उलूक टाइम्स: 2015

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

स्वागत: चलें बिना कुछ गिने बुने सपने एक बार फिर से उसी तरह


पिछली बार
वो गया था 
इसी तरह से 

जब सुनी थी
उसने इसके आने की खबर

ये आया था
नये सपने अपने ले कर अपने साथ ही

वो गया
अपने पुराने हो चुके
सपनों को साथ ले कर

इसके सपने इसके साथ रहे
रहते ही हैं

किसे फुर्सत है
अपने सपनों को छोड़
सोचने की
किसी और के सपनों की

अब ये जा रहा है
किसी तीसरे के आने के समाचार के साथ

सपने इसके भी हैं
इसके ही साथ में हैं
उतने ही हैं जितने वो ले कर आया था

कोई किसी को
कहाँ सौंप कर जाता है
अपने सपने
खुद ही देखने खुद ही सींचने
खुद ही उकेरने खुद ही समेटने पड़ते हैं
खुद के सपने

कोई नहीं
खोलना चाहता है
अपने सपनों के पिटारों को 
दूसरे के सामने

कभी डर से
सपनों के सपनों में
मिल कर खो जाने के

कभी डर से
सपनों के पराये हो जाने के

कभी डर से
सपनों के सच हो खुले आम 
दिन दोपहर मैदान दर मैदान
बहक जाने के

इसी उधेड़बुन में
सपने

कुछ भटकते
चेहरे के पीछे 
निकल कर झाँकते हुऐ
सपनों की ओट से

बयाँ करते 
सपनों के आगे पीछे के सपनों की
परत दर परत

पीछे के सपने
खींचते झिंझोड़ते सपनों की भीड़ के

बहुत अकेले
अकेले पड़े सपने

सपनों की
इसी भगदड़ में
समेटना सपनों को किसी जाते हुऐ का

गिनते हुऐ अंतिम क्षणों को

किसी का
समेरना 
उसी समय सपनों को

इंतजार में
शुरु करने की
अपने सपनों के कारवाँ अपने साथ ही

बस वहीं तक
जहाँ से लौटना होता है हर किसी को

एक ही तरीके से
अपने सपनों को लेकर वापिस अपने साथ ही

कहाँ के लिये
क्यों किस लिये
किसी को नहीं सोचना होता है

सोचने सोचने तक
भोर हो जाती है हमेशा
लग जाती हैं कतारें
सभी की इसके साथ ही

अपने अपने सपने
अपने अपने साथ लिये
समेटने समेरने बिछाने ओढ़ने लपेटने के साथ
लौटाने के लिये भी

नियति यही है
आईये फिर से शुरु करते हैं

आगे बढ़ते हैं
अपने अपने सपने
अपने अपने साथ लिये
कुछ दिनों के लिये ही सही

बिना सोचे लौट जाने की बातों को

शुभ हो मंगलमय हो
जो भी जहाँ भी हो जैसा भी हो

सभी के लिये
सब मिल कर बस दुआ
और
दुआ करते हैं ।

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

बहकता तो बहुत कुछ है बहुत लोगों का बताते कितने हैं ज्यादा जरूरी है


परेशानी तो है 
आँख नाक दिमाग सब खोल के चलने में 
आजकल के जमाने के हिसाब से 

किस समय
क्या खोलना है कितना खोलना है किस के लिये खोलना है 
अगर नहीं जानता है कोई
तो पागल तो होना ही होना है 

पागल हो जाना भी एक कलाकारी है समय के हिसाब से 
बिना डाक्टर को कुछ भी बताये कुछ भी दिखाये 

बिना दवाई खाये बने रहना पागल सीख लेने के बाद 
फिर कहाँ कुछ किसी के लिये बचता है 

सारा सभी कुछ 
पैंट की नहीं तो कमीज की ही किसी दायीं या बायीं जेब में 
खुद बा खुद जा घुसता है 

घुसता ही नहीं है 
घुसने के बाद भी जरा जरा सा थोड़े थोड़े से समय के बाद 
सिर निकाल निकाल कर सूंघता है 
खुश्बू के मजे लेता है 

पता भी नहीं चलता है 
एक तरह के सारे पागल एक साथ ही
पता नहीं क्यों 
हमेशा एक साथ ही नजर आते हैं 

समय के हिसाब से समय भी बदलता है 
पागल बदल लेते हैं साथ अपना अपना भी 

नजर आते हैं फिर भी 
कोई इधर इसके साथ कोई उसके साथ उधर 

बस एक ऊपर वाला
नोचता है एक गाय की पूँछ या सूँअर की मूँछ कहीं 
गुनगुनाते हुऐ राम नाम सत्य है 
हार्मोनियम और तबले की थाप के साथ 

‘उलूक’ पागल होना नहीं होता है कभी भी 
पागल होना दिखाना होता है दुनियाँ को 
चलाने के लिये बहुत सारे नाटक 

जरूरी है अभी भी समझ ले
कुछ साल बचे हैं पागल हो जाने वालों के लिये अभी भी 

पागल पागल खेलने वालों से 
कुछ तो सीख लिया कर कभी पागल ।

चित्र साभार: dir.coolclips.com

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

आती ठंड के साथ सिकुड़ती सोच ने सिकुड़न को दूर तक फैलाया पता नहीं चल पाया

दिसम्बर
शुरु हो चुका
ठंड के
बढ़ते पैरों ने
शुरु कर दिया
घेरना
अंदर की
थोड़ी बहुत
बची हुई
गरमी को

नरमी भी
जरूर हुआ
करती होगी
साथ में
उसके कभी
निश्चित
तौर पर
सौ आने
उसका
बहक जाना
गायब
हो जाना
भी हुआ
होगा कभी
पता नहीं
चल पाया

जिंदगी की
सिकुड़ती
फटती
चादर
कभी
ऊपर से
खिसक कर
सिर से
उतरती रही

कभी
आँखों के
ऊपर अंधेरा
करते हुऐ
नीचे से
नंगा
करती रही

पता
चला भी
तब भी
कुछ नहीं
हो पाया

जो
समझाया गया
उसके भी
समझ में
आते आते
 ये भी
मालूम नहीं
चल पाया
दिमाग
कब अपनी
जगह को
छोड़ कर
कहीं किसी
और जगह
ठौर ठिकाना
ढूँढने को
निकल गया
फिर लौट
कर भी
नहीं आ पाया

अपनापन
अपनों का
दिखने
में आता
अच्छी
तरह से
जब तक

साफ सुथरे
पानी के
नीचे तली
पर कहीं
पास में
ही बहती
हुई नदी में
तालाब में
बहुत सारी
आटे की
गोलियों
के पीछे
भागती
मछलियों
के झुंड
की तरह

पत्थर
मार कर
पानी में
लहरेंं
उठाता
हुआ
एक बच्चा
बगल से
खिलखिलाता
हुआ
निकल भागा
धुँधलाता हुआ
सब कुछ
उतरता
चढ़ता
पानी जैसा
ही कुछ
हो आया

चिढ़ना चाह
कर भी
चिढ़
नहीं पाया

हमेशा
की तरह
कुछ झल्लाया
कुछ खिसियाया

जिंदगी
ने समझा
कुछ
‘उलूक’ के
उल्लूपन को
कुछ
उल्लूपने ने
जिंदगी के
बनते
बिगड़ते
सूत्रों का राज
जिंदगी को
बेवकूफी
से ही सही
बहुत अच्छी
तरह से
समझाया

जो है सो है
कुछ उसने
उसमें
इसका
जोड़ कर
उसे
ऊपर किया
कुछ इसने
इसमें से
उसका
घटा कर
कुछ
नीचे गिराया

ठंड का
बढ़ना
जारी रहा
बहुत कुछ
सिकुड़ा
सिकुड़ता रहा

सिकुड़ती
सोच ने
सिकुड़ते हुऐ
सब कुछ को
कुछ
भारी शब्दों
से बेशरमी
से दबाया

बहुत
कुछ दिखा
नजर आया
महसूस हुआ

सिकुड़न ने
पूरी फैल कर
हर कोने
हर जर्रे
पर जा
अपना जाल
फैलाया

जरा
सा भी
पता नहीं
चल पाया
अंदाज
आया भी
अंदाज नहीं
भी आ पाया ।

चित्र साभार: www.toonvectors.com

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

क्या कुछ कौन से शब्द चाहिये कुछ या बहुत कुछ व्यक्त करने के लिये कोई है जो चल रहा हो साथ में लेकर शब्दकोष शब्दों को गिनने के लिये

कुछ लिखने
का
दिल किया
कई दिनों
के बाद
कुछ कुछ
होना शुरु
होते होते
कुछ नया
कुछ अलग
लिखने की
सोच कर

पुराने सारे
लिखे लिखाये
को
कुछ देखना
शुरु किया
मतलब
शुरू से
शुरु किया

कुछ गिनना
कुछ जोड़ना
कुछ घटाना
जब
सारे लिखे
लिखाये पर
आरंभ से
अंत तक
सही में

सही सही
कहा जाये तो
शुरु किये गये
कुछ से
आज और
अभी तक
लिखे गये
कुछ कुछ तक

कितना खोजा
बहुत टटोला
बस मिला
बार बार
कई बार
किया गया
शब्द
जो प्रयोग
उनमें
बहुत कुछ
के प्रयोग से
बहुत कुछ
लिखा लिखाया
नहीं मिला

बस मिला
लिखा हुआ
अधिकतर में
ज्यादातर
कहीं कुछ
अखबार
कुछ आदमी
कुछ कुत्ता
कुछ खबर
कहीं कुछ गधा
कुछ गाँधी
कुछ चोर
कुछ उलूक
कुछ देश
कुछ बंदर
कहीं कहीं
कुछ बात
कुछ हवा
कुछ सोच
और
कहीं
थोड़े से
थोड़े
कुछ लोग

समझते
समझते
बस इतना
ही समझ
में आया

शब्दकोश
कितना बड़ा
समेटे हुऐ
खुद अपने में
कितने कितने
समझे बूझे हुऐ
अनगिनत शब्द
पर
कहने के लिये
अपनी
इसकी उसकी
आसपास की
व्यथा कथा
चाहिये
बहुत थोड़े
कुछ कुछ
छोटे छोटे
बेकार के
रोज रोज के
साग सब्जी
रोटी दाल
कपड़े बरतन
जैसे
शब्दों के
बीच में
गिरते लुड़कते
शब्दों को
जोड़ते तोड़ते
मरोड़ते शब्द

कोशिश में
समझाने की
बताने की
कुछ व्यक्त
कुछ अव्यक्त
व्यर्थ में
असमर्थ
समर्थ शब्द ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

शनिवार, 28 नवंबर 2015

नहीं आया समझ में कहेगा फिर से पता है भाई पागलों का बैंक अलग और खाता अलग इसीलिये बनाया जाता है

बहुत अच्छा
खूबसूरत सा
लिखने वाले
भी होते हैं
एक नहीं कई
कई होते है
सोचता क्यों
नहीं है कभी
तेरे से भी कुछ
अच्छा क्यों नहीं
लिखा जाता है
लिखना तो
लगभग सब
में से सभी
को आता है
सोचता हूँ
हमेशा सोचता हूँ
जब भी लिखने की
कोशिश करता हूँ
सोचने की भी बहुत
कोशिश करता हूँ
सोचना सच में
मुश्किल हो जाता है
सोचा ही नहीं जाता है
निकल रहा होता है
इधर का उधर का
यहाँ का वहाँ का
निकला हुआ
अपने आप
अपने आप ही
लिखा जाता है
समझाने समझने
की नौबत ही
नहीं आती है
सारा लिखना
लिखाना
पाखाना हो जाता है
किस से कहा जाये
शब्दकोष
होने की बात
किस को
समझाई जाये
भाषा की औकात
कटता हुआ बकरा
गर्दन से बहती
खून की धार
खाता और पीता
मानुष बनमानुष
सब एक हो जाता है
लिखना जरूरी है
खासकर पागलों
के लिये
‘उलूक’ जानता है
भविष्य में पढ़ने
लिखने के विभागों
में उसी तरह
का पाठ्यक्रम
चलाया जाता है
जिसमें आता और
जाता पैसा माल
सुरंगों के रास्ते
निकाला और
संभाला जाता है
कितना बेवकूफ
ड्राईवर निकला
ते
ईस करोड़ लेकर
दिन दोपहर
भागने के बाद
पकड़ा जाता है
इसीलिये बार बार
कहा जाता है
अच्छा खासा
पढ़ा पढ़ाया होना
एक फनकार
होने के लिये
बहुत ही जरूरी
हो जाता है ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 25 नवंबर 2015

अपनों के किये कराये पर लिखा गया ना नजर आता है ना पढ़ा जाता है ना समझ आता है

भाई ‘उलूक’
लिखना लिखाना है
ठीक है लिखा करो
खूब लिखा करो
मस्त लिखा करो
रोज लिखा करो
जितना मन में आये
जो चाहे लिखा करो
बस इतना और
कर दिया करो
क्या लिखा है
किस पर लिखा है
क्यों लिखा है
वो भी कहीं ऊपर
या कहीं नीचे
दो चार पंक्तियों में
हिंदी में या उर्दू में
लिख कर भी
कुछ कुछ
बता दिया करो
बहुत दिमाग लगाने
के बाद भी तुम्हारे
लिखे लिखाये में से
कुछ भी निकलकर
कभी भी नहीं आता है
जितना दिमाग के अंदर
पहले से होता है वो भी
गजबजा कर पता नहीं
कहाँ को चला जाता है
अब कहोगे जिसे समझ
में नहीं आता है तो वो
फिर पढ़ने के लिये
किस लिये रोज यहाँ
चला आता है
लोगों के आने जाने
की बात आने जाने
वालों की संख्या बताने
वाला गैजेट बता जाता है
लिखने लिखाने वाला
उसी पर लिखता है
जो लिखने वाले के
साथ पढ़ने वाले को
साफ साफ सामने
सामने से दिखता है
और नजर आता है
लिखने वाला आदतन
लिखता है सब कुछ
उसे पता होता है
पढ़ने वाला
कहीं साफ साफ सब
लिख तो नहीं दिया गया है
देखने के लिये चला आता है
पढ़ता है सब कुछ
साफ साफ समझता है
लिख दिये पर खिसियाता है
और फिर इसका लिखा
समझ में नहीं आता है
की डुगडुगी बजाता हुआ
गली मोहल्ले बाजार से
होते हुऐ शहर की ओर
निकल कर चला जाता है ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

सोमवार, 23 नवंबर 2015

गजब है सोचा भी नहीं कभी कभी ये सब भी यहीं पर होना है

उसे मालूम है
किसी के कुछ
भी कहने देने से
कहीं भी कुछ भी
नहीं होना है

उसी के सारे
कहने वालों
ने मिलकर
सब कुछ
उसी का कहना
उसी के शब्दों
उसी की भाषा
उसी की आवाज
में ही कहना है

बड़ा बैनर है
बड़ी बातें को
बड़े बड़े खम्भों
के बीच में बड़ी
शान से रहना है

खड़े हैं चाहे बड़े हैं
खम्भों का बोझ
कौन सा किसी
को अपने कंधों
पर ही सहना है

छोटे छोटे
छोटे नारों के
छोटे विचारों के
छोटे करतब बाजों
को एक खम्भे से
दूसरे खम्भे तक
दौड़ते कूदते रहना है

बहस होनी है
देश के लिये
देशवासियों
के सिवा
इसने उसने
सभी ने
उसमें रहना है
भाग लेना है

कहना क्या है
क्या नहीं है
ना सोचना
इसने है
ना उसने है
समझने
की बात है
समझने
वालों के लिये
नासमझ होने से
दिखाने से इसका
उसका सबका
ही भला होना है

अपनी
बातों को
अपनी सोच
के साथ
बस चाँद तारों
की दुनियाँ
के लिये
छोड़ देना है

मत कर
‘उलूक’
इतनी हिम्मत
सब कुछ
कह देने
की अपनी

अपनी अपनी
कह देने वाले
को सुना है
अब यहाँ
नहीं कहीं
और जा
कर के
रहना है ।

चित्र साभार: es.dreamstime.com

शनिवार, 21 नवंबर 2015

कौन कहता है कुत्ता सोचना और कुत्ता हो जाने में कुछ अजीब होता है हर कुत्ते का अपना नसीब होता है


भौंकना सीखना चाहता हूँ
इसलिये कुत्तों के बीच रहता हूँ
कुत्ता नहीं हूँ कुत्तों से कभी नहीं कहता हूँ

कुत्ते भी कहाँ मुझे एक कुत्ता मानते हैं
भौंकता हूँ तो भी आदमी की तरह बस आँखें तानते हैं

कुत्ता कुत्ते पर कभी भी नहीं भौंकना चाहता है
कुत्तों को पता होता है कुत्ता कौन कौन है हर कुत्ता जानता है

अब इतना कुत्ता हो जाना भी अच्छा कहाँ होता है
कुत्तों के नियम कानून हर कुत्ता अच्छी तरह जानता है

कुत्तों में से कुछ कुत्ते कुत्तेपने के लिये ही जाने जाते हैं
हर गली कूँचे के कुत्तों में पहचाने जाते हैं

कुत्ता हो जाना इतना बुरा भी नहीं होता है
कुत्तों के लिये कुत्ता तो एक कुत्ता ही होता है

‘उलूक’ कुत्ता होने और दिखाने में बहुत बड़ा फर्क होता है
किसलिये करते हो कलाबाजी कुत्तों के बीच में रहकर
कुत्तों के लिये भौंकना कुत्तों का एक जरायम पेशा होता है ।

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

झूठ सारे सोने से मढ़ कर सच की किताबों पर लिख दिये जायें

रोज का
ना लिखना
जैसा
लिखना छोड़
कभी
कुछ लिखना
जैसा
लिख दिया जाये

कतरा कतरा
खून
अँधेरे का
अँधेरे में
ही बहने
दिया जाये

पहना कर
कंकाल
की हड्डियों
को माँस
किसी के
बदन से
नोचा
उतारा हुआ
शनील के
कपड़े से
ढक ढका
कर जिंदा
होने की
मुनादी
की जाये

देखने वालों
के आँखों
के बहुत
नजदीक से
फुलझड़ियाँ
झूठ की
जला जला
कर कई
आधा अंधा
कर दिया जाये

जमाने से
सड़ गल गये
बदबू मारते
कुछ
कूड़े कबाड़
पर अपने
इत्र
विदेशी महंगी
खरीद कर
छिड़की जाये

मैय्यत निकलनी
चाहिये थी
जिसकी जमाने
पहले कभी
इस जमाने
में ढक कर
पाँच सितारों
से सजा
शाबाशी दी जाये

बहुत हो गया
जलते सुलगते
धुआँ देते दिल
‘उलूक’ के
तुझे झेलते हुऐ
अब थोड़ी सी
राख डाल
कर बुझा
लेने की
कोशिश भी
कर ली जाये ।

चित्र साभार: www.theemotionalinvestor.org

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

अपनी समझ से जो जैसा समझ ले जाये पर दीपावली जरूर मनाये

रोशनी
ही रोशनी

इतनी
रोशनी
आँखें
चुधिया जायें

शोर ही शोर
इतना शोर

सुनना सुनाना
कौन किस से कहे

कान के पर्दे
फटने से कैसे
बचाये जायें

घुआँ धुआँ
आसमान

रात के तारे
और चाँद
की बात
करना बेकार

जब लगे
सुबह का
सूरज
धीमा धीमा
शरमाता सा

जाड़ों
में जैसे
खुद ही
ठिठुरता
कंंपकपाता

शाम
होने से
पहले ही
निढाल हो
ढल जाये

बूढ़ा
साँस
लेने के
लिये तड़पे
निढाल हो जाये

चिड़िया
कबूतर
डर कर
प्राण ही
छोड़ जायें

घर के
निरीह
जानवर
भयभीत से

दबाये हुऐ
पूँछें अपनी

इस
चारपाई
के नीचे से
निकल कर
दूसरी
चारपाई

किसी
कोठरी के
अंधेरे कोने में
शरण लेते
हुऐ नजर आयें

लक्ष्मी
घर की
करे इंतजार

बाहर की
लक्ष्मी के
आने का

नारायण
और
आदमी
दोनो
एक दिन
के आम
आदमी हो जायें

खुशी
होनी ही
चाहिये
बाँटने के
लिये पास में

किसी को
जरूरत है
या नहीं

एक अलग
ही मुद्दा
हो जाये

दो रास्तों
के बीच के
पेड़ की सूखी
टहनी पर
बैठा ‘उलूक’

दूर शहर
में कहीं

लगी
हुई आग
और रोशनी
के फर्क
को समझने
के लिये

दीपासन
लगाया हुआ
नजर आये

जैसा भी है
मनाना है
आईये दीप
जलायें
दीप पर्व
धूम धड़ाके
धूऐं से ही
सही मनायें ।

www.clipartsheep.com

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

ग्यारहवें महीने में भेड़ों के भीड़तंत्र की ग्यारह सौ ग्यारहवीं ‘नाककथा’

बाध
की कथा
राग बेराग
की कथा
साग
की कथा

बहुत कुछ
सुना सुनाया
लगता है

नाक
की कथा
नाककथा
कोई
नये जमाने
का नाटक
किसी
नौटंकी का
नचाया
लगता है

नाक
बहुत काम
की चीज
होती है

सभी
जानते है
पहचानते हैं

नाक
के बिना
बनाया हुआ
पुतला भी
एक नकटा
कहलाया
करता है

नाक
लक्ष्मण ने
काट दी
सूर्पनखा
की उस
जमाने में
क्या
गजब हुआ
राम रावण
के बीच

सभी ने सुना
आज भी नहीं
बचता है रावण

घासफूस का
बना सजा कर
आग में
जलता हुआ
काला सफेद
धुआँ बस
फैलाया करता है

नाक
से सूँघना
नाक
नीची और
नाक
ऊँची हो जाना
नाक से
पहचाना जाना
नाक
बहना
सरदी जुखाम
का हो जाना
नाक
की खातिर
दुनियाँ से
टकरा जाना
नाक
के लिये
करना मरना
ही पड़ता है
नाक
और भी
महत्वपूर्ण
हो जाती है
जब कोई
नाक
वाला किसी
नाक
वाले की
नाक
को नापने
के लिये
बाजे गाजे
के साथ
दूर से
निकल पड़ता है

डुगडुगी
बजती है
समाचार
छपता है
माहौल पूरा
नाकमय
हो
निकलता है

‘उलूक’
ढूँढता है
लकड़ी का
पैमाना
और
नापता है
नाक
जब आईने
के सामने
से खुद
 की ही
उसे पता
चलता है
उसकी
नाक
का बौनापन
उसी को
चिढ़ाता हुआ
सारे जमाने
की भीड़ की
नाक
के सामने से
कैसे अपनी
नाक
बचाता हुआ
बेशर्मी
से छुप कर
भाग निकलता है ।

‘NAAC’ साभार: www.clipartsheep.com

सोमवार, 9 नवंबर 2015

जब पकाना ही हो तो पूरा पकाना चाहिये बातों की बातों में बात को मिलाना आना चाहिये

अब
चोर होना
अलग बात है

ईमानदार होना
अलग बात है

चोर का
ईमानदार होना
अलग बात है

चोरी करने
के लिये
कुछ सामने
से होना
अलग बात है

बिना कुछ
उठाये
छिपाये भी
चोरी हो जाना
अलग बात है

कहने का
मतलब
ऐसे तो कुछ
भी नहीं है
पर
वैसे कहो
तो कुछ है
और
नहीं भी है

बात कहने में
क्या जाता है
बातें बताना
अलग बात है
बातें बनाना
अलग बात है

जैसे बात
दिशा बताने
की हो तो भी
बिल्कुल
जरूरी नहीं है
दिशा का ज्ञान हो

बच्चे का
चेहरा हो
शरीर
जवान हो
अधेड़ की
सोच हो
बुढ़ापे की
झुर्रियों
के पहले
से ही छिपे
हुऐ निशान हो

इसकी जीत में
उसकी हार हो
किसी के लिये
हार और जीत
दोनो बेकार हों

समय के
निशानों पर
छिपाये
निशान हों

जन्मदिन हो
जश्न हो
शहर हो
प्रदेश हो
ईमानदार
का ईमान हो
झूठ बस
बे‌ईमान हो

ईमानदारी
पर भाषण हो
झूठ का
सच हो
सच का
झूठ हो
शासन का
राशन हो
योगा का
आसन हो
बात का
बात से
बात पर
प्रहार हो
मुस्कुराता

अंदर
ही अंदर
अंदर का
व्यभिचार हो

पर्दा खुला
रहने रहने
तक तो
कम से कम
नाटक हो
और
जोरदार हो ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

शनिवार, 7 नवंबर 2015

किसी के पढ़ने या समझने के लिये नहीं होता है लक्ष्मण के प्रश्न का जवाब होता है बस राम ही कहीं नहीं होता है

क्या जवाब दूँ
मैं तुझे लक्ष्मण
मैं राम होना भी
नहीं चाहता हूँ
आज मेरे अंदर
का रावण बहुत
विकराल भी
हो  गया है
और मुझे राम से
डर लगने लगा है
राम आज मुझे
पल पल हर पल
नोच रहा है
किस से कहूँ
नहीं कह सकता
राम राम है
जय श्री राम है
मेरा ही राम है
लक्ष्मण तुम को
शक्ति लगी थी
और तुम्हारे पास
प्रश्न तब नहीं थे
अब हैं बहुत हैं
लक्ष्मण तुम और
तुम्हारे जैसे और
कई अनगिनत
अभिमन्यू हैं
जो तीर नहीं हैं
पर चढ़ाया गया है
जिन्हे कई बार
गाँडीव पर अर्जुन ने
तुम्हें समझा बुझा कर
तुम बने भी हो तीर
चले भी हो तीर
की तरह कई बार
इतना बहुत है कि
आज के जमाने में
कोई ना मरता है
ना घायल होता है
तुम्हारे जैसे तीरों से
कायरों के टायरों पर
सड़क के निशान
नहीं पड़ते हैं लक्ष्मण
रोज बहुत लोगों के
अंदर कई राम मरते हैं
कोई नहीं बताता है
किसी से कुछ नहीं
कह पाता है
बहुत बैचेनी होती है 

और तुम भी पूछ बैठे
ऐसे में ऐसा ही कुछ
और पता चला
आजकल राम
तुम्हारे साथ भी
वही करता है जो
सभी के साथ
उसने हमेशा से किया है
सभी को राम से प्रेम है
सभी को जय श्री राम
कहना अच्छा लगता है
कोई खेद नहीं होता है
राम राम होता है लक्ष्मण
प्रश्न करना हमेशा
दर्दमय होता है
उत्तर देना उस से भी
ज्यादा दर्द देता है
जब प्रश्न अलग होता है
राम अलग होता है
और पूछने वाला
लक्ष्मण होता है ।

 चित्र साभार: forefugees.com

नहीं दिखा कुछ दिन कहाँ गया पता चला खुजलाने गया है

कब किस चीज
से कहाँ खुजली
मचना शुरु हो जाये
कौन जानता है
कौन किसे
जा कर बताये
कौन किसे
क्या समझाये
देखने से खुजली
छूने से खुजली
सुनने से खुजली

इन सब पचड़ों
को छोड़ो भी

कुछ दिनों से
कुछ अजीब सी
खुजली हो रही है

कुछ तार बेतार के
खुजली के खुजली से
भी तो जोड़ो जी


हो रही है तो हो रही है
खुजला रहे हैं बैठ कर
कहाँ हो रही है
क्यों हो रही है
सोचने समझने में
लग गये कलम ही
छूट गई हाथ से
क्यों छूटी कुछ सोचो
मनन करो हर बात
पर शेखचिल्ली का
चिल्ला तो मत फोड़ो जी

अंदाज आया पता चला
कुछ नहीं लौटा पाने
की खुजली है
अब भिखारी लौटाये
भी तो क्या
कुछ चिल्लर
और किसे
कौन लेगा और
लौटाया भी जाये
तो किसे लौटाया जाये

ध्यान सारा एक ही
जगह पर लगना
शुरु हो गया और
इसी में गजब हो गया
गजब क्या हुआ
बाबा रामदेव की
मैगी का भोग हो गया
मत समझ बैठियेगा
पर हुआ कुछ ऐसा ही
जैसे योग हो गया

पहले क्यों नहीं
आया होगा ये
लौटाने पलटाने
वाला खेल
अब देखिये जिसे भी
उसी ने बना ली है
अपनी पटरी और
ले जोर शोर से छाती
पीट पीट कर चलाना
शुरु कर चुका है
उसके ऊपर अपनी रेल

जो भी है अब तो
खुजलाने में बहुत
मजा आने लगा है
जिसे देखो वो कुछ
ना कुछ लौटाने
में लगा है

‘उलूक’ तू वैसे भी
हमेशा उल्टे बाँस
बरेली जाने के जुगाड़
में लगा ही रहता है
लगा रह मजे से
खुजलाने में
साथ में बजाता
भी चल एक कनिस्तर
गाता हुआ कुछ गीत
ऐसा महसूस करें तेरी
उस खुजली को सभी
जिसे खुजलाते खुजलाते
तुझे भी खुजली खुजली
खेलने में अब बहुत
ज्यादा मजा आने लगा है ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

सोमवार, 2 नवंबर 2015

खाली सफेद पन्ना अखबार का कुछ ज्यादा ही पढ़ा जा रहा था

कुछ ज्यादा
ही हलचल
दिखाई
दे रही थी
अखबार के
अपने पन्ने पर

संदेश भी
मिल रहे थे
एक नहीं
ढेर सारे
और
बहुत सारे
क्या
हुआ होगा
समझ में
नहीं आ
पा रहा था

पृष्ठ पर
आने जाने
वालों पर
नजर रखने
वाला
सूचकाँक
भी ऊपर
बहुत ऊपर
को चढ़ता
हुआ नजर
आ रहा था

और
ये सब
शुरु हुआ था
जिस दिन से
खबरें छपना
थोड़ा कम होते
कुछ दिन के
लिये बंद
हुआ था

ऐसा नहीं था
कि खबरें नहीं
बन रही थी

लूट मार हमेशा
की तरह धड़ल्ले
से चल रही थी
शरीफ लुटेरे
शराफत से रोज
की तरफ काम
पर आ जा रहे थे

लूटना नहीं
सीख पाये
बेवकूफ
रोज मर्रा
की तरह
तिरछी
नजर से
घृणा के
साथ देखे
जा रहे थे

गुण्डों की
शिक्षा दीक्षा
जोर शोर से
औने पौने
कोने काने
में चलाई
जा रही थी

पढ़ाई लिखाई
की चारपाई
टूटने के
कगार पर
चर्र मर्र
करती हुई
चरमरा रही थी

‘उलूक’
काँणी आँख से
रोज की तरह
बदबूदार
हवा को
पचा रहा था
देख रहा था
देखना ही था
आने जाने के
रास्तों पर
काले फूल
गिरा रहा था

कहूँ ना कहूँ
बहुत कह
चुका हूँ
सभी
कुछ कहा
एक ही
तरह का
कब तक
कहा जाये
सोच सोच
कर कलम
कभी
सफेद पानी में
कभी
काली स्याही में
डुबा रहा था

एक दिन
दो दिन
तीन दिन
छोड़ कर
कुछ नहीं
लिखकर
अच्छा कुछ
देखने
अच्छा कुछ
लिखने
का सपना
बना रहा था

कुछ नहीं
होना था
सब कुछ
वही रहना था
फिर लिखना
शुरु
किया भी
दिखा भी
अपनी सूरत
का जैसा ही
जमाने से
लिखा गया
आज भी
वैसा ही कुछ
कूड़ा कूड़ा
सा ही
लिखा जा
रहा था

जो है सो है
बस यही पहेली
बनी रही थी
देखने पढ़ने
वाला खाली
सफेद पन्ने को
इतने दिन
बीच में
किसलिये
देखने के लिये
आ रहा था ।

चित्र साभार: www.clker.com

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

बंदरों के नाटक में जरूरी है हनुमान जी और राम जी का भी कुछ घसीटा

बंदर ने बंदर
को नोचा और
हनुमान जी ने
कुछ नहीं सोचा
तुझे ही क्यों
नजर आने
लगा इस सब
में कोई लोचा
भगवान राम जी
के सारे लोगों
ने सारा कुछ देखा
राम जी को भेजा
भी होगा जरूर
चुपचाप कोई
ना कोई संदेशा
समाचार अखबार
में आता ही है हमेशा
बंदर हो हनुमान हो
चाहे राम हो
आस्था के नाम पर
कौन रुका कभी
और किसने है
किसी को रोका
मौहल्ला हो शहर हो
राज्य हो देश हो
तेरे जैसे लोगों
ने ही
हमेशा ही
विकास के पहिये
को ऐसे ही रोका
काम तेरा है देखना
फूटी आँखों से
रात के चूहों के
तमाशों को
किसने बताया
और किसके कहने
पर तूने दिन का
सारा तमाशा देखा
सुधर जा अभी भी
मत पड़ा कर
मरेगा किसी दिन
पता चलेगा जब
खबर आयेगी
बंदरों ने पीटा
हनुमान ने पीटा
और उसके बाद
बचे खुचे उल्लू

उलूक को राम
ने भी जी भर कर
तबीयत से पीटा ।

चित्र साभार:
www.dailyslave.com

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

आ जाओ अलीबाबा फिर एक बार खेलने के लिये चोर चोर


रोज जब चोरों से सामना होता है 
अलीबाबा तुम बहुत याद आते हो

सारे चोर खुश नजर आते हैं
जब भी चोर चोर खेल रहे होते हैं
और जोर जोर से चोर चोर चिल्लाते हैं

चोर अब चालीस ही नहीं होते हैं
मरजीना अब नाचती भी नहीं है

अशर्फियाँ तोलने के तराजू
और अशर्फियाँ भी अब नहीं होते हैं

खुल जा सिमसिम अभी भी कह रहे हैं लोग
खड़े हैं चट्टानों के सामने से
इंतजार में खुलने के किसी दरवाजे के

अलीबाबा बस एक तुम हो
कि दिखाई ही नहीं देते हो

आ भी जाओ 
इससे पहले हर कोई
निशान लगाने लगे दरवाजे दरवाजे
इस देश में

और पैदा होना शुरु हों गलतफहमियाँ
लुटने शुरु हों घर घर में ही घर घर के लोग

डर अंदर के फैलने लगें बाहर की तरफ
मिट्टी घास और पेड़
पानी बादल और काले सफेद धुऐं में भी

रहम करो
ले आओ कुछ ऐसा जो ले पाये जगह
खुल जा सिमसिम की
और पिघलना शुरु हो जायें चट्टाने

बहने लगे वो सब
जो मिटा दे सारे निशान और पहचान

सारी कायनात एक हो जाये
और समा जाये सब कुछ कुछ कुछ ही में

आ भी जाओ अलीबाबा
इस से पहले कि देर हो जाये 
और ‘उलूक’ को नींद आ जाये
एक नये सूरज उगने के समय ।

चित्र साभार: www.bpiindia.com

रविवार, 25 अक्टूबर 2015

राम ही राम हैं चारों ओर हैं बहुत आम हैं रावण को फिर किसलिये किस बात पर जलाया


विजया दशमी के जुलूस में
भगदड़ मचने पर 
पकड़ कर थाने लाये गये
दो लोगों से 
जब पूछताछ हुई 

एक ने अपने को लंका का राजा रावण बताया 

दस सिर तो नहीं थे 
फिर भी हरकतों से सिर से पाँव तक
रावण जैसा ही नजर आया 

और दूसरे की पहचान
बहुत आसानी से 
अयोध्या के भगवान राम की हुई 

जिनको बिना देखे भी 
सारे के सारे रामनामी दुपट्टे ओढ़े भक्तों ने 
आँख नाक कान बंद कर के 
जय श्री राम का नारा जोर शोर से लगाया 

दोनो ने अपना गाँव 
इस लोक में नहीं 
परलोक में कहीं होना बताया 

मजाक ही मजाक में उतर गये 
उस लोक से इस लोक में 
इस बार दशहरा 
पृथ्वी लोक में आकर
खुद ही देखने का प्लान 
उन्होने खुद नहीं 
उनके लिये ऊपर उनके ही
किसी चाहने वाले ने बनाया 
ऊपर वालों ने नीचे आने जाने में अड़ंगा भी नहीं लगाया 

भीड़ से पल्ला पड़ा जब 
राम और रावण का नीचे उतर कर 

भीड़ में से किसी ने अपने आप को राम का भाई 
किसी ने चाचा 
किसी ने बहुत ही नजदीक का ताऊ बताया 

रावण के बारे में पूछने पर 
किसी ने कोई जवाब नहीं दिया 
इसने उससे और उसने किसी और से
पूछने की राय दे कर अपना 
मुँह इधर और उधर को किया 
सभी ने अपना अपना पीछा रावण को देखते ही छुड़ाया 

राम की बाँछे खिली 
सामने खड़ी सारी जनता से उनकी 
खुद की रिश्तेदारी मिली 

और 
रावण बेचारा
सोच में पड़े खड़ा रह पड़ा 
किसलिये और किस मुहूर्त में 

राम के साथ रामराज्य की ओर 
ऊपर से नीचे एक बार 
और 
अपनी जलालत देखने निकल पड़ा ? 

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

शव का इंतजार नहीं शमशान का खुला रहना जरूरी होता है

हाँ भाई हाँ
होने होने की
बात होती है
कभी पहले सुबह
और उसके बाद
रात होती है
कभी रात पहले
और सुबह उसके
बाद होती है
फर्क किसी को
नहीं पड़ता है
होने को जमीन से
आसमान की ओर
भी अगर कभी
बरसात होती है
होता है और कई
बार होता है
दुकान का शटर
ऊपर उठा होता है
दुकानदार अपने
पूरे जत्थे के साथ
छुट्टी पर गया होता है
छुट्टी लेना सभी का
अपना अपना
अधिकार होता है
खाली पड़ी दुकानों
से भी बाजार होता है
ग्राहक का भी अपना
एक प्रकार होता है
एक खाली बाजार
देखने के लिये
आता जाता है
एक बस खाली
खरीददार होता है
होना ना होना
होता है नहीं
भी होता है
खाली दुकान को
खोलना ज्यादा
जरूरी होता है
कभी दुकान
खुली होती है और
बेचने के लिये कुछ
भी नहीं होता है
दुकानदार कहीं
दूसरी ओर कुछ
अपने लिये कुछ
और खरीदने
गया होता है
बहुत कुछ होता है
यहाँ होता है या
वहाँ होता है
गन्दी आदत है
बेशरम ‘उलूक’ की
नहीं दिखता है
दिन में उसे
फिर भी देखा और
सुना कह रहा होता है ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2015

बहुत बार मन गधा गधा हो जाता है गधा ही बस अपना सा लगता है और बहुत याद आता है

कई बार
लिखते समय
कई संदर्भ में

याद
आये हो
गधे भाई

बहुत दिन
हो गये

मुलाकात
किये हुऐ

याद किये हुऐ
बात किये हुऐ

कोई खबर
ना कोई समाचार

आज
तुम्हारी याद
फिर से है आई

जब से सुनी है

जानवर के
चक्कर में

आदमी की
आदमी से हुई है
खूनी रक्तरंजित हाथापाई

आये भी
कोई खबर कैसे तुम्हारी

ना किसी
खबरची ने
ना ही किसी
अखबार ने

तुममें
कोई दिलचस्पी

आज तक
महसूस ही
नहीं हुआ
कि हो कभी दिखाई

मुलाकात
होती तो
होती भी कैसे

ना
अरहर की दाल से ही
तुम्हें कुछ लेना देना

ना
मुर्गे से ही
होता है तुम्हारा कभी
कुछ सुनना कहना

गाय
और भैंस में से

एक भी
नहीं कही
जा सकती तुम्हारी

नजदीक की
या बहुत दूर की बहना

बस
तालमेल दिखता है
तुम्हारा अगर कहीं तो

सिर्फ
और सिर्फ
अपने धोबी से

कुछ गंदे
कुछ मैले कुचैले
कुछ साफ सुथरे धुले हुऐ

कपड़ों के थैले से

अब
ऐसा भी होना
क्या होना

देश के
किसी भी
काम के नहीं

शरम
तुम्हें पता नहीं
कभी आई की नहीं आई

घास खाना
हिनहिनाना
और बस
खड़े खड़े ही सोना

ना खाने के काम के
ना दिखाने के काम के

चुनाव चिन्ह
ही बन जायें
ऐसा जैसा भी
तुमसे नहीं है
कभी भी होना

कितना
अच्छा है
ना भाई गधे

ना तुम्हें
किसी ने पूछना

ना तुम्हें
छेड़ने के कारण

किसी पर
किसी को
काली स्याही भी
कभी फेंकने के लिये

किसी को
ढकोसला
कर कर के रोना

आ भी जाया करो
दिखो ना भी कहीं
याद में ही सही

गर्दभ मयी
हो गया हो
जहाँ सब कुछ

बचा हुआ ही

ना लगे
कि है कहीं कुछ

तुमसे
गले मिल कर
ढाड़े मार मार कर

आज तो
‘उलूक’
को भी है

देश के नाम पर

देशभक्ति दिखाने

और
ओढ़ने
के लिये रोना ।

चित्र साभार: www.cliparthut.com

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

बातें बनाने तक की बात है चल ही जाती हैं नहीं चलती है तो फौज लगा कर चला दी जाती हैं

 
बातें कितनी भी बना ली जायें
लगता है अभी कुछ ही कहा गया है
बहुत कुछ है जो बचा हुआ रह गया है

जल की इतनी बूँदें होती
और जमा हो गई होती
जलजला ला देती बहा देती
बहुत कुछ छोड़ दिया जाता 
समय के साथ बहने के लिये अगर

फिर लगता है
बातें भी बूँद बूँद ही जमा होती हैं
जैसी जगह मिले उसी की जैसी हो लेती हैं

सामंजस्य हो बात का बात के साथ 
जरूरी नहीं होता है
कुछ बातें खुद ही तरतीब से लग जाती हैं
कुछ अपने ही आप 
एक दूसरे पर चढ़ जाती हैं
निकलना चाहती हैं अंदर से बाहर
बेतरतीबी से ऊँची नीची सोच के साथ
उसी सोच पर चढ़ कर या उतर कर

आसान भी नहीं होता है बाँधें रखना
या फिर यूँ ही छोड़ देना बातों की नकेल को

बातें एक साथ अगर कह भी दी जाती हैं
बाढ़ फिर भी नहीं कभी आ पाती है

बातें पानी की तरह बह तो जाती हैं
पर दूर तक कहीं भी नजर नहीं आती हैं

उनके निशान भी समय की रेत पर खो जाते हैं
सबके बस में 
नहीं होता है जमा किये रहना बातों को
कुछ बहा देते हैं 
यूँ ही कहीं भी बातों को बातों ही बातों में

बातों के बादल भी नहीं बनते हैं
बात बात में फटते भी नहीं हैं
बातें निचोड़नी पड़ती हैं
कुछ पीनी पड़ती हैं कुछ जीनी पड़ती हैं

बात तो तब बनती है जब कोई बात
बहुत ही धीरे धीरे हौले हौले से
बात की बात में बातों के बीच छोड़ दी जाती है

कब काट जाती है कब फाड़ जाती है
कब कहाँ किस को चीर जाती है
उसके बाद मटकती उछलती चल देती है
हर जगह जा जा कर नाच दिखाती है

देखते रह जाते हैं बातें बनाने वाले
उनकी खुद की कही बात 
उन्हीं को लपेट ले जाती है

‘उलूक’ जानता है बहुत अच्छी तरह
सबसे अच्छी बात ऐसी ही एक बात होती है
जो किसी के भी 
समझ में कभी भी नहीं आ पाती है

बातें बनाना वैसे भी किसी को भी
कहीं भी नहीं सिखाया जाता है

बातें तो बात ही बात में
यूँ ही चुटकी में बना दी जाती हैं
मुश्किल तब होती है
जब बातों में से ही एक बात
च्यूइंगम हो जाती है ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शनिवार, 17 अक्टूबर 2015

सावन गुजरा इक्कीस इक्यावन ऐक सौ एक होते होते हो गये ग्यारा सौ हरा था सब कुछ हरा ही रहा

सावन निकल गया 
कुछ नया नहीं हुआ 

पहले भी सारा 
हरा हरा ही नजर आया है

अब तो
हरा जो है 
और भी हरा हरा हो गया है

किससे कहूँ किसको बताऊँ 
हरा कोई नहीं देखता है
हरे की जरूरत भी किसी को नहीं है 
ना ही जरूरत है सावन की 

मेरे शहर में 
जमाने गये बहुत से लोग हुऐ 
हाय 
उस समय सोचा भी नहीं 

किसी ने बहुत जोर देकर 
हरे को हरा ही कहा 
एक दिन नहीं कई बार कहा 
यहाँ तक कहा हरा 
कि 
सारे लोगों ने उसे पागल कह दिया 

होते होते 
सारा सब कुछ हरा हरा हो गया 
एक नहीं दो नहीं पूरा शहर ही 
पागलों का हो गया 

ऐसा भी क्या हरा हुआ 
हरा भरा शहर 
बचपन से हरा होता हुआ 
देखते देखते सब कुछ हरा हो गया 
लोग हरे सोच हरी आत्मा हरी 
और क्या बताऊँ 
जो हरा नहीं भी था 
वो सब कुछ हरा हो गया 

इस सारे हरे के बीच में 
जब ढूँढने की कोशिश की
सावन के बाद 

बस
जो नहीं बचा था 
वो ‘उलूक’ का हरा था

हरा
नजर आया ही नहीं 
हरे के बीच में 
हरा ही खो गया । 

चित्र साभार: www.vectors4all.net

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

लिखे पर चेहरा और चेहरे पर लिखा हुआ दिखता

कभी किसी दिन
चेहरे लिखता तो कहीं कुछ दिखता 
बिना चेहरे के लिखा भी क्या लिखा 

गर्दन से कटा
बचा कुचा
बाकी शरीर के नीचे का बेकार सा हिस्सा 

चेहरा लिखने का मतलब
चेहरा और बस चेहरा 
आईने में देखी हुई शक्ल नहीं 

छोटे कान नहीं ना ही बहुत लम्बी नाक
ना पतली गर्दन ना काली आँख 
ना वैसा ना वैसे जैसा कुछ 
कुछ नहीं तो पैमाना लिखता 

कहीं
नपता पैमाना सुनता
मदहोश होता 
कुछ कभी
कहीं किसी के लिये 
क्या पता अगर मयखाना लिखता 

लिखना और नहीं लिखना
बारीक सी रेखा
बीच में लिखने वालों और नहीं लिखने वालों
के बीच की

लिखे के बीच में से
झाँकना शुरु होता हुआ चेहरा लिखता 

चेहरे के दिखते 
पीछे का धुँधलाना शुरु होता
लिखा और लिखाया दिखता

अच्छा होता
पहाड़ी नदी से उठता हुआ सुबह सवेरे का कोहरा लिखता 

स्याही से शब्द लिखते लिखते छोड़ देता लकीर 
उसके ऊपर लिख कर देखता चेहरे बस चेहरे
चेहरे पर चेहरे लिखता 

देखता
लिखा हुआ किसे दिखता और किसे नहीं दिखता ।

बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

आज यानी अभी के अंधे और बटेरें

कोई भी कुछ
नहीं कर सकता
आँखों के परदों
पर पड़ चुके
जालों के लिये
साफ दिखना
या कुछ धुँधला
धुँधला हो जाना
अपना देखना
अपने को पता
पर मुहावरों के
झूठ और सच
मुहावरे जाने
कहने वाले
कह गये
बबाल सारे
जोड़ने तोड़ने
के छोड़ गये
अब अंधे के
हाथ में बटेर
का लग जाना
भी किसी ने
देखा ही होगा
पर कहाँ सिर
फोड़े ‘उलूक’ भी
जब सारी बटेरें
मुहँ चिढ़ाती हुई
दिखाई देने लगें
अंधों के हाथों में
खुद ही जाती हुई
और हर अंधा
लिये हुऐ नजर
आये एक बटेर
नहीं बटेरें ही बटेरें
हाथ में जेब में
और कुछ नाचती
हुई झोलों में भी
कोई नहीं समय
की बलिहारी
किसी दिन कभी
तो करेगा कोई
ना कोई अंधा
अपनी आँख बंद
नोच लेना तू भी
बटेर के एक दो पंख
ठंड पड़ जायेगी
कलेजे में तब ही
फिर बजा लेना
बाँसुरी बेसुरी अपनी ।

चित्र साभार: clipartmountain.com