उलूक टाइम्स

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

खुद को खुद बहुत साफ नजर आ रहा होता है लिखा फिर भी कुछ नहीं जा रहा होता है

सब को पता होता है
आसान नहीं होता है
खुद ही लिख लेना
खुद को और दे देना
पढ़ने के लिये किसी
दूसरे या तीसरे को

सब लिखना जानते हैं
लिखते भी हैं

कुछ कम लिखते हैं
कुछ ज्यादा लिखते है
कुछ इसको लिखते हैं
कुछ उसको लिखते हैं

खुद को लिखने की
कितने सोचते हैं
पता नहीं पर
कहीं पर खुद को
लिखते हुऐ
नहीं दिखते हैं

लिखा हुआ
बहुत कुछ होता है
दिखता है
कहा हुआ भी
कम नहीं होता है
सुनाई पड़ता है

खुद पर खुद का
उसमें कितना
कितना होता है
उसे निकाल कर
मापने का कोई
मीटर नहीं होता है

कोई सोचता है
या नहीं पता नहीं
पर कई बार
मन करता है
लिख दिया जाये
सब कुछ

फिर सोच में आता है
कौन पढ़ेगा वो सब
जो किसी के भी
पढ़ने के मतलब
का नहीं होता है

अच्छा होता है
सबका अपना
खाना अपना
पीना होता है

क्या कम नहीं
होता है इस सब
के बावजूद
इसका और
उसका पढ़
लेने का समय
कोई निकाल लेता है

खुद का खुद ही
पढ़ा लिखा जाये
वही सबसे अच्छा
रास्ता होता है

खुदी को कर
बुलंद इतना
खुदा ने यूँ ही
बेकार में नहीं
कहा होता है

खुद पर लिखे पर
खुद से वाह वाह
भी कोशिशों के
बावजूद जब नहीं
कहा जा रहा होता है

उस समय ये
समझ में बहुत
अच्छी तरह आ
रहा होता है

खुद को पढ़वाने
का शौक रखने वाला
हमेशा खुद को
किसी और से ही
क्यों लिखवा
रहा होता है ।

चित्र साभार: http://www.clker.com/

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

'मोतिया’ तू जा चुका था देर से पता चला था कल नहीं लिख सका था आज लिख रहा हूँ क्योंकि तुझ पर लिखना तो बहुत ही जरूरी है


ख्वाब देखने में कोई हर्ज भी नहीं है 
ना ही ख्वाब अपना किसी को बताने में 
कोई लिहाज है 

बहुत पुराना है 

आज तेरे जाने के बाद चूँकि 
आ रहा कुछ याद है 

मैंने जब जब तुझे देखा था 
मुझे कुछ हमेशा ही लगा था 
कि जैसे कोई ख्वाब देखना चाहिये 
और जो बहुत ही जरूरी भी होना चाहिये 

जरूरी जैसे तू और तेरा आना शहर को 
और शहर से वापस अपने गाँव को रोज का रोज
चला जाना बिना नागा 

हमेशा महसूस होता था जैसे 
तुझे यहाँ नहीं कहीं और होना चाहिये था 

जैसे कई लोग पहुँच जाते है 
कई ऐसी जगहों पर 
जहाँ उन्हें कतई नहीं होना चाहिये 

तू भी तो इंटर पास था 
मंत्री वो भी उच्च शिक्षा का 
सोचने में क्या जाता है 

और सच में 

मैंने सच में कई बार 
जब तू सड़क पर बैठा 
अखबार पढ़ रहा होता था 
बहुत गहराई से इस पर सोचा था 

जो लोग तुझे जानते थे या जानने का दावा करते थे
उनकी बात नहीं कर रहा हूँ 

मैं अपनी बात कर रहा हूँ 

तू भी तो मेरा जैसा ही था 
जैसा मैं रोज कुछ नहीं करता हूँ 

तेरी दिनचर्या मेरी जैसी ही तो होती थी हमेशा से 

रोज तेरा कहीं ना कहीं शहर की किसी गली में मिलना 

तेरी हंसी तेरा चलने का अंदाज 
सब में कुछ ना कुछ अनोखा 
तू बुद्धिजीवी था 
ये मुझे सौ आना पता था 

अफसोस 
मैं सोच सोच कर भी नहीं हो पाया कभी भी 
और अभी भी मैं वहीं रह गया 

तू उठा उठा 
और उठते उठते 
कहाँ से कहाँ पहुँच गया 

तेरे चले जाने की खबर देर से मिली 

जनाजे में शामिल नहीं हुआ 
अच्छा जैसा नहीं लगा 

कोई नहीं 
तू जैसा था सालों पहले वैसा ही रहा 
और वैसा ही उसी तरह से 
इस शहर से चला गया 
हमेशा के लिये 

तेरी कमी खलेगी 
जब रोज कहीं भी किसी गली में 
तू नहीं मिलेगा 

पर याद रहेगा 

कुछ लोग सच में बहुत दिनों तक याद रह जाते हैं 

हम उनकी श्रद्धाँजलि सभा नहीं भी कराते हैं 
शहर के संभ्रांत लोगों की भीड़ में 
तब भी । 

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

धीरे से लाईन के अंदर चले जाना बस वहीं का रहता है मौसम आशिकाना

साल भी चौदहवां
दिन भी चौदहवा
दसवीं बार आ गया
फिर इस बार
दो बार और आयेगा
अब चौदहवाँ महीना
तो होता नहीं है जो
चौदाह चौदाह चौदाह
भी हो जायेगा
दिमाग लगाने की
जरूरत नहीं है
इस सब में
ये तो बस बात
शुरु करने को एक
शगूफा छोड़ना है
और जो दिमाग है
बस आज वही कुछ
यहाँ नहीं कहना है
इसलिये ऐसा
कह दिया है
नहीं तो कहने को
वैसे भी बहुत
कुछ होता है
भिखारी की फटी
झोली में तक
फिर भी कौन
नजर डालता है
अंदर कुछ नहीं
भी होता है और
बहुत कुछ
होता भी है
सड़क में लाईन
के पीछे या आगे
या बीच में कहीं भी
रहने की आदत
नहीं होने से
यही सब होता है
सब के लिये
सब कुछ सही
होते हुऐ भी
लाईन से बाहर
सड़क के किनारे से
दूर चलने वाले
की तरह काम की
बातें छूट जाती हैं
बाहर से बहुत सी
चीजें नजर आना
शुरु हो जाती हैं
अभी भी सुधर जा
सब की तरह
किसी भी बात को
बुरा मत बता
वो सब जो
हो रहा होता है
सही हो रहा होता है
क्योंकि वो
हो रहा होता है
चैन से चैन लिखने
की भी सोच
बैचेन आत्मा की
तरह खुद को मत नोच
लाईन में चला जा
कहीं से भी
कभी भी
हाँ में हाँ मिला
गाना गा पर
बस झूम बराबर
झूम तक ही
ये नहीं कि
शराबी भी हो जा
चल अब सुधर जा
सड़क होती है
चलने के लिये
किनारे के मोह से
बाहर निकल आ
लिखने को कोई
 मना नहीं कर रहा है
अंदर जा कर देख
लाईन वाला
हर कोई तेरे से
बहुत अच्छा
लिख रहा है ।

चित्र साभार: http://www.clipartof.com/

सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

कोई नहीं कोई गम नहीं तू भी यहीं और मैं भी यहीं



साल के दसवें
महीने का
तेरहवाँ दिन

तेरहवीं नहीं
हो रही है कहीं

हर चीज
चमगादड़
नहीं होती है
और उल्टी
लटकती
हुई भी नहीं


कभी सीधा भी
देख सोच
लिया कर

घर से
निकलता
है सुबह

ऊपर
आसमान में
सूरज नहीं
देख सकता क्या

असीमित उर्जा
का भंडार
सौर उर्जा
घर पर लगवाने
के लिये नहीं
बोल रहा हूँ

सूरज को देखने
भर के लिये ही
तो कह रहा हूँ

क्या पता शाम
होते होते सूरज के
डूबते डूबते
तेरी सोच भी
कुछ ठंडी हो जाये

और घर
लौटते लौटते
शाँत हवा
के झौकों के
छूने से
थोड़ा कुछ
रोमाँस जगे
तेरी सोच का

और लगे तेरे
घर वालों को भी
कहीं कुछ गलत
हो गया है

और गलत होने
की सँभावना
बनी हुई है
अभी भी
जिंदगी के
तीसरे पहर से
चौथे पहर की
तरफ बढ़ते हुऐ
कदमों की

पर होनी तो तेरे
साथ ही होती है
‘उलूक’
जो किसी को
नहीं दिखाई देता
किसी भी कोने से
तेरी आँखे
उसी कोने पर
जा कर रोज
अटकती हैं
फिर भटकती है

और तू
चला आता है
एक और पन्ना
खराब करने यहाँ

इस की
भी किस्मत
देश की तरह
जगी हुई
लगती है ।

चित्र साभार: http://www.gograph.com/

रविवार, 12 अक्तूबर 2014

पुराने फटे कपड़े के दो टुकड़े कर दो नये करने वाले हैं

एक पुरानी दीवार के पलस्तर को ढकने वाले हैं पुराने फटे कपड़े के दो टुकड़े कर दो नये करने वाले हैं    
संदर्भ: कुमाऊँ विश्वविद्यालय





खबर
हवा में 
हो तो

खुश्बू 


खुश्बू?
कहना 
ठीक नहीं 

गंध कहना 
सही रहेगा 

सड़ी गली 
चीजों के साथ 
रहते उठते बैठते
आदत 
हो जाती है 

और दुर्गंध भी 
किसी के लिये 
एक सुगँध हो जाती है 
अपनी अपनी नाक से
अपने अपने हिसाब से सूँघना 

हाँ तो
मैं 
कहते कहते 
गंध पर ही अटक गया 

क्या क्या नहीं 
होता है
अपने ही 
आस पास भी 
अटकने के लिये 
ध्यान बंट ही जाता है 

खबर की गंध थी 
आज आ भी गई 
टी वी में अखबार में 
जगह जगह के समाचार में 

एक फटे पैबंद से 
पट चुके कपड़े के 
दिन फिर से फिरने वाले हैं 
सरकार तैयार हो गई है 
दो टुकड़े करके इधर उधर के 
दो चार फटे कपड़ों के साथ
जोड़ जुगाड़ 
कर फिर से 
सिलने वाले हैं 

जिसे नया कपड़ा 
कह कर
उसी 
पुराने नंगे बदन को
फिर से 
ढकने वाले हैं 

जिसके कपड़े 
एक बार फिर से 
आजादी के साठ दशकों के बाद 
काट छाँट करने के लिये
जल्दी 
उतरने वाले हैं 

बहुत खुश हैं 
खुश होने वाले 
लिखने वाले का काम है लिखना 
एक दो पन्ने ‘उलूक’ के 
बही खाते में गीले आटे को 
पोत पात कर चिपकने वाले हैं 

चीटीं ने कौन 
सा उड़ना है 
अगर दिखे भी सामने सामने से 
उसके बदन पर पर निकलने वाले हैं 

जुगाड़ियों का 
क्या जुगाड़ है 
इस सब के पीछे 
क्या सोचना 

जुगाड़ियों के 
दिन फिरते रहते हैं 
जुगाड़ो से एक बार शायद
और भी 
फिरने वाले हैं 

भौंचक्का क्यों 
होता है सुन कर 
अच्छे दिन देश के लिये ही जरूरी नहीं हैं 

एक फटे कपड़े के 
भी दिन फिरने वाले हैं । 

चित्र साभार: http://www.123rf.com/

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

आठ सौंवा पन्ना ‘उलूक’ का बालिकाओं को समर्पित आज उनके अंतर्राष्ट्रीय दिवस पर



छोटे छोटे 
फूल 

रंग बिरंगे 

और 
कोमल 
भी 

बिखेरते हुऐ 

खुश्बू 
रंग 
और 
खुशियाँ 

चारों तरफ 

दिखता है 

हर
किसी को 

अपने
आस पास

एक
इंद्रधनुष 

पहुँचते
ही 

इस
दुनियाँ में 

किसे
अच्छा 
नहीं लगता 

कोमल 
अहसास 

अपने पास 

जिंदगी 
की
दौड़ 
शुरु होते 

बिना पैरों के 

‘ठुमुक
चलत 
राम चंद्र
बाजत 
पैजनियाँ’ 

फिर 

यही
अहसास 
बन जाते हैं 

सतरंगी धागे 

कलाई
के 
चारों ओर 

फिर 
एक और 

इंद्रधनुषी 
छटा 
बिखेरते हुऐ 

सृष्टि 
अधूरी होगी 

समझ में 
भी आता है 

अनजाने
से 
किसी पल में 

बचपन 
से
लेकर 
घर छोड़ते 

नमी के साथ 

और 

लौटते 

खुशी
के 
पलों में 

हमेशा 

बहुत 
जल्दी 

बढ़ी होती 
उँचाई के 
साथ

झिझक 
जरूरी नहीं रही 

बदलते 
समय के साथ 

मजबूत 
किया है 
इरादों को 

सिक्के
के 
दोनो पहलू 
भी
जरूरी हैं 

और 
उन दोनो 
का
बराबर 
चमकीला 

और 
मजबूत होना
भी 

आज 
का दिन 

रोज के 
दिन में 
बदले 

सभी दिन 
साल के
तुम्हारे 

यही
दुआ है 
अपने लिये 

क्योंकि 
खुद की
ही 

आने वाली 
पीढ़ियों
की 

सीढ़ियों का 

बहुत 
मजबूत होना 

बहुत 
जरूरी है । 

चित्र साभार: http://retroclipart.co

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

दस अक्टूबर है आज पागलों का दिन है पागलों को पता है पता नहीं

पागलों का दिन है
सुबह सुबह आज
डाक्टर मित्र
ने बताया
बहुत कुछ
अपना अपना
जैसा लगा
आज का सारा दिन
कल ही रात सुना था
किसी का सपना
मर गया बुखार से
अब सपने को भी
अगर मरना ही था
तो कैंसर से मरता
ऐड्स से मरता
मरा भी तो बुखार से
वैसे भी मरने वाले
सपने बहुत होते हैं
बहुतों के होते हैं
जिनके नहीं
मरने होते हैं
उन्हें पता होते हैं
सपनों को जिंदा
रखना आता है जिन्हें
वहाँ भी साँठ
गाँठ चलती है
बहुत तंदुरुस्त
सपने होते हैं
उन लोगों के और
आज ज्यादातर
लोग यही होते हैं
जिसे बहुमत का
नाम दिया जाता है
अब रोटी के सपने
देखने की कोशिश
करने वाला
कहाँ जानता है ये सब
पेट के सपने ही
मरते सपने होते हैं
उँचे सपने दिमाग
से देखे जाते हैं
और सपनों को
जिंदा रखने के लिये
ही सपने मारे जाते हैं
मरते सपने देखने
वाले पागल होते हैं
और पागलों को
आज के दिन
प्यार देने की
हिदायत दी जाती है
और अच्छा खाना भी
पागलों के दिन की
मुबारकबाद देनी
ही चहिये और वो
आज दी जाती है
सुबह सुबह अखबार
में पूरे पन्ने के
विज्ञापन में भी
बहुत सी बातें
नजर आज ही आती हैं
और पागलों को भी
सभी बातें बताई जाती हैं ।

चित्र साभार: http://www.fotosearch.com

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

क्या किया जाये ऐसे में अगर कोई कहीं और भी मिल जाये

रिश्ते शब्दों के
शब्दों से भी
हुआ करते हैं
जरूरी नहीं
सारे रिश्तेदार
एक ही पन्ने में
कहीं एक साथ
मिल बैठ कर
आपस में बातें
करते हुऐ
नजर आ जायें
आदमी और
उसकी सोच की
पहुँच से दूर
भी पहुँच जाते हैं
एक पन्ने के
शब्दों के रिश्ते
किसी दूसरे के
दूसरे पन्ने की
तीसरी या चौथी
लाईन के बीच में
कहीं कुछ असहज
सा भी लगता है
कुछ शब्दों का
किसी और की
बातों के बीच
मुस्कुराना
कई बार पढ़ने
के बाद बात
समझ में आती
हुई सी भी
लगती है
बस पचता
नहीं है शब्द का
उस जगह होना
जैसे किसी के
सोने के समय
के कपड़े कुछ
देर के लिये
कोई और पहन
बैठा हो
उस समय एक
अजीब सी इच्छा
अंदर से बैचेन
करना शुरु
कर देती है
जैसे वापस
माँगने लगे कोई
अचानक पहने
हुऐ वस्त्र
आँखे कई बार
गुजरती हैं
शब्दों से इसी तरह
कई लाईनों के
बीच बीच में
बैठे हुऐ रिश्तेदारों
के वहाँ होने की
असहजता के बीच
मन करता है
खुरच कर क्यों ना
देख लिया जाये
क्या पता
नीचे पन्ने पर
कुछ और लिखा हुआ
समझ में आसानी
से आ जाये
‘उलूक’ तेरे चश्में में
किस दिन किस
तरह की खराबी
आ जाये
तेरे रिश्तेदार
कौन कौन से
शब्द है और
कहाँ कहाँ है
शायद किसी
की समझ में
कभी गलती
से आ ही जाये।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

तालाब में क्यों कूदा नदी में जा कर क्यों नहीं नहा आया

इस पर कुछ
लिख कर जब
उसको पढ़ाया

बत्तीस लाईन
पढ़ने में उसने
बस एक डेढ़
मिनट लगाया

थोड़ा
सिर हिलाया
थोड़ा इधर
थोड़ा उधर घुमाया

कुछ देर लगा
जैसे कुछ सोचा
फिर आँखों
को मींचा

दायें हाथ
की अंगुलियों से
अपने बायें कान
को भी खीँचा

ऐनक उतार कर
रुमाल से पोंछा
कंधे पर हाथ
रख कर कुछ
अपनी ओर खींचा

बहुत अपनेपन से
मुँह के पास
मुँह ले आया

फुसफुसा कर
हौले से बस
इतना ही पूछा

बरखुर्दार !
ये सब करना
तुमको किसने
सिखाया

कब से शुरु किया
और ये सब
करने का विचार
तुम्हें कैसे आया

अच्छा किया मैंने
जो मैं इधर को
जल्दी चला आया

बहुत से लोगों ने
बहुत सी चीजों में
बहुत कुछ कमाया

लिखना ही था
तूने ‘उलूक’
तो फिर मुझे
पहले क्यों नहीं
कुछ बताया

इस पर तो सबने
सब कुछ कब से
लिख लिखा दिया

उस पर कुछ
लिखने का तू
कभी क्यों नहीं
सोच पाया ।

चित्र साभार: http://www.clipartguide.com

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

किसी दिन सोचा कुछ और लिखा कुछ और ही दिया जाता है

सब कुछ तो नहीं
पर कुछ तो पता
चल जाता है
ऐसा जरूरी तो नहीं
फिर भी कभी
महसूस होता है
सामने से लिखा हुआ
लिखा हुआ ही नहीं
बहुत कुछ और
भी होता है
अजीब सी बात
नहीं लगती है
लिखने वाला
भी अजीब
हो सकता है
पढ़ने वाला भी
अजीब हो सकता है
जैसे एक ही बात
जब बार बार
पढ़ी जाती है
याद हो जाती है
एक दो दिन के लिये
ही नहीं पूरी जिंदगी
के लिये कहीं
सोच के किसी
कोने में जैसे
अपनी एक पक्की
झोपड़ी ही बना
ले जाती है
अब आप कहेंगे
झोपड़ी क्यों
मकान क्यों नहीं
महल क्यों नहीं
कोई बात नहीं
आप अपनी सोच
से ही सोच लीजिये
एक महल ही
बना लीजिये
ये झोपड़ी और महल
एक ही चीज
को देख कर
अलग अलग
कर देना
अलग अलग
पढ़ने वाला
ही कर पाता है
सामने लिखे हुऐ
को पढ़ते पढ़ते
किसी को आईना
नजर आ जाता है
उसका लिखा
इसके पढ़े से
मेल खा जाता है
ये भी अजीब बात है
सच में
इसी तरह के आईने
अलग अलग लिखे
अलग अलग पन्नों में
अलग अलग चेहरे
दिखाने लग जाते है
कहीं पर लिखे हुऐ से
किसी की चाल ढाल
दिखने लग जाती है
कहीं किसी के उठने
बैठने का सलीका
नजर आ जाता है
किसी का लिखा हुआ
विशाल हिमालय
सामने ले आता है
कोई नीला आसमान
दिखाते दिखाते
उसी में पता नहीं कैसे
विलीन हो जाता है
पता कहाँ चल पाता है
कोई पढ़ने के बाद की
बात सही सही कहाँ
बता पाता है
आज तक किसी ने
भी नहीं कहा
उसे पढ़ते पढ़ते
सामने से अंधेरे में
एक उल्लू
फड़फड़ाता हुआ
नजर आता है
किसने लिखा है
सामने से लिखा 
हुआ कुछ कभी 
पता ही नहीं 
लग पाता है 
ऐसे लिखे हुऐ 
को पढ़ कर 
शेर या भेड़िया 
सोच लेने में
किसी का
क्या जाता है ।
http://www.easyvectors.com

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

बंद करके आँखों को कभी उजाले को अंंधेरे में भी देखा जाये

आँखें बंद कर
कुछ दिनों
कुछ कह
लिया जाये
अंंधेरे में अंंधेरा
जला कर भी
कुछ कर
लिया जाये
रोज दिखती है
बिना चश्मे
उजाले की
करामातें
कुछ नया करें
किसी दिन और
कुछ भी नहीं
कहीं देखा जाये
रातों में होती है
रोशनी और
बहुत होती है
चाँद तारों को भी
अवकाश दे
के देखा जाये
एक तुम आते
हो खयालों में
एक वो आते जाते हैं
किसी और के
आने जाने का भी
कभी सोचा जाये
मुद्दतें हो गई हैं
पता चल भी
नहीं पाया यूँ भी
अपने होने ना होने
का ही कभी कुछ
पता कर लिया जाये
‘उलूक’
अंधेरे से रखनी
भी है दोस्ती तुझे
तेरी किस्मत भी है
कुछ शर्म
और लिहाज
उसका ही सही
कभी कर
लिया जाये
आने जाने
से रोका
नहीं है तुझे
भी किसी
ने कभी
उजाले में अंंधेरे
के उसूलों को
अंंधेरे में आजमा
कर कहीं अंंधेरे में
ही कभी देखा जाये
खुली आँखो से
देखती है दुनियाँ
सभी कुछ हमेशा ही
बंद कर के भी
आँखों से देखा
जाता है कुछ कभी
बस यही और यही
देखने के लिये
ही सही कभी
ये भी देखा जाये ।

चित्र साभार: http://www.prwatch.org

रविवार, 5 अक्तूबर 2014

अभी अपनी अपनी बातें है बहुत हैं तेरी मेरी बातें कभी मिल आ वो भी करते हैं

कभी
मिलेगी फुरसत
इन सब बातों से
तो तेरी कुछ बात भी
लिख के कहीं रख लूंंगा

अभी तो
समेटने में
लगा हूँ
अपने आस पास
के फैल चुके रेगिस्तानी
कांंटो की फसल को

जो
जाने अन्जाने में
खु
द ही बोता
चला जा रहा हूँ

देख कर उगे हुऐ
बहुत ही खूबसूरत
फूल कैक्टस के
बहुत से रेगिस्तानों में
बिना पानी और
मिट्टी के भी

कई कई तो उगते हैं
कई कई सालों में
बस एक बार ही
और हमेशा इंतजार
रहता है उनके
किसी सुबह मुँह अंधेरे
खिल उठने का

चुभने वाली चीजें
वैसे तो वास्तु
के अनुसार
घर के सामने से
नहीं रखी जाती हैं

लेकिन
बैचेनियाँ
कोई बेचे
या ना बेचे
अपने लिये
अपने आप ही
खरीदी जाती हैं

धुंंऐ और
कोहरे में
वैसे भी
दूर से कोई
फर्क नजर
नहीं आता है

एक कहीं कुछ
जलने से बनता है
और दूसरा कहीं
कुछ बुझाने के बाद ही
राख के ऊपर से मडराता है

अब
कैसे कहे कोई
कि इतना कुछ है
उलझा हुआ
आस पास
एक दूसरे से

सुलझाने की
कौन सोचे
बस लिख कर
रख देने से ही
काम चल जाता है

तुझ पर है
और
बहुत कुछ है
लिखने के लिये

लिखूंंगा भी
किसी दिन

अभी तो
अपने बही खाते
के हिसाब किताब
को ही कुछ
लिख लिखा
कर रख लूँ कहीं
किसी पन्ने पर

तब तक
तेरे पास भी
बहुत मौके हैं
अपने हिसाब किताब
निबटाने के लिये

मिलते हैं
किसी दिन
कभी बैठ कर
अपने अपने
बही खातों
के साथ

कुछ
सवालों के हल
हर किताब में
एक जैसे ही
मिला करते हैं ।

चित्र साभार: http://www.clipartillustration.com

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

क्यों नहीं लिखूँगा गंदगी हो जाने से अच्छा गंदगी बताना भी जरूरी है

घर को सुन्दर
बनाना भी
जरूरी है

घर की खिड़कियों
के शीशों को
चमकाना भी
जरूरी है

बाहर का खोल
ना खोल दे
कहीं पोल

तेज धूप और
बारिश के पानी
से बचाना भी
जरूरी है

बढ़िया कम्पनी
का महँगा पेंट
चढ़ाना भी
जरूरी है

रोशनी तेज रहे
बाहर की
दीवारों पर
देख ना पाये
कोई नाम
किसी का

इश्तहारों पर
आँखों को
थोड़ा सा
चौधियाँना
भी जरूरी है

शीशों के बाहर
से ही लौट लें
प्रश्न सभी के

अंदर के दृश्यों को
पर्दों के पीछे
छिपाना भी
जरूरी है

बुराई पर
अच्छाई की
जीत दिखानी
भी जरूरी है

अच्छाई को बुराई
के साथ मिल बैठ
कर समझौता
कराना भी जरूरी है

रावण का
खानदान है
अभी भी
कूटने पीटने
के लिये भगवान
राम का आना
और जाना
दिखाना भी
जरूरी है

फिर कोई नाराज
हो जायेगा और
कहेगा कह रहा है

क्या किया जाये
आदत से मजबूर है
नकारात्मक सोच
की नालियों में
पल रहा ‘उलूक’ भी

उसे भी मालूम है
घर के अंदर चड्डी
चल जाती है
बाहर तो गांंधी कुर्ते
और टोपी में आना
भी जरूरी है

नहीं कहना चाहिये
होता कुछ नहीं है
पता होता है
फिर भी उनकी
सकारात्मक
झूठ की आंंधियों
में उड़ जाना
भी जरूरी है ।

चित्र साभार: http://www.beautiful-vegan.com

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

सत्य पर प्रयोग जारी है बंद कमरों में किया जा रहा है

सत्य क्या है बापू
जो तूने समझाया वो
या जो लोग आज
समझा रहे हैं
सत्य कहने की
कोशिश करने वाले
पर बौखला कर
कभी आँख तो कभी
दाँत भींच कर
अपने दिखला रहे हैं
मीठा होना चाहिये
सभी कुछ
बता बता कर
हर कड़वी चीज को
मिट्टी के नीचे
दबाते जा रहे हैं
पर सत्य भी
बेशरम जैसा
बाज नहीं आ रहा है
पौलीथीन की नहीं
गलने वाली थैलियों
जैसा हो जा रहा है
जरा सा पानी
गिरा नहीं
मिट्टी के ऊपर
थैली का एक
छोटा कोना
निकल कर
बाहर आ
जा रहा है
तालियाँ पहले
बजवा कर
मदारी बंदर को
नचवा रहा है
जमूरा जम्हाई
ले रहा है
सो भी नहीं
पा रहा है
तमाशा करने
की आदत है
तमाशबीन को
कल तक सड़क पर
किया करता था
आज पेड़ की फुन्गी
के ऊपर बैठा
कठफोड़वा बना
नजर आ रहा है
अब बन ही गया तो
फिर अपना लकड़ी में
छेद कर कीड़े निकाल
कर खाने की कला
क्यों नहीं दिखा रहा है
बापू रोना सत्य को
बस इसी बात पर
ही तो आ रहा है
जो काम करने को
दिया जा रहा है
उसी से ध्यान हटाने
के लिये आज हर कोई
कोई दूसरे काम की
झंडी हिला हिला कर
सबका ध्यान हटा रहा है
जिसकी समझ में
आ रहा है वो कह दे रहा है
और पढ़ने वालों की
जम के गालियाँ खा रहा है
‘उलूक’ सत्य क्या है
सोचने पर अभी क्यों
जोर लगा रहा है
सत्य पर प्रयोग जारी है
जब तक कुछ निकल कर
बाहर नहीं आ रहा है
अभी तो बस इतना
समझ में आ रहा है
भैंस के चारों तरफ
शोर हो रहा है
किस की है पता नहीं
चल पा रहा है
क्योंकि
हर कोई एक लाठी
लेकर हवा में
जोर जोर से
घुमा रहा है ।

चित्र साभार: http://pratikdas1989.blogspot.in/2011/04/my-experiments-with-social-service.html

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

बापू आजा झाड़ू लगाने जन्मदिन के दिन बहुत सा कूड़ा कूड़ा हो गया

बापू तेरा भी था
आज जन्मदिन
और मेरा भी
हर साल होता था
इस साल भी हो गया

पिछले सालों में
कभी भी नहीं
हो पाया वैसा

जैसा आज
कुछ कुछ ही नहीं
बहुत कुछ होना
जैसा हो गया

बापू तेरा हुआ
होगा कभी
या नहीं भी
हुआ होगा

पर मेरा दिल तो
आज क्या बताऊँ तुझे
झिझक रहा हूँ बताने में
झाड़ू झाड़ू होते होते
पूरा का पूरा बस
झाड़ूमय हो गया

झाडू‌ लगाती थी
कामवाली घर पर
रोज ही लगाती थी
मेरे घर का कूड़ा
बगल के घर की  

गली में सँभाल कर

भी जरूर आती थी

झाड़ू देने वाली
नगरपालिका की
दिहाड़ी मजदूर
अपने वेतन से बस
झाड़ू ही तो एक
खरीद पाती थी

झाड़ू क्राँति के
आ जाने से उसका
भी लगता है कुछ
जीने का मकसद
कम से कम आज
तो हो ही गया

झाड़ू उसके हाथ का
तेरे नाम पर आज
लगता है जैसे एक
स्वतंत्रता की जंग
करता हुआ यहाँ
तक पहुँच कर
शहीद हो गया

केजरीवाल नहीं
भुना पाया झाड़ू को
झाड़ू सोच सोचकर
भी कई सालों तक

गलती कहाँ हुई थी
उससे आज बहुत
बारीकी से देखने से
उसे भी लगता है
कुछ ना कुछ
महसूस हो गया

छाती पीट रहा होगा
आज नोचते हुऐ
अपने सिर के बालों को

झाड़ू नीचे करने के
बदले हाथ में लेकर
ऊपर को करके
क्यों खड़ा हो गया

चिंतन करना ये तो
अब वाकई बहुत ही
जरूरी जैसा हो गया

बहुत सी चीजें काम
की हैं कुछ ही के लिये
और बेकाम की
हैं सबके लिये

ये सोचना अब
सही बिल्कुल भी
नहीं रह गया

इस साल दायें
हाथ में झाड़ू ने
दिखाया है कमाल

अगले साल देख लेना
बापू तेरा लोटा भी
लोगों के शौचालय
से निकल कर

बेपेंदी लुढ़कना छोड़
बायें हाथ में आकर
आदमी के
झाड़ू की तरह
झाड़ू के साथ
कंधे से कंधा मिला
कर आदमी का
एक नेता हो गया

जो भी हुआ है
अच्छा हुआ है
बाहर की सफाई
धुलाई के लिये

‘उलूक’ तेरे लिये
अपने अंदर की
गंदगी को सफाई से
अपने अंदर ही
छुपा के रख लेने का
एक और अच्छा
जुगाड़ जरूर हो गया

बापू तू अपने चश्में
और लाठी का रखना
सावधानी से
अब खयाल
और मत कह बैठना
अगले ही साल
चुरा लिया किसी
बहुत बड़े ने
बड़ी होशियार से

और तू चोर चोर
चिल्लाने के लायक
भी नहीं रह गया ।

चित्र साभार: http://vedvyazz.blogspot.in/2011/01/of-service-and-servitude_17.html

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

तोते के बारे में तोता कुछ बताता है जो तोते को ही समझ में आता है


तोते कई तरह के पाये जाते है
कई रंगों में कई प्रकार के
कुछ छोटे कुछ बहुत ही बड़े

तोतों का कहा हुआ तोते ही समझ पाते हैं

हरे तोते पीले तोते की बात समझते हैं
या पीले पीले की बातों पर अपना ध्यान लगाते हैं

तोतों को समझने वाले ही
इस सब पर अपनी राय बनाते हैं

किसी किसी को शौक होता है तोते पालने का
और किसी को खाली पालने का शौक दिखाने का

कोई मेहनत कर के
तोतों को बोलना सिखा ले जाता है
उसकी अपनी सोच के साथ
तोता भी अपनी सोच को मिला ले जाता है

किसी घर से सुबह सवेरे
राम राम सुनाई दे जाता है
किसी घर का तोता चोर चोर चिल्लाता है

कोई सालों साल
उल्टा सीधा करने के बाद भी
अपने तोते के मुँह से
कोई आवाज नहीं निकलवा पाता है

‘उलूक’ को क्या करना इस सबसे

वो जब उल्लुओं के बारे में ही कुछ
नहीं कह पाता है

तो हरों के हरे
और पीलों के पीले
तोतों के बारे में कुछ पूछने पर

अपनी पूँछ को अपनी चोंच पर चिपका कर
चुप रहने का संकेत जरूर दे जाता है

पर तोते तो तोते होते हैं
और तोतों को तोतों का कुछ भी कर लेना
बहुत अच्छी तरह से समझ में आ जाता है ।

चित्र साभार: http://www.www2.free-clipart.net/

सोमवार, 29 सितंबर 2014

सोच तो सोच है सोचने में क्या जाता है और क्या होता है अगर कोई सोच कर बौखलाता है


अपने कुछ भी सोचे हुऐ पर
कुछ नहीं कह रहा हूँ

मेरे सोचे गये कुछ पर 

कुछ उसके अपने नजरिये से
सोच दिये गये पर 
कुछ सोच कर कहने की कोशिश कर ले रहा हूँ

बड़ी अजीब सी पहेली है

एक 
एक का अपना खुद का सोचना है

और दूसरा 
एक के कुछ सोचे हुऐ पर 
किसी दूसरे का कुछ भी सोच लेना है

अब कुछ सोच कर ही कुछ लिखा जाता है

बिना सोचे कुछ लिख लेने वाला होता भी है 
ऐसा सोचा भी कहाँ जाता है

कहने को तो 
अपनी सोच के हिसाब से
किसी पर भी कोई भी कुछ भी कह जाता है

दूसरा
उस हिसाब पर सोचने लायक भी हो
ये भी जरूरी नहीं हो जाता है

इसलिये
सोचने पर किसी के 
रोक कहीं लगाई भी नहीं जाती है 
सोच सोच होती है समझाई भी नहीं जाती है

अपनी अपनी सोच में 
सब अपने हिसाब से सोच ही ले जाते हैं

दूसरे की सोच से
सोचने वाले भी होते हैंं थोड़े कुछ
अजूबे होते भी हैं
और इसी दुनियाँ में पाये भी जाते हैं

‘उलूक’
तेरे सोच दिये गये कुछ पर
अगर कोई अपने हिसाब से कुछ सोच लेना चाहता है

तो वो जाने उसकी सोच जाने 
उसके सोचने पर
तू क्यों अपनी सोच की टाँग
घुसाना चाहता है

बिना सोचे ही कह ले जो कुछ कहना चाहता है

होना कुछ भी नहीं है कहीं भी
किसी की सोच में कुछ आता है या नहीं आता है ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com

रविवार, 28 सितंबर 2014

इसकी उसकी करने का आज यहाँ मौसम नहीं हो रहा है


किसी
छुट्टी के दिन 

सोचने की भी
छुट्टी कर लेने
की सोच लेने में
क्या बुरा हो रहा है 

सोच के
मौन हो जाने का
सपना देख लेने से 
किसी को कौन कहाँ रोक रहा है 

अपने
अंदर की बात 
अपने अंदर ही
दफन कर लेने से 
कफन की बचत भी हो जाती है 

दिल
अपनी जगह से
चेहरा अपनी जगह से 
अपने अपने हिसाब का 
हिसाब किताब
खुद ही अगर कर ले रहा है 

रोज ही
मर जाती हैं कई बातें सोच की
भगदड़ में दब दबा कर 

बच बचा कर
बाहर भी आ जाने से भी 
कौन सा उनके लिये
कहीं जलसा
स्वागत का कोई हो रहा है 

कई बार पढ़ दी गई 
किताबों के कपड़े
ढीले होना शुरु हो ही जाते हैं 

दिखता है
बिना पढ़े
सँभाल के रख दी गई 

एक किताब
का
एक एक पन्ना 

चिपके हुऐ एक दूसरे को
बहुत प्यार से छू रहा है 

जलने
क्यों नहीं देता
किसी दिन दिल को
कुछ देर के लिये यूँ ही ‘उलूक’ 

भरोसा रखकर
तो देख किसी दिन
राख
हमेशा नहीं बनती हर चीज 

सोचने में क्या जाता है
जलता हुआ दिल है
और पानी
बहुत जोर से कहीं से चू रहा है 

सोचने की छुट्टी
किसी एक छुट्टी के दिन 
सोच लेने से

कौन सा क्या 
इसका उसका कहीं हो रहा है । 

चित्र साभार: http://www.gograph.com

शनिवार, 27 सितंबर 2014

छोटी चोरी करने के फायदों का पता आज जरूर हो रहा है

                               

चोर होने की औकात है नहीं डाकू होने की सोच रहा है 
तू जैसा है वैसा ही ठीक है 
तेरे कुछ भी हो जाने से 
यहाँ कुछ
नया जैसा नहीं हो रहा है 

थाना खोल ले
घर के किसी भी कोने में 
और सोच ले
कुर्सी पर बैठा एक थानेदार 
मेज पर अपना सिर टिका कर सो रहा है 

देख नहीं रहा है दूरदर्शन आज का 
कुछ अनहोनी सी खबर कह रहा है 

चार साल के लिये अंदर हो जाने वाली है 
और ऊपर से
सौ करोड़ जमा करने का आदेश भी
न्यायालय
उसको साथ में दे रहा है 

बेचारी को
बहुत महँगा पड़ रहा है 
दोस्त देश के बाहर गया हुआ भी 
दो शब्द साँत्वना के नहीं कह रहा है 

समझ में
ये नहीं आ पा रहा है कि 
पुराना घास खा गया घाघ अभी तक अंदर है 
या बाहर कहीं किसी जगह अब मौज में सो रहा है 
खबर ही नहीं आती है उसकी कुछ भी मालूम नहीं हो रहा है 

आज कुछ कुछ
कोहरे के पीछे का मंजर
थोड़ा सा कुछ साफ जैसा हो रहा है 

बहुत समझदार है
मध्यम वर्गीय चोर मेरे आस पास का 
ये आज ही सालों साल सोचने के बाद भी बिना सोचे 
बस आज और आज ही पता हो रहा है 

हाथ लम्बे
होने के बाद भी 
लम्बे हाथ मारने का खतरा कोई फिर भी 
क्यों नहीं ले रहा है 

बस थोड़ा थोड़ा
खुरच कर दीवार का रंग रोगन 
अपने आने वाले भविष्य की संतानों के लिये
बनने वाले सपने के ताजमहल की पुताई का 
मजबूत जुगाड़ ही तो हो रहा है 

‘उलूक’ बैचेन है 
आज जो भी हो रहा है किसी के साथ 
इस तरह का बहुत अच्छा जैसा तो नहीं हो रहा है 

थोड़ी थोड़ी करती
रोज कुछ करती हमारी तरह करती 
तो पकड़ी भी नहीं जाती 
शाबाशियाँ भी कई सारी मिलती 
जनता रोज का रोज ताली भी साथ में बजाती 
सबकी नहीं भी होती
तो भी 
दो चार शातिरों की फोटो
खबर के साथ अखबार में 
रोज ही किसी कालम में नजर आ ही जाती 

दूध छोड़ कर
बस मलाई चोर कर खाने का 
बिल्कुल भी अफसोस 
आज जरा सा भी नहीं हो रहा है । 

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com/

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

करेगा कोई करे कुछ भी बता देगा वो उसी को एक साँस में और एक ही बार में

है कुछ भी
अगर पास तेरे
बताने को
क्यों रखता है
छिपा कर अपने
भेजे में संभाल के
देख ले क्या पता
कुछ हो ही जाये
कोशिश तो कर
छोटी सी ही सही
हिम्मत कर के
तबीयत से हवा में
ही ज्यादा नहीं तो
थोड़ा सा ही
ऊपर को उछाल के
तैरता भी रहेगा
माना कुछ कुछ
कुछ समय तक
समय की धार में
नहीं भी पकड़ेगा
कोई समझ कर
कबूतर का पंख
जैसा कुछ भी
अगर मान के
आकार में मिट्टी
या धूल का
एक गोला जैसा
ही कुछ देखेगा
कुछ देर के लिये
सामने अपनी
किसी दीवार के
खुश ही हो ले
दीवाना कोई
फुटबॉल ही समझ
लात मार कर
कहीं किसी गोल
में ले जा कर
ही डाल के
दो चार छ: आठ
बार में कुछ
करते करते
कई दिनों तक
कुछ हो ही जाये
यूँ ही कुछ कहीं
भी कभी एक दिन
किसी मंगलवार के
एक कहने वाला
कर जाये दो मिनट
में आकर बात फोड़
उस कमाल पर
करके धमाल
अपने जीभ की
तलवार की
तीखी धार के
तेरे कहने को
ना कहने से भी
होने जा रहा
कुछ नहीं है
निकलना है जब
तस्वीर का
उसके ही बोल
देने का
सब कुछ
पन्ने में
उसके ही किसी
अखबारों के
अखबार के
सोच ले ‘उलूक’
जमा करने पर
नहीं होना है
कुछ भी को
जमा कर लेने पर
कौड़ियों की सोच
का कोई खरीददार
नहीं मिलता है
इस जमाने की
दुकानों में
किसी भी
बाजार के ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com