उलूक टाइम्स

बुधवार, 18 अप्रैल 2018

उसी समय लिख देना जरूरी होता है जिस समय दूर बहुत कहीं अंतरिक्ष में चलते नाटक को सामने से होता हुआ देखा जाये

लिखना
पड़ जाता है
कभी मजबूरी में

इस डर से
कि कल शायद
देर हो जाये
भूला जाये

बात निकल कर
किसी किनारे
से सोच के
फिसल जाये

जरूरी
हो जाता है
लिखना नौटंकी को

इससे पहले
कि परदा गिर जाये

ताली पीटती हुई
जमा की गयी भीड़
जेब में हाथ डाले
अपने अपने घर
को निकल जाये

कितना
शातिर होता है
एक शातिर
शातिराना
अन्दाज ही
जिसका सारे
जमाने के लिये
शराफत का
एक पैमाना हो जाये

चल ‘उलूक’
छोड़ दे लिखना
देख कर अपने
आस पास की
नौटंकियों को
अपने घर की

सबसे
अच्छा होता है
सब कुछ पर
आँख कान
नाक बंद कर

ऊपर कहीं दूर
अंतरिक्ष में बैठ कर

वहीं से धरती के
गोल और नीले
होने के सपने को
धरती वालों को
जोर जोर से
आवाज लगा लगा
कर बेचा जाये।

चित्र साभार: www.kisspng.com

मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

अपनी कब्र का पेटेंट 2019 के चुनावों से पहले तुरन्त करा बिल्कुल नया है ये आईडिया

बहाने
मत बना
सही बात
साफ साफ बता

कलम
बीमार है
कागज का
पेट आज
बहुत खराब है

जैसा जुमला

अब रहने भी दे
किसी पुराने
पीतल या ताँबे के
गमले में दे सजा

कुछ भी
लिख
देने वाले
के साथ
ऐसा ही
है होता

कितने
साल हो गये
लिखते बकते

अब तो समझ ले

अभी भी
समय है
एक बार
फिर से
समझाया
जा रहा है

सुधर जा

अपने
पन्ने पर कर

जो करना है
जो देखना है
जो कहना है

किसी ने
नहीं है रोका

इधर उधर
इसके उसके
लिखे लिखाये को

देखने पढ़ने
के लिये तो
भूल कर
भी मत जा

कपड़े उतार
सड़क पर
लेट जा

अखबार के
चौथे पन्ने
यानी
बस कस्बे
की खबर
हो जा
छ्प जा
तर जा

बिना कोई
गुल छिपाये
गुल खिलाये
घर के अन्दर

मुख्य पृष्ठ में
छपने का
भूल जा

सोचना
सच में
होता है
बहुत ही बुरा

किसलिये
खाये जाता है
अपना ही दिमाग

इसमें कुछ
दिमाग लगा

लोग लिख रहे हैं
लिखते रहेंगे
दीवाने गालिब
की सोच कर
दीवाने होते रहेंगे

काहे
पागल लोगों के
लिखे लिखाये
के पीछू जाता है

अपने
पागलपन की
खुद कोई
पगलाई हुई सी
एक पागल
मोहर बना

बुराई
नहीं है

सच में

सलीकेदार
समझे बुझाये
पागलों की
भीड़ में
सच्चा एक
पागल हो जा

‘उलूक’
दुनियाँ को
समझने के लिये
किताबें मत पढ़

दुनियाँ
पागल बनाती है
समझ ले पहले से

पागल हो जा

फावड़ा उठा

अपनी
ही कब्र खोद

कब्र का पेटेंट
2019 के चुनावों
के होने से पहले
तुरन्त करा ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 11 अप्रैल 2018

सौ पाँचसौ हजार के चक्कर में कौन नहीं आता है

जिन्दगी
शुरु होती है
और
गिनतियाँ
शुरु हो जाती है

शून्य कहीं भी
किसी को नहीं
सिखाया जाता है

एक से शुरु
की जाती हैं
गिनतियाँ

सारा सब कुछ
पैदा होते ही
एक
हिसाब किताब
हो जाता है

बताया ही
नहीं जाता है
समझाया भी
नहीं जाता है

फिर भी
गिनतियाँ
खुद उसी तरफ
उसी रास्ते पर
अँगुली पकड़ कर
खींच ले जाती हैं

जिस तरह
हिसाब किताब
चलता चला जाता है

हर किसी को
आता है गिनना
मौका मिलते ही
गिनना शुरु
हो जाता है

सामने वाले के
हिसाब किताब को
अँगुलियों में
कर ले जाता है

कोई पूछ बैठे 
उससे उसके
हिसाब किताब
के बारे में

गिनतियाँ करना
भूल बैठा है
किसी जमाने से
बताने में
जरा सा भी
नहीं शर्माता है

बहुत
आसान होता है
गिनना अपने
सामने वाले
की उम्र को
उसके
चेहरे पर

हर चेहरा
कुछ नहीं
कहने के
बावजूद
बहुत कुछ
बताता है

आसान होता है
गिनना सामने
खड़े पेड़ 

की उम्र भी

अलग बात है
यहाँ गोल गहरी
पड़ी रेखाओं से
समय का हिसाब
लगाया जाता है

लाखों गिनता है
करोड़ों गिनता है
अरब खरब तक
पहुँचने का
जुगाड़ लगाता है

सौ तक पहुँचने वाले
एक दो होते हैं
सोच में आने से
पहले ही गजल
गुनगुनाना चाहता है

आदत से मजबूर
लेकिन पाँच सौ
हजार दो हजार
दिखते ही
बत्तीस दाँत
एक साथ दिखाता है

‘उलूक’
उल्टी गिनतियाँ
चलती रहती
हैं साथ साथ
पता
कहाँ चलता है
राकेट
कब कहाँ
और क्यों
छूट जाता है ।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

एक भीड़ से निकल कर खिसक कर दूसरी भीड़ में चला जाता है एक नयी भीड़ बनाता है दंगे तो सारे ऊपर वाला ही करवाता है


एक भीड़ से
दूसरी भीड़
दूसरी भीड़ से
तीसरी भीड़
भीड़ से भीड़ में
खिसकता चलता है
मतलब को जेब में
रुमाल की तरह
डाल कर जो
वो हर भीड़ में
जरूर दिखाई
दे जाता है



भीड़ कभी
मुद्दा नहीं
होती है
मुद्दा कभी
मतलबी
नहीं होता है
मतलबी
भीड़ भी
नहीं होती है

भीड़ बनाने वाला
भीड़ नचाने वाला
कहीं किसी भीड़ में
नजर नहीं आता है

जानता है
पहली
भीड़ के हाथ
दूसरी भीड़
में पहुँच कर
भीड़ के पाँव
हो जाते हैं

दूसरी भीड़ से
तीसरी भीड़ में
पहुँचते ही पाँव
पेट होकर
गले के रास्ते
चलकर
भीड़ की
आवाज
हो जाते हैं

ये शाश्वत सत्य है
भीड़ की जातियाँ
बदल जाती हैंं
धर्म बदल जाता है

अपने मतलब के
हिसाब से समय
घड़ी की दीवार से
बाहर आ जाता है

आइंस्टाईन
का सापेक्षता
का सिद्धांत
निरपेक्ष भाव से
आसमान में
उड़ते हुऐ
चील कव्वे
गिनने के
काम का भी
नहीं रह जाता है

आती जाती
भीड़ से
निकलकर
एक मोड़ से
दूसरे मोड़ तक
पहुँचने से पहले
ही फिसलकर
एक नयी
भीड़ बनाकर
एक नया
झंडा उठाता है
बस वही एक
सत्यम शिवम सुंदरम
कहलाता है

समझदार
आँख मूँद
कर भीड़ के
सम्मोहन में
खुद फंसता है
दूसरों को
फ़ंसाता है

फिर खुद
भीड़ में से
निकलकर
भीड़ में
बदलकर
भीड़ भीड़
खेलना
सीख जाता है

बेवकूफ
‘उलूक’
इस भीड़ से
उस भीड़
जगह जगह
भीड़ें गिनकर
भीड़ की बातों को
निगल कर
उगल कर
जुगाली करने में
ही रह जाता है।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com

शनिवार, 31 मार्च 2018

घर में तमाशे हो रहे हों रोज कुछ दिनों चाँद की ओर निकल लेने में कुछ नहीं जाता है

खोला तो
रोज ही
जाता है

लिखना भी
शुरु किया
जाता है

कुछ नया
है या नहीं है
सोचने तक

खुले खुले
पन्ना ही
गहरी नींद में
चला जाता है

नींद किसी
की भी हो
जगाना
अच्छा नहीं
माना जाता है

हर कलम
गीत नहीं
लिखती है

बेहोश
हुऐ को
लोरी सुनाने
में मजा भी
नहीं आता है

किस लिये
लिख दी
गयी होती हैं
रात भर
जागकर नींदें
उनींदे
कागजों पर

सोई हुवी
किताबों के
पन्नों को जब
फड़फड़ाना
नहीं आता है

लिखने
बैठते हैं
जो
सोच कर
कुछ
गम लिखेंगे
कुछ
दर्द भी

लिखना
शुरु होते ही
उनको अपना
पूरा शहर
याद
आ जाता है

सच लिखने की
हसरतों के बीच

कब किसी झूठ
से उलझता है
पाँव कलम का

अन्दाज ही
नहीं आता है

उलझता
चला जाता है

बहुत आसान
होता है
क्योंकि
लिख देना
एक झूठ ‘उलूक’

जिस पर
जब चाहे
लिखना
शुरु करो
बहुत कुछ
और
बहुत सारा
लिखा जाता है

घर
और तमाशे
से शुरु कर
एक बात को
चाँद
पर लाकर
इसी तरह से
छोड़ दिया
जाता है ।

चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com

रविवार, 25 मार्च 2018

बकवास ही तो हैं ‘उलूक’ की कौन सा पहेलियाँ है जो दिमाग उलझाने की हैं

समझदारी
समझदारों
के साथ में
रहकर

समझ को
बढ़ाने की है
पकाने की है
फैलाने की है

नासमझ
कभी तो
कोशिश कर
लिया कर
समझने की

नासमझी
की दुनियाँ
आज बस
पागल हो
चुके किसी
दीवाने की है

कुछ खेलना
अच्छा होता है
सेहत के लिये

कोई भी हो
एक खेल
खेल खेल में

खेलों की
दुनियाँ में
खेलना
काफी
नहीं है
लेकिन

ज्यादा
जरूरत
किसी
अपने को
अपना
मन पसन्द
एक खेल
खिलाने
की है
जिसकी
ताजा एक
पकी हुई
खबर
कहीं भी
किसी एक
अखबार के
पीछे के
पन्ने में
ही सही
कुछ ले दे के
छपवाने की है

कौन
आ रहा है
कौन
जा रहा है
लिखना बन्द
किये हुऐ
दिनों में
बड़ी हुई
इतनी भीड़
खाली पन्नों में
सर खपाने की है

कहना
सुनना
चलता रहे
कागज का
कलम से
कलम का
दवात से

बकवास
ही तो हैं
‘उलूक’ की
कौन सा
पहेलियाँ हैंं
जो दिमाग
उलझाने की हैं ।

मंगलवार, 20 मार्च 2018

जरूरी है सबूत होने ना होने का रद्दी निकाल कबाड़ निकाल सुनना अच्छा लगता है दिनों के बाद

आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से
अंतराल में

सिमट
जाती हैं
खोल में किसी
खुद के
बनाये हुऐ
आभास
देने भर
के लिये बस

अस्तित्व
होने से लेकर
नहीं होने की
जद्दोजहद जारी
रहती है हमेशा

मजबूरियाँ
जकड़ लेती हैं
अँगुलियों को
लेखनी के
आभास भर
के साथ भींच कर

लिखता
चला जाता है
समय
रेंगता हुआ
सब कुछ हमेशा

रेत पर
धुएं में
या फिर
उड़ती हुई
पतझड़
से गिरी
सूखी पत्तियों
के ढेर पर

कई
सारे चित्र
यादों से
निकल कर
ओढ़ लेते हैं
फूल मालायें

होने से
ना होने तक
की दौड़ में
फिसल कर
भीड़ में से
ना जाने कब

कौन गिनता है
चित्रकारों के
काफिलों में
कैनवासों से
निकलकर
बहते
बिखरते रंगों को

किसे
फिक्र होती है
कूँचियों के
निर्जीव झड़ते
टूटते बालों की
उतरते
रंगों में सिमटते
घुलते बिखरते
इंद्रधनुषों की

नजर का
जरूरी नहीं
होता है
टिके रहना
आसमान पर
चमकते
किसी तारे पर
हमेशा के लिये

रोशनी
होती ही है
लम्बी चमक
के बाद
धुँधलाने के लिये

सब कुछ
बहुत जल्दी
सिमट जाता है
छोटे छोटे
बाजारों में

मेले
रोज ही
लगा करते हैं
यहाँ नहीं
वहाँ नहीं
तो कहीं
और सही

आज
कल परसों
रोज नहीं भी तो
बरसों में कभी
एक बार ही  सही

आदतें
बदलती नहीं हैं
छोटे से अंतराल में
सिमट जाती हैं
खोल में किसी
खुद के बनाये हुऐ

अपने
होने ना होने
का आभास
खुद के लिये
जरूरी है ‘उलूक’

याद
करने के लिये
अपने हाथ में
चिकोटी
काट लेना
बहुत जरूरी 
होता है कभी कभी ।

चित्र साभार: https://www.pinterest.co.uk/

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

सुबह का अखबार पकाये हुऐ ताजे समाचार और प्रिय कागा तेरी सुरीली आवाज एक जैसी आदतों में शामिल आदतें

काँव काँव
कर्कश होती है

कभी कह भी
दिया होता है
किसी ने तो

ऐसा भी तो
नहीं होता है
कि मुँडेर पर
आना ही
छोड़ दो
निर्मोही

मोह
होता ही है
भंग
होने के लिये

चल
लौट आ
और बैठ ले
सुबह सवेरे
पौ फटते ही

मेरे ही दरवाजे
के सामने के
पेड़ की किसी
एक डाल पर

कर लेना
जैसी मन
चाहे आवाज

एक नहीं कई
होती हैं बातें
ढल जाती हैं
कब आदतों में

पता तब चलता है
जब उड़ जाता है

कोई
तेरी तरह का
अचानक
अनजानी
दिशा को
नहीं लौटने की
कसम
रख कर जैसे
आसपास कहीं

सन्नाटा मन
मोहक होता
होगा बहुत
जैसा भ्रम

तेरे जैसे काले
बेसुरी मानी
जाने वाली
आवाज वाले के

मुँह मोड़ लेने के
बाद ही टूटता है

माया मोह
समझ में
आ जाना
बहुत बड़ी
बात है रे

तू समझ लिया
और उड़ लिया

‘उलूक’
बैठा है
अभी भी
इन्तजार में

अखबार के
समाचार के
रंग ढंग
बदलने के

मानकर
कि कुछ दिन
चुपचाप

आँख बन्द कर
बैठने के बाद

सूरज
सुबह का
नहाया धोया सा

चमकदार
दिखना
शुरु हो
जाता है ।

चित्र साभार: http://www.alamy.com

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

एक पन्ने पर कुछ देर रुक कर अच्छा होता है आवारा हो लेना पूरी किताब लिखनी जरूरी है कहाँ लिखा होता है

दरवाजा
खोल कर
निकल लेना
बेमौसम
बिना सोचे समझे

सीधे सामने के
रास्ते को
छोड़ कर कहीं

मुड़ कर
पीछे की ओर
ना चाहते हुऐ भी

जरूरी
हो जाता है
कभी कभी

जब हावी
होने लगती
है सोच
आस पास की
उड़ती हवा की

यूँ ही
जबर्दस्ती
उड़ा ले जाने
के लिये
अपने साथ
लपेटते हुए
अपनी सोच
के एक
आकर्षक
खोल में

अपने अन्दर
के 'ना' को
नकारने में माहिर

बहुत सारे
साफ हाथों से
सुलेख में
'हाँ' लिखे हुऐ
पोस्टर बैनर
ली हुयी
भीड़ के बीच

'नहीं' को
बचा ले जाने
की कोशिशें
नाकाम होनी
ही होती हैं

अच्छा होता है
नजर हटा लेना
अपने अन्दर
जल रही
आग से
बने कोयले
और राख से
पारदर्शी आयने
हो चुके चेहरों से

और देख लेना
आरपार
सड़क पर खड़े एक
जीवित शरीर को
आत्मा समझ कर
दूर कहीं
हरे भरे पेड़ पौंधों
उड़ते हुऐ चील कौवों
या क्रिकेट खेलते हुऐ
खिलदंडों से भरे
मैदान से उड़ती
हुई धूल को

कविताओं के शोर में
दब गयी आवाज को
बुलन्द कर ले जाना
आसान नहीं होता है

चलती साँस को
कुछ देर रोक कर
धीरे से छोड़ने के लिये
इसीलिये कहा जाता
होगा शायद

खाली
सफेद पन्ने भी
पढ़े जा सकते हैं
लिखना छोड़ कर
किसी मौसम में
‘उलूक’

खुद ही पढ़ने
और
समझ लेने
के लिये
खुद लिखे गये
आवारा रास्तों
के निशान।

चित्र साभार: canstockphoto.com

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

कुछ तो खुरच कागज को खून ना सही खुरचन ही सही भिगोने के लिये लाल रंग के पानी की कहानी की

बहुत दिन हो गये
सफेद पन्ने
को छेड़े हुऐ
चलो आज फिर से
कोशिश करते हैं
पिचकारियॉ उठाने की

गलत सोच का
गलत आदमी होना
बुरा नहीं होता है प्यारे
सही आदमी की
संगत से
कोशिश किया कर
थोड़ा सा दूर जाने की

जन्नत उन्हीं की होती है
जहॉ खुद के होने का भी
नहीं सोचना होता है

मर जायेगा एक दिन
जिंदा रहते कभी तो
कोशिश कर लिया कर
एक खाली कफन उठाने की

हफ्ते दस दिन
लिखना छोड़ देने से
कमीने कमीनी
सोच का लिखना
छोड़ने वाले नहीं
करने वाले बहुत
ज्यादा कमीने हैं
इतना काफी है
एक कमीने की
कलम को
कमीनापन
दिखाने की

नंगे होने का मतलब
कपड़े उतार देने से होता है
किताबें समझाती हैं

पचास साल लग गये
बहुत होता है बेवकूफ

कपड़े और नंगे
समझने में
असली कलाकारी
नंगई की
दिखाई देती है
होती भी है
देश की ही नहीं
विदेशियों के भी
ताली बजाने की

‘उलूक’ नहीं लिखेगा
तब भी नहीं मरेगा
‘उलूक’ लिखेगा
तब भी नहीं मरेगा
‘उलूक’ बात मरने की
कौन बेवकूफ कर रहा है
बात आज उसकी है
जिसकी बात बात से
बात निकल आती है
लाशें बिछवाने की

‘उलूक’ तू लगा रह
तेरे ‘उलूकपने’ की
दुकान पर बिकने
वाली शराफत की
गली कभी भी
गांंधी की आत्मा
मरने मरने तक
तो नहीं आने की।

चित्र साभार: www.nycfacemd.com

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

गणों को तंत्र के शुभकामनाएं आज के लिये कल से फिर लग लेना है सजाने अपनी अपनी दुकान को


कहाँ जरूरत है
किसे जरूरत है
पढ़ने याद करने
या समझने की
संविधान को



कुछ दिन होते हैं
बस करने को सलाम
दूर ऊपर देखते हुऐ
फहराते हुऐ तिरंगे को
और नीले आसमान को




किसने कह दिया
चलते रहिये
बने हुऐ
रास्तों पर पुराने
बना कर पंक्तियाँ
मिला कर कदम
बचा कर
अपने स्वाभिमान को


उतर कर तो देखिये
बाहर किनारे
से सड़क के लेकर
भीड़ एक बेतरतीब
चिल्लाते हुऐ कहीं
किसी बियाबान को

सभी कुछ सीखना
जरूरी नहीं है
लिखी लिखाई
किताबों से पढ़कर
एक ही बात को
रोज ही सुबह
और शाम को


दिख रही है
मौज में आयी हुई
तालीमें घर की
सड़क पर पत्थर
मारती हुई बच्चों
के मुकाम को



सम्भाल कर
रखे हुऐ है पता नहीं
कब से सोच में
तीन रंग झंडा एक
और कुछ दुआएं
अमनोचैन की
याद करते हुए
मुल्क-ए-राम को


लगा रहता है
‘उलूक’
समझने में
झंडे के बगल में
आ खड़े हुऐ
एक रंगी झंडे
की शखसियत
सत्तर मना लिये
कितने और भी
मनायेगा अभी
गणतंत्र दिवस
बढ़ाने को
गणों के
सम्मान को ।



चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com

बुधवार, 24 जनवरी 2018

लिख कुछ तितली या तितली सा बस मितली मत कर देना

बहुत देर से
कोशिश कर
रहा होता है कोई

एक तितली
सोच कर
उसे उड़ाने की

तितली होती है
कि नजर
ही नहीं आती है

तितली को
कहाँ पता होता है
उसपर किसी को
कुछ लिखना है

हरे भरे पेड़ पौंधे
फूल पत्ती खुश्बू
या कुछ भी
जिसपर तितली
उड़ान भरती है

लिखने वाला
लगा होता है
तितली को
उड़ाने की
सोच जगाने की
ताकि कुछ
निकले तितली सा
कुछ उड़े
आसमान में
कुछ रंगीन सा
इंद्रधनुषीय

सच में
एक तितली
सोचने में
इतना ज्यादा
जोर पड़ता है
दिमाग पर

कभी नहीं
सोच पाता
है कोई
एक चालू
लिखने वाला

जोर डालता
है अचानक
तो
समझ में आना
शुरु होता है

तितलियों से
भरा एक देश
उसका
तितली राजा
तितली प्रजा
और सारे
उड़ते हुऐ
मडराते हुऐ
फूलों के ऊपर
गाते हुऐ
तितली गीत
सब कुछ तो
हरा भरा होता है
सब कुछ तो
ठीक ठाक होता है

फिर
किसलिये
‘उलूक’
तितली पर
लिखने के लिये
तुझे एक तितली
सोचने पर भी
दूर दूर तक
नजर नहीं आती है

कुछ
इलाज करवा
कुछ दवा खा
डाक्टर को
अपना मर्ज बता

कि तितली
सोची ही
नहीं जाती है

नींद जैसी
कुछ उबासी
के साथ
चली आती है
उनींदी सी
सोती हुई
पंख बंद
किये हुऐ
एक तितली
बताती हुई
कि वो
एक तितली है
और उस पर
उसे कुछ
तितली सा
लिखना है ।

चित्र साभार: http://clipart-library.com

मंगलवार, 23 जनवरी 2018

लावबाली होते हैं वबाल होते हैं कुछ सवाल बस सवाल होते हैं

एक
वबाल है
कुछ पूछने
वाला आज
इनकी उनकी
सबकी नजरों में

इनकी नजर है
कि एक सवाल है
हमेशा इसकी उसकी
सबकी नजरों में

नजर
उठती नहीं है
वबाल होती है
अपने लिये ही
अपने नखरों में

लावबाली होती है
बड़ी वबाल होती है
उठती है तो ठहर
जाती है नजरों में

वबाल
और भी होते हैं
कुछ बह जाते हैं
समय की लहरों में

वबाल से
झुकी होती है
कमर लावबाली
फिर भी लचक लेती है
जिन्दगी के मुजरों में

‘उलूक’
वबाल होते हैं
तो सवाल होते हैं
सवाल होते हैं
तो वबाल होते हैं

वबाल-ए-दोश
सवाल है
बड़ा ही वबाल है

सवाल है आज मगर
है सारे सवालों के पहरों में ।

वबाल = बोझ, मुसीबत,
लावबाली = लापरवाह
वबाल-ए-दोश = कंधे का भार

चित्र साभार: http://www.chrismadden.co.uk

रविवार, 21 जनवरी 2018

‘बीस साल तक आपके घर का कुछ नहीं बिगाड़ पायेगी दीमक’ : जब इस तरह के समाचार को देखते हैं

कभी
अखबार
को देखते हैं

कभी
अखबार
में छपे
समाचार
को देखते हैं

पन्ने
कई होते हैं
खबरें
कई होती हैं 

पढ़ने वाले
अपने
मतलब के

छप रहे
कारोबार
को देखते हैं

सीधे चश्मे से
सीधी खबरों
पर जाती है
सीधे साधों
की नजर

केकड़े कुछ
टेढ़े होकर

अपने जैसी
सोच पर
असर डालने
वाली
टेढ़ी खबर
के टेढ़े
कलमकार
को देखते हैं

रोज ही कुछ
नया होता है
हमेशा खबरों में

आदत के मारे
कुछ पुरानी
खबरों
से बन रहे

सड़
रही खबरों
के अचार
को देखते हैं

‘हिन्दुस्तान’
लाता है
कभी कभी
कुछ
सदाबहार खबरें

कुछ
आती हैं
समझ में
कुछ
नहीं आती हैं 

समझे बुझे
ऐसी खबरों
के खबरची
खबर छाप कर
जब अपनी
असरदार
सरकार को
देखते हैं

‘उलूक’
और
उसके

साथी दीमक
आसपास की
बाँबियों के

चिलम
लिये हाथ में

फूँकते
समय को

उसके धुऐं से
बन रहे छल्लों
की धार
को देखते हैं ।

चित्र साभार: दैनिक ‘हिंदुस्तान’ दिनाँक 21 जनवरी 2018

गुरुवार, 18 जनवरी 2018

आग लगा दीजिये शराफत को समझ में आ गये हैं बहुत शरीफ हैं बहुत सारे हैं हैं शरीफ लोग

कुछ में
बहुत कुछ
लिख देते हैं
बहुत से लोग

बहुत से लोग
बहुत कुछ
लिख देते हैं
कुछ नहीं में भी

कुछ शराब
पर लिख देते
हैं बहुत कुछ
बिना पिये हुऐ भी

कुछ पीते हैं शराब
लिखते कुछ नहीं हैं
मगर नशे पर कभी भी

कुछ दूसरों
के लिखे को
अपने लिखे में
लिख देते हैं

पता नहीं
चलता हैं
पढ़ने वाले को

बहुत बेशरम
होते हैं बहुत से
बहुत शरीफ
होते हैं लोग

चेहरे कभी
नहीं बताते
हैं शराफत
बहुत ज्यादा
शरीफ होते हैं
बहुत से लोग

दिमाग घूम
जाता है
‘उलूक’ का
कई बार

उसकी पकाई
हुई रोटियाँ
अपने नाम से
शराफत के
साथ जब
उस के सामने
से ही सेंक
लेते  हैं लोग ।

चित्र साभार: http://www.clker.com

मंगलवार, 16 जनवरी 2018

तेरह सौ वीं बकवास हमेशा की तरह कुछ नहीं खास कुछ नजर आये तो बताइये


तेरह 
के नाशुक्रे
नामुराद अंक
पर ना जाइये

इतनी तो
झेल चुके हैं
पुरानी कई

आज की
ताजी नयी पर
इरशाद फरमाइये

कहने का
बस अन्दाज है
एक नासमझ का
जनाब अब तो
समझ ही जाइये

हिन्दी और
उर्दू से मिलिये
इस गली की
इस गली में

उस गली की
अंगरेजी
उस गली में
रख कर आइये

किसलिये
बतानी हैं
दिल की
बातें किसी को

छुपाने के लिये
कुछ छुपी
बातें बनाइये

तलबगार
किसलिये हैं
मीठे के इतने
नमकीन खाइये


निकल लीजिये
किसी पतली गली में
बेहोश हो कर गिर जाइये


छुपती नहीं है
दोस्ती दुश्मनी
बचिये नहीं
खुल के सामने आइये

मरना तो
सब को है इक दिन
कुछ इस तरह से
या उस तरह से


मरवा दे
कोई इस से पहले
मौका ना देकर
खुद ही मर जाइये


‘उलूक’
तेरहवीं करे
तेरह सौ वीं
बकवास
की जब तक

नई
इक ताजी
खबर की
कबर पर
आकर

मुट्ठी भर
धूल उड़ाइये।

चित्र साभार: https://www.lilly.com.pk/en/your-health/diabetes/complications-of-diabetes/index.aspx

रविवार, 14 जनवरी 2018

अलाव में रहे आग हमेशा ही सुलगती हुई इतनी लकड़ियाँ अन्दर कहीं अपने कहाँ जमा की जाती हैं

लकड़ियों से उठ रही लपटें 
धीरे धीरे 
एक छोटे से लाल तप्त कोयले में 
सो जाती हैं 

रात भर में सुलग कर 
राख हो चुकी 
कोयलों से भरी सिगड़ी 
सुबह बहुत शांत सी नजर आती है 

बस यादों में रह जाती हैं 
ठंडी सर्द शामें जाड़ों के मौसम की 

धीमे धीमे 
अन्दर कहीं सुलगती हुई आग 
बाहर की आग से जैसे 
जान पहचान लगवाना चाहती हैं 

लकड़ी का जलना 
आग धुआँ और फिर राख 
इतनी सी ही तो होती है जिन्दगी 

फिर भी 
सिरफिरों की आग से खेलने की आदत 
नहीं जाती है 

कुरेदने में बहुत मजा आता है 
बुझी हुई राख को 

जलती 
तेज लपटों से तो दोस्ती 
बस दो स्केल दूर से ही की जाती है 

कहाँ सोच पाता है आदमी 
एक अलाव हो जाने का खुद भी 
आखरी दौर में कभी 

अन्दर 
जलाकर अलाव ताजिंदगी 
ना जाने बेखुदी में 
कितनी कितनी आगें पाली जाती हैं 

‘उलूक’ 
कुछ भी लिख देना 
इतना आसान कहाँ होता है

किसी भी बात पर 
फिर भी 
किसी की बात रखने के लिये 

बात
कुछ इस तरह भी 
अलाव में
अन्दर सेक कर 
बाहर पेश की जाती हैं । 

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com

बुधवार, 10 जनवरी 2018

क्या लिखना है इस पर कुछ नहीं कहा गया है हिन्दी सीखिये रोज कुछ लिखिये गुरु जी ने वर्षों पहले एक मन्त्र दिया है

वृन्द के दोहे
‘करत करत
अभ्यास के
जड़मति
होत सुजान’
के
याद आते ही
याद आने शुरु
हो जाते हैं


हिन्दी के
मास्टर साहब
श्यामपट चौक
हिन्दी की कक्षा

याद आने
लगता है
‘मार मार कर
मुसलमान
बना दूँगा मगर
हिन्दी जरूर
सिखा दूँगा’
वाली उनकी
कहावत में
मुसलमान
शब्द का प्रयोग

और जब भी
याद आता है
उनका दिया
गुरु मन्त्र

‘लिख
कर पढ़
फिर पढ़
कर समझ’

जड़मति
‘उलूक’
फिर से लिखना
शुरु हो जाता है

लिखना
रोज का रोज
वो सब जो
उसकी समझ में
नहीं आ पाता है

लिखते लिखते
पता नहीं कितना
कितना लिखता
चला जाता है

ना जड़ मिलती है
ना मति सुधरती है
ना ही मुसलमान
हो पाता है

मार पड़ने का
तरीका बदलता
चला जाता है

मार खाता है
लिखता है
लिख कर
चिल्लाता है

फिर भी
ना जाने क्यों
ना हिन्दी ही
आ पाती है

ना
समझ ही
अपनी समझ
को समझ
पाती है

एक पन्ने के
रोज के
अभ्यास को
पढ़ने के लिये

कोई
आता है
कोई नहीं
आता है

कहाँ पता
हो पाता है
यही
‘करत करत
अभ्यास के
जड़मति
होत सुजान’

उससे
पता नहीं
कब तक
कितना कितना
और ना जाने
क्या क्या आगे
लिखवाता है ?

चित्र साभार: http://www.clipartguide.com

सोमवार, 8 जनवरी 2018

घर का कुत्ता बहुत प्यारा होता है आओ कुत्ता हो जायें और घर में रहें

मुझे कोई
दिलचस्पी
नहीं है
करने में

 मेरा कुत्ता
तेरे कुत्ते से
सफेद कैसे

तेरा कुत्ता
सफेद है
पॉमेरियन है
मेरा कुत्ता
ढटुआ है
भूरा है

ये भी
कोई
बात है

कुत्ते भी
कभी
नापे
जाते हैं

कुत्ते कुत्ते
होते हैं

होते हैं
तो
होते हैं
इसमें
कौन सी
बुराई है

एक कुत्ते
को लेकर
काहे
इतनी सारी
कहानियाँ
बनाना

कुछ लोग
कुत्ते पर ही
रामायण
लिख रहे हैं
आजकल

रामायण या
रामचरित
मानस में
कुत्ते
का जिक्र
हुआ या
नहीं हुआ
उसे
पता होगा
जिसने
पढ़ी होगी
किताबें
तुलसी की
या
बाल्मीकि की

कितने
लोग
पढ़ते हैं
कहाँ पता
चलता है

फिर भी
कुत्ते को
देखकर
बहुत
से लोग
बहुत कुछ
कहते हैं

लोग
और कुत्ते
दो अलग
बातें हैं

कुत्ते को
देखकर
कुछ
कह देना
आसान है

लोग भी
कुत्ते होते हैं
भौकते भी हैं
सारे कुत्तों
को पता
होता है
लोगों का
जो
भौंकते हैं

कुत्तों
की तरह
वफादारी
करना
सबके
बस का
नहीं होता है

बहुत
मन होता है
कुत्ता
हो जाने का
बहुत
मन होता है
भौंकने का
बहुत
मन होता है
काटने का
बहुत
मन होता है
पूँछ हिलाने का
बहुत
मन होता है
बहुत कुछ
करने का
पर
‘उलूक’
कुछ नहीं
हो सकता है यहाँ
जहाँ सब
कुत्ते हो चुके हैं
अपने अपने
हिसाब के
अपनी अपनी
वफादारी बेचकर

कुत्तों को
मानकर
कुत्ता हो जाना
बुरा सौदा नहीं है ।

चित्र साभार: www.wpclipart.com

शनिवार, 6 जनवरी 2018

बाहर हवा है खिड़कियों को पता रहता है

खुली रखें
खिड़कियाँ

पूरी नहीं
तो आधी ही

इतने में भी
संकोच हो
तो बना लें
कुछ झिर्रियाँ

नजर भर
रखने के लिये
बाहर चलती
हवाओं के
रंग ढंग पर

बस खयाल
रखें इतना

हवायें
आती
जाती रहें

खिड़कियों
से बना कर
गज भर
की दूरी

चलें
सीधे मुँह
मुढ़ें नहीं
कतई
खिड़कियों
की ओर

देखने
समझने
के लिये
रंग ढंग
खिड़कियों के

खिड़कियाँ
समेट लेती हैं
हवा अन्दर की

पर्दे खिड़कियों
पर लटके हुऐ
लगा लेते हैं
लगाम हवाओं पर

समझा लेती
हैं मजहब
हवाओं को
हवाओं का
खिड़कियाँ

मौसम का
हाल देखने
के लिये खुद
अपनी ही
आँखों से
अपने सामने
जरूरी नहीं
खिड़कियों से
बाहर झाँकना

सुबह के
अखबार
दूरदर्शन के
जिन्दा समाचार

बहुत होते हैं
पता करने के
लिये हवाओं
के मौसम
का हाल

बेहाल हवायें
खुद ही छिपा
लेती हैं
अपने मुँह

बहुत
आसान
होता है
हवा हवा
खेलना
बैठकर दूर
कहीं अंधेरे में
और
समझ लेना
रुख हवा का

‘उलूक’
हवा देता है

हवा हवा
खेलने वाले
कहाँ परवाह
करते हैं

बहुत
आसान
होता है
फैला देना

किसी के
लिये भी
हवा में
कह कर
हवा
लग गई है ।

चित्र साभार: http://www.fotosearch.com

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

कभी ऐसा भी कुछ यूँ ही बिना कुछ पर कुछ भी सोचे


कोई
बुरी बात
नहीं है

ढूँढना
लिखे हुवे
के चेहरे को

कुछ
लोग आँखें
भी ढूँढते हैं

कुछ
की नजर
लिखे हुवे की
कमर पर
भी होती है

कुछ
पाजेब और
बिछुओं को
देख भर लेने
की ललक
के साथ

शब्दों से
ढके हुऐ
पैरों की
अँगुलियों
के दीदार
भर के लिये
नजरें तक
बिछा देते हैं

सबके लिये
रस्में हैं
अपने
हिसाब से
जगह के
हिसाब से
समय के
हिसाब से

कुछ को
लिखे हुऐ में
अपना चेहरा
भी नजर
आ जाता है

कुछ
के लिये
बहुत साफ
कुछ
के लिये
कुछ धुँधला सा
कुछ
के लिये चाँद
हो जाता है

कुछ नहीं
किया जा
सकता है
अगर कोई
ढूँढना शुरु
कर दे रिश्ते
लिखे हुऐ के
पीछे से
झाँकते हुऐ
अर्थों में

बबाल तो
हर जगह
होते हैं

कुछ
बने बनाये
होते हैं

कुछ
खुद के लिये
कुरेद कर
पन्नों को
बिना नोंक
की पेन्सिल से
खुद ही
बनाये गये
होते हैं

फट चुके
कागज भी
चुगली करने में
माहिर होते हैं

अब
इस सब से
‘उलूक’ को
क्या लेना देना

फटे में
अपनी टाँग
अढ़ाने के
चक्कर में
कई बार
खुद भी
फटते फटते
बचा हो कोई
या
फट भी
गया हो
तो भी
क्या है

होना तो
वही होता है
जो सुना
जा चुका
होता है

‘राम जी रच चुके हैं’

गाल पीटने
वालों के
गालों से
उन सब
को कहाँ
मतलब
होता है

जिन्हें
पिटने
या
पीटने की
आवाज
संगीत ही
सुनाई
देती हो

रहने दीजिये
ये रामायण
का आखरी
पन्ना नहीं है

अभी
कई राम
और पैदा
होने के
आसार हैं

भविष्यवाणी
करना ठीक
नहीं है

हनुमानों
पर नजर
रखते चलिये

कुछ
ना कुछ
संकेत
जरूर मिलेंगे

अब
लिखा हुआ
ही आईना हो
या
आईने में ही
लिखा गया हो

रहने
भी दीजिये
इस पर
फिर कभी कुछ

अगली
बकवास
के पैदा होने
तक के लिये
 ‘राम राम’

चित्र साभार: study.com

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

सूरज चाँद तारों को भी तोड़ देते हैं सब की सुबह और शाम को लगता है अब साथ होना नहीं है

दो दिन
निकल लिये

कौन से
कैलेण्डर
के निकले
पता नहीं है

सोमवार
मंगलवार
की चीर फाड़

कब
शुरु होगी
कौन करेगा
अभी तो
किसी ने कुछ
कहा नहीं है

दो दिन पहले
घर पर लटके
कैलेण्डर में
चढ़ी तारीख
उछल रही थी
देखा था
सपने में

सपने
देखने पर
अभी तक तो
कोई पैसा
लगा नहीं है

पूना में हुई है
मारपीट
सुना है
अभी अभी
समाचार में

कौन मरा है
किसने मारा है
कितने मरे हैं
क्यों मारे हैं

इस सब से
किस
कैलेण्डर
को कहाँ
लटकना
है से
कुछ भी तो
लेना देना
नहीं है

दो दिन पहले
महसूस हुआ था

शुभकामनाएं ले लो
किसी से कहा था

जवाब मिला था

मेरा तो आज
नहीं होता है
मना किया
गया है मुझे
आज कुछ भी
किसी से
लेना नहीं है

इन्तजार होना
शुरु हो गया है
‘उलूक’ को
देखने का

हाथों को अलग
पैरों को अलग
आँखों को अलग
कानो को अलग

नाचते हुऐ
अलग अलग
अपने अपने
घरों में अलग

वैसे भी
आदमी को पूरा
एक साथ खुद में
आदमी रह कर
अब होना भी
कोई होना नहीं है ।

चित्र साभार: https://drawception.com

रविवार, 31 दिसंबर 2017

वर्ष पूरा हुआ एक और बनी रहे पालतू लोगों की फालतू होड़ कल आ रहा हूँ मैं अबे ओ कुर्सी छोड़

आईये
फिर से
शुरु हो जायें
गिनती करना
उम्मीदों की

उम्मीदें
किसकी कितनी
उम्मीदें कितनी
किससे उम्मीदें

हर बार
की तरह
फिर एक बार
मुड़ कर देखें


कितनी
पूरी हो गई

कितनी अधूरी
खुद ही रास्ते में
खुद से ही
उलझ कर
कहीं खो गई

आईये
फिर से उलझी
उम्मीदों को
उनके खुद के
जाल से
निकाल कर
एक बार
और सुलझायें

धो पोछ कर
साफ करें
धूप दिखायें

कुछ लोबान
का धुआँ
लगायें

कुछ फूल
कुछ पत्तियाँ
चढ़ायें

कुछ
गीत भजन
उम्मीदों के
फिर से
बेसुरे रागों
में अलापें
बेसुरे हो कर
सुर में
सुर मिलायें

आईये
फिर से
कमजोर
हो चुकी
उम्मीदों की
कमजोर
हड्डियों की
कुछ
पन्चगुण
कुछ
महानारयण
तेल से
मालिश
करवायें

आह्वान करें
आयुर्वेदाचार्यों का
पुराने अखाड़ों
को उखाड़ फेंक
नयी कुश्तियाँ
करवाने के
जुगाड़ लगवायें

आईये
हवा से हवा में
हवा मारने
की मिसाईलें
अपनी अपनी
कलमों में
लगवायें

करने दें
कुर्सीबाजों
को सत्यानाश
सभी का

खीज निकालें
खींस निपोरें
बेशरम हो जायें

करने वाले
करते रहें
मनमानी

कुछ ना
कर सकने का
शोक मनायें

बहुत
लिख लिया
‘उलूक’
पिछ्ले साल
अगले साल
के लिये
बकवासों की
फिर से
बिसात बिछायें

इकतीस
दिसम्बर
को लुढ़कें
होश गवायें

एक
साल बाद
उठ कर
कान
पकड़ कर
माफी माँग
फिर से
शुरु हो जायें।

(श्वेता जी के अनुरोध पर 2018 की शुभकामनाओं के साथ) :

चित्र साभार: http://tvtropes.org

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

हिमालय में अब सफेद बर्फ दूर से भी नजर नहीं आती है काले पड़ चुके पहाड़ों को शायद रात भर अब नींद नहीं आती है


कविता करते करते निकल पड़ा 
एक कवि  हिमालयों से
हिमालय की कविताओं को बोता हुआ 

हिमालयी पहाड़ों केबीच से 
छलछल करती नदियों के साथ 
लम्बे सफर में दूर मैदानों को 

साथ चले
उसके विशाल देवदार के जंगल उनकी हरियाली 
साथ चले
उसके गाँव के टेढ़े मेढे‌ रास्ते 
साथ चली
उसके गोबर मिट्टी से सनी 
गाय के गोठ की दीवारों की खुश्बूएं 
और
वो सब कुछ 
जिसे समाहित कर लिया था उसने 
अपनी कविताओं में 

ब्रह्म मुहूर्त की किरणों के साथ 
चाँदी होते होते 
गोधूली पर सोने में बदलते 
हिमालयी बर्फ के रंग की तरह 
आज सारी कविताएं 
या तो बेल हो कर चढ़ चुकी हैं आकाश 
या बन चुकी हैं छायादार वृक्ष 
बस वो सब कहीं नहीं बचा 
जो कुछ भी रच दिया था उसने 
अपनी कविताओं में 

आज भी लिखा जा रहा है समय 
पर कोई कैसे लिखे तेरी तरह का जादू 
वीरानी देख रहा समय वीरानी ही लिखेगा 
वीरानी को दीवानगी ओढ़ा कर लिखा हुआ भी दिखेगा 
पर उसमें तेरे लिखे का इन्द्रधनुष कैसे दिखेगा 
जब सोख लिये हों सारे रंग आदमी की भूख ने 

‘सुमित्रानन्दन पन्त’ 
हिमालय में अब सफेद बर्फ 
दूर से भी नजर नहीं आती है 
काले पड़ चुके पहाड़ों को शायद 
रात भर अब नींद नहीं आती है 

पुण्यतिथी पर नमन और श्रद्धाँजलि 
अमर कविताओं के रचयिता को  ‘उलूक’ की । 

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

अच्छा हुआ गालिब उस जमाने में हुआ और कोई गालिब हुआ


‘उलूक’ की 2017 की सौवीं बकवास गालिब के नाम :

दो सौ के ऊपर से और बीस बीत गये साल
कोई दूसरा नहीं गालिब हुआ

अब तो समझा भी दे गालिब
गालिब हुआ भी तो कोई कैसे गालिब हुआ

बहुत शौक है दीवानों को
गालिब हो जाने का आज भी
जैसे आज ही गालिब हुआ

लगता है
कभी तो हुआ कुछ देर को ये भी गालिब हुआ
और वो भी गालिब हुआ

समझ में किसे आता है पता भी कहाँ होता है
अन्दाजे गालिब हुआ तो क्या हुआ

बयाने गालिब पढ़ लिया बस
उसी समय से सारा सब कुछ ही गालिब हुआ

ये हुआ गालिब कुछ नहीं हुआ
फिर भी इस साल का ये सौवाँ हुआ

तेरे जन्मदिन के दिन भी कोई नयी बात नहीं हुई
वही कुछ रोज का धुआँ धुआँ हुआ

अब तो एक ही गालिब रह गया है जमाने में गालिब
कुछ भी कहना उसी का शेरे गालिब हुआ

‘उलूक’ की नीयत ठीक नहीं हैं गालिब
क्या हुआ अगर कोई इतना भी गालिब हुआ ।

चित्र साभार: http://youthopia.in/irshaad-ghalib/



गालिब का मतलब : सं-पु.] -
उर्दू के एक प्रख्यात कवि (शायर) का उपनाम
[वि.] 1. विजयी 2. प्रबल 3. ज़बरदस्त; बलवान
4. जिसकी संभावना हो; संभावित
5. दूसरों को दबाने या दमन करने वाला

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

हैप्पी क्रिसमस मेरी क्रिसमस जैसे कह रहे हों राम ईसा मसीह से आज कुछ ऐसी सोच जगायें


ईसा मसीह को
याद कर रही है
जहाँ सारी दुनियाँ
बहुत सी और भी
हैं महान आत्माएं

किस किस को
याद करें
किस किस को
भूल जायें

पराये अपने
होने लगे हैं
बहुत अच्छा है
आईये कुछ
मोमबत्तियाँ
प्यार के
इजहार
की जलायें
रोशनी प्रेम
और भाईचारे
की फैलायें

सीमायें
तोड़ कर सभी
चलो इसी तरह
किसी एक
दिन ही सही
मंशा आदमियत
की बनायें
आदमी हो जायें

सहेज लें
समय को
मुट्ठी में
इतना कि
अपने पराये
ना हो पायें

याद
आने लगे हैं
अटल जी
याद आ रहे हैं
मालवीय
याद आने
शुरु हो गये हैं
और भी अपने
आस पास के
आज एक नहीं
कई कई

न्यूटन जैसे
और भी हैं
इन्हीं
कालजयी
लोगों में
आज के दिन
जन्म लिये
महापुरुषों में

सभी
तारों को
एक ही
आकाश में
चाँद सूरज
के साथ
देखने की
इच्छा जतायें

पिरो लें
सभी
फूलों को
एक साथ
एक धागे में
एक माला
एक छोटी
ही सही
यादों को
सहेजने
की बनायें

याद आ रहे हो
बब्बा आज
तुम भी बहुत
इन सब के बीच में
तुम्हारी जन्मशती
के दिन हम सब
मिलकर सब के साथ
दिया एक यादों का
आज चलो जलायें

हैप्पी क्रिसमस
मेरी क्रिसमस
जैसे कह
रहे हों राम
ईसा मसीह से
आज कुछ ऐसी
सोच जगायें।

चित्र साभार: Shutterstock



स्व. श्री देवकी नन्दन जोशी
25/12/1917 - 12/02/2007

रविवार, 24 दिसंबर 2017

लिखने वाले को लिखने की बीमारी है ये सब उसके अपने करम हैं । वैधानिक चेतावनी: (कृपया समझने की कोशिश ना करें)

डूबेगी नहीं
पता है
डुबाने वाला
पानी ही
बहुत
बेशरम है

बैठे हैं
डूबती हुई
नाव में लोग

हर चेहरे पर
फिर भी नहीं
दिख रही है
कोई शरम है

पानी नाव
में ही
भर रहा है
नाव वालों के
अपने भी
करम हैं

डुबोने वाले को
तैरने वालों के भी
ना जाने क्यों
डूब जाने
का भरम है

अच्छाई से
परेशान होता है
बुराई पर
नरम दिखता है
दिखाने के लिये
थानेदार
बना बैठा है

थाने का हर
सिपाही भी
नजर आता है
जैसे बहुत गरम है

लिखा होता है
बैनर होता है
आध्यात्मिक
होता है

ईश्वरीय होता है
विश्वविद्यालय होता है
सब कुछ परम है

याद आ गयी
तो देखने चल दिये
पता चलता है
 कुछ भी नहीं है
बस एक बहुत
बड़ा सा एक हरम है

अजीब है रिवायते हैं
किसी को पता
भी नहीं होता है
क्या करम है
क्या कुकरम हैं

बस देखता
रहता है ‘उलूक’
दिन में भी अंधा है
रात की चकाचौंध
का उसपर भी
कुछ रहम है ।

आभार: गूगल

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

चल रहा है सिलसिला लिखने लिखाने का फिर फिर वही बातें नया तो अब वैसे भी कहीं कुछ होना ही नहीं है

लिखना
सीख ही
रहा है
अभी भी

कई सालों से
लिखने वाला

क्या
लिख रहा है

क्यों
लिख रहा है

अभी तो
पूछना
ही नहीं है

शेर गजल
कविता भी
पढ़ रहा है

लिखी लिखाई
बहुत सी कई

शेर सोचने
और गजल
लिखने की

अभी तो
हैसियत
ही नहीं है

मत बाँध लेना
उम्मीद भी
किसी दिन

नया कुछ
लिखे
देखने की

सूरतें सालों
साल हो गये हैं

कहीं भी
कोई भी
अभी तो
बदली
ही नहीं हैं

किताबों में
लिख दी
गयी हैं

जमाने भर
की सभी
बातें कभी के

किसलिये
लिखता है
खुराफातें

जो किताबों
तक अभी
भी पहुँची
ही नहीं हैं

कल
लिख रहा था
आज
लिख रहा है
कल भी
लिखने के लिये
आ जायेगा

होना जब
कुछ भी
नहीं है
तो लिखने
की भी
जरूरत
ही नहीं है

अच्छा नहीं है
लिये घूमना
खाली गिलास
खाली बोतलों
के साथ
लिखने के
लिये शराबें

‘उलूक’
कुछ ना कुछ
पी रहा है
हर कोई
अपने
हिसाब का

समझाता
हुआ
जमाने को

पीने
पिलाने की
कहीं भी अब
इजाजत
ही नहीं है ।

चित्र साभार: Childcare

बुधवार, 20 दिसंबर 2017

जरूरी नहीं है कि लिखने वाला किसी को कुछ समझाने के लिये ही लिखना चाहता है क्योंकि हजूर यहाँ सबको सब समझ में आता है

लिखे
हुऐ को 

सात बार
पढ़ कर

जनाब
पूछ्ते हैं

ओये
तू कहना
क्या चाहता है


साफ साफ

असली
बात को
दो चार
सीधे साधे
शब्दों में ही
बता कर
क्यों नहीं
जाता है

बात को
लपेट कर
घुमा कर
फालतू की
जलेबी
बना कर

किसलिये
लिखने को
रोज का रोज
यहाँ पर
आ जाता है

सुनिये जनाब
जिसकी जितनी
समझ होती है
वो उतना ही तो
समझ पाता है

बाकि बचे का
क्या करे कोई
कूड़ेदान में ही
तो जा कर के
फेंका जाता है

ये भी सच है
कूड़ेदान पर
झाँकने के लिये
आज बस वो
ही आता है

जिसकी
समझ में
गाँधी की फोटो
के साथ लगा हुआ
एक झाड़ू से
सजा पोस्टर

और
उसको बनवाने
वाले की मंशा का
पूरा का पूरा खाँचा
आराम से घुस कर

साफ सफाई का
धंधा फैलाने के
मन्सूबे धीरे धीरे
पैर उठा कर
सपने के ऊपर
सपने को चढ़ाता है

कबाड़ी
कबाड़ देखता है
कबाड़ी
कबाड़ छाँटता है
कबाड़ी
कबाड़ खरीदता है
कबाड़ी
कबाड़ बेचता है

कबाड़ी
के हाथों से
होकर उसके
बोरे में पहुँचकर
चाहे धर्म ग्रंथ हो
चाहे माया मोह हो
सारा सब कुछ
कबाड़ ही हो जाता है

कबाड़ी
उसी सब से
अपनी रोजी चलाता है
भूख को जगाता है
रोटी के सपने को
धीमी आँच में
भूनता चला जाता है

इसी तरह का
कुछ ऐसा कबाड़
जो ना कहीं
खरीदा जाता है

ना कहीं
बेचा जाता है
ना किसी को
नजर आते हुऐ
ही नजर आता है

एक कोई
सरफिरा

उसपर
लिखना ही
शुरु हो जाता है

‘उलूक’
क्या करे
हजूरे आला
अगर कबाड़ पर
लिखे हुऐ उस
बेखुश्बूए
अन्दाज को
कोई खुश्बू
मान कर
सूँघने के लिये
भी चला आता है ।

चित्र साभार: http://www.maplegrovecob.org

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

पीछे की बहुत हो गयी बकवासें कुछ आगे की बताने की क्यों नहीं सीख कर आता है

मत नाप
बकवास को
उसकी लम्बाई
चौड़ाई और
ऊँचाई से

नहीं होती हैं
दो बार की
गयी बकवासें
एक दूसरे की
प्रतिलिपियाँ

बकवासें जुड़वा
भी नहीं होती हैं

ये भी एक अन्दाज है
हमेशा गलत निशाना
लगाने वाले का

इसे शर्त
मत मान लेना
और ना ही
शुरू कर देना
एक दिन
की बकवास
को उठाकर
दूसरे दिन की
बकवास के ऊपर
रखकर नापना

बकवास आदत
हो जाती हैं
बकवास खूँन में
भी मिल जाती हैं

बैचेनी शुरु
कर देती हैं
जब तक
उतर कर
सामने से लिखे
गये पर चढ़ कर
अपनी सूरत
नहीं दिखाती हैं

कविता कहानियाँ
बकवास नहीं होती है
सच में कहीं ना कहीं
जरूर होती हैं

लिखने वाले कवि
कहानीकार होते है
कुछ नामी होते हैं
कुछ गुमनाम होते हैं

बकवास
बकवास होती है
कोई भी कर
सकता है
कभी भी
कर सकता है
कहीं भी
कर सकता है

बकवासों को
प्रभावशाली
बकवास बना
ले जाने की
ताकत होना
आज समझ
में आता है
इससे बढ़ा
और गजब का
कुछ भी नहीं
हो सकता है
बकवास करने
वाले का कद
बताता है

कुछ समय
पहले तक
पुरानी धूल जमी
झाड़ कर
रंग पोत कर
बकवासों को
सामने लाने
का रिवाज
हुआ करता था

उसमें से कुछ
सच हुआ करता था
कुछ सच ओढ़ा हुआ
परदे के पीछे से
सच होने का नाटक
मंच के लिये तैयार
कर लिये गये का
आभासी आभास
दिया करता था

रहने दे ‘उलूक’
क्यों खाली खुद
भी झेलता है और
सामने वाले को
भी झिलाता है

कभी दिमाग लगा कर
‘एक्जिट पोल’ जैसा
आगे हो जाने वाला
सच बाँचने वाला
क्यों नहीं हो जाता है

जहाँ बकवासों को
फूल मालाओं से
लादा भी जाता है
और
दाम बकवासों का
झोला भर भर कर
पहले भी
और बाद में भी
निचोड़ लिया जाता है ।

चित्र साभार: http://www.freepressjournal.in

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

सारा सब कुछ अभी ही लिख देगा क्या माना लिख भी लेगा तो आगे फिर लिखने के लिये कुछ भी नहीं बचेगा क्या ?


रहने भी दे
हमेशा
खुद से ही
बहस मत
कर लिया कर

कुछ औरों का
लिखना भी
कभी तो देख
भी लिया कर

अपना अपना
भी लिख रहे हैं
लिखने वाले

 तू भी कभी
कुछ अपना ही
लिख लिया कर

इधर उधर
देखना
थोड़ी देर के
लिये ही सही

कभी आँखें ही
कुछ देर
के लिये सही
बन्द भी
कर दिया कर

कभी कुछ नहीं तो

हो भी
सकने वाला
एक सपना ही
लिख दिया कर

लिखे हुऐ कुछ में
समय कितनों के
लिखे में दिखता है

ये भी कभी कुछ
देख लिया कर

हमेशा
घड़ी देखकर
ही लिखेगा क्या

कभी चाँद तारे
भी देख लिया कर

सब का लिखा
घड़ी नहीं होता है

बता पायेगा क्या
कितने बज रहे हैं
अपने लिखे हुऐ
को ही देख कर कभी

रोज का ना सही
कभी किसी जमाने
के लिखे को
देखकर ही

समय उस समय
का बता दिया कर

घड़ी पर
लिखने वाले
बहुत होते हैं
घड़ी घड़ी
लिखने वाले
घड़ी लिख लें
जरूरी नहीं

कभी
किसी दिन
किसी की
घड़ी ना सही

घड़ी की
टिक टिक
पर ही कुछ
कह दिया कर

समय
सच होता है
सच लिखने
वाले को
समय दूर
से ही सलाम
कर देता है

समय
लिखने वाले
और समय
पढ़ने वाले
होते तो हैं
मगर
थोड़े से होते हैं

कभी समय
समझने वालों
को समझकर

समय पर
मुँह अँधेरे
भी उठ
लिया कर

अपनी
नब्ज अपने
हाथ में होती है

सब नाप
रहे होते हैं
थोड़े से
कुछ होते हैं
नब्ज दूसरों
की नापने वाले

उन्हें डाक्टर कहते हैं

कभी
किसी दिन
किसी डाक्टर
का आला ही
पकड़ लिया कर

‘उलूक’ देखने
सुनने लिखने
तक ठीक है
हर समय
फेंकना
ठीक नहीं है

औरों
को भी कभी
कुछ समय
के लिये
समय ही सही
फेंकने दिया कर ।

चित्र साभार: http://www.toonvectors.com

रविवार, 10 दिसंबर 2017

जानवर पैदा कर खुद के अन्दर आदमी मारना गुनाह नहीं होता है

किस लिये
इतना
बैचेन
होता है

देखता
क्यों नहीं है
रात पूरी नींद
लेने के बाद भी

वो दिन में भी
चैन की
नींद सोता है

उसकी तरह का ही
क्यों नहीं हो लेता है

सब कुछ पर
खुद ही कुछ
भी सोच लेना
कितनी बार
कहा जाता है
बिल्कुल
भी ठीक
नहीं होता है

नयी कुछ
लिखी गयी
हैं किताबें
उनमें अब
ये सब भी
लिखा होता है

सीखता
क्यों नहीं है
एक पूरी भीड़ से

जिसने
अपने लिये
सोचने के लिये
कोई किराये पर
लिया होता है

तमाशा देखता
जरूर है पर
खुश नहीं होता है

किसलिये
गलतफहमी
पाल कर
गलतफहमियों
में जीता है

कि तमाशे पर
लिख लिखा
देने से कुछ

तमाशा फिर
कभी भी
नहीं होता है

तमाशों
को देखकर
तमाशे के
मजे लेना
तमाशबीनों
से ही
क्यों नहीं
सीख लेता है

शिकार
पर निकले
शिकारियों को
कौन उपदेश देता है

‘उलूक’
पता कर
लेना चाहिये

कानून जंगल का
जो शहर पर लागू
ही नहीं होता है

सुना है
जानवर पैदा कर
खुद के अन्दर

एक आदमी को
मारना गुनाह
नहीं होता है ।

चित्र साभार: shutterstock.com

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

अचानक से सूरज रात को निकल लेता है फिर चाँद का सुबह सवेरे से आना जाना शुरु हो जाता है


जब भी
कभी
सैलाब आता है 

लिखना
भी 
चाहो
अगर कुछ

नहीं
लिखा जाता है 

लहरों
के ऊपर 
से
उठती हैं लहरें 
सूखी हुई सी कई

बस सोचना सारा
पानी पानी सा 
हो जाता है 

इसकी
बात से 
उठती है जरा 
सोच एक नयी 

उसकी याद 
आते ही सब  
पुराना पुराना 
सा हो जाता है 

अचानक
नींद से 
उठी दिखती है 

सालों से सोई 
हुई कहीं की
एक भीड़ 

फिर से
तमाशा 
कठपुतलियों का 

जल्दी
ही कहीं 
होने का आभास 
आना शुरू
हो जाता है 

जंक
लगता नहीं है 
धागों में
पुराने 
से पुराने
कभी भी 

उलझी हुई
गाँठों 
को सुलझाने में 
मजा लेने वालों का
मजा दिखाना 
शुरु हो जाता है  

पुरानी शराबें 
खुद ही चल देती हैं 
नयी बोतल के अन्दर 

कभी
इस तरह भी 
‘उलूक’ 

शराबों के
मजमें 
लगे हुऐ

जब कभी 
एक
लम्बा जमाना 
सा हो जाता है ।

चित्र साभार: recipevintage.blogspot.com