है

बहते हुऐ
के
चारों ओर
कोलाहल
होता है

लोग
इसीलिये
बकवास
नहीं करते हैं

ऐसा नहीं
कि
नहीं
कर सकते हैं

सकारात्मकता
ही
तो बस
एक
दिखाने की
चीज होती है

लिखे हुऐ की
परीक्षा की जाती है

उसके ऊपर से
आईना फिरा कर
प्रतिबिम्ब
दिखाने के लिये
बचा लिया जाता है

लिखा
फाड़ दिया जाता है
कहना
तो ठीक नहीं है

 मिटा दिया जाता है
होना चाहिये
समय के हिसाब से

प्रतिबिम्ब
छलावा
हो सकता है

सकारात्मक
सोच के हिसाब से

नकारात्मक सोच
उलझी रहती है
प्रतिबिम्बों से

कुछ नहीं
लिख पाना
या
कुछ नहीं
लिखना
एक लम्बे समय तक

या
रोज
कुछ ना कुछ
या
बहुत कुछ
लिख देने में

कोई खास
अन्तर नहीं होता है

अपना
चेहरा ही
जब देखना है
आईने में
तो
क्या फर्क पड़ता है

खूबसूरत
या
सुन्दर से

सब
सुन्दर है
जो रचा गया है

बाकी
भड़ास है
यानि
कि
बकवास

बकवास
के
पैर नहीं होते है
फिर भी
सबसे दूर तलक
वही जाती है

बकवास
करने वाले पर ही
चालिसा
गढ़ी जाती है

सफलता
समझ में आना
या
समझा ले जाना
से
कोसों दूर
चली जाती है

अंधेरी
रात में
शमशान में
कम हो चुके
लोगों की संख्या
से
 चिंतित

‘उलूक’
हमेशा की तरह

मुँह
ऊपर कर
आकाश में टिमटिमाते
तारों में

गिनती भूल जाने
के
वहम के साथ
खो जाने की
अवस्था का चित्र
सोचते हुऐ

चोंच
ऊपर किये हुऐ
पक्षी का योग
 कैसे
किया जा सकता है

सकारात्मकता
के
मुखौटों को
तीन सतह का मास्क
पहनाना
चाहता है।

चित्र साभार: : https://www.npr.org/



सोमवार, 11 मई 2020

उदास चेहरा भी कार्टून में जगह ले लेता है कुछ भी लिखे को व्यंग समझना जरूरी नहीं होता है: ताला बन्दी के बहाने बकवास




उबासी लेता
व्यंग
अवसादग्रस्त है
मगर
मानने को
तैयार नहीं है

उसके
खुद
अपने चेहरे को खींचते हुऐ
दाँत निपोरना
जोर लगा कर हैशा

कुछ
ऐसा अहसास
करा रहा है
जैसे

कलम का लिखा
नहीं
सामने से
कलम का
हाथ में लोटा लिये
दिशा जाना
समझा रहा है

कलम
वैसे भी
अब कहीं
होती भी कहाँ है

कलम
मोक्ष प्राप्त कर
आभासी
हो चुकी है

मुँह के सामने
स्क्रीन पर
बनते लटकते
सफेद पर काले

मशीन के
पूँछ लगे मूषक
के
इशारों पर
घसीटते घिसटते
शब्दों के प्रतिबिम्ब

आभासी
अहम ब्रह्मास्मिं का बोध कर

स्वयं को स्वयं में
आत्मसात कर

मोक्ष प्राप्त कर चुकी
परम आत्मा हो लेने के लिये
उकसा रहा है

बौरा जाने के
मौसमों
और
उसके प्रकार पर

निबन्ध
बाँधने के लिये
सीमाओं को खोल कर

लेखन के बैल
या गाय
को

गले में
उसकी रस्सी लपेट कर
आजाद कर देने के बाद

गोबर से बने
भित्तिचित्रों
जैसे अभिलेखों पर

आँखें गड़ाये
उलूकको भी
इन्तजार है

अच्छे दिनों का

वो
अच्छे दिन
जिनका
अच्छा
मतलब निकाल कर
अच्छा
महसूस कर सके

कुछ
वैसा ही

जैसा
अलसुबह
किसी रोज
गड़गड़ाहट के साथ

पेट के
साफ हो जाने के बाद
होता है।

चित्र साभार:
https://pixabay.com/

शनिवार, 2 मई 2020

सोच कर लिखा नहीं जाता है और बिना सोचे लिखा गया लिखा नहीं होता है साहित्य के बीच में बकवास लिख कर घुसने का भी कोई कायदा होता है




सालों 
गुजर गये 
सोचते हुऐ 

लिखने की 
कुछ

कुछ ऐसा 

जिसका 
कुछ 
मतलब निकले 

लिखना 
आने से 

मतलब 
निकलने वाला 
ही
लिखा जायेगा 

बेमतलब 
की
बात है 

बेमतलब
का 
कई लिख लेते हैं 

भरी पड़ी हैं 
किताबें कापियाँ 
लकीरों से
आड़ी तिरछी 

पर 
मुझ से 
नहीं लिखा गया 
कुछ भी
लिखे जैसा 

आज भी
कोशिश जारी है 

बस 
कुछ दिनों से 
लिखना 
थोड़ा
झिझकते हुऐ 
जैसे
ठिठक गया

समय 
के
ठिठक जाने 
के
कुछ 
एहसासों के साथ 

पढ़ते पढ़ते 
बेमतलब का 
लिखा हुआ 
हर तरफ 

मतलब
का 
मतलब
क्या होता है 
वही
समझना रह गया

अपनी अपनी
समझ 
अपना अपना
पढ़ना

इसकी बकवास 
उसके लिये
साहित्य

उसका
साहित्य 
इसके लिये
बकवास

रद्दी 
खरीदने वाले के लिये
बकवास
भी रद्दी
साहित्य
भी रद्दी 

ना गाने वाले के लिये
गर्दभ राग ही बस राग 

लिखना
क्या है 
लिखने
से क्या होता है 
पता होना
मगर
शुरु हो गया 

लिखना है 
लिखना समझना है 
जब तक शुरु होता 

दौड़ना 

दिखना
शुरु हो गया 

दौड़ना 

लिखे हुऐ
को 
हाथ में लेकर 

एक दो तीन 
होते होते 

भीड़ 
दिखनी
शुरु हो गयी 
लिखा लिखाया
पीछे रह गया 

हर कोई 
दौड़ रहा है 
दिखने लगा 

लिखा लिखाया है 
हर कोई कह रहा होता है 
बस वही
दिखाई
नहीं दे रहा होता है 

लिखने
का
मतलब 
बस
साहित्य होता है 

चिल्ला
रहा होता है 

थोड़ी 
देर के बाद 

एक झंडा 
साहित्य
लिखा 

कोई
सड़क से 
दूर बहुत दूर 
कहीं किसी बियाबान में 
बंजर खेत की ओर लहराता दौड़ता 

एक
लिखने वालों की भीड़ से ही
निकल गया होता है 

कुछ भी लिखा 
साहित्य नहीं होता है 

साहित्य
बताने का फार्मूला 
साहित्यकार
की मोहर 
हाथ की कलाई में 
लगे हुऐ के
पास ही होता है 

साहित्य 
नहीं लिख 
सकने वाले को 
लिखना
ही
नहीं होता है 

ठेका 
किसका 
किसके पास है 
पूछ
लेना होता है 

‘उलूक’ 
रात के अंधे को 
दिन की बात में 
दखल नहीं देना होता है 

कविता कहना 
गुस्ताखी होगी 

मगर 

लम्बी 
कविता का
फार्मेट 

और 
बकवास 
करने का फार्मेट 

लगभग
एक जैसा ही होता है ।
चित्र साभार: http://clipart-library.com/

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

पढ़ता कोई नहीं अपनी आँखों से सब पढ़ कर कोई और सुनाता है



बकवास करने में
कौन सा क्या कुछ चला जाता है 
फिर आजकल
कुछ कहने सुनने क्यों नहीं आता है 

सूरज रोज सुबह
और चाँद शाम को ही जब आता है 
अभी का अभी लिख दे
सोचने में दिन निकल जाता है 

खबरें बीमार हैं माना सभी
अखबार बीमार नजर आता है
नुस्खा बकवास भी नहीं होती
 बक देने में क्या जाता है 

ताला लगा है घर में
दिमाग बन्द हुआ जाता है 
खुले दिमाग वालों को
भाव कम दिया जाता है 

थाली में सब है
गिलास में भी कुछ नजर आता है 
भूख से नहीं मरता है कोई
मरने वालों में कब गिना जाता है 

सब कुछ लिखा होता है चेहरे पर
चेहरा किताब हो जाता है 
पढ़ना किस लिये अपनी आँखों से
सब पढ़ कर कोई और सुनाता है 

बकवास हो गया खुद एक ‘उलूक’
बकवास करना चाहता है 
खींचते ही लकीरों में चेहरा कविता का
मुँह चिढ़ाना शुरु हो जाता है।
चित्र साभार: https://favpng.com/

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

डरना मना है /जो डर गया सो मर गया/ डरना है/ डर के आगे जीत है


रोज के डरे हुऐ के लिये 
कोई नयी बात नहीं है एक नया डर
या फिर हमेशा के कुछ
पुराने कई छोटे छोटे अनेक डर 

या
भयानक बड़ा सा एक डर

घेर कर डराने की कला में माहिर
एक डरे हुऐ के पैदा किये हुऐ डरों से डरते
सारे डरे हुऐ घिर गये हैं
डरों के खण्डहरों के अन्दर की
चाहरदीवारों के बीच कहीं

घर घर खेलने बुनने के आदेश का पालन
करने की जुगत लगाते हुऐ
खिसियाये नहीं हैं हर्षित हैं
बाँट रहे हैं खुश्बूदार फूलों से
लबालब भरी टोकरियों के भड़कीले चित्र

जिनके नीचे से किसी कोने में दुबका हुआ है अंधा हो चुका
काला चश्मा लगाया हुआ डर

सब पर सब कुछ लागू नहीं होता है
निडर होना दिखाना निडर होना
अलग अलग पहलू हैं

मृत्यु शाश्वत है
समय निर्धारित है आस्तिकों के लिये
नास्तिक होना गुनाह नहीं है

डर पर निडर के मुखौटे चिपकाये
सकारात्मकता के लबादे ओढ़े
मौसमी संतों के प्रवचनों के संगीत से उछलती
टी आर पी से

पेट में भरे पानी में बनती उर्मियों का
साँख्यिकी में कोई उपयोग होता है अनसुना है

ऐसे ही एक एक कर डरे हुओं का जमा होना
इशारों इशारों में किसी डरे हुऐ के
डरे सिपाहियों की फौज से
टकराने निकल पड़ना
पकड़ कर अपने अपने खाली हवा भरे पेट
गलत कहाँ है

ऐसे में ही
एक भरे पेट को शिकायत होना
दूसरे भरे पेट से
कुछ करते क्यों नहीं
का
उलाहना देना 


आप ही बता दीजिये
पेट दर्द में मालिश से हवा निकालने की दवा
 
एक जम्हाई के साथ शट डाउन का बटन का दबना
और फिर नींद का आ जाना

अपने डर तू भी निकाल ले ‘उलूक’
माहौल बना बनाया है
फिर क्या पता कब शुरु हो अगली बार
निडरों की जमात का ये खेल
डरना मना है डर के आगे जीत है वाला।

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

बुधवार, 25 मार्च 2020

उड़ नहीं रहा होता है उड़ाया जा रहा होता है पंछी नहीं हो रहा होता है एक ड्रोन हो रहा होता है



पंख
निकले होते
हौले हौले

फैल कर
ढक लेते
सब कुछ

आँचल
की तरह

उड़ने
के लिये
अनन्त
आकाश में

दूर दूर तक
फैले होते

झुंड नहीं होते

उड़ना होता
हल्के होकर

हवा की लहरों से
 बनते संगीत के साथ

कल्पनाएं होती
अल्पनाओं सी

रंग भरे होते
असीम
सम्भावनाएं होती

ऊँचाइयों
के
ऊपर कहीं

और
ऊँचाइयाँ होती

होड़
नहीं होती
दौड़
नहीं होती

स्वच्छंद होती
सोच
भी उड़ती
 

पंछी होकर
कलरव करती 


पंख लगाये
उड़ते तो हैं

ऊपर
भी होते हैं

पर
ज्यादा
दूर 

नहीं होते हैं

बस
घूम 

रहे होते हैं

धुरी
कहीं होती है

जैसे
जंजीर
बंधी होती है

आँखे
होती तो हैं

देख मगर
कोई और
रहा होता है
उनकी आँखों से

दूरबीन
हो गयी होती हैं

शोर
हो चुकी होती हैंं
 संगीत
नहीं होती हैं

बस
आवाजें
हो लेती हैं

 उड़ना
होता तो है

लेकिन
उड़ा
कोई और
रहा होता है

कहना
भी होता है

मुँह
बड़ा सा
एक मगर

दूर कहीं
से

कुछ कह
रहा होता है

देखता
सा लगता है

पर
देख

कोई और
रहा होता है

  समझा कर 

‘उलूक’ 

विज्ञान
के युग का

एक अनमोल
प्रयोग

हो
रहा होता है

उड़
एक भीड़
रही होती है

चिड़िया
होकर उड़ती
अच्छा होता

पर
हर कोई

किसी एक
का एक

ड्रोन
हो
रहा होता है

उड़ नहीं
रहा होता है

बस

उड़ाया
जा
रहा होता है । 

चित्र साभार: https://www.gograph.com/

मंगलवार, 24 मार्च 2020

गले गले तक भर गये नहीं कहे जा रहे को रोक कर रखने से कौन सा उसका अचार हो लेना है


मन 
पक्का करना है बस
सोच को
संक्रमित नहीं होने देना है

भीड़ घेरती ही है
उसे कौन सा 
अपनी सोच से कुछ लेना देना है

शरीर नश्वर है
आज नहीं तो कल मिट्टी होना है

तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा
की 
याद आ रही हो सभी को
जब नौ दिशाओं से

ऐसे माहौल में
कुछ कहना जैसे ना कहना है

सिक्का उछालने वाला बदलने वाला नहीं है

चित भी उसकी पट भी उसकी
सिक्का भी उसी की तरह का

जिसे हर हाल में
रेत नहीं होने के बावजूद
सन्तुलन दिखाते मुँह चिढ़ाते
सीधा बिना इधर उधर गिरे खड़ा होना है

सकारात्मकता का ज्ञान दे रही
खचाखच हो गयी भीड़ की
चिल्ल पौं के सामने
कुछ कह देना

अपनी इसकी और उसकी 
की
ऐसी की तैसी करवा लेने का लाईसेंस
खुद अपने हस्ताक्षर कर के दे देना है

छोड़ क्यों नहीं देता है 
पता नहीं
‘उलूक’
बकवास करने के नशे को किसी तरह

गले गले तक भरे कबाड़ शब्दों को 

कौन सा
किसी सभ्य समाज के 
सभ्य ठेकेदार की 
खड़ी मूँछों को तीखी करने वाले 
तेल की धार हो लेना है ?

चित्र साभार:

शनिवार, 14 मार्च 2020

लगी आग लगाई आग कुछ राख कुछ बकवास कुछ चिट्ठाकारी




समझ में
जब

खुद के
ही
नहीं आती है

लगाई गयी आग
और
लगी आग
से
बनी राख

तो
किस लिये
भटकता है
औघड़

ढूँढने
के लिये
लकड़ियाँ
माचिस का डब्बा
और
गंधक लगी
छोटी छोटी
तीलियाँ

हुँकार कर
आँखें
लाल रक्त
से भर
और
फूँक दे
शँख

रक्तबीज
अंकुरित हैं
हर समय
हर दिशा में

विषाणु
को
कोई भी
नाम दे दो
अच्छा है

कत्ल
करने का
शरीर के साथ
आत्मा
का

के 
विश्वास
के
दंभ के आगे
कुछ नहीं
दंभ के पीछे
कुछ नहीं

दंभ
बनेगा राम
बना
करता होगा
रावण
कहानियों का

कई किस्म के
 बीमार हैं
बीमारियाँ भी
कम नहीं हैं

शरीर
कई मिटते हैं
मिटते रहेंगे

आत्मा
सड़ी
सबसे
खतरनाक है

तैर लेती है
समय के साथ
फाँद लेती है
मीनारें

बहुत
कठिन समय है
विषाणु
बैठ चुका है
कई साल पहले
सिंहासन पर

सम्मोहित
करता है
लोग
होते भी हैं
सम्मोहित

मर भी जाते हैं
बस
जलाये
या
दफनाये
नहीं जाते हैं

तैरते हैं
अभी भी
समय के साथ

आदमी
भ्रम से पार
नहीं पायेगा
जरूरत भी नहीं है

संपेरों
के
देश के साँप
और
बीन लिये
सपेरे
काफी हैं
संभालने के लिये
देश

साँप फुफकारे

जय हिन्द
वन्दे मातरम
भारत माता की जय
इस से बड़ा
 आठवाँ आश्चर्य
बताइये कोई

‘उलूक’
तेरी तरह का
कोई
पढ़ेगा जरूर

अच्छा होता है
लिख कर
कुछ बकवास

फिर
सो जाना
सूखे पेड़ की ठूँठ पर

आँख
खोल कर
हमेशा की तरह ।

 चित्र साभार: https://www.livehindustan.com/uttar-pradesh/badaun/story-snake-punished-snake-charmer-called-snake-2769083.html

बुधवार, 11 मार्च 2020

लिखा सबका नहीं फैलता है कागज पर कुछ का बहता चला जाता है सलीके से: यूँ ही एक खोज



खुलता रोज है
एक पन्ना
हमेशा

खुलता है
उसी तरह

जैसे
खोला जाता है
सुबह

किसी
दुकान का शटर

और
बन्द
कर दिया जाता है
शाम को
आदतन

पिछले
कई दिनों से

तारीख
बदल रही है
रोज की रोज

मगर
कलम है
लेट जाती है
थकी हुयी सी
बगल में ही
सफेद पन्ने के

सो जाती है
आँखे
खुली रख कर

देखने के लिये
कुछ
रंगीन सपने
गलतफहमी के

लिख सके
कुछ
सकारात्मक सा

फजूल
बक बक करते करते
सालों हो गये हों जब

लिख दिये होंगे
अब तक तो
सारी अंधेरी रात के
सारे कालेपन

सोच कर
कुछ नयापन
कुछ पुराना
बदलना चाह कर

अपनी
जीभ का स्वाद
ढूँढने
निकल पड़ती है
नींद में

कुछ नया
खुली आँखों से
देखते देखते
ओढ़े हुऐ
सकारात्मकता

फैली हुयी
भीड़ के
चेहरे दर चेहरे

भीड़ दर भीड़
पढ़ाती
एक भीड़
अकेले

अकेले को
अलग

अलग
बनाने के लिये
एक भीड़

भीड़
जो
बहुत जरूरी
हो गयी है आज

सारे चेहरे
लहाराते हुऐ
ओढ़ी
सकारात्मकता

जो ढक लेती है
पूरी भीड़ को
बदल जाती है
सारी परिभाषाऐं
बहती हुई
भीड़ के अंदर अंदर

दूर
किसी
ठूँठ पर बैठे
अन्धेरे में

आँखे
चौंधियाता
उलूक
प्रकाशमान
होता हुआ

कलम की
नोक से
कुरेदते हुऐ
अपने दाँतो के बीच
ताजी नोची लाश के
चिथड़े को

खुश
हो कर
काम आ गयी
कलम की नोक पर

अपनी
पीठ ठोक कर
अपने को खुद
दाद देता

नकारात्मकता
को
लीप देने के लिये

समय के गोबर
और
मिट्टी के साथ
अपने
चारों तरफ

और
मदहोश होता
खुश्बू से
फैलती हुई

मानकर
कुछ भी लिखा
इसी तरह
फैलता
चला  जाता है

बहता
नहीं है
निर्धारित
रास्ते पर ।

चित्र साभार:
 https://www.graphicsfactory.com/

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2020

ऐरे गैरे के लिखे ऐसे वैसे को काहे कहीं भी यूँ ही उठा कर के ले जाना है अलग बात है अगर किसी को कूड़ा घर घर पर ही बनाना है

जरूरी है
घिसना
चौक
काले श्यामपट
पर

पढ़ाना
नहीं है
ना ही कुछ
लिखना है

कुछ लकीरें
खींच कर
गिनना
शुरु
कर देना है

कोई
पूछे अगर
क्या
गिन रहे हैं
शर्माना नहीं है

कह देना है
 मुँह पर
ही

लाशें

किसकी
कोई पूछे
तो
बता देना है

अपने
घर के
किसी की
नहीं है

मातम
कहीं
दिख रहा हो
तो
पूछने
जरूर जाना है

कौन
मरा है
जात
सुनना है
 और
अट्टहास करना है
खिलखिलाना है

बातें
करना है
 मन की मन
से
जरूरी है
इधर उधर
ना जाना है
 मन की
बातों से
छ्नी बातों को
रास्तों में बिछाना हैं

अपने बनाये
भगवान के
गुण गाना है

घर का
कोई नहीं मरा है
सोच कर
 तालियाँ बजाना है

‘उलूक’
उल्लू के पट्ठे
के
लिखे लिखाये
के
चक्कर में
नहीं
 पड़ना है

अपना घर
अपनों से

बस

आज
बचाना है ।
चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com/corpse-5001351.html

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2020

उलूक पागल है है कब नहीं माना फिर भी किसलिये पागल सिद्ध करने के लिये पागल सरदार का हर पागल अपने खोल से बाहर निकल निकल कर आ रहा है


वैसे भी

कौन
लिख पाता है
पूरा सच

कोशिश

सच की ओर
कुछ कदम
लिखने की होती है

कोशिश जारी
रहती है
जारी रहनी चाहिये

आप लिख रहे हैं
लिखते रहें

आपके लिखने
ना 

लिखने से
किसी को
कोई फर्क
नहीं पड़ता है

हाँ
ज्यादा
मुखर होने से
कुछ समय बाद

आपको महसूस
होने लगता है
सच आप पर ही
भारी पड़ रहा है

आप कौन है

होंगे कोई

आपके गले में

कोई पट्टा
अगर
नहीं दिख रहा है

पट्टे डाले हुऐ

गली के
इस कोने से
लेकर उस कोने
तक

दिखेगा

आपसे
कुत्तों की तरह
निपट रहा है

इन्सान मत ढूँढिये
अब कहीं

ढूँढिये
कोई हिंदू
कोई मुसलमान

अगर आप को
किसी भी कोने से
दिख रहा है

खुद कुछ भी
नहीं सोचना है

ध्यान से सुनें

खुद
 कुछ भी नहीं
सोचना है

सियार की तरह
आवाज करने की
कोशिश में

कुत्ते के गले से
निकलती हुई
आवाज

हुआ हुआ
की ओर
ध्यान लगा कर

कोई आसन
कोई योग
सोचना है

घर छोड़ चुके हैं
लोग

ना जाने क्यों

घर में रहकर
भी
लग रहा है

उन्हें
क्या करना है

किसलिये
देखनी  है

मोहल्ले की गली

अरे हमें तो
देश के लिये
बहुत ही आगे

कहीं और
निकलना है

क्या करे

पागल ‘उलूक’

उस के लिखते ही

हर गली का पागल

उसे पागल
सिद्ध
करने के लिये

अपने पागल
सरदार की
टोपी 


हाथ में
लहराता हुआ 

सा
निकल रहा है।

चित्र साभार:
https://graphicriver.net/item/psycho-owl-cartoon/11613131

मंगलवार, 28 जनवरी 2020

समझना जरूरी नहीं होता है हमेशा पागलपन



एक
लम्बे अर्से तक टिक कर 
अघोषित अर्धविक्षिप्तता के अंधेरे में 
की गयी बड़बड़ाहट को 

सफेद कागज के ऊपर 
काले अक्षरों को भैंस बराबर 
देखते समझते जानबूझ कर 
रायते की तरह फैलाने की कोशिश 
जरूर कामयाब होती है 

एक नहीं 
कई उदाहरण सामने से नजर आयेंगे 
जरूरत प्रयास करने की है 

अब 
कौन विक्षिप्त है कौन अर्धविक्षिप्त है 

ये 
तरतीब से पहने हुऐ कपड़े 
या दिखायी जा रही अच्छी आदतों से 
बताया जा सकता है या नहीं 
अलग प्रश्न पत्र का प्रश्न है 

फर्क
बस कोण का होता है 
होती हर किसी में है 
ये पक्का है 

पर
पैमाना किसका है 
और
नापा क्या जा रहा है 
ज्यादा महत्वपूर्ण है 

पहले पहले चलना सीखते 
सड़क से बाहर उतर जाना 

उसी तरह का है 
जैसे उछलते कूदते फाँदते 
बड़बड़ाहट के शब्दों का 
कलम से निकलते निकलते 
फिसल कर कागज से बाहर हो जाना 

और
बचा रह जाना 
बस शब्दों की छीलन का कागज पर 

नहीं आयेगा समझ में 

क्योंकि
नहीं समझ में आया ही 
बदल जाता है होंठों के बीच 
दाँतों से निकलती हवा में 

रह जाती हैंं कुछ आवाजें 
फुस्स फिस्स
जैसी 

और
आवाजों के अर्थ 
किसी शब्दकोष में 
कहाँ पाये जाते हैं 

‘उलूक’ 
पागल पागल होते हैं 
पागल कैसे बनायेंगे किसी को 

समझना
जरूरी नहीं है 
हमेशा पागलपन। 

चित्र साभार: