उलूक टाइम्स: 2025

सोमवार, 4 अगस्त 2025

फिलम साधू साधू -दो


 पिछला 
साधू साधू 
अभी कोई समझ नहीं पाया 
तू दूसरा एपिसोड 
साधू साधू का ले कर के क्यों आया 

तेरा
कुछ नहीं हो सकता है कालिये 
कुछ भी लिखने की आदत से 
बता रहे हैं
हजूर 
खुद को निकालिए 

आज खबर में
एक साधू दिख रहा है 
सारा मीडिया साधू के खिलाफ 
लिखा लिखाया कुछ बक रहा है 

जनता को वैसे भी 
कुछ समझ में नहीं आता है 
उसे तो बस वोट देते समय 
एक दाड़ी वाला साधू
सामने से नजर आता है 

लिखना सबको आता है 
कोई कहानी लिखता है 
कोई एक अपने  लिखे  कूड़े को 
कविता है बताता है 

कौन पढ़ने आता है कौन नहीं आता है 
पेज हिट गजब की चीज होती है 
बकवासी के लाखों हो गए होते हैं 
वो बताने में इतराता है 

एक कथावाचक की कहानी 
टी वी आज चला रहा है 
जनता रस ले रही है 
सबको मजा आ रहा है 

जय श्री राम वाले 
जय श्री राधे जय श्री कृष्णा 
अब सुना रहे हैं 
दाड़ी बाबा को नई कहानी सुना रहे हैं 

बकवासी 
बकवास करने से बाज नहीं आ रहा है 
अंधा रात का 
दिन की कहानी 
यहां किसलिए लेकर के आ रहा है 

बूझिए कभी 
लिखने पढ़ने में कौन सा जो हो जा रहा है 
‘उलूक’ भी
बकने से कौन सा बाज आ रहा है  

चित्र साभार:
https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 2 अगस्त 2025

नागा बाबा होना साधू साधू से अच्छा होता है का मतलब समझ में आ जाता है

 

सारे साधू एक ही होते हैं
पता चल जाता है
एक साधू साधू की खबर
खुद अपने पैसे दे कर
अखबार में छपवाता है
साधू साधू
किसलिए कहा जाता है
तब समझ में आता है
जब टाई पहना हुआ एक साधू
सामने से आके
आपसे हाथ मिलाता है
और मुस्कुराता है
साधुओं से मिलकर
अंतरात्मा खुश ही नहीं तृप्त हो जाती है
साधू ही धर्म होता है
साधू ही जाति होती है
साधू ही मानवता होती है
साधू ही कृष्ण साधू ही राम हो जाता है
सबसे बड़ा साधू
आपके आस पास ही होता है
साधू साधू खेलता है
आपको पता ही नहीं चल पाता है
हम सब कितने भ्रमित होते हैं
कहां जा रहे होते हैं
क्या कर रहे होते हैं
साधू हमें भटकने से बचाता है
समय बदल गया है
साधू इसे भी समझाता है
साधू साधू जपिए
फायदे  गिनाता है
साधू की एक मुहिम होती है
कुछ भी कर ले जाने के लिए
किसी भी एक साधू को
तीर बनाता है
एक साधू धनुष हो जाता है
एक साधू अर्जुन हो जाता है
एक साधू मछली की आंख हो जाता है
साधू साधू है
सभी साधुओं के लिए
‘उलूक’ को गर्व है
कलयुगी ऐसे सारे साधुओं में
उसे नागा बाबा होना
साधू साधू से अच्छा होता है
का मतलब समझ में आ जाता है |

चित्र साभार:
https://www.vecteezy.com/

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

नमी का धुआं धुआं सा हुआ है जैसे भी हुआ है

फिर से टपकने लगी हैं बूंदें
सूखी कलम से
न जाने ऐसा क्या हुआ है

रेत के सन्नाटे ने भी करवट ली है
कुछ धूल सी उड़ी है
ऐसा क्यों हुआ है

हुआं हुआं बरसों हो गए हैं सुने
शहर के जंगलों में फिर कुछ हुआ है
कितना हुआ है

शब्द डगमगाते लगे हैं
कागज में चले हैं आभास कुछ हुआ है
खाली बोतलों ने कुछ कहा है
कैसे कुछ हुआ है

पागल हो चुका है कोई
पागलपन नापने का थर्मामीटर
 कहीं 
कल ईजाद ही हुआ है
कितना हुआ है 

टपकेगा आसमान से पानी सुना है
अभी बादलों के बीच में
कोई समझौता हुआ है
कहां पर हुआ है

पन्ने भरें हैं लिखे हुए से
पढ़ दी गई हैं किताबें सारी
फिर से लिखने को कहा है
किसने कहा है किससे कहा है
किसका लिखना अपना सा हुआ है

चू लेता है ‘उलूक’ भी 
यूं ही घिसते घिसते
कहीं किसी छिद्र से गीला भी 
हुआ है
 नमी का धुआं
धुआं सा हुआ है जैसे भी हुआ है |

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

मंगलवार, 29 जुलाई 2025

मगर आज गांधी खुद अपनी ही लकड़ी लेकर भी खड़ा हो नहीं पाता है



लिखने में खुद के भगवान फूंकता है
और वो पसर भी जाता है
कोई ढूंढे मशाल ले कर के इंसान
मगर दूर तक नजर नहीं आता है

बड़ी शिद्दत से लिख कर
शब्दों में आईने उतार लाता है
अफसोस उसका खुद का चेहरा
कलम की रोशनाई में डूबा रह जाता है

दर्द गम खुशी सब होते हैं
लबालब भी होते हैं और छलकते भी हैं
अपने हिसाब से समय देखकर
लिखने वाले के बटुवे में
आंख कान मुंह ही केवल
और केवल बंद नजर आता है

पाठक का अपना ही होता है ईश्वर
पढ़ते समय वो अपने  साथ ले 
ही आता है
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान
गाने के बोल लब से फिसलते हैं मगर
आज गांधी खुद अपनी ही लकड़ी लेकर भी
खड़ा हो नहीं पाता है

इतनी बेशर्मी भी अच्छी नहीं ‘उलूक’
जब समझना सब कुछ के बाद भी
नासमझी से
झूठ की वैतरणी को पार किया जाता है | 

चित्र साभार: https://in.pinterest.com/

रविवार, 27 जुलाई 2025

चिट्ठों और चिट्ठाकारों का क्या होगा



लिख ले कुछ अब अपने भी करतब
सोच नहीं सलाहकारों का क्या होगा
छिप लेंगे कुछ खबरों के पीछे
उस्तादों के व्यापारों का क्या होगा
तूती बोल रही जब करतूतों की
कालजयी सरोकारों का क्या होगा
परदे के पीछे खेल रहे खुद धागे
कठपुतली के व्यभिचारों का क्या होगा
किसने लिखनी है कलियुग में रामायण
धनुष यज्ञ के किरदारों का क्या होगा
छोटे छोटे कतरे लेखक के गोलक के
फूटी किस्मत के दरबारों का क्या होगा
हर रस का व्यापार रसीले सब व्यापारी
‘उलूक’ करता चल बकवास बिना सोचे
चिट्ठों और चिट्ठाकारों का क्या होगा

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

बुधवार, 23 जुलाई 2025

हरी बूंद सावन के अंधे को ललचाती है

वो कहते हैं
तुम्हारी खींची लकीरों के
ना तो सिरे होते हैं ना होती है पूंछ
कोई क्या मतलब निकाले
कुछ निकलता ही नहीं
शब्दकोश भी सो जाता है ऊंघ

शब्दकोश भी सो जाता है ऊंघ
आंखों के परदों पर जमने लगती है हरी बूंद
हरी बूंद सावन के अंधे को ललचाती है
दिखने भर की हरी दिखती है
सावन के हरे को खा जाती है

वो भी हरा दिखाता है
हरे भरे से सबको भरमाता है 
कौन देखता है उसको कौन सोचता है उसको
उसके हरे के भरे से मन भरता है भरता  जाता है

मन भरता जाता है
इतना भरता  है कि बहने लगता है हरा हरा 
भरे की बाढ़ आ जाती है 
हरे की पांचों अगुलियां घी में होती हैं 
कढ़ाई लबालब लेती है सारा हरा तुम्हारा चूस

लेती है हरा तुम्हारा चूस मजा तुमको भी आता है
सारी दुनियां एक तरफ हो जाती है
हरा फेंकने वाला हर हरे में छा जाता है
हरा लीलता है भरे को पता जब तक चलता है
हरा खुद नौ दो ग्यारह हो जाता है दबा कर पूँछ 

समझ में नहीं आ रही है लकीर कहता हुआ
लकीर कोई पीट ले जाता है
लकीर को पीट ले जाता है फकीर बहुत याद आता है 
हरा फेंकने वाला  दिमागों दर शरीर छा जाता है

‘उलूक’ छोड़ता नहीं है लकीरें खींचना खीचता जाता है
फकीर लगा रहता है पीटने में लकीरें
उस तरफ देखना किसने है
देश सामने से आ आंखों में छा जाता है |

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शनिवार, 19 जुलाई 2025

शेख ही जब गुबार हो गया है

ताजा है खबर
पानी सारे जहां का सुथरा और साफ हो गया है
घिसा गया है इतना शरीर दर शरीर
उसे आदमी आदमी याद हो गया है

कुछ धुला है कुछ घुला है कुछ तैरा है कुछ बह गया है
कुछ चक्कर लगाकर लगाकर भंवर में उस्ताद हो गया है

गिन लिए गए हैं तारे आसमान के एक एक करके सारे सभी
बारह का पहाड़ा ही लेकिन बस एक इतिहास हो गया है

आस्था के सैलाब जर्रे जर्रे पर लिए खड़े हैं विशाल बेमिसाल झंडे
विज्ञान को अपने अज्ञान का होना ही था आभास विश्वास हो गया है

रेत पर खींच दी गई लकीरें ज़ियादा समझ ले रहे हैं अब लोग
शब्द ढूंढ रहे हैं रोजगार बाजार भी कुछ बेज़ार हो गया है

‘उलूक’ ताकता रह आसमान की ओर लगातार टकटकी लगा कर
कारवां किसलिए सोचना हुआ अब यहाँ शेख ही जब गुबार हो गया है |

 चित्र साभार:
https://www.dreamstime.com/

बुधवार, 9 जुलाई 2025

छील कुछ दिखा कुछ हाथी के ही सही


कुछ
बक बका दिया कर
हर समय नहीं भी 
कभी
किसी रोज

चाँद
निकलने से पहले
या सूरज डूबने के बाद

किसने
देखना है समय
किसने सुननी है बकबास
जमीन में बैठे ठाले
मिट्टी फथोड़ने वाले से

उबलते दूध के उफना के
चूल्हे से बाहर कूदने के
समीकरण बना
फिर देख

अधकच्चे
फटे छिलकों से झाँकते
मूंगफलियों के दानों की
बिकवाली में उछाल

सब समझ में
आना भी नहीं चाहिए

पालतू कौए का
सफेद कबूतर से
चोंच लड़ाना भी 
गणित ही है

वो बात अलग है
किताब में
सफेद और काले पन्नों की गिनतियाँ
अलग अलग रंगों से नहीं गिनी जाती हैं

इसलिए
उजाले में ही सही निकल कोटर से

दांत
ना भी हों फिर भी
छील कुछ
कुछ दिखा 
हाथी के ही सही

 ‘उलूक’
मर गया और मरा हुआ
दो अलग अलग बातें हैं |

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

गुरुवार, 26 जून 2025

शुभकामनाएं जन्मदिन की पाँच लिंक्स

 

चिट्ठियाँ ना जाने कब का सो गयीं
या शायद रास्ते में कहीं खो गयीं
लेकर के झोले डाकिए दिखते तो हैं 
कुछ सामान शायद अभी भी बिकते तो हैं
चिट्ठे होश खो रहे हों जैसे
चिट्ठाकार कुछ बेहोश हो रहे हों जैसे
कलम हाथ में रहती है जैसे
जुबां तक फिसल कर बात बस बहती है जैसे
कहीं कुछ नशा है कहीं कुछ जहर है
पर है कुछ कहीं मीठी सुबह मीठा दोपहर है
अपने में मगन है अपने ही शगुन हैं
सिमटते गाँव घर सड़क नदी सिमटते हुए शहर हैं
बैचेन जानवर हैं पंछी नदारत हैं
हवा बहक रही हो जैसे उदास सी कुछ इमारत है
फिर भी उठाता है कोई कभी किसी को
जगाता है नींद से यूं ही कोई कहीं किसी को
लिखने लिखाने की बातें इधर से उधर से
उठा कर जमा कर एक चौपाल पर कब से
लाता बताता जागते रहो कि आवाज सुनाता किसी को
शुभकामनाएं 'उलूक' की इसको उसको सभी को
जन्मदिन मनाता "पाँच लिंकों का आनंद"
साथ में रथयात्रा का निमंत्रण दे जाता है सबको

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

    शनिवार, 11 जनवरी 2025

    जद्दोजहद होने ना होने के बीच

     



    अभी उसने बताया तुम हो 
    समझाया भी खरा खरा  होने का मतलब 
    अच्छा महसूस हुआ 
    नहीं होने से होने तक पहुंचना 
    बहुत बड़ी बात लगी 
    समझ में भरा था  सभी होते हैं होते ही होंगे 
    उन सभी में हम भी होते हैं 
    ये किसी ने कभी नहीं बताया 
    बहुत बहुत धन्य महसूस किया
    धन्यवाद दिया उसे 
    कितना ख्याल रखते हैं लोग 
     बता देते हैं बिना लाग लपेट होने का मतलब 
    महसूस भी करा देते हैं बहुत अच्छी तरह होना 
    अब उसने बताया का मतलब
    सभी पर लागू हो ये जरूरी है या नहीं 
    ये किस से पूछा जाए
    किसी के लिए होना
    किसी और के लिए भी होना ही हो
    या एंवें ही  कुछ भी 
    खयाली पुलाव 
    कभी भी कहीं भी कैसे भी पक लेते हैं 
     ना शरम ना लिहाज 
    अब पुलाव को कैसी शरम 
    तुम्हारे भरम से उसे क्या लेना देना
    जिंदगी किस मोड़ पर
    कहां ले जा कर पटक देगी
    पहले से पता होता  
    तो अब तक कई किस्म के
    हेलमेट बाजार में आ चुके होते 
    अमेजन फ्लिपकार्ट और भी
    धड़ाधड़ बिकवाली 
    अपने से ज्यादा घरवाली सहेज कर रखती
    और पड़ोसन जल रही होती 
    पहाड़ चढ़ना शुरू करते ही
    सभी चोटी दिखाते हैं 
     सारे गुरु घण्टाल समझाते हैं 
    यूं जाओगे और यूं उतर आओगे 
    समझ में तो तब आता है 
    जब बीच में
    पहुंचते पहुंचते समय पूरा हो गया की घंटी
    सुनाई देना शुरू हो जाती है 
    ना उतरा जाता है ना चढ़ा जाता है 
    ऊपर से रास्ते की ठोकरें 
    हजार बार कराती चलती हैं औकात बोध 
    फिर भी घिसा पिटा कॉलर खड़ा करने से
    कहां बाज आया जाता है
    कांटा लगा मिर्ची लगी मुस्कुराते हुए गाने वाले
    एक नहीं हजार मिलते हैं 
    लेकिन फिर भी 
    नहीं होने देंगे इसे तो कभी नहीं के बीच 
    एक लंबी पारी खेलने वाले के लिए 
    आउट होते समय भी
    अंततः हो जाना बहुत बड़ी बात है 
    है कि नहीं आप ही बताइए 
    और मुस्कुराइए आप भी हैं 
    हमे समझाने के लिए
    हमारे होने ना होने के
    बीच का अगर कुछ है  
    आप के पास 

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