उलूक टाइम्स

सोमवार, 30 सितंबर 2019

वो कहीं नहीं जाता है ये हर जगह नजर आता है आने जाने के हिसाब से यहाँ हिसाब लगाया जाता है



गजब है

सारे

उसके
हिसाब से

हिसाब
समझा रहे हैं

गणित
की लिखी
पुरानी
एक किताब को

किसी
बेवकूफ
के द्वारा
लिखा गया
इतिहास
बता रहे हैं

वो
पता नहीं

क्यों
बना हुआ है

अभी तक

कागज के नोट पर

जिसकी
एक सौ
पचासवी
तेरहवी
मनाने के लिये

उसकी
धोती के

हम सब
मिल कर

उसके
परखच्चे
उड़ा रहे हैं

वहम
है शायद
या समझ में
नहीं आता है

जो
सामने
से होता है
किसी को भी
नजर नहीं आता है

कुछ
कहने की
कोशिश करो तो

नजरें
देख कर
सामने वाले की

डर लगता है

जैसे कह रहा हो

औकात
में रहा कर

पहाड़
से लाकर
अपने पहाड़ी कव्वे

किसलिये
रेगिस्तान में
लाकर उड़ाता है

हर किसी ने
ओढ़ा हुआ होता है

एक गमछा
मूल्यों का
अपने गले में

रंग उसका
उसकी
सोच का
परचम
उसके साथ
लहराता है

लाल को
हरे गमछे
में बदल देने से
कौन सा
मूल्य बदल जाता है

मुस्कुराईये मत

अगर

रोज
पैंट पहन कर
घूमने वाला आदमी

कहीं
किसी जगह
एक रंग की
हाफ पैंट के साथ
टोपी भी पहना हुआ
नजर आता है

लाजमी है
उतरना
 रंग चेहरों का
देखकर

कोई अगर
आईना
उनके
सामने से
आ जाता है

शहर में
बहुत कुछ
होता है

हर कोई
कहीं ना कहीं
अपना जमीर
तोलने जाता है

परेशान
किस लिये
होता है
‘उलूक’
इस सब से

अगर तुझे
खुद को
बेचना
नहीं
आता है ।

चित्र साभार: https://www.kissclipart.com/

रविवार, 29 सितंबर 2019

सोच कुछ भी हो आईने सी साफ हो लिखे लिखाये में सूरत दिखनी भी नहीं है



साफ
कहना है

कहने से
कोई परहेज
होना भी नहीं है

बात
अपनी
खुद की

जरा
सा भी
कहीं
करनी भी
नहीं है

थोड़े से
मतभेद
से केवल

अब
कहीं कुछ
होता भी नहीं है

पूरा 
कर लें 
मनभेद 
इस से
अच्छा माहौल

आगे
होना भी नहीं है

झूठ सारे
लिपटे हुऐ हैं
परतों में

पर्दे में
नहाने की

जरूरत
भी नहीं है

बन्द
रखनी हैं
बस आँखें

हमाम
की दीवारें
खिड़कियाँ
दरवाजे

अभी
तैयार
भी नहीं हैं

भेड़िये
सियार कुत्ते
सारे साथ हैं

क्या हुआ
रिश्तेदार
भी नहीं हैं

सोचना
भी नहीं है

नोचना
ही तो है
सबने

कुछ ना कुछ

क्या हुआ
अगर जिन्दा हैं

लाशें अभी
बनी भी नहीं हैं

लिखने में
कुछ नहीं
जाता है

सब कुछ
लिखने के
बीच का

कुछ
लिखना
भी नहीं है

सोच
कुछ
भी हो
‘उलूक’

आईने सी
साफ हो

लिखे
लिखाये में
सूरत दिखनी
भी नहीं है ।

 चित्र साभार: http://clipart-library.com

सोमवार, 23 सितंबर 2019

चलो बस यूँ ही चाँद पर रोटी तोड़ने के लिये हो के आते हैं


कौन 
सोया 
हुआ है

कौन

जागा 
हुआ है

अब तो

ये भी 

पता 
नहीं चलता

वो 
कहते हैं

तुम

सो रहे हो

हमें

वो 
सोये
हुऐ से
नजर 
आते हैं

चलो

इस तरह
ही सही

उनकी 
रात हो
रही होती है

हम 
उठ कर
घूमने

चले
जाते हैं

भूख

और 
रोटी

एक

पुरानी 
सी बात 
लगती है

कुछ

नया 
करते हैं

चलो

चाँद पर

घूम कर

चले

आते हैं ।

----------------



(अपनी 

फेसबुक
दीवार से

मित्र के साथ

बातों बातोंं
 
मे एक बात)

इसे संपादित करें या हटाएँ

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

बस समय चलता है अब इशारों में एक माहिर के सूईंया छुपाने से

किसलिये
डरता है
उसके
आईना
दिखाने से 

चेहरा
छुपा के
रखता है
वो
अपना
जमाने से 

कुछ
पूछते ही
पूछ लेना
उस से
उसी समय 

तहजीब
कहाँ गयी
तेरी

पूछने
चला है
हुकमरानो से 

ना देखना
घर में लगी
आग को

बुझाना भी नहीं 

दिखाना
आशियाँ
उसका जलता हुआ 

चूकना नहीं
तालियाँ
भी
बजाने से 

हिलती रहें
हवा में
आधी कटी
डालें
पेड़ पर ही 

सीखना
कत्ल करना

मगर बचना

लाशें
ठिकाने लगाने से 

नकाब
सबके
उतार देने का
दावा है
नकाबपोष का

शहर में
बाँटता है
चेहरे

खरीदे हुऐ
नकाबों के
कारखाने से

घड़ी
दीवार पर टंगी है

उसी
तरह से
टिकटिकाती हुयी

बस
समय चलता है
अब
इशारों में ‘उलूक’ 

एक
माहिर के
सूईंया
छुपाने से। 

चित्र साभार: https://www.fotolia.com

सोमवार, 16 सितंबर 2019

अपनी गाय अपना गोबर अपने कंडे खुद ही ढोकर जला कुछ आग बना कुछ राख




कुछ
हंसते हंसते 

कुछ
रो धो कर 

अपना घर 
अपनी दीवार 

रहने दे
सर मत मार 

अपनी गाय 

अपनी गाय
का 
अपना गोबर

गोबर के कंडे 
खुद ही बनाये गये 
अपने ही हाथों से 
हाथ साफ धोकर

अपना 

ही घर 
अपने ही 
घर की दीवार

कंडे ही कंडे

अपना सूरज 
अपनी ही धूप 
अपने कंडे
कुरकुरे
खुद रहे सूख 

अपने कंडे

अपनी आग 
अपना जलना
अपनी फाग 
अपने राग
अपने साग 

आग पर लिख ना
साग पर लिख ना 
राग बे राग पर लिख ना 

जल से दूर
कहीं 
पर जाकर
कुछ कुछ जल जाने 
पर लिख ना 

अपना अपना 
होना खाक 
थोड़ा पानी
थोड़ी राख 

अपनी किताब
अपने पन्ने
अपनी अपनी
कुछ बकवास 

अपना उल्लू
अपनी सीध

बेवकूफ 
‘उलूक’

थोड़ा सा 
कुछ 
अब 
तो सीख 

अपनी गाय 
अपना गोबर 
अपने कंडे
अपनी दीवार
अपनी आग 
अपनी राख 
अपने अपने
राग बे राग 
अपने कंडे
खुद ही थाप 
रोज सुखा
जला कुछ आग। 

वैधानिक चेतावनी: 
कृपया इस बकवास को ब्लॉगिंग यानि चिट्ठाकारी से ना जोड़ें

चित्र साभार: https://timesofindia.indiatimes.com

रविवार, 15 सितंबर 2019

काम है रोजगार है बेरोजगार मौज के लिये बेरोजगार है ना जाने कब बेवकूफों के समझ में आयेगा



कितने पन्ने 
और 
कब तलक 

आखिर कोई 

रद्दी में 
बेचने 
के 
लिये जायेगा

लिखते लिखते 
कुछ भी 
कहीं भी 

कभी 
किसी दिन 
कुछ तो 
सिखायेगा

शायद 
किसी दिन 
यूँ ही 
कभी कुछ 

ऐसा भी 
लिख 
लिया जायेगा

याद 
भी रहेगा 
क्या लिखा है 

और 
पूछने पर 
फिर से 

कह भी 
दिया जायेगा

रोज के 
तोड़ने 
मरोड़ने 
फिर 
जोड़ देने से 

कोई 
कुछ तो 
निजात पायेगा

घबराये 
से 
परेशान 
शब्दों को 

थोड़ी सी 
राहत ही सही 

कुछ 
दे पायेगा 

जिस 
दिन से 
छोड़ देगा 

देखना 
टूटते घर को 

और 
सुनना 

खण्डहर 
की 
खामोशियों को 

देखना 
उस दिन से 

एक 
खूबसूरत 
लिखा लिखाया 
चाँद 

घूँघट 
के 
नीचे से 
निखर 
कर आयेगा

अच्छा 
नहीं होता है 

खुद ही 
कर लेना 
फैसले 

लिखने लिखाने के 

रोज के 
देखे सुने 
पर 

कुछ नहीं 
लिखने वाले की 

नहीं लिखी 
किताबों 
को ही बस 

हर 
दुकान में 
बेचने 
का फरमान 

‘उलूक’ 
पढ़े लिखों का 
कोई खास 
अनपढ़ ही 

तेरे घर का 
ले कर के 
सामने से 
निकल 
के 
आयेगा।
चित्र साभार: https://myhrpartnerinc.com/

शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

कुछ भी लिख और सोच ले इसी लिखे से शेयर बाजार चढ़ रहा है




ना तो
तू शेर है

ना ही
हाथी है 

फिर
किस लिये
इच्छा
करता है

दहाड़ने की
और
चिंघाड़ने की 

तेरी मर्जी
कैसे
चल सकती है

हिम्मत है
तुझे

फर्जी होने की 

जंगल में होना
और
शिकार करना 

नंगे होना
साथ में
तीर तलवार
होना

कोई
पाषाण युग

थोड़े ना
चल रहा है 

दर्जी है
खुद ही
खुदगर्जी
सिल रहा है

ऊल जलूल
लिखने से
अलग
नहीं
हो जाती है
लेखनी

बहुत से हैं
जानते हैं
पहचानते हैं

चिढ़
के मारे
जान बूझ कर

फजूल
लिख रहा है 

अलग
रह कर

आदमी
अलग नहीं
हो जाता है 

इच्छायें
तो
भीड़ की
जैसी ही हैं

बस
हिम्मत की
कमी है

किस लिये
ठंडा ठंडा
कूल
दिख रहा है 

सीख
क्यों
नहीं लेता है

वायदा कर लेना

फायदा
बहुत है

पैसे
वसूल
हो जाते हैं

दिखाई
देना चाहिये

हर
फटे कोने से
एक उसूल
दिख रहा है

रायता
फैल जाता है

फैलाना
जरूरी है

यही
एक कायदा
होता है
आज के समय में

‘उलूक’

गाँधी
बहुत पहले
बेच दिया गया था

जमाना
विवेकानंद
के
शेयरों पर

आज
नजर रख रहा है

एक
वही है
 जो
सबसे ज्यादा
प्रचलन में है

और
नारों में

खूबसूरत
नजारों में

नाचता
सामने सामने
दिख रहा है ।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com


मंगलवार, 10 सितंबर 2019

नींद खराब करने को गहरी जागते रहो जागते रहो का जाग लिखता है




कहने में 
क्या है 

कहता है 

कि 
लिखता है 

बस
आग 
और आग 
लिखता है 

दिखने में 
दिखता है 

थोड़ा 
कुछ धुआँ 
लिखता है 

थोड़ी कुछ 
राख लिखता है

आग 
लिखने से 
उठता है धुआँ 

बच 
जाती है 
कुछ राख 

फिर भी 
नहीं 
कहते हैं 
लोग 

कि 
खाक 
लिखता है 

सोच 
नापाक 
होती है 

पता ही 
नहीं
चलता है 

लिखता है 

तो सब 

पाक
और 
पाक लिखता है 

शेरो शायरी 
गीत और गजल 

सब कुछ 
एक साथ 

एक पन्ने
पर 
लिख देने के 

ख्वाब 
लिखता है 

जब 
मन में 
आता है 

लिखने 
बैठ
जाता है 

कोई 
नहीं
कहता है 

दाल भात

और 
साग
लिखता है 

‘उलूक’
को 
पता होता है

अंधेरी 
रात में 

खुद
के डर 
मिटाने को 

जागते रहो 
जागते रहो 

का
जाग 
लिखता है ।

चित्र साभार: 


सोमवार, 9 सितंबर 2019

गंदा लिख भी गया अगर माना साबुन लगा कर क्या धो नहीं सकता है

लिखी
लिखायी
बकवास को

लिखने के
बाद ही सही

थोड़ा सा
नीरमा लेकर
क्या
धो नहीं सकता है

लिखे को
धोने में
परेशानी है अगर

सोच को ही
धो लेने का
कोई इन्तजाम

क्या
लिखने से पहले
हो नहीं सकता है

दिखता है

देखने
वाले के
देखने से

थोड़ा सा
कुछ लिखने
की कोशिश में

असली बात
इस तरह से
हमेशा ही कोई
खो नहीं सकता है

सालों
लिखते
हो गये
थोड़ा सच
और
थोड़ा झूठ

अब
यहाँ तक
पहुँच कर

एक
पूरा सच
और
एक
पूरा झूठ

सामने
रख दे
सीधे सीधे
हँसते हँसाते

थोड़ी
देर के लिये
झूठा ही सही

क्या
रो नहीं सकता है

‘उलूक’
सीखता
क्यों नहीं कुछ

कभी
पढ़कर भी कुछ

कुछ भी
लिखता
लिखाता
सही गलत
ही सही

होने
का क्या है
ठान ले
अगर कोई

क्या कुछ
हो नहीं सकता है।

 चित्र साभार: https://www.teepublic.com

रविवार, 8 सितंबर 2019

नेहरू के भूत ने ही पक्का प्रज्ञान को चाँद पर गिराया है



भारत एक खोज

एक
बेवकूफ था

पता नहीं
क्या खोज पाया

क्या खोया
क्या पाया

चन्द्रयान
से भेजा गया
एक पार्सल

जरूर वही होगा

उसी
ने होगा
गिराया

परिपक्व
हो चुके हैं हम
समझते हैं
समझ होनी
जरूरी है

आस पास
बहुत कुछ
होता है
बताना
किसलिये
जरूरी है

मदारी
ने ध्यान
भटकाया है

उसी
भारत
एक खोज
वाले के
भूत ने
प्रज्ञान को
लुढ़काया है

रोना
छाती पीटना
गले लगाना
पीठ थपथपाना
भी स्वाभाविक था
समझ में आया है

चन्द्रयान
मंगलयान
फिर कभी
उड़ लेगा

मदारी
को मौका
फिर फिर
मिलेगा

जमूरे
गजब हैं
पता नहीं है
उनके चरण
किधर हैंं

तीव्र इच्छा है
चूमने हैं छूने हैं

ऐसा समय
भारत
का आयेगा
सपने में
कभी भी
नहीं आया है 

‘उलूक’
किसी
मंदिर में जा
पण्डित से
जॉप करवा

कुल्हाड़ी पर
पैर मारने
का आदेश
किसने दिया है
और
क्यों कर के आया है

‘ब्लॉग सेतू’
रैंक ने
नाराज
हो कर
फिर से
ऊपर की
ओर हो
मुँह
चिढ़ाया है ?

चित्र साभार: https://pixabay.com/

शनिवार, 7 सितंबर 2019

सब का अलग व्यवहार है पर कोई बहुत समझदार है रेत में लिखने के फायदे समझाता है


भाटे के
 इन्तजार में
कई पहर
शांत
बैठ जाता है

पानी
उतरता है

तुरन्त
रेत पर
सब कुछ
बहुत साफ
लिख ले जाता है

फिर
ज्वार को
उकसाने के लिये

चाँद को
पूरी चाँदनी के साथ
आने के लिये
गुहार लगाता है

बोझ सारा
मन का
रेत में फैला हुआ

पानी चढ़ते ही

जैसे
उसमें घुल कर
अनन्त में फैल जाता है

ना कागज ही
परेशान किया जाता है

ना कलम को
बाध्य किया जाता है

किसे
पढ़नी होती हैं
रेत में लिखी इबारतें

बस
कुछ देर में
लिखने से लेकर
मिटने तक का सफर

यूँ ही
मंजिल पा के जैसे
सुकून के साथ
जलमग्न हो जाता है

ना किताबें
सम्भालने का झंझट

ना पन्ने
पलटने का आलस

बासी पुरानी
कई साल की

बीत चुकी
उलझनों की
परतों पर पड़ी
धूल झाड़ने के लिये

रोज
पीछे लौटने
की
कसरतों से भी
बचा जाता है

‘उलूक’
रेत में दबी
कहानियों को

और
पानी में बह गयी
कविताओं को

ना बाँचने कोई आता है
ना टाँकने कोई आता है

कल का लिखा
आज नहीं रहता है

आज
फिर से
कुछ लिख देने के लिये

रास्ता भी
साफ हो जाता है

जब कहीं
कुछ नहीं बचता है

शून्य में ताकता
समझने की
कोशिश करता

एक समझदार

समझ में
नहीं आया

नहीं
कह पाता है।

चित्र साभार: https://www.bigstockphoto.com

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

प्रश्न अच्छे हों लिखते चले जायें सौ हो जायें किताब एक छपायें



रात की
एक बात

और
सुबह के
दो
जज्बात 


पता नहीं
कौन

कहाँ से

कौन सी
कौड़ी
ढूँढ कर
कब
ले आये 


बस
पन्ने पर
चिपका हुआ

कुछ
नजर आये 

नजर
छ: बटा छ:
हो

जरूरी नहीं

कौड़ी 

कौआ
या
कबूतर
हो जाये 

असम्भव
भी नहीं

उड़ ही जाये 

जो भी है

कुछ देर
ठहर लें 

गीले
जज्बातों को
 सुखाने
के लिये

और
सूखों के

कुछ
नमीं
पी जाने के लिये

बात का
क्या है
निकलती है 

दूर तलक
जाये या ना जाये

या

फिर
लौट कर

अपनी जगह
पर
आ जाये

नियम
की किताब

पर
बने सौ आने

कोई
भी बनाये

खुद भी पढ़े
ढेर सारी बटें

बरगद की
लटों की तरह
फैलती
चली जायें

सबके पास
अपनी अपनी
कम से कम
एक
हो जायें

फिर
चाहे
नाक की
सीध पर

बिना
इधर उधर देखे

सामने
की ओर
कहीं
निकल जाये

बीच बीच
में
जाँच लिया जाये

किताब
रखी है पास
में

या
घर तो
नहीं भूल आये 

बात
का क्या है
लिख लिया जाये

अपनी
किताब में
अपना
हिसाब हो जाये

जज्बात
अपने आप
निकलेंं

कलम
से
निकल
कागज
पर
फैल जायेंं

प्रश्न
सूझने जरूरी हैं
बूझने भी

कभी

मन करे

पूछ्ने

निकल कर
खुले मैदान में
आ जायें

‘उलूक’
के
लिखे लिखाये
में

बात कोई
जज्बात
जैसी
नजर आ जाये

और
उसपर
अगर

समझ
में भी
आ जाये

गलती
हो गयी होगी

मान कर
भूल जायें

प्रश्न चिन्ह
ना लगायें।

चित्र साभार: https://airjordanenligen2015.com

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

‘उलूक’ साफ करना है बहुत सारा इतिहास है


ना खुश है ना उदास है 
थोड़ी सी बची हुयी है
है कुछ आस है 

बहुत कुछ लिखना है 
कागज है कलम की है इफरात है 

ना नींद है ना सपने हैं 
शाम से जरा सा पहले की है बात है 

बन्द है बोतल है खाली है गिलास है
अंधेरा है अमावस की है रात है 

ना पढ़ना है ना पढ़ाना है 
किताबों के नीचे दबी है खुद की है किताब है 

श्याम पट काला है सफेद है चॉक है 
खाली है कक्षा है बस थोड़ी सी उदास है 

ना समझना है ना समझाना है 
नयी तकनीक है आज है सब की है बॉस है 

गुरु घंटाल हैं जितने मालामाल हैं 
सरकारी ईनाम हैं लेने गये हैंं सारे हैं खास हैं 

ना राधा है ना कृष्ण है 
राधाकृष्णन का जन्मदिन
सुना है शायद है आज है 

पदचिन्ह हैंं मिटाने हैं नये अपने बनाने हैं ‘उलूक’ 
साफ करने हैंं बहुत हैंं सारे हैं इतिहास हैंं । 

चित्र साभार:
https://www.1001freedownloads.com

सोमवार, 2 सितंबर 2019

मुखौटों के ऊपर मुखौटा कुछ ठीक से बैठता नहीं ‘उलूक’ चेहरा मत लिख बैठना कभी अपना शब्दों पर




एक
भीड़
लिख रही है 

लिख रही है
चेहरे
खुद के 

संजीदा
कुछ
पढ़ लेने वाले

अलग
कर लेते हैं

सहेजने
के लिये 

खूबसूरती
किसी भी
कोण से 

बना लेते हैं
त्रिभुज
या
वर्ग 

या
फिर
कोई भी
आकृति

सीखने में
समय
लगता है 
सीखने वाले को

पढ़ने वाले 
के
पढ़ने के
क्रम

जहाँ
क्रम होना
उतना 
जरूरी नहीं होता 

जितना
जरूरी होता है 

होना
चेहरा
एक अ‍दद 

जो
ओढ़ सके
सोच 

चेहरे के
ऊपर से 

पढ़ने
वाले की
आँखों की 

आँख से
सोचने वालों
को

जरूरत
नहीं होती
दिल
और
दिमाग की 

‘उलूक’
कभाड़
और
कबाड़ में 

कौन
शब्द सही है
कौन गलत 

कोई
फर्क
नहीं पड़ता है 

लगा रह
समेटने में 
लिख लिखा कर
एक पन्ना

संजीदगी
से
संजीदा
सोच का 

बस
चेहरा
मत दे देना
अपना

कभी
किसी
लिखे के ऊपर 

मुखौटों के ऊपर
मुखौटा
कुछ
ठीक से
बैठता नहीं।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com

रविवार, 1 सितंबर 2019

कभी खरीदने आना होता है कभी बेचने जाना होता है आना जाना बना कर ही संतुलन बनाना होता है


कुछ
शब्दों को
इधर

कुछ
शब्दों को
उधर

ही तो
लगाना होता है

बकवास
करने में
कौन सा
किसी को

व्याकरण
साथ में
समझाना
होता है

कौमा
हलन्त चार विराम
अशुद्धि
चंद्र बिंदू
सीख लेना
बोनस
बनाना होता है

उनके लिये
जिन्हें
एक ही बात से
दो का मतलब
निकलवाना होता है

रोज का रोज
उगल दिया जाना

जमाखोरों
की
जमात में जाने से
खुद को
बचाना होता है

केवल
संडे मार्केट में
दुकान
लगाने वाले के लिये

एक
बड़ी मुश्किल
माल को
ठिकाने
लगाना होता है

लोकतंत्र में
कुछ भी
बेच लेने वाले
के
बोलबाले
का
दिवाना
सारा जमाना होता है

‘उलूक’
खाली
हो जायेगी
दुकान
कहना छोड़

सपने में
भी
खाली
देख लेने
वाले को

सबसे पहले
अन्दर
जाना होता है ।

चित्र साभार: https://www.ttu.ee

शनिवार, 31 अगस्त 2019

ठीक नहीं ‘उलूक’ थोड़ा सा समझने के लिये इतने सारे साल लगाना



आभार पाठक
 'उलूक टाइम्स' पर जुलाई 2016 के अब तक के अधिकतम 217629 हिट्स को 
अगस्त 2019 के 220621 हिट्स ने पीछे छोड़ा 
पुन: आभार 
पाठक


सुना गया है
अब हर कोई एक खुली हुयी किताब है 

हर पन्ना जिसका
झक्क है सफेद है और साफ है 

सभी लिखते हैं
आज कुछ ना कुछ
बहुत बड़ी बात है 

कलम और कागज ही नहीं रहे बस
बाकी सब इफरात है 

कोई नहीं लिखता है कहीं
किसी भी अन्दर की बात को 

ढूँढने निकलता है
एक सूरज को मगर
वो भी किसी रात को 

सोचता है साथ में
सब दिन दोपहर में
कभी आ कर उसे पढ़ें

कुछ वाह करें
कुछ लाजवाब
कुछ टिप्पणी
कुछ स्वर्णिम गढ़ें

समझ में
सब के सब कुछ
बहुत अच्छी तरह से आता है 

जितने से
जिसका काम चलता है
उतना समझ गया होता है
उसे
ढोल नगाड़े साथ ला कर
खुल कर
जरूर बताता है 

जहाँ फंसती है जान
होता है
बहुत बड़ी जनसंख्या से जुड़ा
कोई उनवान
शरमाना दिखा कर
अपने ही किसी डर के खोल में
घुस जाता है 

किस अखबार को
कौन कितना पढ़ता है
सारे आँकड़े
सामने आ जाते हैं 

किस अखबार में
कैसे अपनी खबर कोई
हर हफ्ते छपवा ले जाता है
कैसे हो रहा है होता है
ऐसा कोई
पूछने ही नहीं जाता है 

कोई
नजर नहीं आता है का मतलब
नहीं होता है
कि
समझ में नहीं आता है 

उलूक के लिये
बस
एक राय 

लिखना लिखाना छपना छपाना कहीं भीड़ कहीं खालिस सा वीराना
‘उलूक’ ठीक नहीं थोड़ा सा समझने के लिये इतने सारे साल लगाना 

चित्र साभार: https://www.123rf.com/

शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

जी डी पी और पी पी पी में कितने पी बस गिने कितने हैं मगर किसी को ना बतायें



कुछ
चुटकुले

अगर
समझ में
ना भी आयें

खुल के
खिलखिला के

अगर
हँस
ना भी पायें

कोशिश
कर लें
थोड़ा सा

बिना
बात भी
कभी यूँ ही
मुस्कुरा
जायें 

किस लिये
समझनी
हर बात
अपने
आस पास की

कुछ
हट के
माहौल
भी

जरा जरा
मरा मरा
छोड़ कर

बनाने
को
कहीं चले जायें

कविता कहानी
गजल शेर के
मज़मून
भरे पड़े हैं

जब
फिजाँ में हर तरफ

किसलिये
बेकार में

उलझे हुऐ से
विषय
कबाड़ से
उठा उठा कर
ले आयें

मजबूत हैं
खम्बें
पुलों के
मान कर

उफनती
नदी में
उछलती
नावों में
अफीम ले के
थोड़ी सी

हो सके
तो
सो जायें

खबर
मान लें
बेकार सी
फिसली हुई
‘उलूक’
के
झोले के छेदों से

जी डी पी
पी पी पी
जैसी
अफवाहों को

सपने देखें
खूबसूरत
से
दिन के
चाँद और तारों के

 बॉक्स आफिस
में
हिट होगी
फिर से
फिलम
पड़ोसी के
घर में लगी आग
की
अगले पाँच सालों
में एक बार

जल जला
कर
हो गया होगा
राख

मान लें 

शोर कर
ढोल
और
नगाड़ों का
इतना

कि
पूछने का
रोग लगे
रोगी

किसी से

क्या हुआ
कैसे हुआ
और
कब हुआ

पूछ ही
ना पायें।
चित्र साभार: https://www.cleanpng.com

गुरुवार, 29 अगस्त 2019

‘फॉग’ चल रहा है ‘डबल क्रॉस’ चल रहा है खुश्बुओं का जोर है बस फैलने फैलाने को मचल रहा है


कहीं 
‘फॉग’
चल रहा है 

कहीं
‘डबल क्रॉस’
चल रहा है 

मौसम
बारिश का है 

मौज में

बस 
भ्रम
फैलाने को
बदल रहा है 

सफल है
सफलता है 

सीखने
सिखाने
को
मिल रहा है 

खाली
तरकश है 
खून खराबे
से ही
बस
उसे
बड़ी नफरत है 

बस
तीर को
ही
छल रहा है 

बन्दूकें हैं
बन्द सन्दूकों में हैं 

अपनी
रक्षा का
अधिकार है 

संवैधानिक है
स्वीकार है 

कुछ खेल हैं
 कुछ खिलौने हैं 

एक धनुष
बिना प्रत्यंचा
का

बस
दिखाने
को ही
निकल रहा है 

तेजी है
रफ्तार है

चाँद छोड़
 मंगल
तक
 जाने को
तैयार है 

घर की
औरतों के

बस
गहने
ही
बेच खाने
को
मचल रहा है 

जश्न
के
शोर हैं

आशाओं
के
सपनों को

बहकाने
वाले
मोर हैं 

सब कुछ
बदल रहा है

‘उलूक’
ध्यान
किस ओर है 

घर
पूरा
हिल रहा है

और 
तेरा
‘फॉग’
चल रहा है 
‘डबल क्रॉस’
चल रहा है

खुश्बुओं
का
जोर है

बस
फैलने
फैलाने को
मचल रहा है ।



बुधवार, 28 अगस्त 2019

दिखाता नहीं है शक्ल के शीशे में कुछ मगर आईना आँखों का चमक रहा होता है



जो
लिखना
होता है

उसी को
छोड़ कर

कुछ कुछ
लिख रहा होता है 

नहीं
लिखा सारा

लिखे
लिखाये
के पीछे खड़ा
छुपा
दिख रहा होता है 

ना
सामान होता है
ना
दुकान होती है
मगर

थोड़ा रोज
बिक रहा होता है 

आदत
से मजबूर
बिकने की
बाजार में
बिना टाँगें भी
टिक रहा होता है 

नसीब
होता है
उस
पढ़ाने वाले का

अपने
पढ़ने वालों से
पिट रहा होता है 

उपद्रव मूल्य
होता है
दोनों का
जहाँ

उपद्रव
खुद ही
अपने से
निपट रहा होता है 

परम्परायें नयी
मूल्य नये
परिभाषायें नयी

नयी गीता
नयी रामायण में
सब कुछ नया
सिमट रहा होता है 

नये कृष्ण
नये राम
नये गाँधी
नये बलराम

सब
इक्ट्ठा किये
जा रहे होते हैं

एक
जगह पर
ला ला कर
फिर भी 

बेशरम
‘उलूक’

हमाम के
अन्दर
के
सनीमा में भी

कपड़ों
की
तस्वीरों
से

पता नहीं
किसलिये

चिपट
रहा होता है ?

चित्र साभार: 



सोमवार, 26 अगस्त 2019

बकवास भटक जाती हैं जब आस पास की लाजवाब कविताएं लेख कहानियाँ बहुत सारी आ कर इठलाती हैं



जन्म
लेने के
साढ़े पाँच
दशक से
थोड़ा
ऊपर जा कर

थोड़ा थोड़ा
अब समझ में
आने लगे हैं
मायने
कुछ
महत्वपूर्ण
शब्दों के

ना
माता पिता
सिखा पाये
ना शिक्षक
ना ही
आसपास
का परिवेश
और
ना ही समाज

ये भी
पता
नहीं लग पाया
कि
ये कुछ शब्द
निर्णय करेंगे
अस्तित्व का

होने
या
ना होने
के बीच
की
रेखा के
इस तरफ
या
उस तरफ

प्रेम
द्रोह
और
देश

आत्मग्लानि
और
आत्मविश्वास
कतार से
आता है

कतार
देख कर
आता है

कोई
कैसे

सीख
सकता है

स्वत: ही
काटते हुऐ
अपने अंगूठे

विसर्जन
करते हुऐ
गुरु के लिये

चीटियाँ
और
उनके
सामाजिक
व्यवहार
की परिभाषाओं
से
सम्मोहित होकर
मान लेना
नियम
प्रकृति के
पीड़ा दे जाये
असंभव है

संभव
दिखाया
जाता है

महसूस
कराया जाता है

और
वही शाश्वत है

जो
दिख रहा है
उसपर
विश्वास मत कर

जो
सुनाई दे रहा है
वो झूठ है

सबसे
बुरी बात
अपनी इंद्रियों पर
भरोसा करना है

इधर उधर
देख
और
समझ
विद्वान की विद्वता

जब तक
किसी के द्वारा
परखी ना गयी हो

उसका
कोई प्रमाण पत्र
कम से कम
तीन हस्ताक्षरों
के साथ ना हो
बेकार है

कतार
बेतार का तार है

बेकतार
सब बेकार है

कुछ
बच्चों से सीख

कुछ
उनके
नारों से सीख

कुछ
कतार
लगाने वालों
से सीख

दिमाग खोल
और
प्रेमी बन

द्रोही
किसलिये

तुझे
समझाने वाले
सब

कहीं ना कहीं
किसी ना किसी
कतार से जुड़े हैं
‘उलूक’

ये सोच लेना
कि
अकेला चना
भाड़ नहीं
फोड़ सकता है

चनों की
बेइज्जती है

उस
चने की
सोच

जिसने
प्रेम द्रोह
और देश
को
परिभाषित
कर दिया है

और
सब कुछ
कतार में है
आज चने की ।

चित्र साभार: https://longfordpc.com

रविवार, 25 अगस्त 2019

कुछ भी लिख ‘उलूक’ मगर लिख रोज लिख हर समय लिख किस लिये कोई दिन बिना कुछ लिखे ही बितारा



कल का 
लिखा

क्या
बिक गया
सारा

आज
फिर से
उसी पर

किसलिये

वही कुछ
लिख लारा
दुबारा

देख

वो
लिख लारा
घड़ियाँ सारी

समय
सबको

जो 
आज
सबका
दिखारा

समझ

पीठ में
लगी चाबियाँ
अपनी
टिक टिक की

दूर कहीं

कहाँ
जा कर
छुपारा

क्यों नहीं

पूछ
कर ही
लिख लेता
किसी से 

कुछ

उसी 

के
हिसाब का

ऐसा
सोच
क्यों नहीं
पारा

सोच

नहीं
सोचा जारा
जिससे

वो
लिखना छोड़

कुछ
पढ़ने को
चला आरा

बता

समझ
में आना

किस ने
कह दिया
जरूरी है

नहीं
आरा
समझ में

तो
नहीं आरा
बतारा

और

जो
समझ भी
जारा
कुछ

कुछ
कहने में
फिर भी
अगर
हिचकिचारा

कौन सा
कुछ

अजब गजब
जो
क्या हो जारा

एक
कविता कहानी साहित्य
के
पन्नों के
थैले बनारा

दूसरा

बकवास
की
मूँगफली के
छिलके
ला ला
कर
फैलारा

तीसरा

इसकी
टोपी
उसके सिर
में
रख कर
के
आरा

सबसे बड़ा

दीवार
चढ़कर
उतरकर
बड़ी खबर
पकारा

उसके
साथ खड़ा

असली
खबर को

देश दुनियाँ
की
फैली
घास बतारा

‘उलूक’

कविता
कहानियों
के बीच

बकवास
अपनी

कई
सालों से
पकारा

सिरफिरा
समझ रा
दिमागदारों
को
पढ़ारा

निचोड़
इन
सब का
अंत में

लिख कर
ये
रख जारा

कुछ
भी लिख

रोज
कुछ
लिखना
जरूरी है

मत कहना
नहीं
बताया

कम कम
लिखने
वालों
का
चिट्ठा दर्जा

आगे
आते आते

पीछे
कहीं
रह जारा।

चित्र साभार: https://www.amazon.in/dp/159020042X?tag=5books-21

बुधवार, 21 अगस्त 2019

चाँद सूरज की मिट्टी की कहानी नहीं भी सही ‘उलूक’ किसी पत्थर को सिर फोड़ने की दवाई बता कर दे ही जायेगा



अभी तो
बस

शुरु सा
ही
किया है
लिखना

किसे
पता है
कहाँ तक
जा कर

सारा सब
लिख
लिया जायेगा

क्या
लिख रहे हैं
और
किसके लिये

किसलिये सोचना
अभी से

कौन सा
पढ़ लेने
वालों को
भी
समझ में

सारा
सब कुछ
इतनी जल्दी
ही
आ जायेगा

वो
लिखते हैं ये

हम
समझते हैं वो

इस उस
से
उलझते हुऐ

बहुत कुछ
गुजर जायेगा

उसका
वो
लपेटेगा उसको
उधर ही

इधर
के
लपेटे में
इधर का ही
तो
लपेटने समेटने
के
लिये आयेगा

छोटी छोटी
कहानी
कुछ पहेली
कुछ झमेले

सब के
अपने अपने
घर गली
मोहल्ले शहर के

किस लिये
सुनाने बताने समझाने

किसी
दूर बैठे
उबासी भरे
मगज के विद्वान को

कौन सा
देश बनना है
मिल मिला कर

घर घर
की
समस्याओं को

घर में
आपस में
मिलबाँट
कर

इधर से उधर
खिसका
दिया जायेगा

वो
चाँद से
सूरज तक
लिखे
बहुत अच्छा है

रात
का निसाचर
‘उलूक’
भी

तारे
नहीं भी सही
नजदीक के

किसी
उल्कापिंड तक
पहुँचा कर
पाठकों को

कुछ
कम ही मगर

उलझा
तो
ले ही जायेगा।

चित्र साभार: https://paintingvalley.com