उलूक टाइम्स

मंगलवार, 21 मई 2019

लगती है आग धीमे धीमे तभी उठता है धुआँ भी खत्म कर क्यों नहीं देता एक बार में जला ही क्यों नहीं दे रहा है


नोट: किसी शायर के शेर नहीं हैं ‘उलूक’ के लकड़बग्घे हैं पेशे खिदमत

शराफत
ओढ़ कर
झाँकें

आईने में
अपने ही घर के

और देखें

कहीं
किनारे से

कुछ
दिखाई तो
नहीं दे रहा है
----------------------------

पता
मुझको है
सब कुछ

अपने बारे में

कहीं
से कुछ
खुला हुआ थोड़ा सा

किसी
और को

बता ही
तो
नहीं दे रहा है
-----------------------------


खुद को
मान लें खुदा

और
गलियाँयें
गली में ले जाकर

किसी को भी घेर कर

कौन सा
कोई
थाना कचहरी

ले जा ही
जो क्या ले रहा है
---------------------------------


बदल रही है
आबो हवा
हर मोहल्ले शहर 

छोटे बड़े की

किस लिये अढ़ा है

मुखौटा
नये फैशन का

खुद के
लिये भी

सिलवा ही
क्यों नहीं ले रहा है
-------------------------------


बहुत अच्छा
कोई है

बहुत दूर है

चर्चा बड़ी है
बड़ा जोर है

श्रृँ
खला की
उसकी सोच का
अन्तिम छोर
पास का

दिखा रहा है
कितना मोर है

जँगल
में उसके
नाचने का
अंदाज अच्छे का

समझ में
आ रहा है

समझा ही
क्यों नहीं दे रहा है
-----------------------


पेट
भरना भी
जरूरी है पन्नों का

कुछ भी
खिलाना
गलत है
या सही है

सोचना बेकार है

भूख मीठी
होती है भोजन से

रोज
कुछ ना कुछ

खिला ही
क्यों नहीं दे रहा है
-----------------------------


शेर
हर तरफ से
लिखे जा रहे हैं
शेरों के लिये

बहुत हैं
शायर यहाँ

कुछ नयी चीज लिख

“लकड़बग्घे” ही सही

लिख कर
दिखा 
ही
क्यों नहीं दे रहा है
----------------------


‘उलूक’
आँख के अंधे

रख
क्यों नहीं लेता
नाम अपना
नया कुछ नयन सुख जैसा

बस
दो ही दिन
के बाद में
मत कह बैठना

कुछ भी कहीं
अपने
मतलब का

सुनाई
क्यों नहीं दे रहा है
-------------------------------

चित्र साभार: https://pngtree.com

रविवार, 19 मई 2019

बेवकूफ है ‘उलूक’ लूट जायज है देश और देशभक्ति करना किसने कहा है मना है

भटकता
क्यों है

लिख
तो रहा है

पगडंडियाँ
ही सही

इसमें
बुरा क्या है

रास्ते चौड़े
बन भी रहे हैं
भीड़ के
लिये माना

अकेले
चलने का भी
तो कुछ अपना
अलग मजा है

जरूरी
नहीं है
भाषा के
हिसाब से

कठिन
शब्दों में
रास्ते लिखना

रास्ते में ही
जरूरी है चलना

किस ने कहा है

सरल
शब्दों में
कठिन
लिख देना

समझ
में नहीं
आये
किसी के

ये
उसकी
अपनी
आफत है

अपनी बला है

शेर है
पता है
शेर को भी

किसलिये
फिर बताना

किसी
और को भी

जब
जर्रे जर्रे
पर शेर

लिख
दिया गया है

खुदा से
मिलने गया
है इन्सान

या
इन्सान से
मिलने को

खुदा
खुद रुका है

पहली
बार दिखा है

मन्दिर के
दरवाजे तक

गलीचा
बिछाया गया है

कितना
कुछ है
लिखने के लिये

हर तरफ
हर किसी के

अलग बात है

अब
सब कुछ
साफ साफ
लिखना मना है

एक
पैदा हो चुकी
गन्दगी के लिये

स्वच्छता
अभियान

छेड़ा
तो गया है

मगर
खुद शहीद
हो लेना

गजब
की बात है

इतनी
ऊँची उड़ान
से उतरना

फिर से
जन्म लेना है

कमल होना
खिलना कीचड़ में

ब्रह्मा जी
का आसन
बहुत सरल है

ऐसा कुछ सुना है

 बेवकूफ है ‘उलूक’

लूट जायज है

देश और
देशभक्ति करना

किसने कहा है

मना है ।

चित्र साभार: https://insta-stalker.com

मंगलवार, 14 मई 2019

ना शेर है ना समझ है समझने की शेर को बस खुराफाती ‘उलूक’ की एक खुराफात है दिखाने की कोशिश उतार कर मुखौटा बेशरम हो चुके एक नबाब का

अच्छा
है
सबसे

खुद
से
बात कर

खुद
को
समझाना

मतलब
कही गयी
अपनी ही
बात का

सारे
अबदुल्ला

नाच रहे हों जहाँ

दीवाने
हो कर

बेगानी शादियों में

मौका होता है

बैण्ड के
शोर के बीच

खुद से
खुद की
मुलाकात का

कभी
नंगे किये जायें

सारे शब्द
ऐसे ही
किसी शोर में

उधाड़ कर
खोल
उनके भी

उतार कर

निचोड़ कर
रखते हुऐ

धूप में
सुखाने के लिये

मुखौटे
बारी बारी

एक
एक शरीफ
किरदार का

लहसुन
और
प्याज मानकर

खोलते
चले जायें परतें

समय
के साथ बढ़ते
पनपते सड़ते
मतलब शब्दों के

देखकर
सामने से खेल
हजूरे आला

और
खिदमतदारों
से
बजबजाये
दरबार का

‘उलूक’
लिखना
ना लिखना

रोज
लिखना
कभी कभी
लिखना

नहीं
बदलना है
सोच का

संडास में
बह रही

गंगा जमुनी
तहजीब के

साफ सफाई
के बहाने से

घर घर
की बातों के

छुपे छुपाये
हबी 

सुनहरे
लूटने
लुटाने के

हिंदुस्तानी
हिंदू मुसलमाँ
होते हिसाब का ।

 चित्र साभार: https://in.pinterest.com/pin/32299322314263872/?lp=true

गुरुवार, 9 मई 2019

लिखना जरूरी है होना उनकी मजबूरी है कभी लिखने की दुकान के नहीं बिके सामान पर भी लिख


ये

लिखना भी

कोई
लिखना है

उल्लू ?

कभी

आँख
बन्द कर के

एक
आदमी में

उग आये

भगवान
पर
भी लिख

लिखना
सातवें
आसमान
पहुँच जायेगा

लल्लू

कभी

अवतरित
हो चुके

हजारों
लाखों

एक साथ में

उसके

हनुमान
पर भी
लिख

सतयुग
त्रेता द्वापर

कहानियाँ हैं

पढ़ते
पढ़ते
सो गया

कल्लू ?

कभी
पतीलों में

इतिहास
उबालते

कलियुग
के शूरवीर

विद्वान
पर
भी लिख

शहीदों
के जनाजे
के आगे

बहुत
फाड़
लिये कपड़े

बिल्लू

कभी
घर के
सामान

इधर उधर
सटकाने में
मदद करते

बलवान
पर
भी लिख

विष
उगलते हों

और

साँप
भी
नहीं हों

ऐसा
सुने और
देखे हों

कहीं
और भी

तो
चित्र खींच

चलचित्र
बना
फटाफट

यहाँ
भी डाल

निठल्लू

पागल होते

एक
देश के
बने राजा के

पगलाये

जुबानी
तीर कमान

पर
भी लिख

बे‌ईमानों
को
मना नहीं है

गाना
बाथरूम में

गा
लिया कर
नहाते समय

वंदे मातरम

‘उलूक’

मैं
निकल लूँ

अखबारों
में
रोज की
खबर में

शहर के
दिख रहे

नंगों
और
शरीफों के

शरीफ
और नंगे
होने के

अनुमान

पर
भी लिख ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com



रविवार, 5 मई 2019

यार यस यस को समझ और यस यस करने की आदत डाल कुछ बनना है अगर तो बाकी सब पर मिट्टी डाल

यार

यस यस
को समझ

और

यस यस
करने की
आदत डाल

कुछ
बनना है
अगर

तो बाकी
सब पर
मिट्टी डाल

बुद्धिजीवी
होने का
प्रमाणपत्र है

है तो
निकाल

नहीं
भी है
अगर

तो भी
कोई
नहीं है
बबाल

समझ
ले बस

यार

यस यस
करने की
आदत डाल

यारों
का यार
होता है

नंगा
सबसे
बेमिसाल
होता है

चाहिये
होता है

तो बस

एक
मिट्टी रंगा
एक
रुमाल होता है

चल निकाल

यार

यस यस
करना

बड़े
कमाल
का कमाल
होता है

सब कुछ देख
सब कुछ समझ

कुछ मत बोल

कुछ
छंद लिख
कुछ
बंद लिख

कुछ
कविता कर
कुछ
गीत लिख

कुछ
टिप्पणी कर
कुछ
टिप्पणी पर
कुछ निकाल

कुछ
गिनना होता है
कुछ
बीनना होता है

यार

यस यस
युग है

कुत्ता भी
बनना पड़े

तो बनना होता है

भौंकना
खुद का
किसी के लिये

इससे बड़ा
कौन सा
भौंकना
होता है

यार

यस यस युग है

ये सारे
बुद्धिजीवी

यस यस
कर रहे हैं

‘उलूक’
की बुद्धि

भ्रष्ट
हो चुकी है

यार

यस यस
नहीं
कर रहा है

तुझे
कुछ बनना है

यार

यस यस
करना सीख

समझा कर

कलियुग नहीं है

यार

यस यस युग है

जरूरत
नहीं है
मत माँग
कोई भीख

बस यार

यस यस
करना सीख

यार

यस यस
को समझ

और

यस यस
करने की
आदत डाल

कुछ
बनना है
अगर

तो
बाकी
सब पर
मिट्टी डाल ।

ग्रह पूर्वा और इससे लगे ग्रहण को पूर्वाग्रह ग्रसित बताने का ठेकेदार नजर में आ गया

कुछ
दिनों से

लगातार
हो रही

खुजली
के इलाज
के बावत

किसी
चिकित्सक
के पास
जाने का

मन
बनाते बनाते

‘उलूक’

एक
“चिट्ठा ज्योतिष”
के चिट्ठे से


टकरा गया

नौ
ग्रहों का
छोड़कर
अगला


एक 
दसवें ग्रह
का बहीखाता

 साथ
में लेकर
आ गया

ग्रह
पूर्वा
के नाम से
जाना
जाने वाला

कुछ
लोगों को
लोगों के
पीछे लगाना

अगर
आप को
आ गया

तो
समझ लीजिये

जमाना
आपकी
मुट्ठी में
आ गया

ग्रह
पूर्वा का
ग्रहण
लगाने वाले

किसी
ना किसी
मदारी के
बन्दर होते हैं

वो
बताते हैं

 और
समझाते भी हैं

उनकी
लाईन से
अलग चलने वाले

पूर्वा ग्रह
से ग्रसित
बना
दिये जायेंगे

डंका

बजा बजा
कर शोर
मचा गया

उनको
बेशरम होकर

 किसी भी
हमाम में
नाच लेने
का तरीका

बहुत अच्छी
तरह से आता है

कुछ तो
तुम भी डरो

कह कर

डरा गया

उनके
नाचने के
तरीके
और
हिसाब से

उनको
कहीं

किसी
अच्छी
जगह पर
बैठा कर

ईनाम
दिया जाता है

बता गया
दिखा गया

सरकार
के आते ही

ऐसे ही
सारे लोगों को

कहीं ना कहीं
बैठा
दिया जाता है

उदाहरण
बता गया

एक
उदाहरण

जैसे
मास्टर
कोई है

कुलपति
बना दिया
जाता है

किसे
पता होता है

ऐसे
मास्टर
साहब का

कहीं ना कहीं

 किसी
संगठन
में जाकर

पैसे देने
और
सर झुकाने

का खाता है

इसी ग्रह
पूर्वा के
बारे में
बात करने

और
इस ग्रह से

लोगों को
ग्रसित
करने वाले
कुछ लोग

कुछ
सम्मानित लोगों

और
उनके किसी
फ्रंट में

जगह
बना लेते हैं

फिर
वहीं से
गुर्राते हैं

लोगों में
ग्रहण
लगाते हैं

कुछ
ना कह

और
कर
सकने
वाले लोग

पूर्वा
ग्रह
ग्रसित
हो जाते हैं

हमारी सुनो

हमारे
कहे से कहो

सोच
अपनी होना
ठीक नहीं

समझा गया

‘उलूक’
देखता हैं

उलूक
समझता है

ऐसे
सभी शरीफ
लोगों को

अपने 

आस पास के

पता
नहीं चला
बहुत दूर का

ऐसा ही
एक शरीफ

शरीफों
का रिश्तेदार


‘उलूक’
से
आकर

कब 

टकरा गया ।


चित्र साभार: https://www.aesc.org

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

बन्द कर ले दिमाग अपना, एक दिमाग करोड़ों लगाम सपना खूबसूरती से भरा है, किस बात की देरी है

मजबूरी है

बीच
बीच में
थोड़ा थोड़ा

कुछ
लिख देना
भी जरूरी है

उड़ने
लगें पन्ने

यूँ ही
कहीं खाली
हवा में

पर
कतर देना
जरूरी है

हजूर
समझ ही
नहीं पाते हैं

बहुत
कोशिश
करने के
बाद भी

कि यही
जी हजूरी है

फितूरों से
भरी हुयी है

दुनियाँ
यहाँ भी और वहाँ भी

कलम
लिखने वाले की
खुद ही फितूरी है

उलझ
लेते हैं फिर भी
पढ़ने पढ़ाने वाले

जानते हुऐ

टिप्पणी
ही यहाँ

बस
एक लिखे लिखाये
की मजदूरी है

आदत
नहीं है
झेलना
जबरदस्ती
फरेबियों को

रोज देखते हैं
समझते हैं

रिश्तेदार
उनके ही जैसे
आस पास के

टटपूँजियों से
बनानी दूरी है

‘उलूक’
दिमाग अपना
खोलना ही क्यूँ है

लगी
हुयी है भीड़
आँखे कान नाक
बन्द करके

इशारे में
कहीं भी
किसी
अँधे कूँऐं में
कूद लेने
की तैयारी

किस
पागल ने
कह दिया
अधूरी है ।

चित्र साभार: https://free.clipartof.com/details/1833-Free-Clipart-Of-A-Controlling-Puppet-Master

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

कुछ शब्दों के अर्थ तभी खोजने जायें जब उन्हे आपकी तरफ उछाल कर कोई आँखें बड़ी कर गोल घुमाये



कौन
जायज 

कौन
नाजायज 

प्रश्न
जब 

औलाद
किस की 

पर
आ कर 
खड़ा हो जाये

किस तरह
खोज कर

जायज उत्तर
को लाकर

इज्जत के साथ
बैठाया जाये

कौन समझाये
किसे समझाये

लिखने
लिखाने से
कब पता चल पाये

कौन
जायज
नाजायज

और
कौन
नाजायज
जायज

सिक्का
उछालने
वाले के

सिक्के में
हर तरफ
तस्वीर
जब
 एक हो जाये

चित भी
उसकी

पट भी
उसके ही
किसी
उसकी
हो धमकाये

जिसका
वो
खुद

जायज होना

नाजायज
बता

सामने वाले को

जायज
समझाये

जायजों
की कतार में

अनुशाशितों के
भाई भतीजे
चाचा ताऊ का

प्रमाण पत्र
जायज होने के
बटवाये

जिसमें
लिखा जाये

लाईन
को
बाहर से खड़े
देखते

बाकी बचे खुचे

अपने आप

नाजायजों में
गिनती
किये जायें

जो
दिखायी दे

उसपर
ध्यान
 ना लगाये

कुछ सोच से
परे भी

सोच
रखने के

योग
ध्यान अभ्यास
सिखाने पढ़ाने

वालों की
शरण में जाये

कल्याण करे

खुद का पहले

जायजों के
करे धरे
नाजायज से

ध्यान हटवाये

एकरूपता


की
सारे देश में

जायजों
की
कक्षाएं
लगा लगा कर

भक्ति पढ़ाये

नाजायज
पर
पर्दा
फहराये

जायज
होने के

पुरुस्कारों
के साथ

प्रतिष्ठित
किसी
मुकाम पर

आसीन
हो जाये

फिर

घोषित
जायजों को
एक तरफ
करवाये

और
अघोषित
नाजायजों

की वाट
लगवाये

समझ में
आ रहा है

कहते
रहते हैं

‘उलूक’

जैसे
नाजायज

हर
ठूँठ पर बैठे

ऐसे
नालायक को

हट हट
करते हुऐ

जायजों
के

सिंहारूढ़
होने के
जयकारों में

अपनी
जायज
आवाज मिलायें

निशान
लगाये
नाजायजों को

मिलजुल
कर
आँख दिखायें

हो सके
तो

मंच पर
किसी
चप्पल से
पिटवायें ।

चित्र साभार: https://drawception.com


सोमवार, 15 अप्रैल 2019

शरीफ के ही हैं शरीफ हैं सारे जुबाँ खुलते ही गुबार निकला



गाँव में शरीफों से बच रही है रजिया
बात नहीं बताने की
इज्जत उतारने वाला
शहर में भी एक शरीफ ठेकेदार निकला

शरीफों को आजादी है
संस्कृति ओढ़ने की और बिछाने की
दिनों से शरीफ साथ में है पता भी ना चला
और रोज ही शराफत से एक नया अखबार निकला
शरीफों को सिखा दी है शरीफ ने कला

शराफत से गिरोहबाजी करने की 
गिरोह शरीफों का गिरोह शरीफों के लिये
एक शरीफ का ही
शराफत का बाजार निकला

जिन्दगी निकल जाती है
गलतफहमी में इसी तरह बेवकूफों की
एक नहीं दो नहीं  कई कई बार फिर फिर
बेशरम अपनी ही इज्जत खुद अपने आप उतार निकला

‘उलूक’ जरूरत है
खूबसूरत सी हर तस्वीर के पीछे से भी देखने की
फिर ना कहना अगली बार भी
एक सियार शेर का लबादा ओढ़ कर
घर की गली से सालों साल कई कई बार निकला।

चित्र साभार: http://getdrawings.com

रविवार, 14 अप्रैल 2019

कुछ भी करिये कैसा भी करिये घर के अन्दर करिये बाहर गली में आ कर उसके लिये शरमाना नहीं होता है

गिरोहों
से घिरे हुऐ
अकेले को

घबराना
नहीं होता है

कुत्तों
के पास

भौंकने
के लिये

कोई
बहाना
नहीं होता है

लिखना
जरूरी है

सच
ही बस
बताना
नहीं होता है

झूठ
बिकता है

घर की
बातों को
कभी भी
कहीं भी

सामने से
लाना नहीं
होता है

जैसा
घर में होता है

और
जैसा
बताना
नहीं होता है

नंगई को
टाई सूट
पहना कर
नहलाना
नहीं होता है

भगवान के
एजेंटों को
कुछ भी
समझाना
नहीं होता है

मन्दिर
में ही हो पूजा

अब
उतनी
जरूरी 

नहीं होती है

भगवान
का ही जब
अब कहीं
ठिकाना 

नहीं होता है

कुछ
भी करिये

कैसा
भी करिये

करने
कराने को

देशभक्ति से

कभी भी
मिलाना
नहीं होता है

कुछ
पाने के लिये

किसी को
कुछ दे
कर आ जाना

हमाम में
नंगा होकर
नहाना
नहीं होता है

कुछ
पीटते हैं

ढोल

ईमानदारी का

ठेका लेकर

सारे
ईमानदारों
की ओर से

भगवान
और उनके
ऐजेंटों को

कुछ
बताना
नहीं होता है

उनसे कुछ
पूछने के लिये

इसीलिये
किसी को भी

कहीं आना
कहीं जाना
नहीं होता है

चोरों
उठाईगीरों
बे‌ईमानों को

खड़े
रहना होता है

उनके
सामने से
तराजू के
दूसरे पलड़े पर

 ईमानदारी को
तोलने के लिये

बे‌ईमानी
का बाँट

रखवाना 

ही होता है

इसीलिये

सजा
देकर उनको

जेल में
डालने के लिये

कहीं
जेलखाना
नहीं होता है 


‘उलूक’
देशद्रोही
की चिप्पियाँ

दूसरों में
चेपने के लिये

खुद
हमाम में
जा कर नहाना
नहीं होता है

कुछ
भी करिये

कैसा
भी करिये

घर के अन्दर करिये

बाहर
गली में
आ कर

उसके लिये
शरमाना
नहीं होता है

चित्र साभार: https://www.youtube.com/watch?v=hzefdiwf-dg

शनिवार, 13 अप्रैल 2019

खुले में बंद और बंद में खुली टिप्पणी करना कई सालों की चिट्ठाकारी के बाद ही आ पाता है

टिप्पणी
में

कहीं
ताला लगा
होता है

कहीं कोई

खुला
छोड़ कर भी
चला जाता है

टिप्पणी
करने

खुले में

टिप्पणी
करने

बंद में

कब
कौन कहाँ

और

किसलिये
आता जाता है

समझ में

सबके
सब आता है

दो चार
में से एक

'सियार'

जरा
ज्यादा तेज
हो जाता है

बिना
निविदा
पेश किये

ठेकेदारी ले लेना

ठीक नहीं
माना जाता है

आदमी
पिनक में

ईश्वरीय
होने की

गलतफहमी
पाल ले जाता है

अपनी
गिरह में

झाँकना
छोड़ कर

किसी
के भी
माथे पर

‘पतित’

चिप्पी
चिपकाना
चाहता है

गिरोह
बना कर
अपने जैसों के

किसी
को भी
घेर कर
लपेटना
चाहता है

इतना
उड़ना भी
ठीक नहीं

गालियाँ
नहीं देता
है कोई

का मतलब

गाली देना
नहीं आना

नहीं
हो जाता है

देश
शुरु होता है

घर से
मोहल्ले से
शहर से

छोटे छोटे
जेबकतरों से

निगाह
फेर कर

राम भजन
नहीं गाया
जाता है

करिये
किसी से
भी प्रेम

अपनी
औकात
देख कर ही

प्रेम
किया जाता है


मत बनिये
थानेदार

मत बनिये
ठेकेदार

हर कोई

दिमाग
अपने हाथ में

लेकर
नहीं आता है

थाना
न्यायालय
न्याय व्यवस्था

से ऊपर

अपने
को रखकर

तानाशाह

नहीं
बना जाता है

फटी
सोच से
झाँकता हुआ

फटा हुआ
दिमाग

बहुत
दूर से
नजर
आ जाता है

लोकतंत्र
का मतलब

गिरोह
बना कर

किसी की
उतारने की सोच

नहीं माना जाता है

इशारों में
कही बात
का मतलब

हर इशारा
करने वाला

अच्छी
तरह से
समझ जाता है

‘उलूक’
जानता है

'उल्लू का पट्ठा'
का प्रयोग

उल्लू
और
उसके
खानदान
के लिये ही
किया जाता है

और
सब जानते हैं

टिप्पणी
करने

खुले में

टिप्पणी
करने

बंद में

कब
कौन कहाँ

और

किसलिये
आता जाता है ।

चित्र साभार: https://pixy.org

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

कहाँ आँखें मूँदनी होती हैं कहाँ मुखौटा ओढ़ना होता है तीस मार खान हो जाने के बाद सारा सब पता होता है

फर्जी
सकारात्मकता
ओढ़ना सीखना

जरूरी होता है

जो
नहीं सीखता है

उसके
सामने से

खड़ा
हर बेवकूफ

उसका
गुरु होता है

सड़क
खराब है
गड्ढे पड़े हैं

कहना
नहीं होता है

थोड़ी देर
के लिये
मिट्टी भर के

बस
घास से
घेर देना
होता है

काफिले
निकलने
जरूरी होते हैं

उसके बाद

तमगे
बटोरने
के लिये

किसी
नुमाईश में

सामने से
खड़ा होना
होता है

हर जगह
कुर्सी
पर बैठा

एक मकड़ा

जाले
बुन
रहा होता है

मक्खियों
के लिये काम

थोड़ा थोड़ा

उसी के
हिसाब से

बंटा हुआ
होता है

पूछने वाले

पूछ
रहे होते हैं

अन्दाज
खून चूसे 
गये का 

किसलिये

मक्खियों को
जरा सा भी

नहीं
हो रहा
होता है

प्रश्न
खुद के
अपने

जब
झेलना

मुश्किल
हो रहा
होता है

प्रश्न दागने
की मशीन

आदमी
खुद ही
हो ले रहा
होता है

कुछ
नहीं कहना

सबसे अच्छा

और बेहतर
रास्ता होता है

बेवकूफों के

मगर
ये ही तो

 बस में
नहीं होता है

हर
होशियार

निशाने पर

तीर मारने
के लिये

धनुष

खेत में
बो रहा
होता है

किसको
जरूरत
होती है

तीरों की

अर्जुन
के नाम के

जाप करने
से ही वीर
हो रहा होता है

काम
कुछ भी करो

मिल जुल कर
दल भावना
के साथ
करना होता है

नाम
के आगे
अनुलग्न
लगा कर

साफ साफ
नंगा नहीं
होना होता है

‘उलूक’

जमाना
बदलते हुऐ

देखना
भी होता है

समझना
ही होता है

पता करना
भी होता है

कहाँ

आँखें
मूँदनी
होती हैं

कहाँ

मुखौटा
ओढ़ना
होता है ।

चित्र साभार: www.exoticindiaart.com

मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

जिसके नाम के आगे नहीं लगाया जा सके पीछे से हटा कर कुछ उसकी जरूरत अब नहीं रह गयी है

जरा
सा भी

झूठ नहीं है

सच्ची में

सच

साफ
आईने
सा

यही है

जाति धर्म

झगड़े
फसाद
की जड़

रहा होगा
कबीर के
जमाने में

अब तो
सारी जमीन

कीटाणु
नाशक

गंगा जल से
धुल धुला कर

खुद ही
साफ
हो गयी है

नाम कभी
पहचान
नहीं हुऐ

जाति
नाम के पीछे

लगी हुयी
देखी गयी है

झगड़ा
ही खत्म

कर
गया ये तो

नाम
के आगे से
लग कर

सबकी

एक
ही पहचान

कर दी गयी है

पीछे से
धीरे धीरे

रबर से
मिटाना
शुरु कर
चुके हैं

देख लेना
बस कुछ
दिनों में

सारी
भीड़

एक नाम
एक जाति

एक धर्म
हो गयी है

काम
थोड़ा बढ़
गया है

मगर

आधार
पैन में
सुधार करने
के फारम में

नाम के
कॉलम
की जरूरत

अब रह भी
नहीं गयी है

सच में
सोचें

मनन करें

कितनी
अच्छी बात

ये हो गयी है

उलूक
तेरा कुछ
नहीं कर
पायेगा

वो भी

तेरे आगे
कुछ नहीं है

और तेरे
पीछे
भी नहीं है

रात
के अँधेरे में
पेड़ पर बैठ

चौकीदारी
बहुत कर
चुका तू

अब
सब जगह
हो गया

तू ही तू है

बस
तेरी ही
जरूरत
अब

कहीं
आगे

या पीछे

लगाने की

नहीं रह गयी है ।

चित्र साभार: blog.ucsusa.org

रविवार, 31 मार्च 2019

‘उलूक’ हर दिन अपने आईने में देखता है चेहरे पर लिखा अप्रैल फूल होता है

 
बकवास करने का अपना मजा
अपना एक नशा होता है
किसी की दो चार लोग सुन देते हैं
किसी के लिये मजमा लगा होता है

नशा करके बकवास करने वाले को
उसके हर फायदे का पता होता है
नशा करता है एक शराबी
पीना पिलाना उसके लिये जरूरी होता है

कहीं कुछ नहीं से निकाल कर
बातों बातों में सारा कुछ यूँ ही चुटकी में दे देता है
बातों के नशे में रहता है एक नशेड़ी ऐसा होता है
ये माजरा करोड़ों में एक होता है

बातें होनी हैं होती हैं अप्रैल की
मार्च के बाद का एक महीना हर साल में एक होता है
विदेशी  कैलेण्डर विदेशी सोच विदेशी बातों को
विदेशों में सोचना होता है

देशी बातों में बातें देश की होती हैं
एक दिन में बात का नशा नहीं होता है
सबकी बात सबके लिये बात होने के लिये
उसके पास बातों का जखीरा होता है

सालों साल से जिसके लिये
हर दिन हर महीना साल का एक अप्रैल होता है
फूल लेकर हाथ में बातों में उसको बाँध कर
वो फिर से हाजिर होता है

जोकर कहें जमूरा कहें मदारी कहें सपेरा कहें
‘उलूक’ हर दिन अपने आईने में देखता है
चेहरे पर लिखा अप्रैल फूल होता है ।

चित्र साभार: https://furniture.digitalassetmanagement.site

गुरुवार, 28 मार्च 2019

जो पगला नहीं पा रहे हैं उनकी जिन्दगी सच में हराम हो गयी है


मरते मरते उसने कहा "हे राम"
उसके बाद भीड़ ने कहा "राम नाम सत्य है"
कितनों ने सुना कितनों ने देखा

देखा सुना कहा बताया बहुत पुरानी बात हो गयी है
जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है सत्य अब राम ही नहीं रह गया है

जो समझ लिया है उसकी पाँचों उँगलियाँ घी में घुस गयी हैं
और सर कहीं डालने के लिये कढ़ाईयों की इफरात हो गयी है
वेदना संवेदना शब्दों में उकेर देने की दुकाने गली गली आम हो गयी हैं

एक दिन की एक्स्पायरी का लिखा लिखाया
उठा कर ले जा कर अपनी दीवार पर टाँक लेने वाली दुकाने
हनुमान जी के झंडे में लिखा हुआ जय श्री राम हो गयी हैं

मंदिर राम का रंग हनुमान का
स्कूलों की किताबों के जिल्द में गुलफाम हो गयी हैं

शिक्षक की इज्जत
उतार कर उसके हाथ में थमाने वाले छात्रों की पूजा
राम की पूजा के समान हो गयी है

मंत्री के साथ पीट लेना थानेदार को 
खबर बेकार की एक पता नहीं क्यों सरेआम हो गयी है

छात्रों का कालिख लगाना एक मास्टर के
और चुप रहना मास्टरों की जमात का
मास्टरों की सोच का पोस्टर बन बेलगाम हो गयी है

जरूरी है इसीलिये लिख देना रोज का रोज ‘उलूक’
जनता एक पागल के पीछे पगला गयी है
जो पगला नहीं पा रहे हैं उनकी जिन्दगी सच में हराम हो गयी है ।

चित्र साभार: web.colby.edu

रविवार, 24 मार्च 2019

हर कोई किसी गिरोह में है फिर कैसे कहें आजादी के बाद सोच भी आज आजाद हो गयी है


आजादी 

चुनने की
एक आजाद सोच

पहेली 

नहीं हो गयी है 

सोचने 

की बात है 

सोच
आज क्यों

विरुद्ध
सामूहिक
कर्म/कुकर्म
हो गयी है ।


बर्फी 
के ऊपर
चढ़ाई गयी

चाँदी का
सुनहरा
वर्क हो गयी है

स्वर्ग
हो गयी है
का विज्ञापन है

मगर
बेशर्म
नर्क हो गयी है

अपोहन
की खबर
कौन दे

किसे
सुननी है

व्यस्त
चुनावों में

गुलाम
नर्स हो गयी है

मरेगी
भी नहीं

जिंदा भी
नहीं रहने
दिया जायेगा

बिस्तरे
में पड़ी

बेड़ा गर्क
हो गयी है

गहन
चिकित्सा केंद्र में
है भी

तो भी

कौन सी
किस के लिये

शर्म हो गयी है 

ठंडे हो गये

ज्यादा
लोगों
के देश में

सिर्फ
दो लोगों
के लिये

हर खबर

गर्म
हो गयी है 

पूजा पाठ
नमाज समाज

सोचने
वालों के लिये

फाल्तू
का एक

कर्म
हो गयी है

मन्दिर
के साथ

मसजिद
की बात
करना

सबसे
बड़ा
अंधेर है

अधर्म
हो गयी है 

नंगा होना

नंगई करना

करने धरने
वालों की

सूची में
आने की
शर्त हो गयी है

लोक भी है
तंत्र भी है

लोकतंत्र
की बात

फिर
करनी क्यों

बात ही
व्यर्थ हो गयी है 

जीतना
उसी को है

आज
चुनाव
करवाने
की बात भी

फालतू
सा एक

खर्च
हो गयी है 

मर जायेंगे

लुटेरे
घर मोहल्ले के

हार
पर बात
कहना भी

खाने में

तीखी मिर्च
हो गयी है 

क्या
लिखता है

क्या
सोच है

‘उलूक’ तेरी

समझनी
भी
किसे हैं

बातें सारी

अनर्थ
हो गयी हैं

लूट में

हिस्सेदारी
 लेने वाली

सारी
जनता को

देखता भी
नहीं है

आज

सबसे
समर्थ हो
गयी है । 




शुक्रवार, 22 मार्च 2019

पीना पिलाना बहकना बहकाना दौड़ेगा अब तो चुनावी मौसम हो गया है

आदमी
खुद में ही

जब

आदमी
कुछ कम
हो गया है

किसलिये
कहना है

रंग
इस बार
कहीं गुम
हो गया है

खुदाओं
में से

किसी
एक का

घरती
पर जनम
हो गया है

तो
कौन सा
किस पर

बड़ा
भारी
जुलम
हो गया है

मन्दिर
जरूरी नहीं

अब
वो भी

तुम
और हम
हो गया है

समझो

भगवान
तक को

इन्सान
होने का
भ्रम
हो गया है

झूठ
खरपतवार

खेतों में
सच के

सनम
हो गया है

काटना
मुश्किल
नहीं है

रक्तबीज
होने का
उसके

वहम
हो गया है

होली
के जाने का

क्यों रे
‘उलूक’

तुझे

क्या गम
हो गया है

पीना
पिलाना

बहकना
बहकाना

दौड़ेगा

अब तो

चुनावी
मौसम
हो गया है ।

चित्र साभार: https://miifotos.com

बुधवार, 20 मार्च 2019

चुनावी होली और होली चुनावी दो अलग सी बातें कभी एक साथ नहीं होती

बेमौसम
बरसात

ठीक भी
नहीं होती

होली में
पठाके की

बात ही
नहीं होती


रंग
बना रहा है

कई
साल से
खुद के चेहरे में

अपने
घर के
आईने से

उसकी
कभी बात
नहीं होती

फिर से
निकला है

ले कर
पिचकारी
भरी हुयी

अपनी
राधा
उसके ही
खयालात
में नहीं होती


बुरा
ना मानो
होली है

कहता
नहीं है

कभी किसी से

सालों साल

हर दिन
गुलाल
खेलने वाले की

खुद की
काली
रात नहीं होती

समझ में
आते हैं सारे रंग

कुछ
रंगीलों के ही

किसने कह दिया

रंग
सोचने में
लग रहे
जोर की

रंगहीन
हो चुके
मौसम में
कहीं बात
नहीं होती


‘उलूक’
रात के अंधेरे

और
सुबह के
उजाले में फर्क हो

सबके लिये
जरूरी नहीं

दूरबीन से
देखकर
समझाने वालों
की होली कभी

खुद के
घर के
आसपास
नहीं होती।



 चित्र साभार: http://priyasingh0602.blogspot.com/2014/09/the-festival-of-colors-holi-is-oneof.html

मंगलवार, 19 मार्च 2019

इस होली पर दिखा देता हजार रंग गिरगिट क्या करे मगर चुनाव उसके सामने से आ जाता है

होली

खेल
तो सही

थोड़ी सी

हिम्मत की
जरूरत है

सात रंग
तेरे
बस में नहीं

तेरी
सबसे बड़ी
मजबूरी है

बातों
में तेरे
इंद्र भी
दिखता है

धनुष भी

तू
किसी तरह
भाषण में
ले आता है

इन्द्र धनुष
लेकिन
कहीं भी

तेरे
आस पास
दूर दूर तक
नजर
नहीं आता है

रंग ओढ़ना

कोई
तुझसे सीखे

इसमें कोई
शक नहीं है

होने भी
नहीं देगा
तू

तेरे
शातिर
होने का

असर
और पता

मेरे
घर में

मेरे
अपनों की

हरकत से
चल जाता है

कुत्तों
की बात

इन्सानों
के बीच में

कहीं पर
होने लगे

अजीब
सी बात
हो जाती है

आठवाँ
आश्चर्य
होता है

जब
आदमी भी

किसी
के लिये

कुत्ते
की तरह
भौंकना

शुरु
हो जाता है

सारे रंग
लेकर
चले कोई
उड़ाने
भी लगे

किसे
परेशानी है

घर का
मुखिया
ही बस

एक लाल
रंग के लिये

वो भी
पर्दा
डाल कर

पीछे
पड़ जाता है

तो
रोना आता है

मुबारक
हो होली

सभी
चिट्ठाकारों को

टिप्पणी
करने
वालों

और
नहीं करने
वालों को भी

टिप्पणी
के साथ
मुफ्त
टिप्पणी
के ऑफर
के साथ

इन्सान
ही होता है

गलती
से चिट्ठा भी
लिखने लगता है

चिट्ठाकारों
में शामिल
भी हो जाता है

‘उलूक’
को तो
वैसे भी

नहीं
खेलनी है
होली

इस होली में

बिरादरी में
किसी का
मर जाना

त्यौहार ही
उठा
ले जाता है ।

चित्र साभार:
https://www.theatlantic.com/

रविवार, 17 मार्च 2019

हजार के ऊपर चार सौ और हो गयी बकवासें ‘उलूक’ के पागलखाने की

तमन्ना है

कई
जमाने से

आग
लगाने की

आदत
पड़ गयी

 मगर
अब तो
झक मारते

रद्दी
कागज फूँक

राख
हवा में
उड़ाने की

लकीरें
हैं खींचनी

आसमान
तक
पहुँचाने की

कलमें
छूट गयी
नीचे

मगर
हड़बड़ी में
ऊपर
जाने की

आदत
पड़ गयी
भूलने की

कहते कहते
झोला
उठाने की

लिखनी
हैं
कविताएं

आदमी
के अन्दर
के आदमी
को बचाने की

फितूर
बकवास का

नशा
बन गया

आदत
हो गयी

बस सफेद
पन्नों को

यूँ ही
धूप में
सुखाने की

क्या
जरूरत है

बेशरम

‘उलूक’
शरमाने की

तू
कुछ
अलग है

या
जमाना
कुछ और

अब
सीख
भी ले

लूट कर
जमाने को

लुटने
की कहानी
सुनाने की।

चित्र साभार: http://convictedrock.com

मंगलवार, 12 मार्च 2019

चिट्ठाजगत और घर की बगल की गली का शोर एक सा हुआ जाता है

अच्छा हुआ

भगवान
अल्ला ईसा

किसी ने

देखा नहीं
कभी

सोचता

आदमी
आता जाता है

आदमी
को गली का
भगवान
बना कर यहाँ

कितनी
आसानी से

सस्ते
में बेच
दिया जाता है

एक
आदमी
को
बना कर
भगवान

जमीन का

पता नहीं

उसका
आदमी
क्या करना
चाहता है

आदमी
एक आदमी
के साथ मिल कर

खून
को आज
लाल से सफेद

मगर
करना चाहता है

कहीं मिट्टी
बेच रहा है
आदमी

कहीं पत्थर

कहीं
शरीर से
निकाल कर

कुछ
बेचना चाहता हैं

पता नहीं
कैसे कहीं
बहुत दूर बैठा

एक आदमी

खून
बेचने वाले
के लिये
तमाशा
चाहता है

शरम
आती है
आनी भी
चाहिये

हमाम
के बाहर भी

नंगा हो कर

अगर
कोई नहाना
चाहता है

किसको
आती है
शरम
छोटी छोटी
बातों में

बड़ी
बातों के
जमाने में

बेशरम

मगर
फिर भी
पूछना
चाहता है

देशभक्त
और
देशभक्ति

हथियार
हो चले हैं
भयादोहन के

एक चोर

मुँह उठाये
पूछना चाहता है

घर में
बैठ कर

बताना
लोगों को

किस ने
लिखा है
क्या लिखा है

उसकी
मर्जी का

बहुत
मजा आता है

बहुत
जोर शोर से

अपना
एक झंडा लिये

दिखा
होता है
कोई
आता हुआ

लेकिन
बस फिर

चला भी
यूँ ही
जाता है

आसान
नहीं होता है
टिकना

उस
बाजार में

जहाँ

अपना
खुद का
बेचना छोड़

दूसरे की
दुकान में
आग लगाना

कोई
शुरु हो
जाता है

‘उलूक’

यहाँ भी
मरघट है

यहाँ भी
चितायें
जला
करती हैं

लाशों को
हर कोई
फूँकने
चला
आता है

घर
मोहल्ले
शहर में
जो होता है

चिट्ठाजगत
में भी होता है

पर सच

कौन है
जो देखना
चाहता है ।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com

गुरुवार, 7 मार्च 2019

करना कुछ नहीं है होता रहता है होता रहेगा सूरज की ओर देख कर बस छींक देना है



एक 
जूता
मार रहा है 

नहीं 
देखना है 

कुछ
नहीं कहना है 

एक 
जूता
खा रहा है 

नहीं 
देखना है 

कुछ
नहीं कहना है 

दूर दर्शन 
दिखा रहा है 

दिखा
रहा होगा 

बस
 देख लेना है 

अखबार में 
छप गया है 

छपा
दिया गया होगा 

बस
सोच लेना है 

उसके साथ
खड़े रहना है 

मजबूती से 

मजबूरी है 

जमीर 
होता ही है 

परेशान
करे 
तो बेच देना है 

घर की 
बातें हैं 

जनता
के बीच 
जा जा कर 
क्यों कहना है 

दिल्ली 
दूर
नहीं होती है 

दूरबीन लगाये 
बस उधर देखना है 

अकेले 
रहना भी 
कोई रहना है 

गिरोह में 
शामिल
नहीं होना
हिम्मत 
का काम 
हो सकता है 

पर
आत्मघाती 
हो जाता है 

सोच लेना है 

कविता करना 
कहानी कहना 
शाबाशी लेना 
शाबाशी देना 

गजब बात है 

सच की
थोड़ी सी
वकालत करना

बकवास 
करना 
हो जाता है 

ये भी
देख लेना है 

‘उलूक’ 

अपने 
आस पास के 
जूते जुराबों को 
छुपा देना है 

बस 
चाँद के
पाँव धो लेने है 

और
 सोच सोच कर 
बेखुदी में
कुछ पी लेना है 


कुछ भी 
हो जाये 

लेकिन 

बस 
धरती पर 
उतारा गया 

गफलत का 

वही चाँद 
देख लेना है 

वही चाँद 
खोद लेना है ।

चित्र साभार: https://openclipart.org

सोमवार, 4 मार्च 2019

कुछ नहीं कहने वाले से अच्छा कुछ भी कह देने वाले का भाव एकदम उछाल मारता हुवा देखा जाता है

तबीयत
ठीक रहती है
तो

बड़ा झूठ
बहुत आसानी से
पचाया जाता है

बकवास
लिखी जाती रहती है
तो


सच भी
नंगा होने में शरमाता है

जिंदगी
निकलती जाती है

झूठ ही
सबसे बड़ा
सच होता है
समझ में आता जाता है

हर कोई
एक नागा साधू होता है

कपड़े
सब के पास होते हैंं
तो

दिखाने भी होते हैं

इसीलिये
पहन कर आया जाता है

बहुत कुछ
होता है जो
कहीं भी नहीं
पाया जाता है

नहीं होना ही
सबसे अच्छा होता है

बिना
पढ़ा लिखा भी
बहुत कुछ
समझा जाता है

साँप
के दाँत
तोड़ कर
आ जाता है

बत्तीस
नहीं थे
छत्तीस हैं
बता कर जाता है

साँप
तो

मार खाने
के बाद
गायब हो जाता है

साँपों की
बात करने वाला

जगह जगह
मार खाता है
गरियाया जाता है

लकीर
पीटने वाला
सब से समझदार
समझा जाता है
माना जाता है

पीटते पीटते
फकीर हो जाता है

ऊपर वाला भी
देखता रह जाता है

एक जगह
खड़ा रहने वाला

हमेशा शक की
नजरों से देखा जाता है

थाली में
बैगनों के साथ
लुढ़कते रहने वाला ही

सम्मानित
किया जाता है

‘उलूक’
कपड़े लत्ते की
सोचते सोचते

गंगा नहाने
नदी में उतर जाता है

महाकुँभ
की भीड़ में
खबरची के
कैमरे में आ जाता है
पकड़ा जाता है

घर में
रोज रोज
कौन कौन
नहाता है

अखबार
में नहीं
बताया जाता है

बकवास
करते रहने से

खराब
तबीयत का
अन्दाज नहीं
लगाया जाता है

तबीयत
ठीक रहती है
तो

एक
बड़ा झूठ भी
आसानी से
पचाया जाता है

चित्र साभार: http://hatobuilico.com

रविवार, 24 फ़रवरी 2019

हुवा हुवा का शोर हुवा कहीं हुवा कुछ जैसे और बड़ा जबरजोर हुवा

फिर
हुवा हुवा
का शोर हुवा

इधर से

गजब का
जोर हुवा

उधर से
जबरजोर हुवा

हुवा हुवा
सुनते ही

मिलने लगी

आवाजें
हुवा हुवा की

हुवा हुवा में

हुवा हुवा से

माहौल
सारा जैसे
सराबोर हुवा

चुटकुला एक

एक
बार फिर
अखबार में

खबर
का घूँघट ओढ़

दिखा आज
छपा हुवा

खबरों
को उसके
अगल बगल की

पता ही
नहीं चला

कब हुवा
कैसे हुवा
और
क्या हुवा

पानी
नदी का
बहने लगा

खुद ही
नहा धोकर

सब कुछ
सारा

आस पास
ऊपर नीचे का

पवित्र हुवा
पावन हुवा

पापों
के कर्ज में
डूबों का

सब कुछ
सारा माफ हुवा

ना
बम फटे
ना
गोली चली
ना
युद्ध हुवा

बस
चुटकुला
खबर
बन कर

एक बार
और

शहीद हुवा
इन्साफ हुवा

जंगल उगे
कागज में

मौसम भी

कुछ
साफ हुवा

हवा
चली
जोर की

फोटो में
बादल उतरा

पानी
बरसा

रिमझिम
रिमझिम
गिरते गिरते
भाप हुवा

पकाने
परोसने
खिलाने
वाले

शुरु हुऐ
समझाना

ऐसा हुवा

हुवा
जो भी

सदियों
बाद हुवा

‘उलूक’
पूछना
नहीं हुवा

कुछ भी बस

करते
रहना हुवा

हुवा हुवा

हो गया
हो गया

सच्ची
मुच्ची में

है हुवा हुवा ।

चित्र साभार: https://www.123rf.com

सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

लम्बी खींचने वालों की छोड़ ‘उलूक’ तुझे अपने कुर्ते को खुद ही खींच कर खुद का खुद ही ढकना है

फिर से
आ गया लिखने
एक और बकवास

चल बोल
अब क्या रह गया है

जिसे कहना है

फरवरी
का महीना है
वेतन नहीं
निकाल पायेगा
मार्च के महीने में

लग जा
भिड़ाने में
हिसाब किताब
आयकर का

बाकी
होनी को तो
अपनी जगह
उसी तरह
से होना है

जैसा
ऊपर वाले
ने करना है

प्रश्नों
को डाल दे
कबर में किसी

फिर
कभी खोद लेना
कौन सा किसी को
जवाब देने के लिये
कहीं से उतरना है

प्रश्न
दग रहे हैं
मिसाईल
की तरफ
प्रश्न करते ही
पूछने वाले पर
हवा में ही

जमीन
में वैसे भी
कौन सा
किसी को
मारना मरना है

चुन
ली गयी है
सरकारों
की सरकार

हजूर
इस प्रकार
और उस प्रकार

फर्क
कौन सा
जमीर बेचने
वाले के लेन देन
नफा नुकसान पर

जरा सा भी
कहीं पड़ना है

दो हजार
उन्नीस पर
नजर गड़ाये
हुऐ हैं सारे तीरंदाज

बिना
धनुष तीर के
अर्जुन ने लगाना
निशान आँख पर

मछली
की छोड़
ऊँट को करवट
बदलते देखना

उसी
तरफ लोटने
के लिये कहीं
नंगे किसी के
पाँवों पर
लुढ़कना है

‘उलूक’
कुछ नहीं
होना है तेरी
आदत को अब
इस ठिकाने
पर आकर

कौन सा
तूने भी
बकबास
करना छोड़ कर

तागा
लपेटने वाले
पतंग उड़ाते

देश के
पतंगबाजों से
पेच लड़ाने के लिये

अपनी
कटी पतंग
हाथ में लेकर
हवा में उड़ना है ।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com

शनिवार, 16 फ़रवरी 2019

जरूरी काम निपटाना बहुत जरूरी होता है श्रद्धाँजलि तो मरे को देनी होती है उसके लिये जिंदों के पास समय ही समय होता है

तेज
दौड़ते रहने से
दिखायी नहीं
देती है प्रकृति

रुक लेना
जरूरी होता है

कहना
अपनी बात
और लिखना
उसी को

मजबूरी
हो सकता है
उसके लिये

जो बोलना
और लिखना
सीखते सीखते
भटक जाता है

कवि और
साहित्यकारों
के बीच में
रहने से भ्रम
हो ही जाता है

सामान्य लोग
और मानसिक
रूप से बीमार

साथ में
चलते रहते हैं

समय
समय देता है
समझने के लिये
पागलों को भी

एक ही
रास्ते में
चलने का
नुकसान

पागल
को ही
उठाना
पड़ जाता है

तरक्की
ऐसे ही
नहीं होती है

छोटा
बहुत जल्दी
बहुत बड़ा
हो जाता है

शतरंज
के मोहरे भी
ऊब जाते हैं

कब तक
चले कोई
एक ही
तरह से

किसी के
चलाने से
सीधा आढ़ा
या तिरछा

बिसात को
छोड़ कर
एक ना
एक दिन

हर कोई
बाहर
चला आता है

मौत
शाश्वत है
जीवन
चला जाता है

मोहरे
मरते नहीं हैं
बिसात से
बाहर
निकल आते हैं

बिसात में
बिताये समय का
सदउपयोग कर
मौत बेचना
शुरु हो जाते हैं

खेलने वाले
जब तक
समझ पाते हैं
शतरंज

मोहरे
समझाने वाले
खिलाड़ियों
की पाँत में
बहुत आगे
पहुँच जाते हैं

चुनाव
हार और जीत
शतरंज और मोहरे

हर तरफ फैल कर
अमरबेल की तरह
जिंदगी से
लिपट कर उसे चूसते हैं

कहीं हीमोग्लोबिन
चार पहुँच जाता है

कुछ शूरवीर
पन्द्रह सोलह
के पार हो जाते हैं

देश
देशभक्ति
शहीद याद आते ही

घर के दरवाजे
शोक में बन्द
कर दिये जाते हैं

‘उलूक’
देखता रहता है
ठूँठ पर बैठा
रात में दौड़ते चूहों को

सड़क दर सड़क

अच्छी बात है
कुछ होता है तब
जली मोमबत्ती लेकर

अपनी अपनी
चाल
बहुत धीमी
कर ले जाते हैं

बलिहारी हैं
बिल्लियाँ
जिनकी
नम आखों से
टपकते आँसू

चूहों का उत्साह
इस आसमान से
उस आसमान
तक पहुँचाते हैं

लाशों के बाद वोट
या
वोट के बाद लाश

क्या फर्क पड़ता है

बेवकूफ
हराम के
खाने वाले
हरामी

हमेशा
सामने वाले के
मुँह पर टार्च जला कर
शीशा सामने से
ले कर आते हैं ।

चित्र साभार: https://herald.dawn.com

सोमवार, 11 फ़रवरी 2019

विश्वविद्यालय शिक्षक संघ चुनाव जितना ‘उलूक’ देख पा रहा है

विश्व
के एक
विद्यालय में

जल्द ही

संघ का
चुनाव होने
जा रहा है

मजे
की बात है

हर
लड़ने वाला
इस चुनाव में

अपना
झंडा
छुपा रहा है

बुद्धिजीवी
बड़ी बात है

किसी एक
बुद्धिजीवी को

वोट देने
जा रहा है

मुद्दे
किसी के
पास हैं
और क्या हैं

पूछने पर

कोई
कुछ नहीं
बता रहा है

विश्व का
यही एक
विद्यालय

जल्दी ही
दो में टूटने
जा रहा है

किसलिये
और क्यों
तोड़ा
जा रहा है

अलग बात है

अच्छा है
किसी से
उसकी
औकात के
बाहर का प्रश्न

पूछा भी
नहीं जा रहा है

शहर
जिले प्रदेश
से छाँट कर

किसी
एक को

दूसरी

ऐसी ही
किसी एक
ऊँची दुकान में

सामान
बेचने
के लिये
भेजा
जा रहा है

अखबार
शहर का

बेचने और
खरीदने की
बात छोड़ कर

दुकानदार
बनाये गये
बुद्धिजीवी के
गाये गये
गाने को
समझा रहा है

सब
पके
पकाये हैं

हर कोई
एक दूसरे को
पका रहा है

विश्व के
विद्यालय के
विख्यात
व्याख्याताओं को

दो हजार उन्नीस
नजर आ रहा है

समझ में
नहीं आती हैं
कुछ बातें

तो लिखने
चला आ रहा है

लिखना
नहीं आता है
फिर क्यों
और
किसलिये
पढ़ा रहा है

लूटना
सिखाना
गिरोह बनाना

नहीं सिखा
पा रहा है

बेकार है
जिन्दगी उसकी

जो खाली
विषय
पढ़ा रहा है

‘उलूक’
तेरी बात है
मान लेते हैं

तू खुद भी
नहीं समझ
पा रहा है

दुआ
उसको दे

जो
ऐसे कूड़े पर

फिर भी

टिप्पणी
दे कर
जा रहा है ।


चित्र साभार: www.thebiharnews.in