उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

झटके का नहीं आता है खेल उसे हलाल सब को सिखाने की जिसने मन में ठानी है

सीधे सीधे
लिख देने में 

क्या परेशानी है 

किसलिये 
टेढ़ा कर के ही 

बेचने की 
ठानी है 

सब की 
समझ में 
सब बात 
आती नहीं है 

हमने मानी है 

खिचड़ी 
बना कर उसकी

रोज परोस देना 
मनमानी है 

बड़ा देश 
अनगिनत लोग

समस्याएं
आनी जानी हैं 

आदत 
लक्ष्मी की 
ना टिकने की 

पुरानी है 

सरकार 
बदल देने से 

थोड़े
बदल जानी हैं 

नाली 
छोटी 
पैसों की 

अल्पमत 
गरीब ने
बनानी हैं 

किसे पता है 
किस 
अमीर के 
सागर में

जा समानी हैं 

गालियाँ 

बेचारी 
बहुमत की 
सरकार को
खानी हैं 

बस कुछ 
शुरु ही हुयी है 

छोटी सी
कहानी है 

मेरे घर की 
नहीं राख 

कहीं दूर के 
जले घर की 
पुरानी है 

ट्रेलर के 
मजे लीजिये 
मौज से 

हीरो 
मान लो
हो चुका 
अब

खानदानी है 

खुद 
सोच लेना 
पूरी कहानी 
हड़बड़ी में 

नादानी है 

जरा रुक के 

पूरी 
फिल्म 
अभी तो 
सामने से

आनी है 

झटके का 
नहीं आता है
खेल उसे 

बेवकूफ ‘उलूक’ 

हलाल 
सब को 
सिखाने की 

जिसने
मन में ठानी है ।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com

बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

नोबेल पुरुस्कार का जवाहर लाल का नाम लगे स्कूल से क्या रिश्ता होता है


जिसके
पास

जो
होता है


उसे
वैसा ही
कुछ
लिखना होता है

ऐसा
किस ने
कह दिया होता है

लिखना
भी
एक तरह से

दिखने
की
तरह का
जैसा होता है

ये ना पूछ बैठना

हकीम लुकमान
को
कौन जानता है

जिसने
लिखने
और
दिखने को

बराबर है
कह
दिया होता है

ये
उसी तरह
का
एक फलसफा
होता है

जो
होता भी है
और
नहीं भी होता है

कब
कहाँ
होना होता है

कब
कहाँ
नहीं होना होता है

उसके लिये
किसी ना किसी को
आदेश कहें निर्देश कहें

कुछ
ऐवें ही तरह का
दिया गया होता है

किस को
क्या
दिया गया होता है

उसी को
क्यों
दिया गया होता है

ऐसा
बताने वाला भी
कोई हो

बहुत जरूरी
नहीं होता है

अब
नोबेल पुरुस्कार
का
जवाहर लाल
का
नाम लगे
स्कूल से

क्या रिश्ता होता है

गालियों के झंडे
उछालने वाले
अनपढ़ लोगों
के
बीच से निकला
आदमी

अपने
घर के
खेत में
गेहूँ

क्यों नहीं बोता है

गरीबी
यहाँ होती है

चुनाव
यहाँ होते है

सारा
सब कुछ
छोड़ छाड़ कर
भाग लेने वाला

अचानक

अवतरित
हो लेता है

ईनाम देने का
फैसला

संविधान
के अनुसार

इधर ही
क्यों नहीं होता है

नगाढ़ा
कोई
पीट लेता है

तस्वीर
किसी और
की होती है

हल्ला

किसी
और
का
हो लेता है

कोई नहीं

‘उलूक’
को
जब भी कभी

बहुत
जोर की
खुजली होनी
शुरु होती है

तब वो
और
उसका
लिखना
भी

चकर घिन्नी
हो लेता है

दीवाली के दिन
होती है
घोषणा भी
उसके घूमने
की

लेकिन

केवल
दिन के अंधे
के लिये

ऐसी
रोशनी का
कोई
मत
ब 
नहीं होता है।

चित्र साभार: 

सोमवार, 14 अक्तूबर 2019

सागर किनारे लहरें देखते प्लास्टिक बैग लेकर बोतलें इक्ट्ठा करते कूड़ा बीनते लोग भी कवि हो जाते हैं


ना
कहना
आसान होता है

ना
निगलना
आसान होता है

सच
कहने वाले
के
मुँह
पर राम

और

सीने पर
गोलियों का
निशान होता है

सच
कहने वाला
गालियाँ खाता है

निशान
बनाने वाले का

बड़ा
नाम होता है

‘उलूक’
यूँ ही नहीं
कहता है

अपने
कहे हुऐ
को
एक बकवास

उसे
पता है

कविता
कहने
और
करने वाला
कोई एक
 खास होता है

अभी
दिखी है
कविता

अभी
दिखा है
एक कवि

 कूड़ा
समुन्दर
के पास
बीन लेने
वाले को

सब कुछ
सारा
माफ होता है

बड़े
आदमी के
शब्द

नदी
हो जाते हैं

उसके
कहने
से ही
सागर में
मिल जाते हैं

बेचारा
प्लास्टिक
हाथ में
इक्ट्ठा
किया हुआ
रोता
रह जाता है

बनाने
वालों के
अरमान

फेक्ट्रियों
के दरवाजों
में
खो जाते हैं

बकवास
बकवास
होती है

कविता
कविता होती है

कवि
बकवास
नहीं करता है

एक
बकवास
करने वाला

कवि
हो जाता है ।


चित्र साभार:
https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

शब्द बच के निकल रहे होते हैं बगल से फैली हुयी स्याही के जब कोई दिल लगा कर लिखने के लिये कलम में स्याही भर रहा होता है




लिखा
हुआ भी
रेल गाड़ी
होता है

कहीं
पटरी पर
दौड़
रहा होता है

कहीं
बेपटरी हुआ
औंधा
गिरा होता है

लिखते लिखते
कितनी दूर
निकल
गया होता है

उसे
खुद पता
नहीं होता है

मगर
कलम
जानती है

बहुत
अच्छी तरह से
पहचानती
है

स्याही सूखे
इससे पहले
हमेशा
शब्दों को
अपने
हिसाब से
छानती है

लिखे हुऐ के
कौऐ भी
उड़ते हैं

उड़ते उड़ते
कबूतर
हो लेते हैं

क्या
फर्क पड़ता है
अगर

सफेद
के ऊपर
काला
लिखा होता है

कौन
देखता है

समय
के साथ
लिखा लिखाया
हरे से पीला
हो लेता है

किताबें
पुरानी
हो जाती हैं

लिखाई
से
आती महक

उसकी उम्र
बता जाती है

लिखा हुआ
अकेला
भी होता है

मौके बेमौके
स्टेशन से
रेल पहुँचने
के बाद
निकली भीड़ के
अनगिनत
सिर हो लेता है

शब्द
शब्दों के ऊपर
चढ़ने
शुरु हो जाते हैं

भगदड़
हो जाना
कोई
अजूबा
नहीं होता है

कई शब्द
शब्दों के
जूतों के नीचे
आ कर
कुचल जाते हैं

लाल खून
कहीं
नहीं होता है

ना ही
कहीं के
अखबार रेडियो
या
टी वी
चिल्लाते हैं

कोई
दंगा फसाद
जो क्या
हुआ होता है

सिरफिरे
‘उलूक’ का
रात का
काला चश्मा
सफेद
देख रहा होता है

लिखते लिखते
लिखना लिखाना

घिसी हुई
एक कलम से
फैला हुआ
कुछ रायता सा
हो रहा होता है

शब्द बच के
निकल रहे होते हैं
बगल से
फैली हुयी स्याही के

हर
निकलने वाला
थोड़ी दूर
पहुँच कर

घास
के ऊपर
अपना जूता

साफ
करने के लिये
घिस रहा होता है ।

http://hans.presto.tripod.com



गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

काहे पढ़ लेते हैं कुछ भी सब कुछ लिखना सब को नहीं आता है


यूँ ही
नहीं लिखता
कोई
कुछ भी

अँधेरे में
उजाला लिखना
लिखना अँधेरा
उजाले में

 उजाले में
उजाला लिखना
लिखना
अँधेरे में अँधेरा

एक बार लिखा
बार बार लिखना

 लिखना
बेमौसम
सदाबहार लिखना

यूँ ही
नहीं लिखता
कोई कुछ भी

सब
लिखते हैं कुछ

 कुछ
लिखना
सबको नहीं आता है

सब
सब नहीं लिखते हैं

 सब
लिखने की
हिम्मत
हर कोई
नहीं पा जाता है

सब लिखते हैं

 सब
लिखने पर
बात करते हैं

 सब
कोशिश करते हैं
अपने लिखे को
सब कुछ बताने की

सब
का लिखा
सब को
समझ में
नहीं आता है

 सब से
अच्छी टिप्पणी
सुन्दर होती है

 दो चार शब्द
कहीं दे आने से
ज्यादा कुछ
घट नहीं जाता है

लिखते लिखते

कहाँ
भटक गया होता है
लिखने वाले को भी
पता कहाँ चल पाता है

 कुछ भी है
लेकिन
सच
चाहे अपना हो
पड़ोस का हो
समाज का हो

किसी में
इतनी
हिम्मत
नहीं होती है

कि
लिख ले
कोई

नहीं
लिख पाता है

‘उलूक’
कोशिश करता है
फटे में झाँकने की
और बताने की

लेकिन
उसका जैसा
उल्लू का पट्ठा

शायद
कभी कोई
नजर आये

जो अपने
पैजामे के
नाड़े को
बाँधने के
चक्कर में

पैजामा
कौन सा है
बता पाये
नजर नहीं
आता है

बकवासों
का भी
समय
आयेगा कभी

खण्डहर
बतायेंगे
हर नाड़े को

पैजामा
छोड़ कर
जाने का
मलाल रह
ही जाता है।

 चित्र साभार: https://www.talentedindia.co.in

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

कुछ सजीव लिखें कुछ अजीब लिखें कुछ लगाम लिखें कुछ बेलगाम लिखें

कुछ
उठती उनींदी
सुबह लिखें

कुछ
खोती सोती
शाम लिखें

कुछ
जागी रातों
के नाम लिखें

कुछ
बागी सपनों
के पैगाम लिखें

कुछ
बहकी साकी
के राम लिखें

कुछ
आधे खाली

कुछ
छलके जाम लिखें

कुछ
लिखने
ना लिखने
की बातों में से

थोड़ा
सा कुछ
खुल कर
सरेआम लिखें

कुछ
दर्द लिखें
कुछ खुशी लिखें

कुछ
सुलझे प्रश्नों
के उलझे
इम्तिहान लिखें

कुछ
झूठ लिखें
कुछ टूट लिखें

कुछ
रस्ते कुछ
कुछ सच के
कुछ अन्जान लिखें

कुछ
बनते बनते से
कुछ शैतान लिखें

थोड़े से

कुछ
मिट्ठी से उगते
इन्सान लिखें

कुछ
कुछ लिखते
लिखते कुछ
खुद की बातें

‘उलूक’

कुछ
बातें उसकी
कुछ उससे
पहचान लिखें।

चित्र साभार: https://pngio.com

शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

फितरत छिपाये अपनी लड़ाके सिपाही एक रणछोड़ की झूठी दास्तान सुन रहे हैं


पता ही नहीं है कुछ भी अन्जान बन रहे हैं 
लगता भी नहीं है
कहते हैं
इन्सान बन रहे हैं

खूबसूरत बन रहे हैं कफन
बेफिक्र होकर
जिंदगी के साथ साथ बुन रहे हैं 

आरामदायक भी बनें सोच कर
सफेद रूई को एक
लगातार धुन रहे हैं

कब तक है रहना खबर ही नहीं है
बेखबर होकर
एक सदी का सामान चुन रहे हैं 

कहानियाँ हैं बिखरी
कुछ मुरझाई हुई सी कुछ दुल्हन सी निखरी 

कबाड़ में बैठे हुऐ कबाड़ी
आँख मूँदे हुऐ
जैसे कुछ इत्मीनान गिन रहे हैं 

फितरत छिपाये अपनी
लड़ाके सिपाही
एक रणछोड़ की
झूठी दास्तान सुन रहे हैं

‘उलूक’
रोने के लिये कुछ नहीं है
हँसने के फायदे कहीं हैं
सोच से अपनी लोग खुद
बिना आग बिना चूल्हे
भुन रहे हैं ।

चित्र साभार: https://owips.com https://twitter.com


बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

सत्य अहिंसा सत्याग्रह नाटक के अभ्यास के लिये रोज एक मंचन का अभिनव प्रयोग हो रहा है


जब
गाँधी
मारा गया था

तब
वो
पैदा भी
नहीं हुआ था

उसकी
किताबों से
उसे
बताया गया था

गाँधी
जिस दिन
पैदा हुआ था

असल में
उस दिन
शास्त्री
पैदा
हुआ था

जो
असली 
था
सच था

उसने
ना
गाँधी को
पढ़ा था

ना ही
उसे

शास्त्री
का
ही
पता था

उसे
समझाया
गया था

गाँधी
मरते
नहीं है

शास्त्री
मरते हैं

 इसलिये
गाँधी की
मुक्ति के लिये

शास्त्री
जरुरी है

कभी
कोई
गाँधी की
बात करे

उसे
तुरन्त
शास्त्री
की बात
शुरु
कर देनी
चाहिये

गाँधी
अभी तक
जिन्दा है

और
इसी बात की
शर्मिंदगी है

उसकी
मुक्ति
नहीं
हो पा रही है

देख लो

अभी भी
याद किया
जा रहा है

आज
उसकी
एक सौ
पचासवीं
जयन्ती है

गाँधी को
तब
गोली लगी थी

वो
मरा
नहीं था

मर तो
वो
आज रहा है

रोज
उसे
तिल तिल
मरता
हर कोई
देख रहा है

‘उलूक’
समझाकर

कोई
कुछ
इसलिये
नहीं कह रहा है

क्योंकि
कहीं
गाँधी
होने की

अतृप्त
इच्छा के साथ

पर्दे
के पीछे से
धीरे धीरे
गाँधी
होने के लिये

सत्य अहिंसा सत्याग्रह
नाटक
के
अभ्यास के लिये

रोज
एक मंचन
का

अभिनव प्रयोग
हो रहा है ।

चित्र साभार: https://www.facebook.com/pg/basavagurukul/posts/

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

डरकर शरमाकर सहमकर झेंप रहे हैं गाँधीवादी

सत्य 
अहिंसा 
का 
दूसरा नाम 

कभी 
किसी 
जमाने में 
कहते थे 

होता
था 
गाँधी

झूठ
की 
चल रही है 

इस 
जमाने में 

जर्रे जर्रे 
में 

हवा नहीं है 

है एक 
आँधी

सत्य 
छिपा 
फिर
रहा है 

खुद 
अपना 
मुँह छुपाये 

गलियों 
गलियों में 

झूठ की 
बढ़ गयी है 

हर
तरफ 
आबादी

अहिंसा 
को
डर है 

खुद के 
कत्ल 
हो 
जाने का 

लिंचिंग 
हो जाने 
की
हुई है 

जब से 
उसके
लिये 
घर घर में 
मुनादी

चाचा 
होते होते

नहीं 
हो पाने 
के बाद 

जब 
हो रही है 

बापू 
हो जाने 

की
तीव्र 
इच्छा 

छाती 
फुला रहा है 

विदेश 
जा कर 

फौलादी

एक 
सौ 
पचासवीं 
जयन्ती 

मजबूरी
है 

झंडे के 
रंगों को 
कर 
अलग अलग 

हवा 
खुद नहीं 
चल पाती है 

जब तक 
नहीं 
हो जाती है 

पूरी 
उन्मादी 

आसमान 
की ओर 

मुँह कर 
खड़े
हो गये 
हैं
तीनों बंदर 

खुला 
छोड़ कर 

अपने 
आँख नाक 
और 
मुँह 
‘उलूक’ 

डरकर 
शरमाकर 
सहमकर 

झेंप रहे हैं 
गाँधीवादी।
चित्र साभार: https://depositphotos.com

सोमवार, 30 सितंबर 2019

वो कहीं नहीं जाता है ये हर जगह नजर आता है आने जाने के हिसाब से यहाँ हिसाब लगाया जाता है



गजब है

सारे

उसके
हिसाब से

हिसाब
समझा रहे हैं

गणित
की लिखी
पुरानी
एक किताब को

किसी
बेवकूफ
के द्वारा
लिखा गया
इतिहास
बता रहे हैं

वो
पता नहीं

क्यों
बना हुआ है

अभी तक

कागज के नोट पर

जिसकी
एक सौ
पचासवी
तेरहवी
मनाने के लिये

उसकी
धोती के

हम सब
मिल कर

उसके
परखच्चे
उड़ा रहे हैं

वहम
है शायद
या समझ में
नहीं आता है

जो
सामने
से होता है
किसी को भी
नजर नहीं आता है

कुछ
कहने की
कोशिश करो तो

नजरें
देख कर
सामने वाले की

डर लगता है

जैसे कह रहा हो

औकात
में रहा कर

पहाड़
से लाकर
अपने पहाड़ी कव्वे

किसलिये
रेगिस्तान में
लाकर उड़ाता है

हर किसी ने
ओढ़ा हुआ होता है

एक गमछा
मूल्यों का
अपने गले में

रंग उसका
उसकी
सोच का
परचम
उसके साथ
लहराता है

लाल को
हरे गमछे
में बदल देने से
कौन सा
मूल्य बदल जाता है

मुस्कुराईये मत

अगर

रोज
पैंट पहन कर
घूमने वाला आदमी

कहीं
किसी जगह
एक रंग की
हाफ पैंट के साथ
टोपी भी पहना हुआ
नजर आता है

लाजमी है
उतरना
 रंग चेहरों का
देखकर

कोई अगर
आईना
उनके
सामने से
आ जाता है

शहर में
बहुत कुछ
होता है

हर कोई
कहीं ना कहीं
अपना जमीर
तोलने जाता है

परेशान
किस लिये
होता है
‘उलूक’
इस सब से

अगर तुझे
खुद को
बेचना
नहीं
आता है ।

चित्र साभार: https://www.kissclipart.com/

रविवार, 29 सितंबर 2019

सोच कुछ भी हो आईने सी साफ हो लिखे लिखाये में सूरत दिखनी भी नहीं है



साफ
कहना है

कहने से
कोई परहेज
होना भी नहीं है

बात
अपनी
खुद की

जरा
सा भी
कहीं
करनी भी
नहीं है

थोड़े से
मतभेद
से केवल

अब
कहीं कुछ
होता भी नहीं है

पूरा 
कर लें 
मनभेद 
इस से
अच्छा माहौल

आगे
होना भी नहीं है

झूठ सारे
लिपटे हुऐ हैं
परतों में

पर्दे में
नहाने की

जरूरत
भी नहीं है

बन्द
रखनी हैं
बस आँखें

हमाम
की दीवारें
खिड़कियाँ
दरवाजे

अभी
तैयार
भी नहीं हैं

भेड़िये
सियार कुत्ते
सारे साथ हैं

क्या हुआ
रिश्तेदार
भी नहीं हैं

सोचना
भी नहीं है

नोचना
ही तो है
सबने

कुछ ना कुछ

क्या हुआ
अगर जिन्दा हैं

लाशें अभी
बनी भी नहीं हैं

लिखने में
कुछ नहीं
जाता है

सब कुछ
लिखने के
बीच का

कुछ
लिखना
भी नहीं है

सोच
कुछ
भी हो
‘उलूक’

आईने सी
साफ हो

लिखे
लिखाये में
सूरत दिखनी
भी नहीं है ।

 चित्र साभार: http://clipart-library.com

सोमवार, 23 सितंबर 2019

चलो बस यूँ ही चाँद पर रोटी तोड़ने के लिये हो के आते हैं


कौन 
सोया 
हुआ है

कौन

जागा 
हुआ है

अब तो

ये भी 

पता 
नहीं चलता

वो 
कहते हैं

तुम

सो रहे हो

हमें

वो 
सोये
हुऐ से
नजर 
आते हैं

चलो

इस तरह
ही सही

उनकी 
रात हो
रही होती है

हम 
उठ कर
घूमने

चले
जाते हैं

भूख

और 
रोटी

एक

पुरानी 
सी बात 
लगती है

कुछ

नया 
करते हैं

चलो

चाँद पर

घूम कर

चले

आते हैं ।

----------------



(अपनी 

फेसबुक
दीवार से

मित्र के साथ

बातों बातोंं
 
मे एक बात)

इसे संपादित करें या हटाएँ

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

बस समय चलता है अब इशारों में एक माहिर के सूईंया छुपाने से

किसलिये
डरता है
उसके
आईना
दिखाने से 

चेहरा
छुपा के
रखता है
वो
अपना
जमाने से 

कुछ
पूछते ही
पूछ लेना
उस से
उसी समय 

तहजीब
कहाँ गयी
तेरी

पूछने
चला है
हुकमरानो से 

ना देखना
घर में लगी
आग को

बुझाना भी नहीं 

दिखाना
आशियाँ
उसका जलता हुआ 

चूकना नहीं
तालियाँ
भी
बजाने से 

हिलती रहें
हवा में
आधी कटी
डालें
पेड़ पर ही 

सीखना
कत्ल करना

मगर बचना

लाशें
ठिकाने लगाने से 

नकाब
सबके
उतार देने का
दावा है
नकाबपोष का

शहर में
बाँटता है
चेहरे

खरीदे हुऐ
नकाबों के
कारखाने से

घड़ी
दीवार पर टंगी है

उसी
तरह से
टिकटिकाती हुयी

बस
समय चलता है
अब
इशारों में ‘उलूक’ 

एक
माहिर के
सूईंया
छुपाने से। 

चित्र साभार: https://www.fotolia.com

सोमवार, 16 सितंबर 2019

अपनी गाय अपना गोबर अपने कंडे खुद ही ढोकर जला कुछ आग बना कुछ राख




कुछ
हंसते हंसते 

कुछ
रो धो कर 

अपना घर 
अपनी दीवार 

रहने दे
सर मत मार 

अपनी गाय 

अपनी गाय
का 
अपना गोबर

गोबर के कंडे 
खुद ही बनाये गये 
अपने ही हाथों से 
हाथ साफ धोकर

अपना 

ही घर 
अपने ही 
घर की दीवार

कंडे ही कंडे

अपना सूरज 
अपनी ही धूप 
अपने कंडे
कुरकुरे
खुद रहे सूख 

अपने कंडे

अपनी आग 
अपना जलना
अपनी फाग 
अपने राग
अपने साग 

आग पर लिख ना
साग पर लिख ना 
राग बे राग पर लिख ना 

जल से दूर
कहीं 
पर जाकर
कुछ कुछ जल जाने 
पर लिख ना 

अपना अपना 
होना खाक 
थोड़ा पानी
थोड़ी राख 

अपनी किताब
अपने पन्ने
अपनी अपनी
कुछ बकवास 

अपना उल्लू
अपनी सीध

बेवकूफ 
‘उलूक’

थोड़ा सा 
कुछ 
अब 
तो सीख 

अपनी गाय 
अपना गोबर 
अपने कंडे
अपनी दीवार
अपनी आग 
अपनी राख 
अपने अपने
राग बे राग 
अपने कंडे
खुद ही थाप 
रोज सुखा
जला कुछ आग। 

वैधानिक चेतावनी: 
कृपया इस बकवास को ब्लॉगिंग यानि चिट्ठाकारी से ना जोड़ें

चित्र साभार: https://timesofindia.indiatimes.com

रविवार, 15 सितंबर 2019

काम है रोजगार है बेरोजगार मौज के लिये बेरोजगार है ना जाने कब बेवकूफों के समझ में आयेगा



कितने पन्ने 
और 
कब तलक 

आखिर कोई 

रद्दी में 
बेचने 
के 
लिये जायेगा

लिखते लिखते 
कुछ भी 
कहीं भी 

कभी 
किसी दिन 
कुछ तो 
सिखायेगा

शायद 
किसी दिन 
यूँ ही 
कभी कुछ 

ऐसा भी 
लिख 
लिया जायेगा

याद 
भी रहेगा 
क्या लिखा है 

और 
पूछने पर 
फिर से 

कह भी 
दिया जायेगा

रोज के 
तोड़ने 
मरोड़ने 
फिर 
जोड़ देने से 

कोई 
कुछ तो 
निजात पायेगा

घबराये 
से 
परेशान 
शब्दों को 

थोड़ी सी 
राहत ही सही 

कुछ 
दे पायेगा 

जिस 
दिन से 
छोड़ देगा 

देखना 
टूटते घर को 

और 
सुनना 

खण्डहर 
की 
खामोशियों को 

देखना 
उस दिन से 

एक 
खूबसूरत 
लिखा लिखाया 
चाँद 

घूँघट 
के 
नीचे से 
निखर 
कर आयेगा

अच्छा 
नहीं होता है 

खुद ही 
कर लेना 
फैसले 

लिखने लिखाने के 

रोज के 
देखे सुने 
पर 

कुछ नहीं 
लिखने वाले की 

नहीं लिखी 
किताबों 
को ही बस 

हर 
दुकान में 
बेचने 
का फरमान 

‘उलूक’ 
पढ़े लिखों का 
कोई खास 
अनपढ़ ही 

तेरे घर का 
ले कर के 
सामने से 
निकल 
के 
आयेगा।
चित्र साभार: https://myhrpartnerinc.com/

शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

कुछ भी लिख और सोच ले इसी लिखे से शेयर बाजार चढ़ रहा है




ना तो
तू शेर है

ना ही
हाथी है 

फिर
किस लिये
इच्छा
करता है

दहाड़ने की
और
चिंघाड़ने की 

तेरी मर्जी
कैसे
चल सकती है

हिम्मत है
तुझे

फर्जी होने की 

जंगल में होना
और
शिकार करना 

नंगे होना
साथ में
तीर तलवार
होना

कोई
पाषाण युग

थोड़े ना
चल रहा है 

दर्जी है
खुद ही
खुदगर्जी
सिल रहा है

ऊल जलूल
लिखने से
अलग
नहीं
हो जाती है
लेखनी

बहुत से हैं
जानते हैं
पहचानते हैं

चिढ़
के मारे
जान बूझ कर

फजूल
लिख रहा है 

अलग
रह कर

आदमी
अलग नहीं
हो जाता है 

इच्छायें
तो
भीड़ की
जैसी ही हैं

बस
हिम्मत की
कमी है

किस लिये
ठंडा ठंडा
कूल
दिख रहा है 

सीख
क्यों
नहीं लेता है

वायदा कर लेना

फायदा
बहुत है

पैसे
वसूल
हो जाते हैं

दिखाई
देना चाहिये

हर
फटे कोने से
एक उसूल
दिख रहा है

रायता
फैल जाता है

फैलाना
जरूरी है

यही
एक कायदा
होता है
आज के समय में

‘उलूक’

गाँधी
बहुत पहले
बेच दिया गया था

जमाना
विवेकानंद
के
शेयरों पर

आज
नजर रख रहा है

एक
वही है
 जो
सबसे ज्यादा
प्रचलन में है

और
नारों में

खूबसूरत
नजारों में

नाचता
सामने सामने
दिख रहा है ।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com


मंगलवार, 10 सितंबर 2019

नींद खराब करने को गहरी जागते रहो जागते रहो का जाग लिखता है




कहने में 
क्या है 

कहता है 

कि 
लिखता है 

बस
आग 
और आग 
लिखता है 

दिखने में 
दिखता है 

थोड़ा 
कुछ धुआँ 
लिखता है 

थोड़ी कुछ 
राख लिखता है

आग 
लिखने से 
उठता है धुआँ 

बच 
जाती है 
कुछ राख 

फिर भी 
नहीं 
कहते हैं 
लोग 

कि 
खाक 
लिखता है 

सोच 
नापाक 
होती है 

पता ही 
नहीं
चलता है 

लिखता है 

तो सब 

पाक
और 
पाक लिखता है 

शेरो शायरी 
गीत और गजल 

सब कुछ 
एक साथ 

एक पन्ने
पर 
लिख देने के 

ख्वाब 
लिखता है 

जब 
मन में 
आता है 

लिखने 
बैठ
जाता है 

कोई 
नहीं
कहता है 

दाल भात

और 
साग
लिखता है 

‘उलूक’
को 
पता होता है

अंधेरी 
रात में 

खुद
के डर 
मिटाने को 

जागते रहो 
जागते रहो 

का
जाग 
लिखता है ।

चित्र साभार: 


सोमवार, 9 सितंबर 2019

गंदा लिख भी गया अगर माना साबुन लगा कर क्या धो नहीं सकता है

लिखी
लिखायी
बकवास को

लिखने के
बाद ही सही

थोड़ा सा
नीरमा लेकर
क्या
धो नहीं सकता है

लिखे को
धोने में
परेशानी है अगर

सोच को ही
धो लेने का
कोई इन्तजाम

क्या
लिखने से पहले
हो नहीं सकता है

दिखता है

देखने
वाले के
देखने से

थोड़ा सा
कुछ लिखने
की कोशिश में

असली बात
इस तरह से
हमेशा ही कोई
खो नहीं सकता है

सालों
लिखते
हो गये
थोड़ा सच
और
थोड़ा झूठ

अब
यहाँ तक
पहुँच कर

एक
पूरा सच
और
एक
पूरा झूठ

सामने
रख दे
सीधे सीधे
हँसते हँसाते

थोड़ी
देर के लिये
झूठा ही सही

क्या
रो नहीं सकता है

‘उलूक’
सीखता
क्यों नहीं कुछ

कभी
पढ़कर भी कुछ

कुछ भी
लिखता
लिखाता
सही गलत
ही सही

होने
का क्या है
ठान ले
अगर कोई

क्या कुछ
हो नहीं सकता है।

 चित्र साभार: https://www.teepublic.com

रविवार, 8 सितंबर 2019

नेहरू के भूत ने ही पक्का प्रज्ञान को चाँद पर गिराया है



भारत एक खोज

एक
बेवकूफ था

पता नहीं
क्या खोज पाया

क्या खोया
क्या पाया

चन्द्रयान
से भेजा गया
एक पार्सल

जरूर वही होगा

उसी
ने होगा
गिराया

परिपक्व
हो चुके हैं हम
समझते हैं
समझ होनी
जरूरी है

आस पास
बहुत कुछ
होता है
बताना
किसलिये
जरूरी है

मदारी
ने ध्यान
भटकाया है

उसी
भारत
एक खोज
वाले के
भूत ने
प्रज्ञान को
लुढ़काया है

रोना
छाती पीटना
गले लगाना
पीठ थपथपाना
भी स्वाभाविक था
समझ में आया है

चन्द्रयान
मंगलयान
फिर कभी
उड़ लेगा

मदारी
को मौका
फिर फिर
मिलेगा

जमूरे
गजब हैं
पता नहीं है
उनके चरण
किधर हैंं

तीव्र इच्छा है
चूमने हैं छूने हैं

ऐसा समय
भारत
का आयेगा
सपने में
कभी भी
नहीं आया है 

‘उलूक’
किसी
मंदिर में जा
पण्डित से
जॉप करवा

कुल्हाड़ी पर
पैर मारने
का आदेश
किसने दिया है
और
क्यों कर के आया है

‘ब्लॉग सेतू’
रैंक ने
नाराज
हो कर
फिर से
ऊपर की
ओर हो
मुँह
चिढ़ाया है ?

चित्र साभार: https://pixabay.com/

शनिवार, 7 सितंबर 2019

सब का अलग व्यवहार है पर कोई बहुत समझदार है रेत में लिखने के फायदे समझाता है


भाटे के
 इन्तजार में
कई पहर
शांत
बैठ जाता है

पानी
उतरता है

तुरन्त
रेत पर
सब कुछ
बहुत साफ
लिख ले जाता है

फिर
ज्वार को
उकसाने के लिये

चाँद को
पूरी चाँदनी के साथ
आने के लिये
गुहार लगाता है

बोझ सारा
मन का
रेत में फैला हुआ

पानी चढ़ते ही

जैसे
उसमें घुल कर
अनन्त में फैल जाता है

ना कागज ही
परेशान किया जाता है

ना कलम को
बाध्य किया जाता है

किसे
पढ़नी होती हैं
रेत में लिखी इबारतें

बस
कुछ देर में
लिखने से लेकर
मिटने तक का सफर

यूँ ही
मंजिल पा के जैसे
सुकून के साथ
जलमग्न हो जाता है

ना किताबें
सम्भालने का झंझट

ना पन्ने
पलटने का आलस

बासी पुरानी
कई साल की

बीत चुकी
उलझनों की
परतों पर पड़ी
धूल झाड़ने के लिये

रोज
पीछे लौटने
की
कसरतों से भी
बचा जाता है

‘उलूक’
रेत में दबी
कहानियों को

और
पानी में बह गयी
कविताओं को

ना बाँचने कोई आता है
ना टाँकने कोई आता है

कल का लिखा
आज नहीं रहता है

आज
फिर से
कुछ लिख देने के लिये

रास्ता भी
साफ हो जाता है

जब कहीं
कुछ नहीं बचता है

शून्य में ताकता
समझने की
कोशिश करता

एक समझदार

समझ में
नहीं आया

नहीं
कह पाता है।

चित्र साभार: https://www.bigstockphoto.com

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

प्रश्न अच्छे हों लिखते चले जायें सौ हो जायें किताब एक छपायें



रात की
एक बात

और
सुबह के
दो
जज्बात 


पता नहीं
कौन

कहाँ से

कौन सी
कौड़ी
ढूँढ कर
कब
ले आये 


बस
पन्ने पर
चिपका हुआ

कुछ
नजर आये 

नजर
छ: बटा छ:
हो

जरूरी नहीं

कौड़ी 

कौआ
या
कबूतर
हो जाये 

असम्भव
भी नहीं

उड़ ही जाये 

जो भी है

कुछ देर
ठहर लें 

गीले
जज्बातों को
 सुखाने
के लिये

और
सूखों के

कुछ
नमीं
पी जाने के लिये

बात का
क्या है
निकलती है 

दूर तलक
जाये या ना जाये

या

फिर
लौट कर

अपनी जगह
पर
आ जाये

नियम
की किताब

पर
बने सौ आने

कोई
भी बनाये

खुद भी पढ़े
ढेर सारी बटें

बरगद की
लटों की तरह
फैलती
चली जायें

सबके पास
अपनी अपनी
कम से कम
एक
हो जायें

फिर
चाहे
नाक की
सीध पर

बिना
इधर उधर देखे

सामने
की ओर
कहीं
निकल जाये

बीच बीच
में
जाँच लिया जाये

किताब
रखी है पास
में

या
घर तो
नहीं भूल आये 

बात
का क्या है
लिख लिया जाये

अपनी
किताब में
अपना
हिसाब हो जाये

जज्बात
अपने आप
निकलेंं

कलम
से
निकल
कागज
पर
फैल जायेंं

प्रश्न
सूझने जरूरी हैं
बूझने भी

कभी

मन करे

पूछ्ने

निकल कर
खुले मैदान में
आ जायें

‘उलूक’
के
लिखे लिखाये
में

बात कोई
जज्बात
जैसी
नजर आ जाये

और
उसपर
अगर

समझ
में भी
आ जाये

गलती
हो गयी होगी

मान कर
भूल जायें

प्रश्न चिन्ह
ना लगायें।

चित्र साभार: https://airjordanenligen2015.com