उलूक टाइम्स

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

पुराने एक मकान की टूटी दीवारों के अच्छे दिन आने के लिये उसकी कब्र को दुबारा से खोदा जा रहा था

सड़कों पर सन्नाटा
और सहमी हुई सड़के
आदमी कम और
वर्दियों के ढेर
बिल्कुल साफ
नजर आ रहा था
पहुँचने वाला है
जल्दी ही मेरे शहर में
कोई ओढ़ कर एक शेर
शहर के शेर भी
अपने बालों को
उठाये नजर आ रहे थे
मेरे घर के शेर भी
कुछ नये अंदाज में
अपने नाखूनों को
घिसते नजर आ रहे थे
घोषणा बहुत पहले ही
की जा चुकी थी
एक पुराने खंडहर
की दीवारें बाँटी
जा चुकी थी
अलग अलग
दीवार से
अलग अलग
घर उगाने का
आह्वान किया
जा रहा था
एक हड्डी थी बेचारी
और बहुत सारे बेचारे
कुत्तों के बीच नोचा
घसीटा जा रहा था
बुद्धिजीवी दूरदृष्टा
योजना सुना रहा था
हर कुत्ते के लिये
एक हड्डी नोचने
का इंतजाम
किया जा रहा था
बहुत साल पहले
मकान धोने सुखाने
का काम शुरु
किया गया था
अब चूँकि खंडहर
हो चुका था
टेंडर को दुबारा
फ्लोट किया
जा रहा था
हर टूटी फूटी
दीवार के लिये
एक अलग
ठेकेदार बन सके
इसके जुगाड़
करने पर
विमर्श किया
जा रहा था
दलगत राजनीति
को हर कोई
ठुकरा रहा था
इधर का
भी था शेर
और उधर का
भी था शेर
अपनी अपनी
खालों के अंदर
मलाई के सपने
देख देख कर
मुस्कुरा रहा था
‘उलूक’ नोच रहा था
अपने सिर के बाल
उसके हाथ में
बाल भी नहीं
आ रहा था
बुद्धिजीवी शहर के
बुद्धिजीवी शेरों की
बुद्धिजीवी सोच का
जलजला जो
आ रहा था ।


चित्र साभार: imgkid.com

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

‘उलूक’ क्या है? नहीं पढ़ने वाला भी अब जानने चला है

एक
ने नहीं
बहुतों ने
पूछना
शुरु कर
दिया है

बाकी सब
ठीक है

बहुत
सारे लोग
लिखते हैं
लिख रहे हैं
कुछ सार्थक
कुछ निर्रथक

तुम्हारे
बारे में
भी हो
रही है
चर्चा कई
जगहों पर

हमें भी
पता चला है

तुम्हारे
लिखने
लिखाने से
हमें कोई
मतलब नहीं है

कुछ ऐसा
वैसा ही
लिख रहे हो

आस पास
के किसी भी
जाने माने
स्थापित लेखकों
कवियों चर्चाकारों
की सूची में
तुम्हारा नाम
ढूँढ कर भी
नहीं मिला है

अच्छे
खासे तो थे
कुछ दिन पहले

कहीं
चुपचाप से
खड़े भी मिले थे

इधर ही
कुछ दिनों में
कौन सा
ऐसा आया
तूफानी
जलजला है

कुछ भी
कहीं नहीं
कहने वाला
कहीं भी
जा कर
कुछ भी
लिखने
लिखाने
को चला है

चलो
होता है
उम्र का
तकाजा भी है

कुछों को
छोड़ कर
सर और
दाड़ी का
लगभग
हर बाल भी
अब सफेद
हो चला है

वैसे
हमें कहना
कुछ नहीं है

बस
एक शंका
दूर करनी है

जानकारी
रहनी
भी चाहिये
अपने
परायों की
कितना
हौसला है

बस इतना
बता दो
तुम्हारे
लिखने
लिखाने
के साथ

हर जगह
जुड़ा ये
‘उलूक’
कौन सी
और
क्या बला है ?

चित्रसाभार: www.clipartpal.com

रविवार, 5 अप्रैल 2015

शेर के लिये तो एक शेर से ही काम चल जाता है

पता चल
जाता है
और
अच्छा भी है

वो
आता जाता है
पर पढ़ने
के लिये नहीं

बस ये
देखने के लिये
कि आखिर
रोज रोज
यहाँ पर ऐसा
क्या कुछ
लिखा जाता है

अब ऐसा
भी नहीं
लिखता है कोई

पढ़ते ही
चल जाये पता
कि लिखा
क्या जाता है

लिखा जाता है
उसके लिये ही

जो भी
जैसा भी
जहाँ भी
जितना भी
लिखा जाता है

जानता है
वो भी अच्छी
तरह से ये

किसलिये
कहाँ और क्या
लिखा जाता है

परेशानी
होती है
केवल
उसको
ये देखकर

बस एक
और
केवल
एक ही

शेर जैसा
कुछ लिखा
जाता है

शेर भी
लिखा जाता है
उसके
शेर होने पर
लिखा जाता है

खुश होता है
या नहीं
ये बस
पता नहीं
किसी को
चल पाता है

‘उलूक’
शेर तो
शेर होता है
कुछ करे
या ना करे

दहाड़ने
से ही
एक बार
एक दिन में
बहुत कुछ
हो ही जाता है

बस बात
ये समझना
दिमाग से
कुछ बाहर को
चला जाता है

शेर पर
लिखे गये
शेर को
पढ़ पढ़ कर

एक चूहा
अपनी
झुँझुलाहट
दिखा कर
नाराजगी
व्यक्त
आँखिर क्यों
कर के जाता है ?

चित्र साभार: martanime.deviantart.com

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

सपने बदलने से शायद मौसम बदल जायेगा

किसी दिन
नहीं दिखें
शायद
सपनों में
शहर के कुत्ते
लड़ते हुऐ
नोचते हुऐ
एक दूसरे को
बकरी के नुचे
माँस के एक
टुकड़े के लिये

ना ही दिखें
कुछ बिल्लियाँ
झपटती हुई
एक दूसरे पर
ना नजर आये
साथ में दूर
पड़ी हुई
नुची हुई
एक रोटी
जमीन पर

ना डरायें
बंदर खीसें
निपोरते हुऐ
हाथ में लिये
किसी
दुकान से
झपटे हुऐ
केलों की
खीँचातानी
करते हुऐ
कर्कश
आवाजों
के साथ

पर अगर
ये सब
नहीं दिखेगा
तो दिखेंगे
आदमी
आस पास के
शराफत
के साथ
और
अंदाज
लूटने
झपटने का
भी नहीं
आयेगा
ना आयेगी
कोई
डरावनी
आवाज ही
कहीं से

बस काम
होने का
समाचार
कहीं से
आ जायेगा

सुबह टूटते
ही नींद
उठेगा डर
अंदर का
बैठा हुआ
और
फैलना शुरु
हो जायेगा
दिन भर
रहेगा
दूसरे दिन
की रात
को फिर
से डरायेगा

इससे
अच्छा है
जानवर
ही आयें
सपने में रोज
की तरह ही

झगड़ा कुत्ते
बिल्ली बंदरों
का
रात में ही
निपट जायेगा
जो भी होगा
उसमें वही होगा
जो सामने से
दिख रहा होगा

 खून भी होगा
गिरा कहीं
खून ही होगा
मरने वाला
भी दिखेगा
मारने वाला भी
नजर आयेगा

‘उलूक’
जानवर
और आदमी
दोनो की
ईमानदारी
और सच्चाई
का फर्क तेरी
समझ में
ना जाने
कब आयेगा

जानवर
लड़ेगा
मरेगा
मारेगा
मिट जायेगा

आदमी
ईमानदारी
और
सच्चाई को
अपने लिये ही
एक छूत
की बीमारी
बस बना
ले जायेगा

कब
घेरा गया
कब
बहिष्कृत
हुआ
कब
मार
दिया गया

घाघों के
समाज में
तेरे
सपनों के
बदल जाने
पर भी
तुझे पता
कुछ भी
नहीं चल
पायेगा ।


चित्र साभार: http://www.clker.com/

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

कोई समझे कोई ना समझे कह देना जरूरी होता है

जो भी हो रहा होता है
सब अच्छे के लिये
ही हो रहा होता है
फैशन बन चुका है
अब ऐसा ही कुछ
बस कह देना होता है
अगर कोई रो रहा होता है
बस आदतन रो रहा होता है
जो दिखता है तुझे सामने से
उसकी बात कोई भी कहीं
नहीं कर रहा होता है
इसका मतलब होता है
और बहुत ही साफ होता है
वहम हो रहा होता है
और बस तुझे ही
हो रहा होता है
सब ही जा रहे होते हैं
उस तरफ कहीं
किसी ओर खुशी से
बस तेरा ही मुँह
उतरा हुआ और
रास्ता किसी
दूसरी तरफ होता है
नये जमाने के नये
घर के बारे में सोचना
अच्छा नहीं होता है
पुराने खंडहर को
झाड़ पोछ कर चूना
लगाते रहने से ही
बस फायदा होता है
और बहुत हो रहा होता है
दो चार लोग
कर लेते हैं फैसला
कब्र खोदने की
पैदा होने वाले
किसी सवाल की
दफन करने के बाद
जिस पर मिट्टी डालने
का न्योता सभी के
पास दिख रहा होता है
समझने वाले सब
समझते हैं देखकर
वो सब जो उनके
आस पास हो रहा होता है
होता रहे कुछ भी
उल्टा पुल्टा गली में
किसी के भी सामने से
हर कोई होता है देशप्रेमी
आँखें बंद कर अपनी
पूरे देश के बारे में ही
सोच रहा होता है
सभी को देखनी होती है
भूख अपनी पेट अपना
अपने लिये ही ‘उलूक’
गया वो जमाना कभी का
किसी जमाने में
कहीं कुछ होता देख कर
कह देने वाला कोई
बेवकूफ ही होता है ।

चित्र साभार: www.ihomedesign.info

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

दो अप्रैल का मजाक

लिखे हुऐ के पीछे
का देखने की और
उस पीछे का
पीछे पीछे ही
अर्थ निकालने
की आदत पता नहीं
कब छूटेगी
इस चक्कर में
सामने से लिखी
हुई इबारत ही
धुँधली हो जाती है
लेकिन मजबूरी है
आदत बदली ही
कहाँ जाती है
हो सकता है
सुबह नींद से
उठते उठते
संकल्प लेने
से कोई कविता
नहीं लिखी जा
सकती हो
पर प्रयास करने
में कोई बुराई
भी नहीं है
कुछ भी नहीं
करने वाले लोग
जब कुछ भी
कह सकते हैं
और उनके इस
कहने के अंदाज का
अंदाज लगाकर
कौऐ भी किसी
भी जगह के
उसी अंदाज में
जब काँव काँव
कर लेते है
और जो कौऐ
नहीं होकर भी
सारी बात को
समझ कर
ताली बजा लेते हैं
तो हिम्मत कर
‘उलूक’ कुछ
लगा रह
क्या पता
किसी दिन
इसी तरह
करते करते
खुल जाये
तेरी भी लाटरी
किसी दिन
और तेरा लिखा
हुआ कुछ भी
कहीं भी
दिखने लगे
किसी को भी
एक कविता
हा हा हा ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

आओ मूर्खो मूर्ख दिवस मनायें

अपने
खास दिन 
मूर्ख दिवस
पर

क्षमा करेंगे
आप के
लिये नहीं

 केवल
अपने जैसों
के लिये

ढेर सारी
शुभकामनाऐं

ज्यादा
नहीं भी हैं
इसका
गम नहीं है

बहुत थोड़े
से ही हैं
थोड़ा होना
काफी है
कुछ कम
नहीं है

इतने में
संतोष करें
पाखँडी
कहलाने
से अच्छा
महामूर्ख
कहलायें

झूठे सपनों
की झूठी
बातों के
झूठों की
बीमारी
ना फैलायें

सच को
देख सामने
अपने
आँख कान
बंद रखने
से बाज आयें

मुँह खोले
और
कुछ बोलें

चाहे
बहुसंख्यक
द्वारा महामूर्ख
कहलवाये जायें

मूर्ख दिवस पर
दीवारों पर लगे
अपने पोस्टर
गिन गिन
कर आयें

मुखौटे पहने
चोरों की
दुनियाँ में 
आओ
महामूर्ख
कहलायें

अपना दिन
अपने जैसे ही
लोगों के
साथ मनायें ।

चित्र साभार:
imgkid.com

मंगलवार, 31 मार्च 2015

कोई नयी कहानी नहीं अपना वही पुराना रोना धोना ‘उलूक’ आज फिर सुना रहा था


लाऊडस्पीकर से भाषण बाहर शोर मचा रहा था

अंदर कहीं मंच पर एक नंगा 
शब्दों को खूबसूरत कपड़े पहना रहा था

अपनी आदत में शामिल कर चुके
इन्ही सारे प्रपंचों को रोज की पूजा में 

एक भीड़ का बड़ा हिस्सा घंटी बजाने
प्रांंगण में ही बने एक मंदिर की ओर आ जा रहा था

कविताऐं शेर और गजल से ढकने में माहिर अपने पापों को
आदमी आदमी को इंसानियत का पाठ सिखा रहा था

एक दिन की बात हो
तो कही जाये कोई नयी बात है 
आज पता चला 
फिर से एक बार ढोल नगाड़ों के साथ
एक नंगा हमाम में नहा रहा था

‘उलूक’ कब तक करेगा चुगलखोरी
अपनी बेवकूफियों की खुद ही खुद से

नाटक चालू था कहीं
जनाजा भी तेरे जैसों का
पर्दा खोल कर निकाला जा रहा था

तालियांं बज रही थी वाह वाह हो रही थी
कबाब में हड्डी बन कर
कोई कुछ नहीं फोड़ सकता किसी का

उदाहरण एक पुरानी कहावत का
पेश किया जा रहा था

नंगों का नंगा नाच नंगो को
अच्छी तरह समझ में आ रहा था ।

चित्र साभार: pixshark.com

रविवार, 29 मार्च 2015

बेशर्म शर्म

 


आसान नहीं लिख लेना चंद लफ्जों में
उनकी शर्म और खुद की बेशर्मी को

उनका शर्माना जैसे दिन का चमकता सूरज 
उनकी बेशर्मी
बस कभी कभी किसी एक ईद का छोटा सा चाँद

और खुद की बेशर्मी देखिये
कितनी बेशर्म
पानी पानी होती जैसे उसके सामने से ही खुद
अपने में अपनी ही शर्म

पर्दादारी जरूरी है बहुत जरूरी है
पर्दानशीं के लिये 
उसे भी मालूम है
और इसका पता बेशर्मों को भी है

बहुत दिन हो गये
कलम भी कब तक      
बेशर्मी को छान कर शर्माती हुई
बस शर्म ही लिखे

अच्छा है उनकी बेशर्मी बनी रहे
जवान रहे पर्दे में रहे जहाँ रहे
जो सामने दिखे उस शर्म को महसूस कर

‘उलूक’बेशर्मी से अपनी खींसे निपोरता हुआ
रात के अंधेरे में
कुछ इधर से उधर उड़े कुछ उधर से इधर उड़े ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

शनिवार, 14 मार्च 2015

तेरे लिखे हुऐ में नहीं आ रहा है मजा

बहुत कुछ लिख रहे हैं
बहुत ही अच्छा
बहुत से लोग यहाँ
दिखता है आते जाते
लोगों का जमावाड़ा वहाँ
कुछ लोग कुछ भी
नहीं लिखते हैं
उनके वहाँ ज्यादा
लोग कहते हैं आओ
यहाँ और यहाँ
क्या किया जा सकता है
उस के लिये जब
किसी को देखना पड़ता है
जब चारों ओर का धुआँ
सोचना पड़ता है धुआँ
और मजबूरी होती है
लिखना भी पड़ता है
तो बस कुछ धुआँ धुआँ
रोज कोई ना कोई
खोद लेता है अपने लिये
कहीं ना कहीं एक कुआँ
किस्मत खराब कह लो
या कह लो कुछ भी तो
नहीं है कहीं भी कुछ हुआ
अच्छा देखने वाले
अच्छे लोगों के लिये
रोज करता है कोई
बस दुआ और दुआ
दिखता है सामने से
जो कुछ भी खुदा हुआ
कोशिश होती है
छोटी सी एक बस
समझने की कुछ
और समझाने की कुछ
फोड़ना पड़ता है सिर
‘उलूक’ को अपने लिये ही
आधा यहाँ और आधा वहाँ
होता किसी के आस पास
वो सब कहीं भी नहीं है
जो होता है
अजीब सा हमेशा
कुछ यहाँ
और कुछ वहाँ
देखने वालों की जय
समझने
वालों की जय
होने देने
वालों की जय
ऊपर वाले
की जय जय
उसके होने का
सबूत ही तो है
जो कुछ हो रहा है
यहाँ और वहाँ ।

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

बंदर बहुत हो गये है

बंदर बहुत
हो गये हैं
सड़क पर हैं 

तख्तियाँ लिये हुऐ
आदमी और 

औरतों की भीड़
आदमी के पास 

ही सही चलो
मुद्दे तो कुछ 

नये हो गये हैं
जुटी थी भीड़ 

इस से पहले भी
किसी का साथ 

देने के लिये कहीं
पता भी नहीं 

चला भीड़ को भी
और बनाने
वाले को भी
भीड़ के बीच
में से हट कर
कई लोग इधर 

और उधर जा जा
कर खड़े हो गये हैं
मुद्दे सच में
लग रहा है
कुछ नये पैदा
हो ही गये हैं
शहर और गाँव की
गली गली में
बंदर बहुत हो गये हैं
अचंभा होना
ही नहीं था
देख कर अखबार
सुबह सुबह का
होने ही थे
'उलूक' तेरे भी
छोटे राज्य
के बनते ही
सपने एक अंधे के
सारे ही हरे
हो गये हैं
बंदर बहुत हो गये हैं
बचे हैं साल
बस कुछ कम ही
सुनाई देना है
बस सब यही ही
उनके इधर हो गये हैं
इनके उधर हो गये हैं
समय के साथ
बदलने ही हैं
चोले पुराने तक तो
अब बिकने भी
शुरु हो गये हैं
बंदर बहुत हो गये हैं
मुद्दा गरम है बंदर का
राम नाम जपना
सिखाने को उनको
नये कुछ विध्यालय
भी खुलना
शुरु हो गये हैं
नये मुद्दे नये
तरीके के
नये जमाने
के हो गये हैं
बंदर बहुत हो गये हैं ।



चित्र साभार: www.cartoonpitu.top

गुरुवार, 12 मार्च 2015

आदमी की खबरों को छोड़ गधे को गधों की खबरों को ही सूँघने से नशा आता है


अब ये तो नहीं पता कि कैसे हो जाता है
पर सोचा हुआ कुछ कुछ आगे आने वाले समय में
ना जाने कैसे सचमुच ही सच हो जाता है

गधों के बीच में 
रहने वाला गधा ही होता है
बस यही सच पता नहीं हमेशा 
सोचते समय कैसे भूला जाता है

गधों का राजा 
गधों में से ही
एक 
अच्छे गधे को छाँट कर ही बनाया जाता है

इसमें कोई गलत 
बात नहीं ढूँढी जानी चाहिये
संविधान गधों का गधों के लिये ही होता है
गधों के द्वारा गधों के लिये ही बनाया जाता है

तरक्की भी गधों 
के राज में गधों को ही दी जाती है
एक छोटी कुर्सी से छोटे गधे को बड़ी कुर्सी में बैठाया जाता है

छोटी कुर्सी के लिये 
एक छोटा मगर पहले से ही
जनप्रिय बनाया और लाईन पर लगाया गधा बैठाया जाता है

सब कुछ सामान्य 
सी प्रक्रियाऐं ही तो नजर आती है
बस ये समझ में नहीं आ पाता है जब खबर फैलती है
किसी गधे को कहीं ऊपर बैठाये जाने की
‘उलूक’
तुझ गधे को पसीना  आना क्यों शुरु हो जाता है ?

चित्र साभार: www.clipartof.com

मंगलवार, 10 मार्च 2015

वो लेखा अधिकारी जो नहीं कोशिश करता है हिसाब किताब समझने की ज्यादा समय एक ही कुर्सी पर बिता ले जाता है

अधिकारी का
मतलब 
अधिकार
से ही 
होता
होगा शायद 

ऐसा महसूस
होता है 

और ऐसा नजर 
भी आता है 
पैसे का
हिसाब किताब 

करने वाले को 
लेखाधिकारी
कहा जाता है 

लेखाधिकारी का
बहुत 
कम संख्या
में पाये जाने 

का हिसाब समझ 
में नहीं आता है 
वैसे तो सरकार
की 
नजर लेकर
सरकारी आदमी ही 

कुर्सी पर बैठाया
जाता है 
पर
कभी कभी
हिसाब किताब 

की मजबूरियाँ
गैर सरकारी 

को भी कुर्सी पर
बैठा ले जाता है

‘उलूक’ की आँख
भी देखती है 
पैसे
का हिसाब किताब 

पैसा खाने खिलाने
में उसे 
भी बहुत
मजा आता है

हर अधिकारी
के कार्यकाल 

की अवधि अलग
अलग होती है 

लेकिन लेखाधिकारी
बहुत 
थोड़े समय में
यहाँ से वहाँ 

कर दिया जाता है 
लेखा का हिसाब
समझने  
वाले
का इतना छोटा 

कार्यकाल
क्यों होता है 

किसी से पूछने
पर भी 
पता
नहीं चल पाता है 

थोड़ी सी जासूसी
करने पर 
कुछ
कुछ कहीं खुला 

हुआ नजर आता है 
लेखाधिकारी आता है 
कोशिश करता है 
समझने की
हिसाब किताब को 

और जैसे ही
समझने वाले को 

पता चलता है
वो समझ गया 

तुरंत उसका
स्थानांतरण 

किसी दूसरी
जगह का 

हिसाब किताब
समझने 
के लिये
कर दिया जाता है ।

चित्र साभार: www.presentermedia.com

सोमवार, 9 मार्च 2015

नहीं लिखा जाता है तो क्यों लिखने चला आता है


छोड़ता कोई किसी को है डाँठ कोई और खाता है
इस देश में होने लगा है बहुत कुछ अजीब गरीब
किसी की करनी का फल किसी और की झोली में चला जाता है

फैसला घर वालों 
का घर में ही लिया जाता है
घर से निकल कर कैसे जनता में चला जाता है

चीर फाड़ होना 
शुरु होती है
कोई छुरा तो कोई कुल्हाड़ी लिये नजर आता है

बकरी खेत में खुली 
घूम रही होती है
फोटो खींचने वाला रस्सी की फोटो खींच लाता है

लिखने के लिये रोज ही मिलता है कुछ मसाला
पकाते पकाते कुछ कच्चा कुछ पक्का हो जाता है

खाने को भी 
किसने आना है
किसी के लिये नमक कम किसी के लिये मसाला ज्यादा हो जाता है

कौन किसके साथ है कौन किसके साथ नहीं है
पहले भी कभी समझ में नहीं आ पाया
अब इस उम्र में आकर जो क्या आ पाता है

घर संभलता नहीं है 
जिस किसी से
वो देश को संभालने के लिये चला जाता है
‘उलूक’ बैठा  टी वी के सामने रोज दो में से चार घटाता है

चित्र साभार: galleryhip.com

रविवार, 8 मार्च 2015

महिला के लिये कुछ करना नहीं है उसका दिन ही बस एक मना लेते

दिन डूबते चाय
की तलब लगी
और आदतन
मुँह से निकल बैठा
आज चाय
नहीं बनेगी क्या
उत्तर मिला
आज महिला दिवस है
आज तुम ही
क्यों नहीं बना देते
एक कप खुद पी लेते
एक हमें भी पिला देते
एक दिन ही सही
हम भी अपना
कुछ मना लेते
पूरे साल भर
कुछ करने के लिये
कुछ नहीं कहा गया है
एक दिन दिखाने
के लिये ही सही
फोटो सोटो कुछ
खिचवा लेते
सालों साल से
लगी हुई हैं माँऐं
बहने बीबियाँ
तराशने में
कुछ ना कुछ
एक दिन थोड़ा
कुछ कर करा कर
अपना बिगुल
क्यों नहीं
बजवा लेते
सीखने सिखाने
के लिये बहुत
से बाजीगर
मिल जायेंगे
अपने ही
आस पास तुमको
अपने घर
को छोड़ कर
किस और
के बगीचे में
कुछ फूल पत्तियाँ
ही सजवा लेते
महिला दिवस
मनाने के लिये
महिलाओं को
शामिल किया जाये
ये किसी कानून
में नहीं लिखा है
कुछ आदमी
जमा कर के
कुछ केक सेक
कटवा लेते
ढिंढोरा पीटने को
खड़ी रहती ही सेना
तुम्हारे छींकने का
ढिंढोरा पीटने के लिये
छीँकना भी इसके
लिये जरूरी नहीं
दूर से ही सही
अपनी घर की
महिला के लिये
प्रेस काँफ्रेंस कर एक
सफेद रुमाल
बस हिला कर
महिला दिवस ही
आज मना लेते ।


चित्र साभार: www.clipartpanda.com

शनिवार, 7 मार्च 2015

मुझे ही लगा या तुझे भी कुछ महसूस हुआ

किसी ने गौर
भी नहीं किया
मीडिया भी
चुप चाप रहा

हर बार इसकी
और उसकी
तलवार लेकर
वार करने की
फितरत वाला

इस बार की
होली में आखिर
क्यों कहीं
भी नहीं दिखा

होली में देश
नहीं होता है क्या
होली में प्रेम
नहीं होता है क्या

उसके चेहरे पर
किसी ने कोई रंग
आखिर
क्यों नहीं लिखा

ज्वलंत है प्रश्न
पर उत्तर कहीं भी
लिखा हुआ
नहीं बिका

ऐसा क्या बस
मुझे ही लगा
या किसी और ने भी
इस बात को सोचा

झाडू‌ तक उठा
ले गया था किसीका
रंग देख कर क्यों
और
कहाँ खिसक गया

हिंदू मुसलमान
सिख और ईसाई
को भूल गया

समझ में सच में
नहीं आ रहा है
कोई समझाये मुझे

क्या इसी बीच
कुछ दिनों
कश्मीर जाकर क्या

वो आदमी हो गया
रंगीन चेहरे बनाने
में माहिर रंग हीन
किसलिये हो गया ?

चित्र साभार: www.disneyclips.com


शुक्रवार, 6 मार्च 2015

होली हो ली मियाँ चलो आओ शुरु करते हैं खोदना फिर से अपना अपना कुआँ

होली हो ली मियाँ
चलो आओ
शुरु करते हैं
खोदना फिर से
अपना अपना कुआँ
अपनी अपनी समझ
की समझ है
अपनी अपनी
आग और
अपना ही
होता है धुआँ
जमाना बहुत
तरक्की पर है
अनदेखा
मत कीजिये
देखिये परखिये
अपनी अपनी
अक्ल से नापिये
कुत्तों की पूँछ
की लम्बाईयाँ
एक ही नस्ल
की अलग
मिलेगी यहाँ
और अलग
मिलेगी वहाँ
वो अपने कुत्ते
को होशियार
बतायेगा
मुझे अपने ही
कुत्ते पर
बहुत प्यार आयेगा
कुत्ता आखिर
कुत्ता ही होता है
ना वो समझ पायेगा
ना मेरी ही समझ
में ये आ पायेगा
सियार भी अब
टोलियों में
निकलते हैं कहाँ
कर जरूर रहे हैं
पर अकेले में
खुद अपने अपने
लिये हुआँ हुआँ
होली हो ली
इस साल की मियाँ
आगे के जुगाड़
पर लग जाओ
लगाओ आग कहीं
बनाओ कुछ धुआँ
मिलेगी जरूर
कोई पहचान
‘उलूक’ तुझे भी
और तेरी सोच को
कर तो सही
कुछ उसका जैसा
जिसे कर कर के
वो बैठा है आज
बहुत ऊपर वहाँ ।

चित्र साभार: funny-pictures.picphotos.net

गुरुवार, 5 मार्च 2015

होली की हार्दिक शुभकामनाऐं कहना मजबूरी हो गया है छुट्टी खुद लेकर अपने घर जा कर अपना त्योहार खुद ही मनायें कहना जरूरी हो गया है

इस बार
ही हुआ है
पहली बार
हुआ है

होली में होता
था हर साल
मेरे घर में
बहुत कुछ

इस बार कुछ
भी नहीं हुआ है
पोंगा पंडित
लगता है
कहीं गया हुआ है

पूजा पाठ होने
की खबर इस बार
हवा में नहीं
छोड़ गया है

दंगा होने के
भय का अंदेशा
भी नहीं हुआ है

खुले रहे हैं
रात भर घर
के दरवाजे
चोर और थानेदार
दोनों ने मिलकर
भाँग घोट कर
साथ मिल बाँट
कर पिया है

छुटियों का
अपना खाता
सबने खुद ही
प्रयोग कर लिया है
दुकान के खुलने
बंद होने के
दिनों को कागज ने
पूरा कर दिया है

होली पढ़ने पढा‌ने
की बस बात है
पढ़ने वाला अब
समझदार हो गया है

ऊँचाईयों को
छूने के लिये
जमीन से पाँव
उठाना बहुत
जरूरी हो गया है

होली में होता था
हर साल मेरे घर
में बहुत कुछ
इस बार कुछ भी
नहीं हुआ है
किसी से नहीं
कहना है
बुरा ना मानो होली है
‘उलूक’ ने ऐसा वैसा
हमेशा का जैसा ही
कुछ कह दिया है ।

चित्र साभार: www.imagesbuddy.com

बुधवार, 4 मार्च 2015

रंग बहुत हो गये इधर उधर रहने दे इस बार मत उड़ा बस रंग बिरंगे चुटकुले कुछ रोज सुना

रंग भरिये प्रतियोगिता 
राजा और रानी
राजकुमार और
राजकुमारी
चंपकवन और
खरगोश
शेर लोमड़ी
जंगल पेड़ पौंधे
और कुछ
खानाबदोश
कितना कुछ
है सतरंगी
चल शुरु हो जा
खोज और
कुछ नया खोज
बाहर निकल
बीमार मन
की कमजोर
दीवारों को
मत खोद
बना कोई
मजबूत लेप
सादा सफेद
गीत भी गा
अपने फटे हुऐ
गले और
राग तरन्नुम
को मत देख
मुस्कुरा
बेनूर हंसी
को छिपाने के
प्रयास में होंठों
को मत हिला
जरा थोड़ा जोर
से तो बड़बड़ा
सुना है
इस बार भी
हमेशा के जैसा
रंगो का त्योहार
आ गया है
होली खेल
रंग बिरंगे
सपने देख
बेच सकता है
तो बेच
झूठ खरीद
सच में लपेट
और झूठ झूठ
में ही सही बेच
खुश रह
होली खेल
रंग उड़ा
रंगीन बातों
पर मत जा
अपनी फटी
धोती उठा
हजार करोड़ का
टल्ला लगा
इधर उधर
मत देख
गाना गा
बिना पिये
जमीन पर
लोट लगा
बहुत साल
खेल लिया
‘उलूक’
रंगो को मिला
मिला कर
रंग बिरंगी होली
कभी एक रंग
की भी खेल
किसी को
हरा लगा
किसी को
गेरुआ चिपका
बदल दे टोपी
इस बार सफेद
काली करवा
बहुत हो गया
बहुत हो गया
सफेद सफेद
झका झक सफेद
कर दे उलट फेर
नयी कर कुछ
नौटंकी
जी भर कर
चुटकुले सुना
दे दना दन
एक के बाद एक
पीटने के लिये
खड़ा है तालियाँ
डेढ़ सौ करोड़
का देश
बुरा सोच
बुरा कर
बुरा ना मानो
होली है
का ट्वीट
कर तुरंत
उसके बाद
एक संदेश ।
चित्र साभार: cliparts.co

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

जो जैसा था वैसा ही निकला था गलती सोचने वाले की थी उसकी सोच का पैर अपने आप ही फिसला था


भीड़ वही थी 
चेहरे वही थे कुछ खास नहीं बदला था

एक दिन
इसी भीड़ के बीच से निकल कर
उसने उसको 
सरे आम एक चोर बोला था
सबने
उसे कहते हुऐ देखा और सुना था

उसके लिये
उसे इस तरह से 
ऐसा कहना सुन कर बहुत बुरा लगा था

कुछ
किया विया तो नहीं था
बस
उस कहने वाले से किनारा कर लिया था

पता ही नहीं था
हर घटना की तरह इस घटना से भी
जिंदगी का एक नया सबक नासमझी का
एक बार फिर से सीखना था

सूरज को हमेशा
उसी तरह सुबह पूरब से ही निकलना था
चाँद को भी हमेशा पश्चिम में जा कर ही डूबना था

भीड़ के बनाये
उसके अपने नियमों का
हमेशा की तरह कुछ नहीं होना था
काम निकलवाने के क्रमसंचय और संयोजन को
समझ लेना इतना आसान भी नहीं था

मसला
मगर बहुत छोटा सा 
एक रोज के होने वाले
मसलों के बीच का ही एक मसला था

आज उन दोनों का जोड़ा
सामने से ही
हाथ में हाथ डाल कर जब निकला था

कुछ हुआ था या नहीं हुआ था
पता ही नहीं चल सका था

भीड़ वही थी चेहरे वही थे
कहीं कुछ हुआ भी है
का कोई भी निशान
किसी चेहरे पर बदलता हुआ
कहीं भी नहीं दिखा था

‘उलूक’ ने
खिसियाते हुऐ हमेशा की तरह
एक बार फिर अपनी होशियारी का सबक
उगलते उगलते
अपने ही थूक के साथ
कड़वी सच्चाई की तरह ही निगला था ।

चित्र साभार: davidharbinson.com

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

राजा हैं और बहुत हैं चैन से जीना है तो सीख राजाओं की सुनना और राजाओं का हुकुम बजाना



राजशाही राज्य और राजा
एक नहीं कई कई हुआ करते थे किसी जमाने में

जमाना बदला 
राज्य मिटे राजशाही मिटी सीमायें हटी
जमीने साथ मिली देश बना
बदल गया बदल गया का डंका बजा
थोड़ा नहीं बहुत जोर से बजा

हल्ला गुल्ला शोर शराबा होना शुरु हो गया
मोहल्ले की छोड़िये
गली गली में तमाशा हो गया

एक बार हुआ फिर कई बार हुआ
और अब होने लगा हर साल
कोई नहीं कहता इस बार नहीं हुआ

राजा पहले एक दो हुआ करते थे
बाकी होते थे भेड़ और बकरियाँ
कहा जाता था प्रजा हुआ करते थे

जमाने ने जमाना बदलने के साथ अपने को बदला
अंदाज नहीं आया
पर राजा ने राजशाही को भी बदला

पहले की तरह
कोई एक दो के होने से अच्छा
कोई भी कहीं भी हो ले का अलिखित
नियम चल निकला

सीमायें निर्धारित हुई
अपने अपने हिसाब से अपने चारों ओर

अपने मतलब का राज्य सोच
अपनी लाईन देख कोई भी राजा हो
अपने अपने बिलों से
बिना मुकुट धनुष तीर के मुस्कुराता
अपने मन ही मन
कोई एक किसी और का माँगा हुआ चोला डाल
सड़क पर नंगे पैर प्रजा होने का नाटक करने निकला

आज हर दूसरा राजा
और उसका अपने हिसाब का अपना राज्य
उसके अपने नियम
बाकी बचे का पैर जैसे कैले के छिलके में हो फिसला

‘उलूक’ सोच मत देखता चल
जिंदा रहना है तो पालन करना सीख
अपने आगे के राजा का हुकम बजाना सीख
पीछे के राजा को सलाम करने के लिये
अपने दोनो हाथों को अपने सिर पर ले जाना सीख

नहीं कर सकता है तो सीख ले
थोड़ा पागल और थोड़ा दीवाना हो जाना
आसमान को देख नोचना अपने ही बाल
और ठहाके साथ में लगाना ।

चित्र साभार: www.graphicsfactory.com

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

ब्लागर होने का प्रमाणपत्र कहाँ मिल पायेगा कौन बतायेगा

चिट्ठाकार कौन है
कौन बतायेगा
खुद को समझने
लगे कोई यूँ ही
तो क्या
किया जायेगा
किसी को तो
बताना ही पढ़ेगा
या हर कोई यहाँ
बेलगाम हो जायेगा
बपौती मेरी नहीं है
मुझे मालूम है
पर सुनने में बुरा
सबसे पहले उसे
ही लगेगा
जो होगा नहीं और
इसी बात को लेकर
बात ही बात में
बड़बड़ायेगा
टिप्पणी एक
बहुत खतरनाक
चीज है
किसे पता है कौन देगा
और कहाँ दे जायेगा
जमघट होता है
दिखता है क्यों होता है
समझ में किसके
आ पायेगा
ब्लागर की ब्लागरी
का भूत कौन
उतार पायेगा
तूने कह तो दिया
सब सतह में है
तैरता हुआ जैसे
तेरे कहने पर
कौन मुहर लगायेगा
चिट्ठाकारी की इंदीरा
कौन होगी कौन मोदी
अपने को बतायेगा
‘उलूक’ तू यहाँ क्यों है
 तेरी समझ में
ना आने वाला है
ना आ पायेगा
तुझे तो बस फैलाना है
कहीं ना कहीं कुछ कूड़ा
डस्टबिन सरकारी
किसी सरकार का
तुझे कभी भी
उपलब्ध नहीं हो पायेगा
लिखता रह कुछ भी
कभी भी कहीं भी
बिना किसी प्रमाणपत्र
के तू कभी एक
ब्लागर नहीं हो पायेगा ।

 चित्र साभार: whatsupaggiehort.blogspot.com

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

क्या बिका किसका बिका बेचना खरीदना कुछ भी बहुत आसान हो गया

किस कदर चाहता है
किसी को कोई सोचिये
कत्लेआम हो गया
अपने ईमान की खातिर
देखिये तो सही
जरा गौर से
उसका कुछ
नीलाम हो गया
इससे पहले भी
आये कई आशिक
कई मर खप गये
कुछ हुआ या नहीं हुआ
समझने की जरूरत नहीं
एक गुलाम का अपना
एक मकान हो गया
आजादी मिली
सब कुछ लुटा कर भी
गरीब का बिकते बिकते
बहुत कुछ बिकाऊ
अपनी ही बाजार का
कीमती सामान हो गया
सुने बहुत से तीरंदाज
पैदा होने से पहले के अपने
झूठ बोला होगा किसी ने
बहुत चतुराई से यूँ ही
किसी का कुछ
नहीं दिखा कहीं
किसी की खातिर
जो नीलाम हो गया
मंदिर बना कर
हर गली कूचे में
हे भगवान कहाँ गया
अंतरध्यान हो गया
देखता चल आँख
बंद कर ‘उलूक’
पता चलेगा किसी दिन
तुझे भी किसी चौराहे पर
अपने घर को
बचाने के लिये बिकना
जरूरी सरे आम हो गया ।

चित्र साभार: sketchindia.wordpress.com

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

जिसे चाहे लकीर कह ले पीटना शुरु कर और फकीर होले



अपनी लकीर को
पीटने का मजा ही कुछ और है
और
जब अपनी लकीर को खींचता हुआ
साथ साथ पीटता हुआ
लकीर खीँचने वाला देखता कहीं और है
तो देखता है
हर तरफ ही उसके लकीर ही लकीर है
हर लकीर के साथ
उसे खींचने वाला एक फकीर है

समझ में आता है चाहे देर में आता है
पर जब आता है पता चल पाता है
यही है जो और कहीं भी नहीं है
वो है और बस वही एक फकीर है
और
उसकी खींची हुई ही लकीर एक लकीर है
एक फकीर
और उस फकीर की एक लकीर
हर किसी के समझ में नहीं आती है
आ भी नहीं सकती है

लकीर को समझने के लिये
खुद भी होना पड़ता है कुछ
कुछ और नहीं बस एक फकीर है

फकीर फकीर के आस पास ही मडराते हैं

बस एक लकीर का फकीर ही
खुद अपनी ही लकीर को पीटने में खुश दिखता है
और कोशिश करता है
खींच पाये हर दिन हर पहर
कहीं ना कहीं सीधी ना भी सही
एक टेढ़ी मेढ़ी ही सही बस और बस एक लकीर
जिसे देखने वाला
ना चाहते हुऐ भी कह पड़े देख कर
कि
हाँ है और यही एक लकीर है

लेकिन सच कुछ और है
लकीर को कोई नहीं कहता है कि लकीर है

पीट सब रहे हैं
पर पीटने वालों में से एक भी ऐसा नहीं है
जिसे
कहा जा सके कि वो एक फकीर है
लेकिन
किया क्या जा सकता है
सारे लकीर के फकीर
एक जगह पर एक साथ दिख जाते हैं
और
फकीर खुद खीँचता भी है जिसे
वो उसकी अपनी ही लकीर है
और खुद ही पीटता भी है जिसे
वो भी उसकी अपनी ही लकीर है

होता है पर कोई नहीं कहता है
बस उसे और उसे ही
कि
वही है बस एक वास्तव में जो
लकीर का फकीर है।

चित्र साभार: www.threadless.com

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

पन्नों के पहले पन्ने पन्नों के बाद पन्ने



कुछ काले सफेद पन्ने कुछ खाली सफेद पन्ने
पन्नो से उलझते पन्ने पन्नो से निबटते पन्ने
एक दो से शुरु होकर एक हजार होते पन्ने
किसने गिनने हैं पन्ने किसने पलटने हैं पन्ने
पन्नो के ऊपर पन्ने पन्नो के नीचे पन्ने
कुछ उठे उठे से पन्ने 
कुछ आधी नींद के उनींदे उनींदे से पन्ने
कुछ सोते हुऐ से पन्ने
पन्नों की सुनते पन्ने पन्नों की कहते पन्ने
कुछ इसके यहाँ के पन्ने कुछ उसके वहाँ के पन्ने
कुछ इसके उठाते पन्ने कुछ उसके सजाते पन्ने
कुछ कुछ घटा कर लगाते पन्ने
कुछ कुछ जुड़ा कर लगाते पन्ने
कुछ बस देखने ही आते पन्ने
कुछ देख कर ही जाते पन्ने
कुछ अपने उठाते पन्ने कुछ उसके उठाते पन्ने
पन्नों की भीड़ में कुछ के कभी खो भी जाते पन्ने
पन्नों के आघे पन्ने पन्नों के पीछे पन्ने
पन्नों की कहानियों को पन्नों को सुनाते पन्ने ।

चित्र साभार: www.yoand.biz

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

जोकर बनने का मौका सच बोलने लिखने से ही आ पायेगा

व्यंग करना है
व्यंगकार
बनना है
सच बोलना
शुरु कर दे
जो सामने से
होता हुआ दिखे
उसे खुले
आम कर दे
सरे आम कर दे
कल परसों में ही
मशहूर कर
दिया जायेगा
इसकी समझ में
आने लगा है कुछ
करने कराने वाला
भी समझ जायेगा
पोस्टर झंडे लगवाने
को नहीं उकसायेगा
नारे नहीं बनवायेगा
काम करने के
बोझ से भी बचेगा
और नाम भी
कुछ कमा खायेगा
 बातों में बोलना
अच्छा नहीं
लगता हो
तो सच को
सबके सामने
अपने आप करना
शुरु कर दे
खुद भी कर और
दूसरों को करने
की नसीहत भी
देना शुरु कर दे
एक दो दिन भी
नहीं लगेंगे
तेरे करने
करने तक
जोकर तुझे
कह दिया जायेगा
किसी ना किसी
अखबार में
छप छपा जायेगा
अपने आस पास
के सच को देख कर
आँख में दूरबीन
लगा कर चाँद को
देखने वालों को
चाँद का दाग
फिर से नजर आयेगा
बनेगी कोई गजल
कोई गीत देश प्रेम
का सुनायेगा
 प्रेम और उसके दिन
की बात भूलकर
रामनामी दुप्ट्टा
ओढ़ कर
कोई ना कोई
संत बाबा जेल
भी चला जायेगा
बचेगी संस्कृति
बचेगा देश
कुछ नहीं भी बचा
तब भी तेरे खुद का
थोड़ा बहुत किसी
छोटे मोटे अखबार
या पत्रिका में
बिकने बिकाने
का जुगाड़ हो जायेगा ।

चित्र साभार: www.picturesof.net

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

लिख कोई भी किताब बिना इनाम बिना सम्मान की कभी भी जिसमें सभी पाठ हों बस तेरे सामने के हो रहे झूठों के


किसी दिन
शायद दिखे
बाजार में
गिनी चुनी
किताबों की
कुछ दुकानों में
एक ऐसी
किताब

जिसमें
दिये गये हों
वो सारे पाठ
जो होते तो हैं
 पर हम
पढ़ाते नहीं हैं
कहीं भी
कभी भी

प्रयोगशाला
में किये
जाने वाले
प्रयोग नहीं
हों जिसमें

होंं झूठ के साथ
किये गये प्रयोग
जो हम
सब करते हैं
रोज अपने लिये
या
अपनो के लिये
ग़ाँधी के सत्य के
साथ किये गये
प्रयोगों की तरह
रोज

किताबों
का होना
और
उसमें लिखी
इबारत का
एक
इबारत होना
देखता
आ रहा है
सदियों से
हर पढ़ने
और नहीं
पढ़ने वाला

लिखने
वाले की
कमजोर
कलम
उठती तो
है लिखने
के लिये
अपनी
बात को
जो उठती
है शूल
की तरह
कहीं उसके
ही अंदर से

पर लिखना
शुरु करने
करने तक
चुन लेती
है एक
अलग रास्ता
जिसमें
कहीं कोई
मोड़
नहीं होता

चल देता
है लेखक
कलम के
साथ स्याही
छोड़ते हुऐ
रास्ते रास्ते
अपनी
बात को
हमेशा
की तरह
ढक कर
पीछे छोड़
जाते हुऐ

जिसे देखने
का मौका
मुड़कर
एक जिंदगी
में तो नहीं
मिलता

फिर भी
हर कोई
लिखता है
एक किताब
जिसमें होते
हैं कुछ
जिंदगी के पाठ

जो बस
लिखे होते
हैं पन्नों में
उतारे जाते हैं
सुनाये जाते हैं
उसी पर प्रश्न
पूछे जाते हैं
उत्तर दिये
जाते हैं
और
जो हो रहा
होता है
सामने से
वो पाठ
कहीं किसी
किताब में
कभी
नहीं होता

क्या पता
किसी दिन
कोई
हिम्मत करे
नहीं हो
एक कायर

’उलूक’
की तरह का
और
लिख डाले
एक किताब
उन सारे
झूठों के
प्रयोगों की
जो हम
तुम और वो
कर रहे हैं रोज
सच को
चिढ़ाने
के लिये
गाँधी जी
की फोटो
चिपका कर
दीवार से
अपनी पीठ
के पीछे ।

चित्र साभार: galleryhip.com

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

इधर का इधर और उधर का उधर करें

हो गया
इधर पूरा
अब उधर चलें
करने वाले
कर रहे हैं
कुछ इधर
कुछ उधर
सोचना है
हमको कब
किधर चलें
कविता गीत
गजल की
बौछार है
उधर भी
और इधर भी
कुछ बोलने
वाले कुछ भी
हमेशा इधर
भी हैं और
उधर भी हैं
फर्क पड़ना
नही है
किसी को
कोई किधर
को भी चले
जिंदगी कट
रही है उनकी
इधर का
उधर करने में
हम भी कुछ
कम कहाँ हैं
उधर का इधर
करने में
कर रहे हैं
सब ही
कुछ ना कुछ
इधर और उधर
बात इधर की
वो इधर करें
हम भी चलें
हमेशा की
तरह आदतन
चल कर उधर
कुछ उधर करें
आइये सब मिल
कर अब करें
इधर और उधर
अलग अलग
रह कर इधर
का इधर और
उधर का उधर
करने की आदतों
को पहले
इधर उधर करें ।

चित्र साभार: www.flickr.com

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

क्या धोया ना कपड़ा रहा ना साबुन रहा सब कुछ पानी पानी हो गया

अब क्या कहूँ
कहने के लिये
कुछ भी नहीं
कहीं रह गया
कुछ मैला तो
नहीं हो गया
सोचने सोचने
तक बिना साबुन
बिना पानी के
हवा हवा में
ही धो दिया
धोना बुरी
बात नहीं पर
इतना भी
क्या धोना
पता चला
कपड़ा ही
धोते धोते
कहीं खो गया
साबुन गल
गया पूरा
बुलबुलों भरा
झाग ही झाग
बस दोनों ही
हाथों में रह गया
हे राम
तू निकला
गाँधी के मुँह से
उनकी अंतिम
यात्रा के पहले
उसके बाद
आज निकल
रहा है एक नहीं
कई कई मुँहों से
एक साथ
हे राम
ये क्या हो गया
भक्तों की पूजा
अर्चना करना
क्या सब
मिट्टी मिट्टी
हो गया
आदमी मेरे
गाँव का लगा
आज तेरे से
ज्यादा ही
पावरफुल
हो गया
अब क्या कहूँ
किससे कहूँ
रोना आ रहा है
धोने के लिये
बाकी कहीं भी
कुछ नहीं रह गया ।

चित्र साभार: www.4to40.com

सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

बुलाया होगा तुझे पहली बार यहाँ शतरंज की बिसात को ही पलटा गया

पहली बार आया
और चला गया
जाने के बाद
पता चला
जिसने बुलाया
उसे ही चूना
लगा गया
ऐसा भी क्या
आना हुआ
गणित पढा‌ने
वाले को ही
हिसाब समझा गया
यहाँ आया चुपचाप
अंदर ही अंदर
मुस्कुरा गया
वापिस जाने के बाद
अपनी हंसी को
खुल कर अखबार
में छपवा गया
दे कर कुछ
भी नहीं गया
सपने के कारखाने
के मालिक को ही
सपने दिखा गया
यहीं कह जाता
सब कहना सुनना
ये क्या बात हुई
घर वापस पहुँचने
के संदेशे के साथ
फटे कपड़ों के
टल्लों की बात
मुहल्ले मुहल्ले
में फैला गया
तेरे आने का
फायदा तो
बुलाने वाले के
हिस्से में आने
से पहले ही
हाथ से फिसल
कर चला गया
बहुत बुरी बात है
झाड़ने वाले को
शाबाशी देने
के बजाय
झाड़ू वाले की
पीठ थपथपा गया
तू तो बाजीगरी के
उस्तादों की नगरी
में आकर
हाथ की सफाई
उनको ही दिखा गया
गजब किया
मुँह के राम को
बगल में छुरी
होने का पक्का
भरोसा दिला गया
किसलिये आया
क्यों आया पूरी की पूरी
बाजी ही उल्टी करा गया
आज की रात
का कर फिर
तू भी इंतजार
कल पता चलेगा
किसको मजा आया
और किसको मजा
आते आते चला गया ।


चित्र साभार: www.dreamstime.com